डॉक्टर राही मासूम रज़ा (1925-1992) अपने घर पर ही, बच्चों के शोर शराबे के बीच ही लिख पाते थे। संगीत बज रहा हो, बच्चे खेल रहे हों, सब जन आपस में बात भी कर रहे हों और खूब धूम धड़ाका हो घर में तो ये उनके लिखने के लिए सही माहौल होता था।
जब अपने मूल लेखन पर काम कर रहे हों तब तो कोई बात नहीं होती थी। पूरी तन्मयता से काम कर सकते थे लेकिन जब दो तीन फ़िल्मों की स्क्रिप्ट पर एक साथ काम कर रहे हों तो बेहद रोचक स्थिति बनती। तीनों फ़िल्मों की स्क्रिप्ट सामने रख लेते। एक पर काम करना शुरू किया। जब उसका काम पूरा हो गया तो वहां से दिमाग़ को स्विच ऑफ़ किया और वहीं बैठे बैठे दूसरी स्क्रिप्ट पर काम शुरू। फिर दूसरी से स्विच ऑफ़ और तीसरी पर काम शुरू।
उन्होंने कभी भी फिल्मी लेखन के लिए होटल के महंगे कमरों की मांग नहीं की। वे घर पर ही शोर शराबे के बीच लिख पाते थे। हां, उन्हें दिन में कम से कम पचास बार बिना चीनी और बिना दूध की काली चाय की दरकार होती।
नये लेखकों को प्रेरित करने का उनका तरीका अनूठा था। वे कहते कि अगर कोई लेखक अपने पहले के लिखे से आगे न बढ़ कर पहले भी खराब लिख रहा है तो उसकी पिटाई करनी चाहिये। अगर वह अपने पहले जैसे ही लिख कर बेहतर काम नहीं कर रहा है और अपने आपको दोहरा रहा है तो उसे लतियाया जाना चाहिये और अगर कोई लेखक लगातार बेहतर लिख कर अपने आपको संवार रहा है तो भी उसे कंधे पर तो नहीं ही बिठाया जाना चाहिये, हां उसके कंधे जरूर थपथपा देने चाहिये
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