रविवार, 12 अप्रैल 2015

विदा हो गयीं किताबें बेटियों की तरह


मित्र लोग किताबों की मेरी पोस्‍ट का इंतजार करते हैं।  दिसम्‍बर 2011 में मैंने अपनी पूरी लाइब्रेरी (लगभग 4000 किताबें) फेसबुक के जरिये उपहार में दे दी थीं। उस समय की एक पोस्‍ट आज फिर से साझा कर रहा हूं।

विदा हो गयीं किताबें बेटियों की तरह
आज का दिन मेरे लिए खास मायने रखता है। दूसरे शहरों में जाने वाली किताबों के पार्सल आज रवाना हो गये। स्थानीय बेटियां तो चौबीस और पच्चीस दिसम्बर को पहले ही विदा हो चुकी थीं। ये सोच कर बहुत सुख मिल रहा है कि हमारी सभी बेटियों को अच्छे, पढ़़े लिखे घर-बार मिल रहे हैं। कुछ साहित्यकारों के घर गयी हैं तो कुछ नवोदित लेखकों और ब्लागरों के घर। अलग-अलग स्कूलों में बच्चों के संग-साथ रहने के लिए सबसे ज्यादा किताबें गयी हैं। कुछ एनजीओ दूर दराज के इलाकों में गरीब, ज़रूरतमंद और पढ़ाकू बच्चों के लिए पुस्तकालय और वाचनालय चलाते हैं। वे इन किताबों का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं।
हमारी अपनी बेटियां नहीं हैं। यही सही। किताबों को बेटियों की तरह विदा करने का सुख तो पाया जा सकता है। हम बेहद खुश हैं। बेहद। मैंने हर किताब पर एक मोहर लगायी है कि उसे पढ़ने के बाद किसी और पुस्तक प्रेमी को दे दिया जाये। विश्वास कर रहा हूं जिनके घर में भी ये किताबें पहुंचेंगी, वे मेरी इस बात का मान रखेंगे और किताबों को नये पाठकों तक पहुंचाने के मिशन में सार्थक भूमिका निभायेंगे।
अभी भी हिंदी और अंग्रेजी की तीन-चार सौ किताबें हैं जो अपनी विदाई की तारीख की राह देख रही हैं। आने वाले दिनों में मैं लगातार यात्राओं पर रहूंगा। बाद में उनकी विदाई की तारीख तय पाऊंगा। यह भी बाद में तय हो पायेगा कि किस किताब को किसके घर जाना है।
आमीन
27 दिसम्‍बर 2011

1 टिप्पणी:

शशि शर्मा ने कहा…

वाक़ई किताबें बेटियों से कम नहीं हैं।रखे रहें तो लगता है हमारे बाद इनका क्या होगा ।पुस्तक प्रेमी अगर कोई ले भी जाए तो इनकी याद आती रहती है ।