शुक्रवार, 20 जून 2008

जयपुर में कहानी पाठ- कुछ नोट्स




पिछले दिनों जयपुर जाना हुआ. पहले तो मी‍टिंग की तारीख तय न हो पाने की वज़ह से जाना टलता रहा फिर बम धमाकों की वज़‍ह से जाना टला. मीटिंग तो अपनी जगह थी लेकिन मेरे ध्‍यान में जयपुर के वे सभी साहित्‍यकार और पत्रकार मित्र थे जो मेरे आने की खबर पा कर लगभग रोज़ाना ही पूछ लेते थे कि कब पहुंच रहा हूं. व्‍यक्तिगत मुलाकात सिर्फ तीन ही रचनाकारों से थी. प्रेम चंद गांधी से सात आठ बरस पहले मुंबई में आधे दिन के लिए मिला था और वे तभी से मेरे मित्र बन गये थे. फारुख आफरीदी और कृष्‍ण कल्पित से बाबरी मस्जिद हादसे से एक दिन पहले बाड़मेर में मुलाकात हुई थी और रंगकर्मी सत्‍य नारायण पुरोहित तो मुंबई में हमारे ही संस्‍थान में थे और मुंबई प्रवास के अपने अंतिम बरसों में कई खूबसूरत शामें हमने एक साथ गुज़ारी थीं. मेजर रतन जांगिड़ से कई बार फोन पर ही बात हुई थी. वे सबसे ज्‍यादा उत्‍साहित लग रहे थे.
मैं खुद इस विजि़ट को ले कर बेहद उत्‍साहित था कि इन सबसे तो मुलाकात तो होगी ही, कई नये दूसरे रचनाकारों से भी मुलाकात हो जायेगी. लवलीन से मिलना हमेशा सुख देता है बेशक स्‍वास्‍थ्‍य के चलते वे ही बातचीत में पूरी तरह शामिल नहीं हो पातीं और बाद में अफसोस करती रहती हैं कि कुछ अनकहा रह गया. मैं हैरान था कि जिस दिन मुझे जयपुर पहुंचना था, मेरे कहानी पाठ की खबर कई अखबारों में छपी हुई थी. और तो और युवा पत्रकार और ग़ज़लकार डॉ. दुष्‍यंत ने तो मेरे पहुंचने से पहले मेरी रचनाएं छाप कर शहर को मेरा परिचय दे दिया था. जनवादी पत्रकार संघ के कार्यालय में उस समय लाइट नहीं थी लेकिन सभी साहित्‍यकार और साहित्‍य प्रेमी इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार नज़र आ रहे थे कि आंगन में ही कुर्सियां डाल कर संवाद कर लेंगे. संयोग से बत्‍ती आ गयी और कायर्क्रम शुरू हुआ.
मेरे लिए पिछले कई बरसों में शायद ये पहला मौका था ज‍ब मैं श्रोताओं के सामने कहानी पाठ कर रहा था. मुंबई में हमने मराठी कथा कथन से कुछ नहीं सीखा और वहां हिन्‍दी कहानी पाठ आम तौर पर नहीं ही होते. कवि गोष्ठियां बेशक महीने मे साढ़े सात हो जाती हैं. मुंबई में अपने सत्‍ताइस बरस के प्रवास में मैंने शायद दो ही बार कहानी सुनायी है. पुणे में भी रहते हुए तीन बरस हो गये हैं, वहां भी इस तरह की कोई परम्‍परा नहीं है. बेशक मैंने अपने बैंकिंग महाविद्यालय में इस परम्‍परा की शुरुआत की है और हमारे यहां शेखर जोशी, गोविंद मिश्र, जगदम्‍बा प्रसाद दीक्षित, मनहर चौहान, ओमा शर्मा, सूर्य बाला, सुधा अरोड़ा, अल्‍पना मिश्र, वंदना राग आदि कहानी पाठ कर चुके हैं. शायद हमारा संस्‍थान ही अकेला ऐसा संस्‍थान है जहां कहानी पाठ के लिए सम्‍मानजनक राशि दी जाती है.
विषयांतर हो गया.

जयपुर के इस कहानी पाठ में तीस के करीब मित्र थे. वरिष्‍ठ रचनाकार नंद भारद्वाज की अध्‍यक्षता में हुई इस गोष्‍ठी में तय तो ये हुआ था कि मैं महानगर पर कुछ लघु कथाएं और एक कहानी सुनाऊंगा लेकिन कार्यक्रम देर से शुरू होने के बावजूद सबके अनुरोध मैंने अपनी विवादास्‍पद कहानी उर्फ़ चंदरकला भी सुनायी. मैं हैरान था कि मित्रों ने रचनापाठ का सुख तो उठाया ही, बाद में रवनाओं पर विस्‍तार से बात भी की. मैं इस बात से भी हैरान था कि बेशक में कई रचनाकारों से पहली बार मिल रहा था, ज्‍यादातर मित्रों ने मेरी कहानियां और अनूदित रचनाएं पढ़ रखी थीं. राजा राम भादू, रमेश खत्री, रंगकर्मी अशोक राही, और दूसरे सभी मित्र बहुत प्‍यार से‍ मिले.
ये कहानी पाठ मेरे लिए कई सुखद अनुभव ले कर आया. इतने सारे रचनाकारों से एक साथ मिलना, बात करना और स्‍थायी संबंध बनना किसी भी रचनाकार के लिए आजीवन न भूलने वाले अनुभव होते हैं. मैं जिस बैंक में बैठक के‍ सिलसिले में गया था, वहां के मेरे अधिकारी मित्र इस बात को ले कर हैरान थे कि पहली बार मिलने पर भी मुझे इतना प्‍यार और सम्‍मान मिल रहा है. मैंने उन्‍हें बताया कि रचनाकार के लिए कोई भी शहर पराया नहीं होता अगर वहां उसका एक भी रचनाकार दोस्‍त या पाठक रहता हो. तब सारा शहर उसका अपना हो जाता है. रमेश खत्री जी को लगा कि अभी मेरा कुछ और दोहन किया जा सकता है. अगले दिन उन्‍होंने न केवल रेडियो स्‍टेशन पर किताबों का सिकुड़ता संसार पर हमारी परिचर्चा आयोजित करा डाली, अपनी स्‍टेशन डाइरेक्‍टर मिसेज माथुर से और अन्‍य सहकर्मियों से सार्थक बातचीत का मौका भी दिया.
भाई फारुख अफरीदी के बारे में क्‍या कहूं. जब तक मेरे साथ रहे, और सबसे ज्‍यादा देर तक रहे, उनका डिजिटल कैमरा, उनका टेप रिकार्डर और उनके इंटरव्‍यू के सवाल लगातार चलते रहे.


मैं अक्‍सर कहा करता हूं कि बहुत बड़ा अफसर बनने की तुलना में छोटा सा लेखक होना हमेशा बेहतर होता है. एक तो लेखक कभी रिटायर नहीं होता और दूसरे, उसके नाम के आगे कभी स्‍वर्गीय नहीं लगता. जयपुर जैसी विजिट के बाद इस बा‍त को आगे बढ़ाते हुए ये भी कहा जा सकता है कि वह कभी भी किसी भी शहर में अकेला नहीं होता. एक दोस्‍त काफी होता है पूरे शहर से उसका परिचय कराने के लिए.