राज्य का नाम नहीं लूंगा। वहां की राजधानी में राज्य स्तरीय साहित्य परिषद टाइप की एक संस्था में किसी काम से गया। वहां बरामदे में चार आदमी बड़ी बेरहमी से किताबों के ढेर के ढेर फाड़ने में लगे हुए थे। मैं हैरान हुआ। दो चार किताबें उठा कर देखीं। कुछ तो संस्था द्वारा ही छापी गयी थीं और कुछ संस्था को ही भेंट की गयी थीं या पुरस्कार आदि के लिए जमा करायी गयी थीं। पूछा उनसे कि क्यों फाड़ रहे हो तो वे बोले कि हम रद्दी खरीदने वाले लोग हैं। किताबें फाड़ने के बाद ही वे रद्दी कहलाती हैं। तो मैंने पूछा कि आप किताबें भी तो खरीद सकते हो। वे मासूमियत से बोले कि हमारा टेंडर रद्दी के लिए होता है। किताबों के लिए नहीं।
मैंने भीतर जा कर प्रशासन अधिकारी से जितने भी सवाल पूछे, सबके जवाब ये थे - जिन लेखकों की किताबें छापने के लिए हम आर्थिक सहयोग देते हैं, उनकी कुछ प्रतियां हमें रखनी होती हैं। कई बार हम ही लेखक की किताबें छापते भी हैं। लेखक कई बार अपनी प्रतियां याद दिलाने के बाद भी नहीं ले जाते। इसके अलावा लोग अपनी किताबें भेजते रहते हैं। कहां तक रखें उनको और क्यों और कैसे रिकार्ड रखें उनका। स्कूल कालेज वाले फ्री में भी लेते नहीं। उन तक पहुंचाये कौन। सदस्य भी फ्री में भी ले जाने को तैयार नहीं। हार कर हमने पुरानी किताबें खरीदने वालों को ये स्टॉक बेचना शुरू किया तो वे बेशक तौल कर ले जाते थे लेकिन अपनी पूंजी को रोते थे। कहते थे पूरे साल में एक किताब भी नहीं बिकती। हर बरस का ही रोना है साहब। हर बरस कमरा भर जाता है ऐसी किताबों से। रद्दी में निकालनी ही पड़ती हैं। वैसे आप चाहें तो अपने लिए दस बीस किताबें चुन सकते हैं।
ये सुनते ही मैंने बाहर जाने का रास्ता पूछने में ही खैरियत समझी।
यही सोचा कि चलो इस धरती से कुछ तो खराब किताबें कम हो रही हैं। बेशक अगले बरस इतनी और जुड़ जायेंगी।
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