इस बार का किस्सा मेरे बेटे अभिजित की जुबानी
मैं तब नाइंथ में था। सेंट्रल स्कूल आइआइटी, पवई में पढ़ता था। उन दिनों पापा ऐन फ्रैंक की डायरी का अनुवाद कर रहे थे। जब तक अनुवाद पूरा न हो जाये, मुझे किताब को हाथ को लगाने की अनुमति नहीं थी। आखिर अनुवाद पूरा हुआ और किताब मुझे मिली। मैंने किताब स्कूल बैग में डाली और स्कूल बस में ही पढ़ना शुरू कर दिया। अब किताब में इतना मन रमा कि छोड़ने को दिल ही न करे। स्कूल पहुंच कर भी डेस्क के भीतर किताब खोल कर बीच बीच में पढ़ता रहा।
तीसरे पीरियड तक आते आते ये हालत हो गयी कि किताब खोल कर सिर झुका कर लगातार पढ़ने लगा। पता ही नहीं चला कि कब इंगलिश की टीचर मिसेज भसीन आयीं और पढ़ाना शुरू कर दिया। अपन राम तो ऐन फ्रैंक में मस्त। मिसेज भसीन ने देखा कि मेरा ध्यान क्लास में नहीं है। एटैंडेंस में मैंने यस मैम भी नहीं बोला था। उन्होंने दो तीन बार मेरा नाम पुकारा लेकिन सुनायी किसे देना था। पूरी क्लास में सन्नाटा। मिसेज भसीन मेरे सिर पर आ कर खड़ी हो गयीं और बोली - क्या पढ़ रहे हो अभिजित?
मैडम को सिर पर खड़ा देख कर मेरे तो हाथ पैर फूल गये। मैडम बहुत कड़क थी। तय था आज जम के पिटाई होगी। मुंह से मैं.. मैं .. ही निकल पाया। मैडम ने मेरे हाथ से किताब ली और टाइटल देख कर पूछा – कहां से लाये?
- पापा की लाइब्रेरी से, सॉरी मैडम, अब आगे से..।
- जब पढ़ लो तो मुझे देना। मैंने नहीं पढ़ी है। कह कर मैडम ब्लैक बोर्ड की तरफ बढ़ गयीं।
आप समझ सकते हैं कि मैंने कितनी राहत की सांस ली होगी। एक अच्छी किताब ने पूरी क्लास के सामने मेरी दुर्गत होने से बचा लिया था।
अगले रविवार एक और रोचक किस्सा किताबों का।
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