महान दार्शनिक ज्यां पॉल सार्त्र 1905-1980 की लिखने की बड़ी विचित्र शैली थी। औरों की तरह वे भी हाथ से लिखते थे लेकिन जब लिखते लिखते थक जाते तो पैरों से लिखना शुरू कर देते। इसके लिये उन्होंने एक विशेष प्रकार की आराम कुर्सी बनवा रखी थी। कुर्सी के पायदान पर चिकनी लकड़ी का एक तख्ता लगा था। इस तख्ते में कागज अटका दिया जाता। वे आराम से इस कुर्सी पर अधलेटे से दाहिने पैर की उँगलियों में पेंसिल पकड़े पकड़े लिखते रहते थे।
1964 में ज्यां पॉल सार्त्र ने पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि एक लेखक को खुद को संस्थान नहीं बनने देना चाहिए। उन्होंने गंभीर लेखन के अलावा कई फिल्में भी लिखी थीं।
अपने अंतिम दिनों में वे देखने की शक्ति खो चुके थे और 1980 में फेफड़े में ट्यूमर के कारण उनकी मृत्यु हुई थी।
सिमोन द बुआ ( जनवरी 1908 – अप्रैल 1986) बेशक काम शुरू करने की हड़बड़ी में रहतीं लेकिन आम तौर पर दिन के काम की शुरुआत करने में उन्हें तकलीफ ही होती। पहले वे चाय का एक प्याला लेतीं। अगर लिखने का ठीक ठाक मूड बन गया तो वे आधा पौना घंटा निकाल कर ये देख लेतीं कि पिछले दिन क्या लिखा था और जहां जरूरी हो, काट छांट करतीं। वहीं से आगे लिखना शुरू करतीं। और तब दस बजे के आसपास काम शुरू करतीं और एक बजे तक लिखने का काम चलता।
उसके बाद का उनका वक्त मित्रों से मिलने का रहता और फिर पाँच बजे लिखना शुरू करके रात के नौ बजे तक लिखतीं। सुबह के वक्त लिखे गये का सिरा शाम को पकड़ने में उन्हें कोई तकलीफ न होती।
जब वे लिख नहीं रही होती थीं तो अख़बार वगैरह पढ़ती या शॉपिंग करने निकल जातीं। आम तौर पर लिखना उन्हें आनंद ही देता।
वे बेशक अपने आपको दार्शनिक नहीं मानती थीं लेकिन उनके लेखन में उपन्यास, निबंध, जीवनियों, आत्मकथा, राजनैतिक लेखन और स्त्री विमर्श आदि पर विपुल लेखन है। 1949 में दुनिया भर की औरतों के पक्ष में लिखी गयी उनकी किताब द सेकेंड सेक्स एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।
ज्यां पॉल सार्त्र और सिमोन बिना विवाह किये आजीवन एक साथ रहे और एक ही जगह दफनाये भी गये।
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