मैंने इन्हीं पन्नों पर लिखा था कि सबसे ज्यादा किताबें वही पढ़ी जाती हैं जो चुरा कर लायी गयी होती हैं। जब किताब देखते ही उसे चुरा लेने का दिल करे तो शायद उस स्थिति की तुलना किसी और स्थिति से नहीं की जा सकती। मैं साहित्य की चोरी को बहुत बुरा मानता हूं लेकिन किताबों की चोरी की खबरें मुझे रोमांचित करती हैं। मैं खुद कभी भी एक भी किताब नहीं चुरा पाया लेकिन मुझे पता है कि मेरे घर से कौन सी किताबों पर किन किन मित्रों ने हाथ साफ किये हैं। आज किताबों की चोरी की ही बात करते हैं।
कथाकार मनोज रूपड़ा जितने बड़े कथाकार हैं उससे बड़े कलाकार भी हैं। आज उनके पुस्तक चौर्य के तीन किस्से।
किस्सा एक : जनाब मनोज जी कथाकार मित्र मनीषा कुलश्रेष्ठ के साथ दिल्ली में एक बड़े प्रकाशक के यहां किताबें खरीदने गये। मनीषा ने किताबें देखीं, पसंद की, खरीदीं और बिल अदा करके एक बैग में डलवा लीं। मनोज ने एक मोटी सी, महत्वपूर्ण और महंगी किताब उठायी और मनीषा के बैग में ही डाल दी। दोनों बाहर आये। मनीषा को आज तक नहीं पता कि कब वह किताब उसके बैग में डाली गयी और बाहर आने पर निकाल भी ली गयी।
किस्सा एक : जनाब मनोज जी कथाकार मित्र मनीषा कुलश्रेष्ठ के साथ दिल्ली में एक बड़े प्रकाशक के यहां किताबें खरीदने गये। मनीषा ने किताबें देखीं, पसंद की, खरीदीं और बिल अदा करके एक बैग में डलवा लीं। मनोज ने एक मोटी सी, महत्वपूर्ण और महंगी किताब उठायी और मनीषा के बैग में ही डाल दी। दोनों बाहर आये। मनीषा को आज तक नहीं पता कि कब वह किताब उसके बैग में डाली गयी और बाहर आने पर निकाल भी ली गयी।
किस्सा दो: मनोज जी नागपुर में लोकमत समाचार के ऑफिस में गये। वहां साहित्य संपादक प्रकाश चंद्रायन की मेज पर विक्रम सेठ के उपन्यास एन ईक्वल म्यूजिक के अनुवाद सम सा संगीत की प्रति देख कर उनकी आंखें चमक उठीं। जब वे बाहर आये तो किताब उनके साथ चली आयी। बाद में प्रकाश जी ने भरे मन से उनसे कहा कि जो किताब आफिस से बाहर जाती है, उसका रिकार्ड रखना होता है। अब तुम किताब तो वापिस करोगे नहीं, हमारे लिए उसकी समीक्षा ही कर दो।
मनोज ने लोकमत समाचार से चुरायी गयी किताब की समीक्षा उसी अख़बार के लिए की और उसका मानदेय भी पाया।
मनोज ने लोकमत समाचार से चुरायी गयी किताब की समीक्षा उसी अख़बार के लिए की और उसका मानदेय भी पाया।
किस्सा तीन: एक थे भाटिया साहब। किताबों की दुकान चलाते थे। मनोज वहां से एक किताब खरीदते और तीन किताबें चुरा लाते। लेकिन वह एक अच्छा काम ये करते थे कि किताब पढ़ने के बाद चुपके से वहां रख भी आते।
एक दिन भाटिया साहब ने मनोज को बुलाया और कहा- मुझे पता है कि तुम किताबें ले भी जाते हो और वापिस भी रख जाते हो। मैं बुरा नहीं मानता क्योंकि तुम्हारी नीयत साफ है। अब तुम ठहरे हलवाई। जब किताबें वापिस रखते हो तो उन पर हल्दी और तेल के दाग लगे होते हैं और वे बेचने लायक नहीं रहतीं। या तो तुम किताबों पर कवर चढ़ा कर पढ़ा करो या फिर भट्टी पर बैठ कर किताबें मत पढ़ा करो।
एक दिन भाटिया साहब ने मनोज को बुलाया और कहा- मुझे पता है कि तुम किताबें ले भी जाते हो और वापिस भी रख जाते हो। मैं बुरा नहीं मानता क्योंकि तुम्हारी नीयत साफ है। अब तुम ठहरे हलवाई। जब किताबें वापिस रखते हो तो उन पर हल्दी और तेल के दाग लगे होते हैं और वे बेचने लायक नहीं रहतीं। या तो तुम किताबों पर कवर चढ़ा कर पढ़ा करो या फिर भट्टी पर बैठ कर किताबें मत पढ़ा करो।
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