कुछ बरस पहले मुंबई में एक साहित्यिक आयोजन चल रहा था। कई वरिष्ठ रचनाकार बाहर से आये थे। उस वक्त निर्मल वर्मा जी वक्ता के रूप में अपनी बात कह रहे थे। पिछले दिन के सत्रों की खबर तस्वीरों सहित अखबारों में छपी थीं। रमेश चंद्र शाह आदि मंच पर थे।
तभी सफारी सूट पहने एक सज्जन भीतर आये। वे मझौले लेवल के कारोबारी आदमी लग रहे थे। मंच की तरफ देखा तक नहीं कि कौन हैं वहां। आस पास का जायजा लिया और बाहर खड़े अपने ड्राइवर को इशारा किया। दो मिनट में ही उनका ड्राइवर किताबों के दो बंडल लिये अंदर आ गया। अब जनाब एक-एक आदमी के पास जा कर उसका नाम पूछ कर किताबें भेंट करने लगे। प्रिय भाई अलां को सप्रेम भेंट और फलां को सप्रेम भेंट। मेरे पास भी आये, नाम पूछा, आंखें मिलाने या अपना नाम बताने की ज़रूरत नहीं समझी और एक सप्रेम भेंट टिका गये। किताब देखी - उनकी पीएचडी की थीसिस थी। कविता में रस और रस में कविता टाइप कुछ नाम था।
शाम को डिनर का प्रोग्राम था इसलिए मैं कपड़े बदल कर जब पांच बजे के करीब घर से वापिस आया तो वही सज्जन अपनी थीसिस के अगले बंडल निपटा रहे थे। भला रोज़ रोज़ थोड़े ही मिलते हैं इतने सारे गुण ग्राहक एक साथ। अख़बार में खबर देख कर बीवी ने साफ साफ कह दिया होगा कि जाओ सारी किताबें आज ही निपटा कर आओ। वरना.... ये वरना ही उन्हें अपना धंधा छुड़वा कर ये नेक काम करवा रहा होगा।
अभी मैं बैठा ही था कि एक बार फिर मेरे पास आ कर मेरा नाम पूछने लगे। मैंने बताया - सुल्तान अहमद। एक और सप्रेम भेंट - सुल्तान अहमद के नाम।
दोनों प्रतियां मेरी कार में कई दिन तक रखी रहीं। एक दिन हिन्दी भाषी मेकैनिक कार में कब से रखी इस किताब के पन्ने पलट के देख रहा था, तो तुरंत उसे थमा दी। वापिस न लेने की शर्त पर।
अब इस पूरे प्रसंग में उन पीएचडी भाई साहब, मेरा या मेकैनिक का क्या कसूर। एक सही किताब एक गलत हाथ से दूसरे गलत हाथ में जाती रही और अपने दुर्भाग्य को कोसती रही।
अगले रविवार किताबों का एक और रोचक किस्सा।
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