मूलत: पेंटर और वास्तुशिल्पी ओरहान पामुक बताते हैं कि 23 बरस की उम्र में उनके दिमाग का कोई पेंच ढीला हो गया था कि वे लेखक बन बैठे। पता नहीं ऐसा क्यों हुआ लेकिन इसको ले कर उन्हें कोई अफसोस नहीं है। उनके भीतर का पेंटर जिंदा है और उनकी रचनाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है। उनके भीतर का कलाकार और कथाकार दोनों एक साथ अपनी भूमिका निभाते चलते हैं।
वे न लिख पाने के संकट से कभी नहीं जूझे। वे आगे की योजना बना कर चलते हैं। अगर कहीं अटकते भी हैं तो उस अध्याय को छोड़ कर अगले अध्याय पर काम करने लगते हैं। वे बेहद आशावादी लेखक हैं। वे कहते हैं कि अगर मुझे पता हो कि अगले दिन मुझे क्या लिखना है तो मैं उस रात पूरी तैयारी करता हूं और तब मेरे सामने का कोरा काग़ज़ मेरे लिए आज़ादी का पैगाम ले कर आता है। सृजनात्मकता की और जीवंत होने की आज़ादी।
वे कहते हैं कि लेखन हमेशा मुश्किल होता है लेकिन रचने के पीछे पुरस्कार छुपा होता है। आप वह रचते हैं जो किसी और ने नहीं रचा होता। यहां तक कि लिखी गयी छोटी सी बात भी आपको बेइंतहां खुशी से भर देती है। ये आपका आविष्कार होता है। यही आविष्कार खुशी का सबब बनता है। कई बार ये खुशी नहीं भी मिलती।
वे कहते हैं कि उपन्यास लिखना दूसरे की खिड़की से, दूसरों के नज़रिये से दुनिया को देखना होता है।
वे अभी भी पेन से लाइनों वाले काग़ज़ पर लिखते हैं। तय करके लिखते हैं और समय बरबाद नहीं करते। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें घर पर लिखना अजीब लगता है। उन्हें हमेशा एक दफ़्तर चाहिए, जो घर से अलग हो, जहां वे सिर्फ़ लिख सकें। वे घर में लिखने की मजबूरी से अलग ही ढंग से निपटते हैं। वे सुबह उठते हैं, नहाते-धोते हैं, नाश्ता करते हैं, बाक़ायदा फॉर्मल सूट पहनते हैं और पत्नी से यह कहकर घर से निकल पड़ते हैं कि मैं ऑफिस जा रहा हूं। पंद्रह-बीस मिनट सड़क पर टहलने के बाद वे घर लौट आते हैं, अपने कमरे में घुसते हैं और उसे अपना ऑफिस मान लिखने लग जाते हैं।
2006 में नोबेल पुरस्कार पाने वाले ओरहन पामुक तुर्की के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक हैं।
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