रविवार, 12 अप्रैल 2015

The second sex - उस तरह की किताब




बात 1989 की है। तब मैं अहमदाबाद पहुंचा था। मेरे ऑफिस से 200 कदम की दूरी पर ही गुजरात विद्यापीठ थी। विद्यापीठ का पुस्‍तकालय बहुत अच्‍छा था। मैंने पहला काम ये किया कि वहां की लाइब्रेरी की सदस्‍यता ली ताकि पढ़ने के लिए अच्‍छी किताबें मिलती रह सकें। इसके अलावा शनिवार की दोपहर हम सब लिखने पढ़ने वाले वहीं पर अड्डेबाजी किया करते थे।
तब तक प्रभा खेतान ने सिमोन द’ बुआ की the second sex का स्‍त्री उपेक्षिता के नाम से अनुवाद नहीं किया था। मैं the second sex को कैटेलॉग में तलाशता रहा, किताब न लेखिका के नाम से मिली और न ही किताब के नाम से ही, तो मैं  काउंटर पर आया। काउंटर क्‍लर्क ने कागज पर किताब का नाम देखते ही मेरी तरफ अजीब सी निगाहों से देखा और गुजराती में बुदबुदाया – इस किस्‍म की किताबों की एंट्री जनरल कैटेलॉग में नहीं होती। मेरा सवाल था- तो कहां होती हैं एंट्री और मुझे कैसे मिलेगी?
उसने मुझे सहायक लाइब्रेरियन के पास भेज दिया।
सहायक लाइब्रेरियन ने भी किताब का नाम देखते ही भाषण पिलाना शुरू कर दिया - आपको तो पता ही है ये विद्यापीठ महात्‍मा गांधी का संस्‍थान है। हम यहां सिर्फ चरित्र निर्माण वाली किताबें ही रखते हैं। मेरा सिर पीटने का मन हुआ, फिर भी मैंने धैर्य से कहा – ये किताब ऐसी वैसी नहीं है। यह महिलाओं की बेहतरी के बारे में बेहतरीन किताब है। क्‍या लाइब्रेरी में है ये किताब? वह अपनी रागिनी बजाता रहा- दरअसल इस तरह की किताबें खरीदने के लिए एक खास कमेटी बनती है और पूरी छानबीन के बाद ही इस तरह की किताबें खरीदी जाती हैं और उन्‍हें एक अलग कमरे में रखा जाता है।  आखिर हम चरित्र निर्माण...।
अब तक मेरा माथा सटक चुका था। मैंने उस महाशय से कहा कि एक मिनट के लिए अपना सिंहासन छोड़ कर मेरे साथ चलें। उन्‍होंने पूछा कि कहां जाना है। मैंने उनसे कहा कि आप आयें तो सही, कुछ दिखाना है। वे बेमन से मेरे साथ चले। मैं उन्‍हें कॉमन टाइलेट्स और पेशाब घर तक लाया और उनसे कहा – अब आप अपनी आंखों से देखिये और बताइये, ये सारी अमृत वाणी और चित्रकारी किसकी देन है। आपका वह डंडे और मूंछों वाला वॉचमैच गैर सदस्‍यों तो को अंदर घुसने नहीं देता, तो राह चलता आदमी तो ये सब  लिखने आया नहीं होगा। या तो ये आपके स्‍टाफ का काम है या फिर उन सदस्‍यों का जिनके चरित्र निर्माण की चिंता में आप दुबले हुए जा रहे हैं। और उनके लिए दे सेकेंड सैक्‍स जैसी किताब भी बैन कर रखी है। यही है आपके चरित्र निर्माण के प्रयासों का नतीजा। बताइये ये सारा अश्‍लीलतम साहित्‍य यहां किसने रचा है।
पाठक, आप सच मानें, वहां दीवारों पर एक इंच की जगह भी खाली नहीं थी जहां सचित्र रास लीलाओं की झांकियां व्‍याख्‍या सहित न रची गयी हों।
वे चुप थे। इतने बरसों की नौकरी में वे पहली बार लाइब्रेरी के पब्‍लिक टाइलेट्स में आये थे और देख कर हैरान थे।

अब मुझे दो बातें कहनी हैं। 1995 में अहमदाबाद से मेरे लौटने तक न तो मुझे द सेकेंड सैक्‍स वहां से पढ़ने के लिए मिल पायी थी और न ही तब तक उन टाइलेट्स में पुताई करवा कर उस साहित्‍य को हटाने छुपाने की कोई कोशिश ही की गयी थी।

कोई टिप्पणी नहीं: