रविवार, 12 अप्रैल 2015

बिना किताबों वाला घर



ये किस्‍सा एक प्रसिद्ध बांग्‍ला उपन्‍यासकार का है। उनकी बेटी बड़ी हुई तो कई अच्‍छे अच्‍छे रिश्‍ते आने लगे। ऐसा ही एक रिश्‍ता दूर कस्‍बे में बसे एक बहुत बड़े जमींदार के घर से आया। हमारे उपन्‍यासकार महोदय अपनी पत्‍नी के साथ घर-बार देखने ट्रेन से गये। स्‍टेशन पर शानदार बग्‍घी लेने आयी थी। आगे-पीछे चार घुड़सवार। जमींदार के महल में दोनों की बहुत खातिरदारी हुई। किसी किस्‍म की कोई कमी नहीं। शानौ-शौकत सब आला दरजे की। सैकड़ों बीघा खेत, नौकर चाकर, हाथी घोड़े और दुनिया भर के ऐशो-आराम का इंतज़ाम।
वापसी में दोनों को कीमती उपहारों से लाद दिया गया। ट्रेन चली तो उपन्‍यासकार की पत्‍नी बेहद खुश हो कर बोली – घर बैठे हमें कितना अच्‍छा वर और घर-बार मिल रहा है। हमारी बेटी के तो भाग खुल गये। बेटी राज करेगी हमारी।
उपन्‍यासकार महोदय तुनक कर बोले – राज तो तब करेगी जब हम इस घर में उसकी शादी करेंगे।
बीवी चौंकी - क्‍या मतलब? क्‍या कमी नज़र आयी आपको इस घर में। सब कुछ तो आला दरजे का था।
तब उपन्‍यासकार महोदय ने आराम से बताया – तुम दिन भर महल जैसे घर में रही। सब कुछ देखा-भाला। माना, वहां किसी भी चीज़ की कमी नहीं थी लेकिन भागवान, तुम्‍हीं बताओ, पूरे महल में तुम्‍हें एक भी किताब नज़र आयी?
तब उन्‍होंने ठंडी सांस भरते हुए कहा – हमारी बेटी सारी उम्र हज़ारों किताबों के बीच बड़ी हुई है। बिना किताबों वाले घर में तो एक दिन में पागल हो जायेगी।

ये किस्‍सा बलाई चंद मुखोपाध्‍याय ,(1899-1979) का है जो बनफूल के नाम से लिखते थे। वे उपन्‍यासकार , नाटककार कवि थे। उनके उपन्‍यासों पर कई फिल्‍में बनी हैं। भुवनसोम उनके उपन्‍यास पर ही बनी थी।

कोई टिप्पणी नहीं: