मंगलवार, 30 जून 2015

असंतुष्ट समाज की भावनात्मक शरणस्थली है फेसबुक - सूरज प्रकाश

संवाद/साइबर समाज शास्त्र


सरल, आत्मीय, भावुक, मिलनसार और गर्मजोशी से भरे। यूँ कहिये कि हम जितने अच्छे गुण किसी आदर्श लेखक में तलाशने की फ़िराक में रहते हैं, वरिष्ठ कथाकार सूरज प्रकाश सर में वो सब जरूरत से ज्यादा ही और छलकते हुए हैं। उनसे मिलने पर उनकी सरलता और सहजता हमें बरबस अपनत्व से भरे पुराने लेखकों की याद दिलाती है। वे हैं भी वरिष्ठ लेखक लेकिन उनकी रचना भूमि न केवल नई बल्कि एक तरह से भविष्य की सर जमीं है। जी, हाँ हाल के पिछले ढाई तीन बरसों में उन्होंने ज्यादातर कहानियां साइबर जगत की पृष्ठभूमि पर लिखी हैं, जो न केवल पाठकों के द्वारा हाथों हाथ ली गयी हैं बल्कि हिंदी के तमाम लेखकों ने भी उनसे प्रेरित होकर इधर का रुझान किया है।
सोशल मीडिया खासकर फेसबुक में उनकी कई कहानियों ने मसलन एक कमजोर लड़की की कहानी, कोलाज और लहरों की बांसुरी ने खूब धूम मचाई है। सोचने वाली बात है कि आखिर व्यवहारिक धरातल पर बेहद बेचैन घटनाक्रम वाले देश में रहते हुए सूरज प्रकाश जी ने आभासी साइबर जगत को अपनी रचना भूमि क्यों बनाया? वास्तविक सामाजिक हलचलों की बजाये उन्हें आभासी समाज ने अपनी कहानी कहने के लिए आकर्षित क्यों किया? इन्हीं तमाम सवालों को लेकर लोकमित्र ने उनके मुंबई स्थित निवास एच-१ रिद्धि गार्डन, गोरेगांव ईस्‍ट में उनसे खूब लंबी बातचीत की। पेश हैं इस बातचीत के कुछ महत्वपूर्ण अंश।  
लोकमित्र - सूरज प्रकाश जी आप शायद हिंदी के अकेले बड़े कथाकार हैं जिसकी हाल के एक -दो सालों में आयी ज्यादातर कहानियों का प्लाट साइबर जगत से है ..मैं जानना चाहता हूँ कि क्या साइबर जगत यानी संचार की यह आभासी दुनिया और उसके तमाम सुख दुःख, आपके लिए वास्तविक जगत जितने ही महत्वपूर्ण हैं या उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, आखिर हाल के सालों में आपने साइबर जगत के प्लाट ही क्यों चुने हैं?
सूरज प्रकाश - इसका जवाब हम थोड़ा पीछे से देंगे कि उत्तर भारत में या कहीं भी भारत में मध्य वर्ग के लिए, खासकर लड़कियों और महिलाओं के लिए पहली बार आज़ादी का पैगाम लेकर मोबाइल आया था। मोबाइल ने पहली बार एक ऐसी आज़ादी दी, कि आप अपने पसंद के किसी भी व्यक्ति से बात कर सकती हैं। वह भी घर बैठे हुए। उसके पहले लड़कियों के पास ऐसी आज़ादी नहीं थी कि वो किसी से भी बात कर सकें। यहाँ तक कि भाई के दोस्त  के साथ भी नहीं। उन्हें घर के बाहर अकेले जाने की इजाज़त नहीं थी। गोलगप्पे भी खाने हों तो किसी पुरुष सदस्य के साथ जाना ज़रूरी था। चाहे फिर वह 8 साल का छोटा भाई ही क्यों न हो।
         मोबाइल ने पहली बार महिला को यह आज़ादी दी कि वह बिना किसी की इजाज़त लिए किसी से बात कर सकती थी। वह भी इसके लिए घर के बाहर जाने का जोखिम लिए बिना भी। लेकिन मोबाइल की अपनी सीमाएं थीं। आप इससे एक समय में किसी एक व्यक्ति से ही बात कर सकते थे। जो आम तौर पर पहले से जानकार होता था। अजनबी से भी बात करने की संभावनाएं तो थीं मगर पकड़े जाने के जोखिम भी थे। कुछ और संकट भी थे मसलन रिचार्ज वगैरह। फिर भी मोबाइल संचार माध्यमों में से पहला वह माध्यम था जिसके जरिये घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली भारतीय महिला घर के बाहर की दुनिया से जुड़ी।
       लेकिन जब फेसबुक आया तो अचानक यह आज़ादी बहुत बड़ी हो गयी। इसके जरिये आप पूरी दुनिया से जुड़ सकते थे। साथ ही यह भी खुद ही तय कर सकते थे कि अपनी पहचान छुपा कर जुड़ें या पहचान बताकर। फेसबुक में आप अपनी बात कह सकते हैं, सुन सकते हैं, राय रख सकते हैं, राय मांग सकते हैं, साझा कर सकते हैं, दखल दे सकते हैं। लब्बोलुआब यह कि फेसबुक ने अभिव्यक्ति की एक समूची वैकल्पिक दुनिया दी। मुझे एक तो बड़े पैमाने पर हुए इस सामाजिक बदलाव से जुड़ना जरूरी लगा और दूसरी बात जो मैंने पिछले दिनों एक गोष्ठी में कही थी कि हमें अपने समय के साथ चलना होगा। अगर हम अपने वक़्त के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तो हमारा लेखन हमारे वक़्त को प्रतिबिम्बित नहीं करेगा।
          हिंदी में अधिकांश लेखन ऐसा ही है जो अपने वक़्त को प्रतिबिम्बित नहीं कर रहा। जबकि जीवन के दूसरे क्षेत्रों में यह प्रतिबिम्‍ब दिख रहा है। पत्रकारिता में, फिल्मों में इस आधुनिक संचार की, तकनीक की मौजूदगी दिखती है। क्योंकि शायद वहां इसकी जरूरत का दबाव है। लेकिन हिंदी साहित्य में अभी दूर दूर तक यह नहीं है। तीन साल पहले मैं जब रिटायर हुआ तो मेरे सामने फेसबुक की अनंत विस्तार वाली दुनिया खुली। मैंने देखा फेसबुक एक बड़ा दायरा है। लोग वही हैं, जो हम सब सामान्य लोग हैं। लेकिन यहाँ हमने अपने आपको पेश करने के तरीके बदले हैं। मेरे व्यक्तिगत परिचय में आखिर कितने लोग होंगे? दो सौ, तीन सौ हद से हद चार सौ। लेकिन फेसबुक की दुनिया के चलते मैं अनंत लोगों से जुड़ा हूँ। फेसबुक में मुझे दो चीजें बेहतर लगीं। पहली ये कि लोग कुछ कहना चाहते हैं। जो अभी तक वो किसी और से नहीं कह पा रहे थे। अगर आप किसी अंजान आदमी का भी उपयुक्त कंधा पाते हैं तो यहाँ अपनी बात कह डालते हैं। आपको डर नहीं लगता। यह इस माध्यम की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक आजादी है।
    दूसरी महत्वपूर्ण बात इस माध्यम की है रिकग्नीशन। आपको लगता है कि आपकी बात सुनी गयी जो घर में नहीं सुनी जा रही थी या जिनसे आपको अपेक्षा थी, वो लोग नहीं सुन रहे थे। ये दो चीजें हैं जो फेसबुक को बहुत लोकतांत्रिक और सर्वप्रिय बनाती हैं। ये बहुत बड़ी दुनिया है। लोगों को लगता है यहाँ अपनी बात कह देना जोखिम से रहित है। इसलिए लोग यहाँ अपनी बात शेयर करते हैं। मैंने एक बात और देखी है। फेसबुक में मौजूद ज्यादातर लोग असंतुष्ट हैं। ज्यादातर अपने जीवन से सुखी नहीं हैं। इसके कई कारण हैं। जिसमें बेमेल विवाह हैं। पति नहीं सुनता। पत्नी नहीं सुनती। उम्र का फर्क है। पत्नी की इच्छाएं बल्कि कहना चाहिए एक्‍सप्रेशन पति को माफिक नहीं आती और पति पत्नी को इस लायक नहीं समझता कि वह सब उससे शेयर कर तो वह बाहर अपने लिए एक दुनिया तलाशता है। हम सब जानते हैं कि हमारे जीवन में कुछ खाने खाली होते हैं। जहाँ भी माकूल मौका मिलता है, हम अपने इन खानों को भरने की कोशिश करते हैं।
  फेसबुक ऐसे तमाम लोगों के लिए शरणस्थली बनकर आया है। यहाँ वो अपनी बात कह भी रहे हैं, शेयर भी कर रहे हैं और सुन भी रहे हैं। जब मैं ऐसे लोगों के संपर्क में आया तो मुझे लगा कि अगर मैं किसी की बात सुनने के लिए कान देता हूँ तो मुझे बहुत सी कहानियां मिल सकती हैं और मुझे मिलीं। हाँ, मैं इसके लिए एक अच्छा श्रोता बना। पूरे मन से लोगों को सुना और पूरी जिम्मेदारी, ईमानदारी व संवेदना से सुनी हुई कहानी में कल्पना के रंग भरकर लोगों की उन कहानियों को लिखा। फेसबुक ने एक तो मुझे ये चीज दी। दूसरी बड़ी चीज मुझे फेसबुक ने बहुत सारे मित्र दिए। बहुत सारे पाठक दिए। बहुत ज्‍यादा पाठक नहीं थे। फेसबुक एक बड़ा पाठक जगत है। अभी एक पखवाड़े पहले मेरी कहानी लहरों की बांसुरी लमही पत्रिका में छपी। अब तक मैगजीन के जरिये मेरे पास कोई 20 प्रतिक्रियाएं ही आयी होंगी जबकि फेसबुक से पहले एक दो दिन में ही 100 से ज्यादा प्रतिक्रियाएं आ गयी हैं। इसलिए क्योंकि फेसबुक में बहुत बड़ा पाठक जगत है।
कुल जमा बात यह है कि अगर मैंने अपनी कहानियों के लिए इस दुनिया को चुना है तो इसके पीछे मेरी यह भी सोच थी कि ये क्षेत्र नया है। गैर पारंपरिक और तकनीकी है जिसकी मुझे समझ है। मैं कंप्यूटर पढाता रहा हूँ। एक और बात है मुझे मालूम है कि यह यानी जीवन में तकनीकी वर्चस्व आकर रहेगा। जब तक इससे बड़ा कोई दूसरा माध्यम नहीं आ जाता, अपने सारे गुणों अवगुणों के साथ तब तक यह नहीं जाने वाला। हमारे जीवन में यह रहने वाला है मैंने सोचा हमें इसका फायदा उठाना चाहिए। यह सब सोचते हुए मुझे महसूस हुआ कि मैं इस क्षेत्र में कंट्रीब्‍यूट कर सकता हूँ। 
लोकमित्र-सोशल मीडिया के बारे में आपकी इतनी विस्तृत अवधारणा सुनने के बाद मैं ठोस रूप में जानना चाहता हूँ कि आप फेसबुक को क्या मानते हैं?
सूरज प्रकाश –मैं फेसबुक को मोर्निंग वाक वाला एक बहुत बड़ा मैदान मानता हूँ जिसमें लोग घूम रहे हैं। यहाँ कुछ लोग एक बार नज़र आते हैं। कुछ लोग दो बार नज़र आते हैं। कुछ लोग बार बार नज़र आते हैं। जिनसे आप तंग भी हो जाते हैं कुछ लोगों से आपकी हाय हेलो होती है। कुछ लोगों से आप रुककर हालचाल भी पूछ लेते हैं। कुछ लोगों को आप गुलाब का फूल भी दे देते हैं। कुछ लोगों के साथ रुककर आप चाय भी पी लेते हैं। लेकिन है यह सैर का बागान ही जहाँ आप सुबह टहल रहे हैं। साथ ही अपने लिए उपयुक्त साथी भी तलाश रहे हैं। मिल भी रहे हैं। लोग आपस में जुड़ भी रहे हैं। कहने का मतलब यह कि फेसबुक भले वर्चुअल है, लेकिन वहां हैं तो हमीं लोग न। बल्कि फेसबुक में तो हम लोग ज्यादा खुलकर अपनी बात कह-सुन लेते हैं। रीयल में तो एक संकोच भी होता है।
लोकमित्र – क्या फेसबुक की अपनी कोई लैंगिक खासियत भी आपको नज़र आती है जिसे खास तौर पर या अलग से चिन्हित किया जा सके ?
सूरज प्रकाश – फेसबुक में आम तौर पर पति पत्नियों की शिकायत नहीं करते। पत्नियां करती हैं। मैं उनकी बात बहुत धैर्य से सुनता हूँ। उन्हें सही रास्ता दिखाने की कोशिश करता हूँ। एक तरह से उनकी काउंसलिंग करता हूँ। मैं ये देखकर हैरान रहता हूँ कि लोग अपनी बात करने और कहने के लिए कैसे कैसे तरीके ढूंढते हैं? छिपकर बातें करते हैं। मैं एक ऐसी महिला को भी जानता हूँ जो फेसबुक में तीन नामों से सक्रिय है। तीनों मुझसे मुखातिब होती है। अपने दो नामों के बारे में तो उसने मुझे खुद ही बता रखा है। तीसरे के बारे में मैं जान गया हूँ। लेकिन मुझे कभी इससे आपत्ति नहीं रही। मुझे लगता है अपने आपको एक्सप्रेस करना चाहती है तो कोई बात नहीं। कहीं वह कविता के जरिये ऐसा कर रही है कहीं कहानी के जरिये। कहीं किसी और रूप में कुल मिलाकर देखा जाये तो वह खुद को व्यक्त करने के लिए ही बेचैन है। दरअसल फेसबुक एक ऐसा माध्यम है, जहाँ आपको इंस्टेंट रिएक्शन मिलता है। अच्छा है या बुरा। मगर रिजल्ट आपको चटपट मिलता है। इन सारी बातों के चलते ही मैं इसकी तरफ आकर्षित हुआ। मुझे लगा हाँ, मेरे लिए यह उपयुक्त माध्यम है। मैं यहाँ अपनी बात बेहतर ढंग से कह पाऊंगा।
लोकमित्र – फेसबुक की पृष्ठभूमि वाली आपकी ज्यादातर कहानियों की मुख्य किरदार महिलाएं है। हर कहानी एक तरह से देखा जाये तो नायिका प्रधान है। इसका कारण क्या है?
सूरज प्रकाश -मुझे लगता है मैं महिला मनोविज्ञान को बेहतर ढंग से समझ पाता हूँ। सिर्फ फेसबुक की कहानियों में ही नहीं मेरी वैसी भी कहानियों में आम तौर पर मुख्य किरदार महिला का ही है। मेरी ज्यादातर कहानियां किसी महिला के इर्द गिर्द ही बुनी गयी हैं। मेरा यह भी मानना है कि किसी महिला के पास ही बहुत कुछ कहने के लिए भी है, कुछ देने के लिए भी है, समाज को बेहतर बनाने के लिए भी है। बस उसे मौका मिलना चाहिए। मुझे लगता है, उसे यह मौका मिलना ही चाहिए। महिला के अन्दर अपनी बात कहने के लिए बेचैनी है। एक सकारात्मक बेचैनी। उसके पास यूज़ ऑफ़ एनर्जी भी है। वह ऊर्जा को सही तरीके से चैनलाइज कर सकती है। दखल दे सकती है। मैं इसीलिए महिला को ज्यादा आदर  की नज़र से देखता हूँ। मुझे लगता है एक महिला ही होती है, जिससे आप अपने मन की बात कह भी सकते हैं और उसकी बात सुन भी सकते हैं। जो तमाम बातें दो पुरुष आपस में नहीं कर सकते। ईगो है। दूसरे क्राइसेस भी हैं। ऐसे में मेरे लिए यही उपाय बचता है कि मैं महिलाओं से बातें करूँ। मैं उन्हें इसके लिए तैयार भी कर लेता हूँ। इसीलिए मेरी ज्‍यादातर कहानियों में मुख्य किरदार महिलाओं का है।
लोकमित्र - मैं समझता हूँ संचार क्रांति और सूचना क्रांति के तमाम दावों के बावजूद अभी भी भारत जैसे देश में एक बहुत छोटा सा तबका ही है जिसने फेसबुक या सोशल नेट वर्किंग की दुनिया में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। मेरी उत्सुकता या जिज्ञासा आपसे यह जानने की है कि इस बेहद सीमित दुनिया तक पहुंचकर आप कैसे यह मान लेते हैं कि आप अपने दौर से रूबरू हैं? जबकि साहित्य के बारे में यह समझा जाता है की यह अपने युग के शोषितों, वंचितों का हमदर्द मंच होता है? भारत में इन वंचितों की बहुत बड़ी तादाद है। दुनिया के समूचे निरक्षरों में तकरीबन 35% भारत में रहते हैं। दुनिया के तमाम गरीब लोगों में से लगभग आधे भारत में हैं। क्या आप फेसबुक या सोशल मीडिया के जरिये इन तक पहुँच पाते हैं? और अगर नहीं तो क्यों न माना जाए कि आप एक बड़े और असली हिन्दुस्तान को जानते ही नहीं?  
सूरज प्रकाश – देखिये पहली बात तो यह कि आपने इस लंबे चौड़े सवाल में जो मूलतः दो सवाल फोकस किये हैं, मैं आपके इन दोनों ही सवालों से सहमत नहीं हूँ ..! पहले मैं साहित्यिक मंच वाले सवाल पर आता हूँ। मेरी बात आप एक उदाहरण से समझिये। दैनिक जागरण अखबार के अपने एक करोड़ पाठक हैं जैसा कि वह दावा करता है। लेकिन हिंदी की कोई आम साहित्यिक किताब की 300 प्रतियाँ छपती हैं। कविता की तो महज 100 प्रतियाँ ही छपती हैं। हमारे पास हिंदी साहित्य का पाठक ही नहीं है। हिंदी का पाठक हमसे रूठा हुआ है या समझिये रूठ गया है। इसकी बहुत सारी वजहें हैं। मगर सच्चाई यही है कि हिंदी साहित्य में पाठक है ही नहीं। बाकी दूसरी भाषाओं में पाठक हैं। मराठी में हैं, गुजराती में हैं, बांग्ला में हैं, मलयालम में हैं। मगर हिंदी में नहीं हैं। इसके बहुत सारे कारण हैं। हिंदी पाठक तक किताबें पहुँचती ही नहीं या पहुंचने ही नहीं दी जातीं। 
दूसरी बात मैं स्पष्ट कर दूँ कि अगर आपको लगता है कि साहित्य सबके लिए है तो यह कभी भी सबके लिए नहीं होता और न ही कभी था। ठीक है एक दौर में लोगों ने बाबू देवकीनंदन खत्री जैसों को पढने के लिए हिंदी सीखी थी। लेकिन तब एकमात्र साहित्य ही था और कुछ भी नहीं था। जबकि इस समय हमारे पास तमाम विकल्प हैं। सबसे बड़ा विकल्प है मोबाइल। यह हमारे पांच सौ काम करता है बल्कि उससे भी ज्यादा करता है तो ऐसे में मैं कहूँगा कि साहित्य तो पहले भी हाशिये में था। लेकिन सुखद हैरानी होगी की मोबाइल के जरिये भी, नेट के जरिये भी, सोशल मीडिया के जरिये भी साहित्य को जगह दी जा रही है। साहित्य को इन नए साधनों से विस्तार मिल रहा है। इनमें ऑडियो भी है। इनमें ई-बुक्‍स भी है। एक बात और समझ लीजिये हमेशा लोगों की चॉइस रही है। ठीक है कि हमारे यहाँ शौचालय कम और मोबाइल ज्यादा हैं लेकिन ठीक है सबकी अपनी अपनी पसंद है। मैंने बहुत बड़े बड़े अफसरों को वीडियो गेम खेलते देखा है। जो अपनी एनर्जी का कहीं और बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे। लेकिन मैंने उन्हें वीडियो गेम खेलते देखा है। इसका मतलब है कि उनका राजनीति से, साहित्य से, सोशल कमिटमेंट से कोई वास्ता नहीं है। वो छोटे बच्चे हैं। उनके दिमाग में अभी भी वह बच्चा है जो वीडियो गेम खेल रहा है।
लेकिन मैंने देखा है कि फेसबुक ने, सोशल मीडिया ने बहुत सारे साहित्यकार तैयार किये हैं। अगर आप देखें तो फेसबुक में हर तीसरा आदमी कवि है। पढता भी है लिखता भी है और कहीं कमेंट भी करता है। इसका मतलब है कि एक्‍सप्रेशन है उसमें। जो पहले नहीं था। पहले मैं एक कहानी लिखता था। लिफाफा तैयार करता था। सम्पादक के पास भेजता था। दो महीने बाद जाकर सूचना मिलती थी कि कहानी छप रही है या नहीं छप रही। छह महीने बाद साल भर बाद कहानी छपती थी। मुझे याद है सारिका में मेरी एक कहानी 7 साल बाद छपी थी। कैन यू इमेजिन 7 साल बाद। जबकि मेरे दोस्त वहां हुआ करते थे। अब ये है कि आप लिखिए और दो मिनट में आप कहानी भी छाप लीजिये अपने आप। ठीक है फेसबुक में सम्पादन नहीं होता। लेकिन फेसबुक में, व्हाट्स अप में बहुत सारे साहित्यिक ग्रुप बने हैं, जहाँ हम चीजें शेयर करते हैं। तो कहने का मतलब यह कि एक मंच मिला है अगर हम इसका बेहतर इस्तेमाल करें तो हमें लगता है हम साहित्य के लिए जगह निकाल रहे हैं जो पहले नहीं थी।
लोकमित्र - आपकी सारी बात सही हैं। मेरे सवाल का तात्पर्य सिर्फ यह था कि सोशल मीडिया के दायरे में समाज का जो एक बहुत बड़ा तबका नहीं है, वह आपसे छूट रहा है क्योंकि आप यहीं सक्रिय हैं। मैं जानना चाहता हूँ उसके लिए भी कभी आपको कसक होती है?
सूरज प्रकाश - कहीं नहीं छूट रहा। साहित्य पहले भी हाशिये में था। साहित्य आज भी हाशिये में है।
लोकमित्र - आप कहना चाह रहे हैं कि साहित्य पहले भी उन तक नहीं पहुँच रहा था आज भी नहीं पहुँच रहा बस बात इतनी है?
सूरज प्रकाश – बात पहुँचने की नहीं है। बात प्रियोरटी की है। साहित्य पहले भी उनकी प्रियोरटी में नहीं था, आज भी नहीं है। मैं आपसे एक छोटी से बात कहता हूँ। आप दिल्ली में रहते हैं। किसी दिन संडे को अपने मोहल्ले में एक सर्वे कीजिए या किसी दूसरे मोहल्ले में। आप सौ घर जाइए और उन घरों के लोगों से पूछिए कि उनके घर में स्कूलों, कालेजों या पढाई लिखाई की किताबों के अलावा और कितनी किताबें हैं। मेरा दावा है आपको 10 घर भी ऐसे नहीं मिलेंगे कि जहां अकादमिक पढ़ाई लिखाई के अलावा कोई दूसरी किताबें भी मिलें। हम बच्चों को बीस हज़ार रुपये का मोबाइल तो खरीदकर दे देते हैं। हर महीने उसमें 200-400 रुपये का रिचार्ज भी करा देते हैं। पर कभी किताब नहीं देते। हिंदी भाषा भाषी के पास पढ़ने का संस्कार ही नहीं है। मुफ्त में भी पढ़ने का संस्कार नहीं है, पैसे से खरीदकर पढ़ने का तो है ही नहीं। किताबें उपहार में नहीं दी जातीं। पहले तो खरीदी ही नहीं जातीं। कोई खरीदकर भी दे दे तो पढ़ी नहीं जातीं। प्रकाशक का ये दोष है कि वह पाठक तक किताब पहुंचाने का कोई प्रयास नहीं करता। बल्कि कहना चाहिए पहुँचने भी नहीं देता।
            लेखक की यह समस्या है कि वह पाठक तक पहुंचे कैसे? ऐसे में यही बचता है कि आप फेसबुक के जरिये या सोशल मीडिया के जरिये ऐसे लोगों को ढूंढें। साहित्य के पाठक तैयार करें। दरअसल हमारे यहाँ पढने या जानने कि कोई जिज्ञासा ही नहीं है। अब तो एक बहाना यह हो गया है न पढ़ने के लिए कि सब कुछ तो इंटरनेट में मौजूद है। दरअसल आम हिंदी भाषा भाषी समाज ने कभी भी खुद को कलाओं से, साहित्य से, एक्सप्रेशन से नहीं जोड़ा है। आम आदमी ने तो बिलकुल भी नहीं जोड़ा है। आपको हैरानी होगी कि इस समाज में अभी भी कोई लड़की उपन्यास पढ़े तो उसे अय्याशी माना जाता है। उपन्यास पढ़ना लिखना तो बहुत दूर की बात है। कोई लड़की उपन्यास पढ़ती है तो उसके घर वाले ही हिकारत से कहेंगे सारा दिन नावेल पढ़ती रहती है। यानी उपन्यास पढना भी एक अच्छी बात नहीं मानी जाती। 
लोकमित्र - आखिर पढ़ने के मामले में हिंदी समाज इतना रुखा, इतना निरपेक्ष, इतना जड़ विहीन क्यों है ?
सूरज प्रकाश - दरअसल हुआ क्या हमारे यहाँ जितने भी विदेशी हमले हुए वो पंजाब की तरफ से हुए। ऐसे में हमारी प्रियारिटी सारी औरतों की इज्ज़त बचाने या लड़ने में या फिर उनको रसद पहुंचाने में लगी रही।
लोकमित्र - चलो पंजाब हरियाणा के लिए तो ये बात मान लेते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश तो पंजाब नहीं है। फिर वहाँ भी ऐसी ही जड़ता क्यों है? 
सूरज प्रकाश – नहीं लोक साहित्य में वहां थोड़ी सी सजगता है बाकी मुख्य धारा के साहित्य में वही उदासीनता है। हाँ, बिहार में है इस तरह की चेतना। पता नहीं नालंदा की धरती होने की वजह से है या किसी और वजह से।
लोकमित्र - कहने का मतलब आपने साइबर की दुनिया बहुत सोच समझकर चुनी है ?
सूरज प्रकाश - जी हाँ, मेरा मानना है कि इसके जरिये मैं ज्यादा लोगों तक पहुँच सकता हूँ।
लोकमित्र - साइबर जगत कमोबेश पूरी दुनिया के लिए एक जैसा है? तो क्यों न माना जाये साइबर साहित्य में पूरी दुनिया में एक समरूपता होगी?
सूरज प्रकाश - देखिये हम एक रिमोट युग में जी रहे हैं। ये बड़ा खतरनाक यंत्र है। जब हमारे पास एक चैनल हुआ करता था तब हम पूरा चैनल देखते थे। सुबह से शाम तक। जब रेडियो हुआ करता था तो हम रात का आखिरी गाना यानी राष्ट्र गीत तक सुना करते थे। लेकिन जैसे जैसे चॉइस आयी, चयन आया, हम चैनल बदलते हैं। ...और अक्सर ऐसा होता है कि सारे चैनल देखकर हम वापस आ जाते हैं और बंद कर देते हैं। हम  कहते हैं कि कुछ मन का दिखा ही नहीं है। फेसबुक में भी यही है कि हम तेजी से चैनल बदलते रहते हैं। अगर आप कुछ पोस्ट करें साहित्य में तो वह, वहां नहीं पढ़ा जाएगा लेकिन यदि आप लिंक दे दें कि इसके जरिये यहाँ पहुँचिये तो जो इच्छुक हैं वो पहुँचते हैं। लेकिन फेसबुक के भी तमाम संकट हैं जैसे यहाँ सब कुछ परोसा जा रहा है। मैंने क्या खाया। मैंने क्या पीया। मेरी टांग कैसे टूटी। कहने का मतलब ..सब कुछ। यह एक प्रकार की अति है और फेसबुक इस तरह की अति का शिकार है क्योंकि यह सर्वसुलभ है और मुफ्त है। जिस दिन पैसे लगने लगेंगे लोग बंद कर देंगे। लेकिन तमाम लोग सीरियस भी हैं।
मैं नहीं मानता कि साइबर जगत के साहित्य से कोई भू मंडलीय समरूपता आने वाली है क्योंकि सबके अपने निजी अनुभव हैं और वो अनुभव साइबर जगत के ही नहीं हैं उसके बाहर के हैं। लोगों का यानी लेखकों और रचनाकारों के साइबर जगत में भी अलग अलग विचार समूह हैं या कहें दोस्त समूह हैं। ठीक वैसे ही जैसे साइबर जगत की मौजूदगी के पहले थे। इसलिए मुझे नहीं लगता कि किसी रूसी, अमरीकी, केन्यन और हिन्दुस्तानी लेखक का लेखन एक जैसा हो जाएगा क्योंकि वो सब साइबर जगत में सक्रिय हैं। ये विविधता आज की ही तरह कल के कहीं ज्यादा सक्रिय साइबर समाज में भी बनी रहेगी। ये भी बात मानकर चलिए कि कई धाराएं हमेशा एक साथ चलती हैं। कई उम्र के पाठक एक ही समय में पढ़ रहे होते हैं तो कई उम्र के लेखक भी एक ही समय में सक्रिय होते हैं। एक ही समय में कई किस्म की विचारधाराएँ भी सक्रिय होती हैं। सब अपने अपने पसंद की चीजों को ढूंढ लेते हैं, छांट लेते हैं। कहने का मतलब यह कि यह विविधता बनी रहेगी। हाँ मैं यह जरूर कहूँगा साइबर जीवन में या साइबर संस्कृति में इंटरेक्‍शन काफी बढ़ा है। और मैं इसे बहुत पॉजिटिव मानता हूँ। इसके जरिये आपको ऐसे ऐसे सच मालूम होते हैं जिनकी आप कल्पना नहीं कर सकते। इससे आप बहुत अनुभव सम्‍पन्‍न होते हैं।
लोकमित्र - जैसे जीवन शैली के रोग पैदा हो गए हैं वैसे ही कई बार नहीं लगता कि साइबर जगत में अतिशय निकटता से भी कुछ रोग पैदा हो गए हैं जिनमें से ज्यादातर नकली हैं या कहें कि इस माध्यम की देन ज्यादा लगते हैं।
सूरज प्रकाश [मुस्कुराते हुए] हर बार सही भी नहीं, हर बार गलत भी नहीं। दोनों चीजें हैं। लेकिन आम तौर पर दुःख ज्यादा है और वह वास्तविक है। कोई सुनने वाला नहीं है। आप किसी पार्क चले जाइए वहां बहुत सारे बूढ़े चुपचाप बैठे मिल जायेंगे। ये जब भी बात करते हैं आप पायेंगे कि अपने दुखों की बात करते हैं। दरअसल उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन उन्हें कोई सुनने वाला नहीं है। फेसबुक आपको सुनने वाला देता है। आपको इससे बहुत बड़ी राहत मिलती है कि आपको कोई सुन रहा है। ठीक है लोग झूठ बोल रहे हैं लेकिन सारे लोग झूठ नहीं बोल रहे। सारे लोग सच भी नहीं बोल रहे। ये भी बात है इस इन्ट्रेक्शन से कुछ बिगड़न भी होगी। आभासी दुनिया में मिलने वाले मन के साथी से आप वास्तविक दुनिया में भी मिलते हैं। आप बेकाबू भी हो सकते हैं। आप धोखा भी दे सकते हैं। कई बार इससे क्राइम भी होता है।
लोकमित्र - क्या ऐसा वक़्त आएगा जब साइबर जगत भी अमर पात्र देगा जैसे प्रिंट के होरी और धनिया हैं?
सूरज प्रकाश - हम होरी और प्रेमचंद के युग को नहीं जी रहे। हाँ, साइबर जगत अपने युग के बड़े पात्र देगा। लेकिन जरूरी नहीं है कि उनकी तुलना अतीत के महान पात्रों से संभव ही हो सके। मेरी कहानी लहरों की बांसुरी एक टर्निंग पॉइंट हो सकती है। इसमें आज़ादी का एक बिगुल है। आज महिलाएं बहुत मुखर होकर अपनी बात कह रही हैं। ऐसे पात्र इसी दौर से ही निकल सकते हैं। संचार का यह निर्णायक युग है। स्त्री को इससे बहुत फायदा हो रहा है। वह निरंतर आजाद हो रही है। पुरुष उसे आज़ादी दे रहा है। बल्कि मैं कहूँगा उसे देनी पड़ रही है। भले वह अपनी बीवी को नहीं दे रहा पर किसी और की बीवी को दे रहा है। दरअसल यह खुली हवा में सांस लेने का मामला है। साइबर जगत के जरिये बड़े पैमाने में औरतों को खुली हवा में सांस लेने का मौका मिला है। यह पहला ऐसा मौका घर के भीतर रह रही औरत को मिला है कि चाहे तो वह पूरी दुनिया में शामिल हो जाए चाहे तो इसे बाय बाय कह दे। यह इस आभासी दुनिया की सबसे बड़ी वास्तविक ताकत है। मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि तमाम ओछेपन के बावजूद, तमाम शॉर्टकट के बावजूद, फेसबुक या सोशल मीडिया हमें बेहतर दुनिया की ओर ले जा रहा है। क्योंकि अज्ञानता से यहाँ आपका काम नहीं चल सकता। आपको अपडेट होना ही पड़ता है। सोशल मीडिया हमें अंधकार से बाहर निकाल रहा है। ..और महिलायें इस मुहिम की हिरावल हैं।
mail@surajprakash
09930991424

लोकमित्र गौतम lokmitragautam@gmail.com

शनिवार, 27 जून 2015

बाबा नागार्जुन – बाबा सा कोई नहीं


30 जून को बाबा का जन्‍मदिन पड़ता है। ये पोस्‍ट बाबा के लिए सादर।
दरभंगा, बिहार में जन्‍मे बाबा (मैथिली में यात्री) के नाम से प्रसिद्ध प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और कवि नागार्जुन (1911-1998) का मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। 1936 में आप श्रीलंका चले गए और वहीं बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की।
नागार्जुन अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में ही सच्‍चे जननायक और जनकवि हैं। रहन-सहन, वेष-भूषा में तो वे निराले और सहज थे ही, कविता लिखने और सस्‍वर गाने में भी वे एकदम सहज होते थे। वे मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि भाषाएं जानते थे और कई भाषाओं में कविता करते थे। वे सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने कवि हैं।
बाबा मैथिली-भाषा आंदोलन के लिए साइकिल के हैंडिल में अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर मिथिला के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में लगे रहे। वे मा‌र्क्सवाद से वह गहरे प्रभावित रहे, लेकिन मा‌र्क्सवाद के तमाम रूप और रंग देखकर वह निराश भी थे। उन्होंने जयप्रकाश नारायण का समर्थन जरूर किया, लेकिन जब जनता पार्टी विफल रही तो बाबा ने जेपी को भी नहीं छोड़ा।
नागार्जुन सच्‍चे जनवादी थे। कहते थे - जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने विशद लेखन कार्य किया। एक बार पटना में बसों की हडताल हुई तो हडतालियों के बीच पहुंच गये और तुरंत लिखे अपने गीत गा कर सबके अपने हो गये। हजारों हड़ताली कर्मचारी बाबा के साथ थिरक थिरक कर नाच गा रहे थे।
उन्‍होंने छः उपन्यास, एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली; (हिन्दी में भी अनूदित) कविता-संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य “धर्मलोक शतकम” तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों की रचना की। उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का संग्रह विशाखा कहीं उपलब्ध नहीं है।
नागार्जुन को मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्‍मानित किया गया था। वे साहित्य अकादमी के फेलो भी रहे।
वे आजीवन सही मायनों में यात्री, फक्‍कड़ और यायावर रहे। वे उत्‍तम कोटि के मेहमान होते थे। किसी के भी घर स्‍नेह भरे बुलावे पर पहुंच जाते और सबसे पहले घर की मालकिन और बच्‍चों से दोस्‍ती गांठते। अपना झोला रखते ही बाहर निकल जाते और मोहल्‍ले के सब लोगों से, धोबी, मोची, नाई से जनम जनम का रिश्‍ता कायम करके लौटते। गृहिणी अगर व्‍यस्‍त है तो रसोई भी संभाल लेते और रसदार व्‍यंजन बनाते और खाते-खिलाते। एक रोचक तथ्‍य है कि वे अपने पूरे जीवन में अपने घर में कम रहे और दोस्‍तों, चाहने वालों और उनके प्रति सखा भाव रखने वालों के घर ज्‍यादा रहे। वे शानो शौकत वाली जगहों पर बहुत असहज हो जाते थे। वे बच्‍चों की तरह रूठते भी थे और अपने स्‍वाभिमान के चलते अच्‍छों अच्‍छों की परवाह नहीं करते थे।
फक्कड़पन और घुमक्कड़ी प्रवृति नागार्जुन के साथी हैं। व्यंग्य की धार उनका अस्‍त्र है। रचना में वे किसी को नहीं बख्‍शते। वे एकाधिक बार जेल भी गये।
छायावादोत्तर काल के वे अकेले कवि हैं जिनकी रचनाएँ ग्रामीण चौपाल से लेकर विद्वानों की बैठक तक में समान रूप से आदर पाती हैं। नागार्जुन ने जहाँ कहीं अन्याय देखा, जन-विरोधी चरित्र की छ्द्मलीला देखी, उन सबका जमकर विरोध किया। बाबा ने नेहरू पर व्यंग्यात्मक शैली में कविता लिखी थी। ब्रिटेन की महारानी के भारत आगमन को नागार्जुन ने देश का अपमान समझा और तीखी कविता लिखी-  आओ रानी हम ढोएँगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की।
इमरजेंसी के दौर में बाबा ने इंदिरा गांधी को भी नहीं बख्‍शा और उन्‍हें बाघिन तक कहा लेकिन सुनने में आता है कि इंदिरा जी बाबा की कविताएं बहुत पसंद करती थीं।

अहमद फ़राज़ – रंजिश ही सही



अहमद फ़राज़ (1931 - 2008) फैज अहमद फैज के बाद उर्दू के सबसे बड़े और क्रांतिकारी शायर माने जाते हैं। अहमद फ़राज़  फैज साहब को ही अपना रोल मॉडल मानते थे। फ़राज़ की शायरी आम और खास दोनों के लिए है। वे पाकिस्‍तान और भारत दोनों ही देशों के मकबूल शायर हैं। उन्‍होंने उर्दू और फारसी का अध्‍ययन किया था और पेशावर युनिवर्सिटी में पढ़ाया भी। वे कहते हैं कि मैं भीतरी दबाव होने पर ही लिख पाता हूं।
फैज की तरह ही उन्‍होंने अपना बेहतरीन लेखन देश निकाला के समय ही किया। जिआ उल हक के शासन काल में पाकिस्‍तानी हुकूमत के खिलाफ लिखने के कारण वे जेल भेजे गये। उन्‍हें दो बार देश छोड़ के चले जाने का फरमान मिला। वे 6 बरस तक ब्रिटेन, केनडा और यूरोप में भटकते रहे।
दूसरी बार देश छोड़ने का किस्‍सा यूं है कि एक बार वे मंच से अपनी एक नज्‍़म पढ़ कर नीचे आये। ये नज्‍़म उस समय की तानाशाही के खिलाफ जाती थी। नीचे आते ही एक पुलिस अधिकारी ने उनसे बेहद विनम्रता से कहा कि आप मेरे साथ चलिये। पुलिस स्‍टेशन पहुंचने पर उस पुलिस अधिकारी ने कहा – फ़राज़ साहब, मुझे अपने सीनियर आफिसर्स की तरफ से ये हुक्‍म हुआ है कि मैं आपको दो विकल्‍प दूं। या तो आपको जेल जाना होगा या फिर शाम की सबसे पहली फ्लाइट से आपको ये मुल्‍क छोड़ना होगा। आपकी टिकट और वीजा मेरे पास हैं। फ़राज़ साहब को इतना भी वक्‍त नहीं दिया गया कि वे विकल्‍पों के बारे में सोच सकें या घर जा कर अपना बोरिया बिस्‍तर ही ला सकें। उन्‍होंने अपने मुल्‍क को विदा कहने में ही खैरियत समझी। उस समय पाकिस्‍तान में सैनिक शासन चल रहा था।
सरकार बदलने पर वे लौटे। तब पहले वे पाकिस्‍तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के अध्‍यक्ष बनाये गये और फिर पाकिस्‍तान बुक काउंसिल के अध्‍यक्ष बनाये गये।
जब फ़राज़ साहब को पाकिस्‍तान बुक काउंसिल का चेयरमैन बनाया गया तो वे पूरे जोशो खरोश के साथ चाहते रहे कि पाकिस्‍तान और भारत को किताबों के जरिये ही नजदीक लाया जा सकता है। उनकी निगाह में साझी कल्‍चर, वैश्विक भाईचारा, आपसी समझ और प्‍यार बढ़ाने में किताबों से बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता।
जिस समय वे पाकिस्‍तान बुक काउंसिल के चेयरमैन थे तो उस वक्‍त उन्‍होंने भारत से दो जहाज भर कर यहां के नामी लेखकों की किताबें मंगवायी थीं। अगर उन्‍हें थोड़ा और समय मिला होता तो उन्‍होंने भारत और पाकिस्‍तान के बीच संबंध बेहतर बनाने के लिए और ठोस काम किया होता। दस बीस जहाज किताबें इधर उधर होतीं।
एक बार वे अपने साथ किताबों के कुछ बंडल भारत लाये थे। किताबें देखते ही कस्‍टम काउंटर पर खड़े अधिकारी की निगाहों में सवालिया निशान नज़र आये। तभी उस अधिकारी के पीछे खड़े उसके वरिष्‍ठ अधिकारी ने फ़राज़ साहब को पहचानते हुए कहा – अरे जानते नहीं क्‍या, ये हमारे देश में भी उतने ही लोकप्रिय शायर हैं  जितने कि अपने देश पाकिस्‍तान में हैं। और वह अधिकारी खुद उन्‍हें बाहर तक छोड़ने आया।
उनकी किताबें हिंदी में भी उपलब्‍ध हैं। www.gadyakosh.org पर उनकी शायरी की झलक देखी जा सकती है।

राहुल सांकृत्यायन


महापंडित राहुल सांकृत्यायन (1893-1963) मूल नाम केदारनाथ पाण्डेय जैसा घुमक्‍कड़, बहु भाषाविद, लेखक, अनुवादक, वक्‍ता, भारतीय मनीषा का अग्रणी विचारक और साम्यवादी चिंतक आज तक नहीं हुआ।
आम तौर पर हम अपने दिमाग का लगभग 7 प्रतिशत इस्‍तेमाल करते हैं जबकि वे लगभग 12 प्रतिशत करते थे। जीवन के अंतिम दिनों में उनके स्‍मृति लोप होने का कारण ही यही रहा। वे अपना नाम भी  भूल गए थे।।
राहुल जी का विवाह 11 बरस की उम्र में कर दिया गया था। मां के मरने के बाद नाना के घर रह रहे थे। वहीं एक बार दो सेर घी से भरा घड़ा उनसे फूट गया तो मार से बचने के लिए घर से भागने का बहाना मिल गया। बचपन में पढ़े शेर - सैर कर दुनिया की गाफिल ने भी उन्‍हें घर से भागने के लिए प्रेरित किया। घर से भाग कर एक मठ में साधु हुए। चौदह वर्ष की उम्र में भाग कर कलकत्ता चले गये। फिर तो 50 बरस की उम्र तक घर ही नहीं लौटे। हमेशा घूमते ही रहे।
कलकत्‍ता में तंबाकू की दुकान में काम किया। साधु बने तो खाना बनाना नहीं आता था। भिक्षा मांग कर पेट भरते रहे। पैदल और बिना टिकट यात्राएं की। राहुल जी जहाँ भी वे गए वहाँ की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहाँ के लोगों में घुल मिल कर वहाँ की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। वे 36 भाषाएं जानते थे लेकिन अधिकांश साहित्‍य हिंदी में ही रचा। वे संस्‍कृत मे पत्र लिखते थे। वे अच्‍छे फोटोग्राफर थे।
1930 में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये। वहां वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। रूस गये तो 1937 में  रूस  के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान ऐलेना से दूसरी शादी कर ली। ये विवाह दो बरस चला। उससे हुए बेटे का नाम इगोर राहुलोविच रखा।
उनका यात्रा साहित्य और बौद्ध धर्म पर शोध तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में विपुल साहित्यिक योगदान है। वे दुर्लभ ग्रन्थों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों व नदियों के बीच भटके और उन ग्रन्थों को खच्चरों पर लादकर अपने देश में लाए। उन्होंने हर धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। उन्होंने तिब्बत, इंग्लैण्ड, यूरोप, चीन, श्रीलंका, रूस, जापान, कोरिया, मंचूरिया और ईरान की एकाधिक यात्राएं कीं। तिब्बत और चीन की यात्राओं में हजारों ग्रंथों का उद्धार किया और उनके सम्पादन और प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त किया। ये ग्रन्थ पटना संग्रहालय में हैं।
वे कहते थे - मेरी सीमाएं हैं। मैं अपना काम करता हूं। आने वाली पीढ़ियां मुझे दुरुस्‍त करेंगी। राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। वे जेल आते जाते रहे। जेल में कुरान का संस्‍कृत में अनुवाद शुरू किया।
उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है। राहुलजी ने कथा साहित्य, जीवनी, पर्यटन, इतिहास दर्शन, भाषा-ज्ञान, भाषाविज्ञान, व्याकरण, कोश-निर्माण, लोकसाहित्य, पुरातत्व आदि विषयों पर 150 ग्रंथ रचे। वे बाह्य यात्रा और अंतर्यात्रा के विरले प्रतीक हैं।
1950 में नैनीताल में घर बना कर रहने लगे। यहाँ पर उनका विवाह नेपाली महिला कमला हुआ। पटना में और उनके गांव पंदहा में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संस्थान और संग्रहालय बनाये गये हैं। उन्हें 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 1963 में पद्मभूषण प्रदान किया गया।
वे जागते समय पूरी जिंदगी खाली नहीं बैठे। या तो चल रहे होते या लिख पढ़ रहे होते।

लेखकों की दुनिया – किस्‍सा छियालिस - नारायण सुर्वे – कचरे के डिब्‍बे से पद्मश्री तक



15 अक्‍तूबर 1926 को मुंबई की गलियों में इंडिया वुलन मिल के कामगार गंगा राम सुर्वे नाम के मिल मजदूर को कचरे के डिब्‍बे में एक बच्‍चा मिला था। उसे घर लाया गया और नारायण सुर्वे नाम दिया गया।
नारायण भी फुटपाथों पर ही बढ़े हुए। जब 1936 में गंगा राम रिटायर हो कर गांव जाने लगे तो नारायण के हाथ में दस रुपये दे कर गये थे। इसी पूंजी से नारायण ने खुद को सँभाला। छोटे मोटे काम करके पेट भरते रहे। खुद पढ़ना लिखना सीखा। सिर्फ सातवीं तक पढ़े। ये परीक्षा बेटे श्रीरंग के साथ बैठ कर दी थी।
वे मिल मजदूर रहे, कुलीगिरी की, कैंटीन में काम किया। बाद में जिस स्‍कूल में चपरासी का काम करते थे, वहीं उनकी कविताएं पढ़ायी जाती थीं।
उन्‍होंने प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाया भी। एक बार तो उन्‍होंने क्‍लास में अपनी ही कविता पढ़ायी थी।
1962 में अपनी कविताओं का पहला संग्रह (ऐसा गा मी ब्रह्म) छपवाया। उनकी दूसरी किताब माझे विद्यापीठ 1966 में आयी। माझे विद्यापीठ पर उन्हें सोवियत लैंड नेहरू सम्‍मान सहित कुल ग्‍यारह सम्‍मान मिले।
नारायण मजदूरों के हक की लड़ाई आजीवन लड़ते रहे। कार्ल मार्क्‍स के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी। उनकी कविताएं महानगरों में गुज़र बसर कर रहे गरीब तबके के लोगों की, मजदूरों की ही भाषा में उनकी व्‍यथा कथा कहती हैं। वे सचमुच के जनकवि थे। हजारों लोग उनकी कविताएं सुनते और उनके साथ गाते थे। उनकी कविता मध्‍यम वर्ग से चल कर गरीब तबके तक आयी।
84 वर्ष की जिन्‍दगी में सुर्वेजी ने केवल 145 कविताएं लिखीं और इन 145 कविताओं के कारण वह महाकवि कहलाए। मानव मूल्‍यों और मानवता के प्रति उनकी अगाध आस्‍था थी।  
2003  में वे लोकवांग्‍मगृह के संपादक भी रहे। 1998 में उन्‍हें पद्मश्री दी गयी।
2003 में उन पर बनायी गयी मराठी लघु फिल्‍म नारायण गंगाराम सुर्वे  को राष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में स्‍वर्ण कमल सम्‍मान मिला था।
पारिवारिक और आर्थिक सुख हमेशा उनसे पाँच हाथ की दूरी बना कर रहे। एक बार एक महाविद्यालय में उन्‍हें कविता पाठ के लिए बुलाया गया। उन्‍हें एक खूबसूरत गुलदस्‍ता दिया गया। संयोजक जब उन्‍हें घर वापिस छोड़ने जा रहे थे तो पूछा उन्‍होंने - कितने का गुलदस्‍ता है और इसके पैसे किसने दिये हैं। सौ रुपये का गुलदस्‍ता था। वे बहुत उदास हो कर बोले थे - मुझे ही दे देते इतने पैसे। गुलदस्‍ता मेरे किस काम का। पत्‍नी के लिए एक साड़ी ही खरीद लेता।
नारायण सुर्वे साहित्‍य अकादमी के मराठी मंडल के संयोजक रहे। 1995 में परभणी में वे मराठी साहित्‍य सम्‍मेलन के अध्‍यक्ष भी रहे।
उन्‍हें मुख्‍य मंत्री कोटा से मकान दिये जाने की बात बरसों चलती रही लेकिन इसमें इतनी कागजी़ कार्यवाही थी कि बरसों तक फाइल मोटी होती गयी लेकिन मकान की चाबी सुर्वे के हाथ में नहीं आयी। जब मकान एलॉट हुआ तो उन्‍होंने खुद ही मना कर दिया- नहीं चाहिये अब। अपने पास रखो।
उन्‍होंने हिंदी से मराठी में कई रचनाओं का अनुवाद किया।
2010 में वे बीमारी की वजह से गुजरे।
उनका अंतिम कविता पाठ यहां सुना जा सकता है https://www.youtube.com/watch?v=IFUdu7_g1I4

सोमवार, 1 जून 2015

इस देश में अच्‍छे और भले कामों का नाम अपराध है - मेक्सिम गोर्की



·         अलेक्सेई पेश्कोव (1868 -1936) का बचपन इतना तकलीफ भरा रहा कि उन्‍होंने अपना नाम ही कड़वाहट (गोर्की)  रख लिया।
·         11 बरस की उम्र में यतीम हुए, 12 बरस की उम्र में घर से भागे और 5 बरस तक पैदल चलते हुए रूस की सड़कें नापते रहे। सोलह वर्ष की आयु में कजान आये।
·         यहाँ कई तरह के धंधे किये, बेकरी मजदूर का काम किया, होटलों में प्‍लेटें धोयीं, और बेहद कठोर जीवन जीया। वे झुग्गी-झोंपड़ी में, कंगालों और अनाथों के बीच रहे। गरीबी के कारण एक बार आत्‍महत्‍या करने की भी कोशिश की। गोर्की की सारी उम्र कष्‍टों में कटी।
·         मूलत: वे एक मोची के बेटे थे। बचपन में पिता को काम करते देखते तो सीखने की कोशिश करते। वहीं बैठ कर अक्षर ज्ञान करते।
·         मेरे विश्‍वविद्यालय बचपन की इन्‍हीं क्रूर स्‍थितियों का कच्‍चा चिट्ठा है।
·         छद्म नाम से पत्रकारिता भी की। वैसे गोर्की सिपाही बनना चाहते थे।
·         जहाज के एक बावर्ची स्मुरी ने गोर्की को पढ़ने का चस्‍का लगाया था। तब पुस्तकें पढ़ना अच्‍छी बात नहीं मानी जाती थी। 
·         गोर्की ये देख कर दुःखी होते थे कि लोग जेलखाने और पागलखाने खोलने के लिए पैसे देते हैं लेकिन बच्‍चों को पढ़ने के लिए नहीं।
·         1892 में एक अखबार में उनकी पहली कहानी छपी।
·         तीन आत्मकथात्मक उपन्यासों में गोर्की का स्वयं का व्यक्तित्व, तत्कालीन परिस्थितियाँ, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि आदि को जानने में मदद मिलती है। जब गोर्की लिख रहे थे तो निरंकुश ज़ार का शासन था।
·         गोर्की की रचनाओं ने एक नई साहित्यिक धारा का सूत्रपात किया जो क्रांतिकारी रोमांसवाद कहलायी।
·         लेनिन को गोर्की का उपन्यास माँ इतना पसंद था की उन्होंने गोर्की से कहा था की माँ जैसी कोई चीज़ लिखो और बाद के ये तीनों उपन्यास जैसे लेनिन की इच्छा पूर्ति ही थे।
·         1906 में वे टीबी हो जाने के कारण इटली के काप्री द्वीप पर रहने लगे और वहां इटली के सामान्‍य जन की कहानियां लिखीं।
·         गोर्की लेखन के अलावा सचमुच के क्रांतिकारी बने। जेल गये।
·         गोर्की की अप्रतिम रचना मां 1918 में प्रकाशित हुई थी और तुरंत ही सोवियत सत्ता ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। मां आज भी संसार में सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली पुस्तकों में से एक है।
·         प्रतिकूल राजनैतिक हालात और बिगड़ते स्‍वास्‍थ्‍य के चलते वे 1924 में वह इटली में जा बसे।
·         इटली में अपने दूसरे प्रवास के दिनों में ही गोर्की ने अपनी आत्मकथात्मक त्रयी बचपन” “जीवन की राहों परऔर मेरे विश्वविद्यालयपूरी की।
·         अपनी सचिव मौरा बुडबर्ग से ब्‍याह रचाया।
·         1928 में मक्सिम गोर्की स्वदेश लौट आए। अब स्‍थितियां बदल चुकी थीं। वे अब सरकारी मेहमान थे। उन्‍हें दी गयी सुविधाओं में उनके लिए ट्रेन की विशेष बोगी भी थी। रूस भर में जैसे उनका नाम दीवारों पर पोत दिया गया था।
·         कहा जाता है कि गोर्की का निधन 1936 को फेफड़ों की बीमारी से हुआ, लेकिन यह भी सुनने में आता रहा कि वे राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार हुए थे।

·         स्‍तालिन ने गोर्की की शव यात्रा में कंधा दिया था।