शनिवार, 30 मई 2015

कहानी ये जो देश है मेरा..

                              
मोबाइल बज रहा है। रुक-रुक कर। मेरी नींद खुली है। रीडिंग लाइट जला कर मोबाइल निकालती हूं। नाम देखती हूं। रश्मि है। इस समय, आधी रात को! समय देखती हूं - साढ़े तीन। मेरी बार-बार हैलो का कोई जवाब नहीं मिलता। पता नहीं क्‍या ज़रूरी बात करना चाह रही हो! खिड़की का परदा हटा कर बाहर देखती हूं। घना अंधेरा। दूर-दूर तक आबादी का कोई संकेत नहीं। ट्रेन धड़धड़ाती हुई अपनी गति से जैसे धरती का सीना चीरती चली जा रही है। बार-बार फोन मिला रही है रश्मि लेकिन सिग्‍नल कमज़ोर होने के कारण बात नहीं हो पा रही। परेशान होती हूं मैं। अपनी तरफ से मैं रश्मि का नम्‍बर मिलाती हूं लेकिन नहीं मिलता उसका नम्‍बर। पता तो है रश्मि को कि इस समय मैं ट्रेन में हूं। कल रात घर से निकलते समय ही तो उससे मेरी बात हुई थी। दिन में ही तो रश्मि, हरलीन, कुमुद, चेरी और पल्‍लवी के साथ खाना खाया था। शाम को भी सबसे बात हो गयी थी और सबको खबर थी कि मैं रात की दोरंतो से कम से कम 15 दिन के लिए पहले दिल्‍ली और वहां से दो दिन बाद देहरादून होते हुए चकराता जा रही हूं। वहां से जौनसार बाबर।
मैं मोबाइल को लाइट में ला कर देखती हूं। सिग्‍नल की एक ही लाइन नज़र आ रही है जो बीच-बीच में गायब हो जाती है। नींद उचट गयी है मेरी। अधलेटी हो कर रश्मि को एसएमएस करती हूं – सिग्‍नल वीक। सेंड एसएमएस। लेकिन ये संदेश भी नहीं जा रहा। चिंता हो रही है - पता नहीं क्‍या हो गया हो। वरना इस तरह आधी रात को फोन क्‍यों करती। कुछ तो अर्जेंट कहना, पूछना या बताना चाह रही होगी। कुछ भी हो, वापिस तो मैं वैसे भी नहीं जा सकती। एक तो दोरंतो ट्रेन। कोई स्‍टॉप नहीं। पता नहीं ट्रेन इस समय कहां से गुज़र रही है। अगला टेक्‍निकल स्‍टॉप किस स्‍टेशन का हो और कब आये कुछ अंदाजा नहीं है। हिसाब लगाती हूं - मुंबई से ट्रेन चले कम से कम सवा चार घंटे तो बीत ही चुके हैं। ट्रेन कहीं सूरत और बड़ौदा के बीच होगी। मोबाइल के सिग्‍नल किसी स्‍टेशन के नज़दीक आने पर ही ठीक होंगे और तय है तब तक मुझे जागना ही होगा। ट्रेन जिस स्‍पीड से जा रही है, किसी स्‍टेशन से या शहर के पास से गुज़रने में भी तो कुछ ही मिनट मिलेंगे। किसी स्‍टेशन से गुजरते हुए अपनी तरफ से उसका नम्‍बर ट्राई करते रहना होगा। शायद मिल जाये। अगर एक भी स्‍टेशन मिस कर गयी तो अगले स्‍टेशन तक फिर बात नहीं हो पायेगी।
कितनी अजीब फितरत है हमारी भी। अच्‍छी खबर भी हम तुरंत सुनना चाहते हैं और बुरी खबर जानने के लिए भी हम एक पल भी इंतज़ार नहीं कर सकते। जो भी खबर हो, अच्‍छी या बुरी, हम तुरंत जानना चाहते हैं। अच्‍छी खबर के लिए तो रश्मि आधी रात को न तो परेशान होगी, न ही करेगी।
सुबह साढ़े सात बजे रश्मि का एसएमएस मिला है - हरलीन कमिटेड सुसाइड। जम्‍प्‍स इन फ्रंट ऑफ रनिंग ट्रेन एट मालाड। रीजन नॉट नोन। मैं हक्‍की बक्‍की रह गयी हूं। हरलीन और सुसाइड!! ओह गॉड, यही खबर सुननी थी मुझे। क्‍या सूझी तुझे हरलीन कि अपनी ही जान ले बैठी। तू तो इतनी बहादुर लड़की थी, कैसे कूद गयी ट्रेन के आगे लेकिन शायद बहादुर लोग ही खुदकुशी का फैसला कर पाते हैं। कमज़ोर नहीं। कुछ तो ऐसा हुआ होगा जो हरलीन के साथ जिसकी कीमत हरलीन को जान दे कर चुकानी पड़ी। मैं कैसे भी करके इस खबर को जज्‍ब नहीं कर पा रही हूं। कल दिन में ही तो हम सबने एक साथ खाना खाया था। हमेशा की तरह चहक-चहक कर बातें कर रही थी और इस बात को लेकर कितनी खुश थी कि कल से ही उसके स्‍कूल की सालाना छुट्टियां शुरू हो रही हैं। बल्‍कि वह इस बात को ले कर परेशान भी हो रही थी कि मैं जानबूझ कर ऐसे वक्‍त लम्‍बे अरसे के लिए बाहर जा रही हूं।
समझ नहीं आ रहा कि इस खबर को कैसे सच मानूं। अब मैं महसूस कर रही हूं कि कई बार पुख्‍ता खबरों पर भी यकीन करना कितना मुश्‍किल होता है। अभी अगले स्‍टेशन पर उतर कर या दिल्‍ली पहुंचते ही वापिस मुंबई आने के बारे में सोच भी नहीं सकती। सिर्फ मेरे अकेले का मामला होता तो किसी तरह एक-दो दिन के लिए वापिस मुंबई आने के बारे में सोचती भी लेकिन मेरे साथ पूरी टीम जुड़ी हुई है और शूटिंग के सारे शेड्यूल तय हैं पहले से। एक-एक दिन के काम के हरजे से होने वाले नुक्‍सान के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। कुछ काम ऐसे होते हैं जो टाले नहीं जा सकते। लेकिन ये भी है कि इस सारे अरसे मैं हरलीन के बारे में सोच-सोच कर परेशान होती रहूंगी। खबर की डिटेल्‍स तो खैर आगे-पीछे मिल ही जायेंगी लेकिन उसका इस तरह से चले जाना मुझे चैन से काम नहीं करने देगा। अरसे तक उसका मासूम चेहरा और अपनेपन से लबरेज उसकी बातें याद आती रहेंगी। ये सोच भी है कि अब मेरे वापिस जाने से होगा भी क्‍या। जाने वाली तो जा चुकी। अफसोस करूंगी भी तो किससे। वैसे भी मेरे वापिस पहुंचने तक उसके संस्कार के लिए रुके थोड़े ही रहेंगे। घर से टाइम पर कोई आ पाये ठीक वरना संस्कार भी दोस्‍तों और सखियों को ही करना पड़ेगा। लेकिन सुना था कि ऐसे मामलों में पोस्‍ट मार्टम के बाद डैड बॉडी परिवार वालों को ही दी जाती है। पता नहीं उसके घर वालों के नम्‍बर भी किसी के पास होंगे या नहीं।
रश्मि का नम्‍बर फिर मिलाती हूं। लगातार इंगेज आ रहा है। चेरी का मोबाइल स्‍विच ऑफ है। कुमुद आउट ऑफ रीच है। अब किसी और से बात करने का मन नहीं होता। चादर सिर तक ओढ़ कर लेट गयी हूं। समझ नहीं आ रहा ये सब क्‍या हो गया है। हरलीन और सुसाइड। बात गले से नीचे नहीं उतर रही। कम्‍बख्‍त ने मुक्‍ति मांगी भी तो लोकल ट्रेन से। मरने का सबसे आसान और गारंटीशुदा तरीका। पता नहीं क्‍या हो गया हो। शायद बरखा से  कुछ कहा-सुनी हो गयी होगी। लेकिन कल तक तो ऐसी कोई बात भी नहीं थी। मेरे सामने ही नार्मल बात हुई थी दोनों के बीच। समझ नहीं आ रहा क्‍या हो गया कि हरलीन जैसी बिंदास और समझदार लड़की को इतना घातक कदम उठाना पड़ा।
Ø   
हरलीन मेरी फेसबुक फ्रेंड थी। थी कहना कितनी तकलीफ दे रहा है। कल रात तक वह मेरे साथ थी और अब सचमुच थी हो गयी। याद करती हूं। सिर्फ हरलीन ही क्‍यों, रश्मि, कुमुद, चारू, चेरी और पल्‍लवी से भी तो नाता हरलीन के जरिये ही जु़ड़ा था। हरलीन मेरी डाइरेक्‍ट फेसबुक फ्रेंड थी और बाकी सब हरलीन की या म्‍युचुअल फ्रेंड थीं या आपस में हमारा सर्किल बढ़ता चला गया था और हम सब आपस में एक दूजे से जुड़ती चली गयी थीं। एक ही बरस के भीतर हम सब इतनी अंतरंग दोस्‍त बन चुकी थीं कि लोग हैरान होते थे कि फेसबुक से इतनी अच्‍छी दोस्‍त भी तलाशी और बनाये रखी जा सकती हैं।
Ø   
हरलीन से फेसबुक पर मिलने और दोस्‍ती बनने का किस्‍सा भी मजेदार था। हमारी दोस्‍ती की शुरुआत बहुत ही मजेदार ढंग से हुई थी। मेरे प्रोफाइल में स्‍कूल का नाम आदर्श बाल मंदिर, नवां शहर लिखा था। कॉलेज और आगे की पढ़ाई में दिल्‍ली के लेडी श्रीराम कॉलेज, आइआइएमसी, दिल्‍ली और एफटीआईआई, पुणे का नाम था। हरलीन ने आदर्श बाल मंदिर, नवां शहर का नाम देख कर ही फेसबुक पर फ्रेंडशिप रिक्‍वेस्‍ट भेजी थी। मेरे कन्‍फर्म करते ही उसका पहला सवाल यही था – कब थीं आप उस स्‍कूल में?
बताया था मैंने – मैंने वहां पहली से ले कर दसवीं तक की पढ़ाई की है।
-    हाई स्‍कूल किस बरस में किया था?     
-    1997 में।
-    किस सेक्‍शन में थीं आप?
-    बी में, क्‍यों?
-    क्‍लास टीचर कौन थीं आपकी?
-    नयना दत्‍त मैम थीं लेकिन आप ये सारे सवाल क्‍यों पूछ रही हैं?
-    आपको निरंजन कोहली मैम की याद है?
-    हां, कोहली मैम हमें इंगलिश पढ़ाया करती थीं नौंवी दसवीं में लेकिन... ।
-    वॉव, कुछ और याद आता है कोहली मैडम या उस स्‍कूल के बारे में ... ?
तभी मैंने उसका प्रोफाइल देखा था। सारी बात समझ में आ गयी थी। हरलीन कोहली, नवां शहर, स्‍कूली पढ़ाई आदर्श बाल मंदिर, नवां शहर, कॉलेज चंडीगढ़ और प्रेजेंट सिटी मुंबई। डेट ऑफ बर्थ में 5 जुलाई 1985 दिया हुआ था। यानी मुझसे लगभग दो बरस छोटी। हलका सा ख्याल आ रहा था कि कोहली मैम अपने खटारा विजय सुपर स्‍कूटर पर स्‍कूल आया करती थीं और एक दुबली-सी लड़की अपनी बाहों से उन्‍हें दोनों तरफ से घेरे पीछे वाली सीट पर बैठी नज़र आती थी। बेहद स्‍मार्ट और सलीकेदार थीं कोहली मैडम।
इस बार मैंने ही पूछा था हरलीन से - क्‍या आप कोहली मैम की वो बेटी तो नहीं जो उनके विजय सुपर स्‍कूटर पर बैठ कर आया करती थीं?  
सही पहचाना आपने। अस्‍सी ओ ही हरलीन हां जिन्‍नू तुसी बचपन विच अपणे स्‍कूले वेख्‍या सी और उसने चैट में ढेरों स्‍माइली चिपका दिये थे।
अच्‍छा लगा था। हरलीन वह पहली लड़की थी जो फेसबुक के जरिये मेरे बचपन के दिनों से चल कर मेरे वर्तमान में आ रही थी। बेशक हम एक ही क्‍लास में नहीं रही थीं, हमउम्र भी नहीं थीं, सहेलियां नहीं रही थीं, कभी आमने-सामने मिली भी नहीं थीं, शायद ही कभी बात हुई हो, और तो और हममें कोई दोस्‍ती जैसा आधार भी नहीं रहा था लेकिन कुछ ऐसा था जो हम दोनों को जोड़ रहा था और एक ही जगह, एक ही वक्‍त और एक ही माहौल में बिताये गये कुछ साझा पलों में ले जाता था। आगे जा कर हम दोनों ऐसा बहुत कुछ शेयर कर सकती थीं जो हमने लगभग एक साथ देखा, भोगा और महसूस किया था। यही एक कॉमन बिंदु था जिसने हमें तुरंत जोड़ दिया था और इससे पहले कि मैं हरलीन से उसका मोबाइल नम्‍बर मांग पाती, उसी ने मेरा नम्‍बर मांग लिया था और नम्‍बर मिलते ही उसी ने पहला फोन किया था।  
-    हाय...
-    हैलो हरलीन कैसी हो?
-  मैं मस्‍त, आप सुनाओ, सच में मैं बता नहीं सकती कि आज मैं कितनी खुश हूं। आपके बहाने अपने बचपन के दिनों को जैसे एक बार फिर से जीने का मौका मिल गया हो। अज्‍ज तुस्‍सी मेरा दिन बन्‍ना दित्‍ता। इक शानदार पार्टी दे लायक।
मैं हँसी थी – वॉव, बेशक हम दोनों न तो उस वक्‍त एक दूसरे को पहचानती थीं और न आज ही पहचान पायें लेकिन एक ही स्‍कूल, एक ही वक्‍त और एक ही माहौल हमें बहुत कुछ देगा शेयर करने को। एवरी डे पार्टी डे। 
-    श्‍योर, मैं आपको दीदी बुलाऊं? आप मुझसे उम्र में बड़ी हैं।
-  देखो हरलीन, नाम से बुलाओगी तो हम ज्‍यादा और सहज हो कर बातें कर पायेंगे और दीदी बनाओगी तो हम फार्मल बात ही कर पायेंगे। च्‍वाइस इज यूअर्स।
-    थैंक्‍स नेहा। और उसके ज़ोर से खिलखिलाने की आवाज़ आयी थी।
-    तुम्‍हारा घर किस मोहल्‍ले में था?
-    भुच्चरा मुहल्ला, और तुम्‍हारा?
-    कोठी रोड।
-    गोलगप्‍पे खाने कहां जाती थीं?
-    कभी-कभी कमेटी घर बाजार के पास और कभी गीता भवन चौक के पास।
-    तुम?
-  क्‍या तो याद दिला दिया नेहा। सच बताऊं तो मुझे गोलगप्‍पे खाने अकेले जाने की इजाज़त नहीं थी। मम्‍मी जब भी कमेटी घर बाज़ार के पास जहां किताबों की दुकानें हुआ करती थीं - रमन बुक डिपो, भल्ले दी हट्टी वगैरह जाती थी तो वहीं एक गोलगप्‍पे वाला खड़ा होता था। शायद सिंदर नाम था उसका, वहीं खाते थे।
-    याद है, हमारे स्‍कूल के सामने दो पिक्चर हॉल हुआ करते थे?
-  हां, सतलुज सिनेमा हॉल वो तो अब भी है, लेकिन स्‍कूल के सामने वाला शंकर राकेश सिनेमा बंद हो चुका है।
-    जाना होता है वहां?
-    हां साल में एकाध बार तो चली ही जाती हूं और तुम्‍हारा?
-  मेरे पापा बैंक में थे नवां शहर में। उनका ट्रांसफर मेरी दसवीं करते ही हो गया था। बाद में कई शहरों में रहना होता रहा। हिसाब लगाऊं तो इतने शहरों में बचपन बीता, लेकिन वापिस जाना हो नहीं पाता उन शहरों में। क्‍या करती हो मुंबई में?
-  लम्‍बी कहानी है। एक नहीं कई कहानियां हैं। पहली कहानी कि मैंने पढ़ाई क्‍या की थी, दूसरी कि उस पढ़ाई के बल पर मैं क्‍या बनना चाहती थी या बन सकती थी, तीसरी कि मैं मुंबई में 7 बरस पहले क्‍या करने आयी थी और चौथी कि मैं आजकल क्‍या कर रही हूं। बोलो कौन-सी कहानी पहले सुनाऊं?
-    आज की कहानी ही ठीक रहेगी!
-  ओके, तो मैं आज की ही कहानी बताती हूं। मैं पिछले तीन बरस से अपनी मां के काम को ही आगे बढ़ा रही हूं। एक इंटरनेशनल स्‍कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाती हूं। मम्‍मी का ही सब्‍जेक्‍ट।
- बस एक ही वाक्‍य में बता दो कि मुंबई करने क्‍या आयी थी?
- बहुत चालाक हैं आप। सारे भेद पहली ही बार में जानना चाहती हैं!
- ऐसा नहीं हैं, मैं जो अंदाजा लगा रही हूं, देखना चाहती हूं कि वह सही है या गलत।
- तो आपके अंदाजे को बिना जाने ही बता देती हूं कि आपका सोचना सही है। मैं यहां एक्‍टिंग में कैरियर बनाने के लिए आयी थी। पहले चार बरस में चार सौ किस्‍म के पापड़ बेलने के बाद समझ में आया कि यहां सिर्फ सपने ले कर आने वाले ही सफल नहीं होते, कई चीजे़ं होती हैं जो आपके सपनों को हकीकत में बदलने में अपना रोल अदा करती हैं। नहीं बना तो एक ही झटके में सब छोड़ दिया।
- अब?
- अब कोई सपना नहीं देखती और न ही ये देखती हूं कि मैं इस मुराद या नामुराद जो भी कहें, शहर में कौन-सा सपना ले कर आयी थी। वैसे भी यहां अपने टूटे बिखरे सपनों की बात कोई भी नहीं करता। खैर, मेरी जाने दो, तुम बताओ, क्‍या करती हो राजधानी दिल्‍ली में। वैसे तुम्‍हारा प्रोफाइल तो तुम्‍हें फ्रीलांसर बता रहा है।
- मैं डाक्‍यूमेंटरी फिल्‍में बनाती हूं एक विदेशी एजेंसी के लिए। पूरा प्रोजेक्‍ट खुद ही देखती हूं। शुरू से आखिर तक।
- वाव, यानी कैमरे के पीछे रहती हो।
- पीछे भी और कई बार आगे भी, ज़रूरत पड़ने पर दायें बायें भी।
- वो कैसे?
- स्‍क्रिप्‍टिंग से ले कर फिल्‍म के फाइनल होने तक सारे काम करती हूं। वॉइस ओवर के लिए, डबिंग के लिए या कमेंटरी के लिए सामने भी आती हूं। वन वूमेन आर्मी की तरह।
- तुम मुंबई आ जाओ, हम भी जुड़ जायेंगे। तुम्‍हारे नाम पर एक बार फिर सही। थोड़ा बहुत काम तो अभी भी कर लेंगे।
- दरअसल कहने को मेरा बेस दिल्‍ली में है और रहने को एक ठिकाना भी है दिल्‍ली में लेकिन काम के सिलसिले में लगातार फील्‍ड में ही रहना पड़ता है। जैसा और जहां का प्रोजेक्‍ट मिले। महीने में पंद्रह दिन तो बाहर ही गुज़रते हैं।
- कभी मुंबई आयी हो?
- हां, मुसाफिर की तरह या फिर काम के सिलसिले में एक दो बार लेकिन अपनी मन की बात मान कर घूमने के लिए कभी नहीं।
- अब आना। यही समझना, मुंबई की एक चाबी तुम्‍हारे पास भी है।
- श्‍योर। अच्‍छा लगा जान कर और तुम्‍हें इस तरह से अचानक पा कर। मेरा दिन बन गया।
- मेरा भी।
Ø   
उस दिन हमने एक घंटे तक बातें की थीं। उसकी मुंबई आने की कहानी मैंने सुनी थी और बदले में मैंने उसे दिल्‍ली आने और डॉक्‍यूमेंटरीज से जुड़ने की बात बतायी थी। देर तक हम बचपन की गलियों में जैसे गलबहियां डाले घूमती रही थीं। तब हमने वादा किया था कि हम लगातार कांटैक्‍ट में रहेंगी। जब भी हो सका वेबचैट करेंगी या फोन पर तो संपर्क में रहेंगी ही। हां, इस बात की कोशिश दोनों ही करती रहेंगी कि फेसबुक पर अपने स्‍कूल की और लड़कियों को तलाश करती रहेंगी और उनका अंतरंग ग्रुप बनायेंगी। उसने एक बात और बतायी थी कि मम्मी अब उसी स्‍कूल में प्रिंसिपल हो गयी हैं और विजय सुपर के बजाये सेंट्रो से तब के स्‍कूल और अब के कॉलेज जाती हैं। जान कर अच्‍छा लगा था कि हमारा स्‍कूल अब कॉलेज बन चुका था।
मैं हँसी थी – तो अब उनका विजय सुपर तुम्‍हारे पास है क्‍या जिस पर बैठ कर अपने स्‍कूल में अंग्रेजी पढ़ाने जाती हो?
- ये भी खूब कही। उस स्‍कूटर के बिकने की मजे़दार कहानी सुनो। तब मैं आगे की पढ़ाई के लिए चंडीगढ़ शिफ्ट कर चुकी थी। नवां शहर में हमारा दोमंजि़ला घर है। घर के सामने एक लम्‍बी गली जाती है और घर के पास थोड़ी-सी ढलान पड़ती है। सुबह-सुबह बहुत अच्‍छी हवा चलती है, इसलिए मैं जब भी घर जाती, हर सुबह पहली मंजिल के अपने कमरे के बाहर बाल्‍कनी में बैठती थी और चाय पीते हुए लोगों को आते जाते देखती थी। एक बार अचानक मैंने देखा कि एक आदमी उस हल्की सी चढ़ाई पर पैदल ही एक स्‍कूटर घसीटता हुआ चला आ रहा है। स्‍कूटर मुझे पहचाना सा लगा। हमारी इमारत के गेट के पास वह एक पल के लिए रुका, हमारे घर की तरफ देखा और ऐसा लगा मानो वह गाली जैसा कुछ बक रहा है। फिर वह स्‍कूटर घसीटता हुआ दूसरी तरफ निकल गया।
- हमम
- अगले दिन भी मैंने उस आदमी को वैसी ही हरकत करते देखा। जैसे स्‍कूटर घसीटने का सारा गुस्सा हमारे घर पर निकाल रहा हो। जब तीसरे दिन भी उसे मैंने इसी तरह अपने घर पर गुस्सा निकालते देखा तो मुझसे रहा न गया। मैंने पापा को पूरा किस्‍सा बताया।
पापा हंसने लगे - दरअसल उसने वो विजय सुपर हमसे ही खरीदा था। जब खरीदा था तो वह ढलान पर घर जा रहा था। मजे-मजे में चला गया। स्‍कूटर बहुत पुराना है सो जरा-भी चढ़ाई नहीं चढ़ पाता। सीधी सड़क पर ठीक चलता है। बस, अपने घर से हमारे घर के पास आते ही रोज उसका स्‍कूटर बिगड़ जाता है इसलिए गाली दे कर अपना गुस्सा उतारता रहता है।
- हाहाहा, मज़ा आ गया सुन कर। उस बेचारे ने तंग आ कर वह स्‍कूटर कबाड़ी को तौल कर बेचा होगा।
- अब क्‍या बतायें। हर चीज़ की एक उम्र होती है और उम्र पूरी होने के बाद उसकी आखिरी मंजि़ल कबाड़ी की दुकान ही होती है। इस लिस्‍ट में आप इन्‍सान को भी शामिल कर सकती हैं। इन्‍सान को तो कई बार कबाड़ी भी नसीब नहीं होता जो उसका कोई भाव लगा सके।
Ø   
अब हम अक्‍सर बातें करतीं। इधर उधर की। काम के बारे में। वह अपनी ज़िंदगी के बारे में बताती। शुरुआती दिनों के संघर्ष के बारे में बताती कि किस तरह कई बरस तक उसने फिल्‍मी दुनिया में काम पाने के लिए संघर्ष किये थे और दो चार रोल्‍स से कभी आगे नहीं बढ़ पायी थी। फिर सब छोड़ छाड़कर टीचिंग लाइन में आ गयी।
Ø   
ऐसे में जब मुझे कंपनी के मुंबई ऑफिस का चार्ज लेने के लिए वहाँ शिफ्ट होने के लिए कहा गया तो सबसे पहले मुझे हरलीन का ही ख्याल आया था। सबसे पहले मैंने हरलीन को ही बताया तो उसने हुर्रे कहते हुए अपना फैसला सुना दिया था - मत चूको चौहान। मैं तो अब तक ये सोच रही थी कि अब तक मैडम को मुंबई बुलाया क्‍यों नहीं गया है। कब ज्‍वाइन करना है?
-    ज्‍वाइन करने के बारे में तो तब सोचें जब वहां रहने का ठिकाना हो जाये।
हरलीन जैसे भड़क ही गयी थी - क्‍यों मेरा घर तुम्‍हारा घर नहीं है और क्‍या इस बंदी का तुम पर कोई हक नहीं है। अगर याद करने का मन हो तो याद करो कि मैंने पहले ही दिन तुमसे कहा था कि हम मुंबई शहर की चाभी तुम्‍हारे लिए बनवा रहे हैं और जब उस चाभी के सही इस्‍तेमाल का मौका आया तो पीछे हट नहीं हो। दिस इज नॉट फेयर।
मेरे पास हरलीन की बात का कोई जवाब नहीं था - हरलीन, वो बात नहीं है। अब जब मुंबई बसने के इरादे से आ रही हूं तो कोई पता ठिकाना तो बनाना ही होगा। कंपनी पता नहीं कब लीज्‍ड फ्लैट दे। अभी तो इस बारे में कोई बात ही नहीं हुई।
- आफिस कहां है?
- रुको, देख कर बताती हूं। हां, ये है, अंधेरी वेस्‍ट में। ऑफ वीरा देसाई रोड पर क्रिस्‍टल प्‍लाजा बिल्‍डिंग है कोई। उसमें है।
- गुड। ज्‍यादा दूर नहीं। ट्रेन से बची रहोगी। ऑटो से काम चल जायेगा। हमारे यहां से बीस मिनट का रास्‍ता। देर सबेर कार भी आ ही जायेगी।
- ये तो बहुत अच्‍छी बात बतायी। लोकल ट्रेन की बात सोच सोच कर ही मेरी रूह कांप रही थी।
- मेरी बात ध्‍यान से सुनो नेहा। मेरी पार्टनर आजकल यहां नहीं है। उसके वापिस आने तक तुम मेरे साथ रहोगी। मेरी बीसियों दोस्‍त शेयरिंग में या पीजी में रहती हैं। ठिकाने बदलना या पार्टनर बदलना यहां रोज़ की बात है। चाहोगी तो किसी मेल फ्रेंड के साथ लिविंग टूगेदर भी करवा देंगे। सस्ता, टिकाऊ और सुंदर।
- बताऊं क्‍या?
- हां, एक बात की गारंटी देती हूं कि मेरे होते हुए तुम्‍हें रहने-खाने की चिंता करने की जरा-सी भी ज़रूरत नहीं। बाद की बाद में देखेंगे।
अब मेरे पास भी कोई उपाय नहीं था – तो तय रहा कि मैं आ रही हूं और तुम्‍हारे भरोसे और तुम्‍हारे ही ठिकाने पर आ रही हूं।
- वॉव, ऐह गल्‍ल होइ ना पंजाबियां वरगी। मम्‍मी को बताऊंगी तो कितनी खुश होगी। कब ज्‍वाइन करना है।
- कहा तो तुरंत जाने के लिए है।
- कब और कैसे आने का सोच रही हो।
- सोच रही हूं, इसी शनिवार की राजधानी से आऊं। फिलहाल तो दो एक बैग, कैमरा किट और लैपटॉप ही ले कर आऊंगी। टूथब्रश वहीं ले लूंगी। मिलता होगा ना। मैंने बात को हलका पुट देने के लिए कहा था लेकिन वह मेरी भी उस्‍ताद निकली।
- यहां सिर्फ उन्‍हीं लोगों को टूथब्रश मिलते हैं जिनके टूथपेस्‍ट में नमक होता है। और सुनो, दोरंतो बोरिवली नहीं रुकतीं। राजधानी या अगस्‍त क्रांति का टिकट करवाना या कहो तो मैं नेट से करवा देती हूं। दोनों बोरिवली रुकती हैं। मेरे लिए पिक करना आसान रहेगा। संडे आराम भी हो जायेगा और सबसे मिलना जुलना भी।
- तो ठीक है शनिवार की ही करा लेती हूं।
Ø   
मैंने हरलीन से ये बात की ही थी कि दस मिनट में राजधानी में सेकेंड एसी के कन्‍फर्म टिकट का एसएमएस मेरे मोबाइल पर आ चुका था। बहुत लाड़ हो आया हरलीन पर। कैसे संभाल पाऊंगी उसका इतना प्‍यार। उसे देने के लिए मुझ जैसी बेघर-बार की लड़की के पास कुछ भी तो नहीं है। कितने बरस हो गये मुझे अकेले रहते और अकेले जीते हुए। अपना कुछ भी शेयर करने के मौके ही कहां मिले हैं मुझे। हरलीन ही सिखायेगी मुझे कि एक साथ मिल-जुल कर कैसे रहा जाता है और किसी को अपना बनाने के लिए अपनापन कैसे जतलाया जाता है।
अपने मोबाइल पर टिकट देखते हुए सोच रही थी इन सारे बरसों में मुंबई आने से कतराती रही। कई मौके आये, कई ऑफर आये लेकिन मैं ही टालती रही। पुणे में एफटीआइआइ में दो बरस रहने और कई बार काम के सिलसिले में मुंबई आने से बचती रही और अब एक फेसबुक फ्रेंड, जिससे मैं अब तक मिली भी नहीं हूं, के भरोसे मुंबई जा रही थी। बेशक अपने ही जॉब के लिए जा रही थी लेकिन कुछ तय नहीं था, वहां कितने दिन के लिए और वहां की कैसी ज़िंदगी मेरे हिस्‍से में लिखी थी। अपने आप पर हँसी भी रही थी कि अपनी ही कसम तोड़ रही थी कि कभी मुंबई नहीं जाऊंगी नौकरी करने।
Ø   
            ट्रेन वक्‍त पर पहुंच गयी थी। मैंने ट्रेन के चलते समय ही हरलीन को बता दिया था कि ट्रेन दिल्‍ली छोड़ चुकी है। कोच की पोजीशन मैंने बता दी थी।
अभी बोरिवली में ट्रेन से उतरी ही नहीं थी कि हरलीन नज़र आ गयी। हाथों में बेहद खूबसूरत गुलदस्ता। मुझे देखते ही तपाक से हाथ हिलाया। मेरा सामान उतारने में मेरी मदद की और मेरी तरफ अपनी बाहें फैला दीं। इन बाहों में प्रेम का अथाह विस्‍तार था। कैमरे के पीछे से देखने की अभ्यस्त मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकती थीं कि इस लड़की के पास देने के लिए कुछ और हो न हो, बेशुमार प्‍यार ज़रूर था। बीयर हग था यह। मेरी पसलियां कड़क गयीं। इतने से ही उसकी तसल्‍ली नहीं हुई। उसने मेरा चेहरा प्‍यार-भरी पप्पियों से भर दिया। मैं बहुत दिन के बार खुल कर मुस्‍कुरा रही थी। पूछा मैंने - चलें या कुछ और बाकी है!
हरलीन हँसी थी - तुमसे मिल कर लगता ही नहीं कि हम पहली बार मिल रहे हैं। कितनी प्‍यारी हो यार। एकदम डैशिंग।
- अरे पगली, पहली बार तो वैसे ही नहीं मिल रहे। हमने कई बरस एक ही स्‍कूल में गुज़ारे हैं। एक साथ प्रार्थना गायी है और उन्‍हीं टीचरों से पिटी हैं।
- यहां एक फर्क है नेहा कि मम्‍मी के कारण मेरी उतनी पिटाई नहीं हुई जितनी की मैं हकदार थी। हाहा।
- ये भी खूब कही। बाकी काम तो एक ही जगह और एक जैसे किये होंगे।
वह खिलखिलायी - हां क्‍यों नहीं, स्‍कूल के गंदे लेडीज़ टायलेट शेयर किये हैं ना।
Ø   
मेरे पास दो बड़े बैग थे, एक कैमरा किट और एक लैपटॉप बैग। मैं हरलीन के साथ साथ बाहर आयी। वह कार ले कर आयी थी। सामान रखने के बाद उसी ने बताया – हमारा एक दोस्‍त है। बैंक में काम करता है। वो दोस्‍त कम है और अपनी कार के साथ शोफर की सर्विस ज्‍यादा देता है। संडे देर तक सोता है इसलिए रात को ही कार छोड़ गया था।
         - वाव, बहुत अच्‍छे दोस्‍त हैं तुम्‍हारे।
         - बस, बनते चले गये हैं। एक बात होती है ज़िंदगी में कि अच्छे दोस्‍त दूर तक साथ चलते हैं। बुरे दोस्‍त अपने आप ही दूर होते चले जाते हैं।
         - हां सो तो है।
         - तुम कहोगी कि क्‍लास ले रही हूं लेकिन आज सुबह ही एक मैगज़ीन में कलाम साहब का एक कोटेशन पढ़ा कि एक अच्‍छी किताब सौ दोस्‍तों के बराबर होती है लेकिन एक अच्‍छा दोस्‍त पूरी लाइब्रेरी के बराबर होता है।
        - थैंक यू माय लाइब्रेरी। मैं खिलखिला कर हंसी थी।
        - ये तो वक्‍त ही बतायेगा नेहा कि कौन लाइब्रेरी है और कौन उसका इकलौता घनघोर पाठक।
        कार जब एक बड़ी सी बिल्‍डिंग के पोर्च में रुकी थी तो पूछा मैंने - ये कौन सा इलाका है?
     - हम मालाड वेस्‍ट में हैं। एवरशाइन नगर।
Ø   
     कमरे का दरवाजा खुलते ही हरलीन को गले लगाने और जी भर चूमने की बारी मेरी थी। ड्राइंग रूम में हर शै मेरा स्‍वागत कर रही थी। फ्रिज पर मेरी फोटो के साथ मेरे नाम का बड़ा सा कलरफुल बैनर लगा था। इंडियन सिटिंग के साथ लगे बीसियों गाव तकिये। वहां भी वेलकम नेहा के अक्षर चमक रहे थे। प्‍यारा-सा छोटा-सा घर। सब कुछ करीने से और सही जगह पर। बेशक एक ही बेडरूम और उतना ही बड़ा ड्रांइगरूम लेकिन चीज़ें कम होने और करीने से लगी होने के कारण घर बहुत बड़ा लग रहा था। ड्रांइग रूम में बिछे गद्दों पर कई लोग आराम से पसर कर बैठ सकते थे। अब मैं हरलीन को पागलों की तरह चूम रही थी - ये सब क्‍या है हरलीन। मुझे इतना प्‍यार तो पूरी ज़िंदगी में अपनों ने भी नहीं दिया।
      - ये तो ट्रेलर है जानेमन, आगे-आगे देखिये होता है क्‍या। नेहा यही है अपना गरीब खाना।
     - लेकिन बहुत खूबसूरत है।
     - हां कह सकती हो, मम्‍मी का असर है। सब कुछ साफ-सुथरा और करीने से और क्‍वालिटी का ही चाहिये। तुम एक काम करो। फ्रेश हो लो। तब तक चाय बनाती हूं। नाश्‍ते में क्‍या लेना चाहोगी?
     - नाश्‍ता तो ट्रेन में हो चुका। बल्‍कि दो चाय भी पी चुकी। हां, एक और चाय चलेगी।
     - जब मूड करे कुछ ले लेना। नेहा, दो एक बातें बता हूं। यहां घर में जो कुछ भी है सब कुछ तुम्‍हारा और तुम्‍हारे ही इस्‍तेमाल के लिए है। जो मन हो, जो चाहिये हो जो बनाना हो, जो खाना हो, पूछने या बताने की ज़रूरत नहीं। यहां अमूमन हर चीज़ की होम डिलीवरी है। सबकी लिस्ट और आसपास के होटलों के मीनू रखे हैं। शराब और सिगरेट की भी होम डिलीवरी है लेकिन हम ये दोनों ही चीज़ें होम डिलीवरी से नहीं मंगाते। कुछ ऐसा खाने या बनाने का मन हो, तो भी मेरी या किसी की राह देखने की ज़रूरत नहीं।
       - तो इन दोनों आइट्मस की सप्लाई?
       - ग्‍लोबलाइजेशन ने हम लड़कियों के बहुत सारे काम आसान कर दिये हैं। आजकल सभी मॉल्‍स में वाइन शॉप्‍स और सिगरेट शॉप्‍स खुल गयी हैं। किसी को खबर भी नहीं लगती और न ही वहां किसी को परवाह कि कौन क्‍या शॉपिंग कर रहा है।
      - अरे वाह, तुमने तो सारी बातें एक अच्छी गाइड की तरह बता दीं।
      - नहीं, अभी सारी नहीं बतायीं। ये तो घर के बारे में बताया। अपने बारे में बताना और तुम्‍हारे बारे में पूछना तो बाकी है। वो भी शेयर कर लें तो दोनों का कम्‍फर्ट लेवल बढ़ जायेगा  
     - श्‍योर।
     - पहले मेरे बारे में। मैं बेहद सफाई पसंद हूं। पागलपन की हद तक। तुम्‍हें खराब लगेगा कि पहली ही बार में सब बता रही हूं।
     - नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। कहती चलो। मेरे लिए सब कुछ आसान रहेगा। वैसे भी मैं सोशलाइजिंग में बेहद कमज़ोर हूं। पिछले कई बरसों से घर से बाहर हूं। अकेली बंदी हूं। घर या घर के माहौल में रहने को मिलता ही कहां है। आगे कहो।
    - मैं शराब पीती हूं। लेकिन अकेले नहीं पीती। सिगरेट नहीं पीती। मेरी ज्‍यादातर सहेलियां पीती हैं। हफ्ते में दो-एक जमावड़े हो ही जाते हैं। यहां या किसी और के घर। हां, पीने-पिलाने का सिलसिला घरों में ही चलता है। मैं नॉन वेजिटेरिशन हूं लेकिन वेज से भी परहेज नहीं। अगर कोई च्‍वाइस न हो। अपने सारे काम खुद ही करती हूं। नास्तिक हूं लेकिन आस्‍तिकों से परहेज नहीं। कोशिश रहती है कि खाना घर पर ही बनायें लेकिन जब ज्‍यादा लोग हो जाते हैं तो कई बार टिफिन सर्विस से या होटल से भी मंगवा लेते हैं और ऐसा भी हो जाता है कि सब एक-एक डिश ले आते हैं।
      - ग्रेट। ये तो बहुत अच्‍छा हुआ कि तुमने ये सब बता कर मेरा काम आसान कर दिया।
      - अब तुम अपने पत्‍ते भी खोल दो तो हमारा भी कम्‍फर्ट जोन बेहतर हो जाये।
      - देखो हरलीन, मैं हमेशा टीम लीडर रही हूं और दस-बीस लोग मेरे साथ काम करते रहे हैं इसलिए हो सकता है कहीं तुम्‍हें ऐसा लगे कि बॉसिज्‍म दिखा रही हूं लेकिन ऐसा होगा नहीं, जैसे तुम्‍हें सफाई का जुनून है, मुझे परफैक्‍शन का है। पागलपन की हद तक। पीती हूं मैं भी। सिगरेट भी। सब कुछ खा भी लेती हूं। मुझे भी अपना काम खुद करने की आदत है।
     - वाह, खूब निभेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो। अब सुनो काम की बात। आज तुम्‍हारा पहला दिन है महानगर मुंबई में। आज हम दिन में खाना नहीं बनायेंगे। लंच में चिकन बिरयानी विद बीयर रिया के घर पर है। वह भी फेसबुक प्रोडक्‍ट है। वहां से जुहू जायेंगे। शाम को तुम्‍हारे सम्‍मान में शानदार पार्टी है। वेलकम पार्टी। यहीं पर। खूब धमाल होगा।
      - अरे ये सब?
      - फिकर नको डियर। हमारे रस्मों रिवाज को तो आते ही मत बदलो।
      - कितने लोग होंगे?
      - होने तो आठ चाहिये। कई बार साढ़े सात या साढ़े आठ भी हो जाते हैं।
      - मतलब?
      - मतबल ये जी कि हमारे ग्रुप में दो एक सूफी भी हैं। खाते पीते बेशक नहीं, लेकिन दोस्‍त तो हैं। दिलदार दोस्‍त हैं तो दरवाजे उनके लिए भी खुलते ही हैं।
      - नाइस, तो हरलीन एक काम करते हैं।
      - आदेश सरकार?
     - आज मैं एक चिकन डिश बनाऊंगी। अभी नाम नहीं बता रही। लेकिन जब सब मुझसे मिलने आ रहे हैं तो मुझे भी अपना हुनर दिखाने का मौका मिले।
     - डन। जुहू से वापसी में सामान लेते आयेंगे।
Ø   
     जब मैं नहा कर आयी तो हरलीन सबसे तय कर चुकी थी शाम की पार्टी के बारे में। मैंने सुना, किसी को खम्‍बा लाने के लिए कह रही थी। मेरे चेहरे पर उग आये क्‍वश्‍चन मार्क को देख कर हँसने लगी - अरे कुछ नहीं, हमारे कोड वर्डस हैं बहुत सारी चीज़ों और कामों के लिए।
-    हमें भी बताओ ताकि सबके बीच शर्मिंदा न होना पड़े।
     - ओके। दारू पार्टी के ही कई नाम हैं - रस रंजन, तरल गरल, कीर्तन, सत्‍संग, कमेटी मीटिंग। अगर पार्टी में सिर्फ लेडीज़ हों तो लेडीज़ संगीत। पूरी बोतल का नाम है खम्‍बा और जब ट्रेन में ले जाने के लिए या पब्लिक प्‍लेस में पीने के लिए हाफ लीटर कोल्‍ड ड्रिंक में तीन पैग वोदका या कोई और शराब मिला कर उसे सुबह से ही फ्रीजर में ही रख दिया जाये तो वह कहलाता है मिसाइल। बाकी टर्म्‍स भी धीरे धीरे सीख जाओगी और बोलने भी लगोगी।
     - हरलीन, पता है मेरे साथ दिक्कत क्‍या रही। कई बरसों से घर से बाहर हूं। मां है नहीं। कोई भाई बहन नहीं। पापा अकेले रहते हैं। मुझे खुद महीने में 15 दिन आउट डोर शूट में रहना होता है। मेरी टीम में बाकी सब मेल मेंबर्स हैं। उनके साथ बैठ नहीं सकती। इसलिए होटल या गेस्‍ट हाउस वगैरह के कमरे में अकेले ही पीनी पड़ती है। कई बार तो बिना पीये कई दिन भी बीत जाते हैं, स्टाक खत्‍म हो जाने पर और मंगवाने का जुगाड़ नहीं हो पाता। इसलिए यहां जो भी होगा मेरे लिए नया और कुछ सिखाने वाला ही होगा। हर दिन कुछ नया सीखूंगी।
      - डन
Ø   
      रिया से मिलना भी बहुत अच्‍छा लगा। बेहद शालीन। बहुत प्‍यार से मिली। मैंने छूटते ही पूछा – तुम्‍हारी आवाज़ बहुत प्‍यारी है रिया। सुनते ही जैसे कानों में झंकार सी बज उठी हो। रिया सिर्फ मुस्‍कुरायी लेकिन हरलीन ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी – जनाब, हमारी रिया मैडम मुंबई की बेहतरीन वॉइस है। वॉइस ओवर, डबिंग और एंकरिंग में इनका जवाब नहीं। अचानक मुझे कुछ याद आया – तुम रिया कुलश्रेष्‍ठ तो नहीं।
       - हां हूं तो लेकिन..आप..कैसे जानती हैं मुझे?
       मैंने उसे एक बार फिर गले लगाया - दुनिया कितनी छोटी है। तुम मेरी बनायी एक डाक्‍यूमेंटरी फिल्‍म के लिए अपनी आवाज़ दे चुकी हो।
       - कमाल है। कौन सी फिल्‍म के लिए वाइस ओवर मैंने दिया था? रिया हैरान थी।
       - अजी जनाब, इस शहर में बनने वाले हर तीसरे विज्ञापन में इसी की आवाज होती है। इंदौर की है रिया। टू बीएचके में अकेली रहती है। हरलीन बता रही है - चाहे तो आराम से पीजी या पार्टनर रख सकती है लेकिन उसे अकेले रहना ही पसंद है। अपनी ज़िंदगी में किसी भी तरह का दखल बर्दाश्त नहीं कर सकती।
        मेरी ज़िंदगी का ये पहला मौका था कि मैं अपने जैसी दो लड़कियों के साथ बीयर और वह भी दिन में पी रही थी। पहली ही मुलाकात में हम करीबी दोस्‍त हो गये।  
Ø   
        जब तक मैं काली मिर्च वाला चिकन बनाती, मेहमान आने शुरू हो गये थे। वे पहले मुझसे गले मिलते, मेरा स्‍वागत करते और बाद में हरलीन से मिलते। मैंने देखा कि कोई भी खाली हाथ नहीं आ रहा था। कोई स्नैक्स ला रहा था, कोई आइसक्रीम तो कोई खंबा। कोई तो यूं ही कुछ गिफ्ट आइटम लिये चला आ रहा था।
        आठ बजते बजते सब लोग आ चुके थे और अपने अपने हिसाब से पसर चुके थे। सब इस बात को ले कर बेहद खुश थे कि मैं उनके गैंग में शामिल हो रही थी, मीडिया से जुड़ी थी और मेरी खाने और पीने की आदतें उनके जैसी ही थीं।
         जब सबने अपने गिलास अपनी-अपनी पसंद के ड्रिंक से भर लिये तो हरलीन ने इशारा किया कि अभी कोई भी पीना शुरू नहीं करेगा। उसने हाथ में माइक लेने की मुद्रा बनायी और बोलना शुरू किया - दोस्‍तो, हम सब आज यहां एक बेहद अजीज दोस्‍त का मुंबई में स्‍वागत करने के लिए इकट्ठे हुए हैं। हम पहले भी मिल चुके हैं लेकिन मनमोहन देसाई की फिल्‍म में बिछुड़ी हुई बहनों की तरह नहीं। हम बेशक एक ही स्‍कूल में पढ़ती थीं, एक साथ ही मार्निंग प्रेयर गाती थीं, दोनों ने उन्‍हीं टीचर्स से मार खायी होगी, और आज ही याद किया हम दोनों ने कि हमने एक ही स्‍कूल के गंदे वाशरूम भी आगे पीछे इस्‍तेमाल किये हैं और स्‍कूल के बाहर उन्‍हीं ठेलों से अमरूद, चूरन, कच्ची इमली और आम पापड़ खाये होंगे लेकिन हमारी वर्चुअल मुलाकात फेसबुक पर कुछ अरसा पहले और रीयल मुलाकात आज सुबह ही हुई है।
- नेहा इंटरनेशनल लेवल की डाक्‍यूमेंटरी फिल्‍म मेकर है। सौ से ज्‍यादा एवार्ड विनिंग फिल्‍में बना चुकी हैं। और सबसे खास बात ये है कि अब इसका ट्रांसफर हमारे ही मुंबई शहर में हो गया है!
सबने खूब तालियां बजा कर अपनी खुशी जाहिर की। रिया आकर गले मिली और जो लोग मेरे लिए गुलदस्‍ते लाये थे, उन्‍होंने दोबारा गुलदस्‍ते दिये।
- और नेहा, सब गैंगस्‍टर्स और वो भी जो आज नहीं आ पाये हैं, एक फैमिली की तरह हैं। कुछ फेसबुक की वजह से मिले हैं, कुछ रहने की जगह की तलाशने के चक्‍कर में और कुछ कैरियर की वजह से एक दूजे के नज़दीक आये हैं और बाकी जो बचे हैं उन्‍हें इस महानगर के नॉन ऐंडिंग स्‍ट्रगल एक दूसरे का कंधा दिया है। सबने हे हे करके खूब तालियां बजायीं। मुझे अच्‍छा लगा कि कितनी सफाई से हरलीन ने मेरे मुंबई आने को ग्‍लैमराइज कर दिया था।
        तभी रिया खड़ी हुई। हरलीन के हाथ से माइक लेने का अभिनय किया, गला खँखारा और बोलना शुरू किया - डूड्स। दो सितारों का हँसी है ये मिलन आज की रात। लेट्स सेलिब्रेट। चीयर्स, आज की पार्टी की थीम होगी - हमारा खोया हुआ स्‍कूल। किसी ने बात पूरी की - और खोये हुए स्‍कूल में मिली लड़की। अब तो सब शुरू हो गये - खोया हुआ बचपन और फेसबुक। ये फेसबुक मांगे मोर। फेसबुक है कि मानता नहीं। एक फेसबुक बना न्यारा। सबके सब बढ़-चढ़ कर पार्टी की थीम को नया नाम देने में जुट गये।
रिया ने सबको शांत करते हुए बोलना शुरू किया - वेट एंड वेट। आज हम सब अपने बचपन में गहरे उतरेंगे और वहां से अनमोल रतन खोजेंगे और शेयर करेंगे। बस शर्त एक ही है कि कोई भी किस्‍सा उदास करने वाला नहीं होना चाहिये। बोहनी कौन करेगा?
         जुगल नाम के खूबसूरत लड़के ने माइक हाथ में लेने का अभिनय किया - मैं तब नाइंथ में था। सेंट्रल स्‍कूल मेरठ में पढ़ता था। एक दिन पापा की लाइब्रेरी में ऐन फ्रैंक की डायरी हाथ लग गयी। चुपके से स्‍कूल बैग में डाली और स्‍कूल बस में किताब खोल कर बैठ गया। अब किताब में इतना मन रमा कि छोड़ने को दिल ही न करे। डेस्‍क के भीतर किताब खोल कर बीच-बीच में पढ़ता रहा। तीसरे पीरियड तक आते-आते ये हालत हो गयी कि किताब खोल कर सिर झुका कर लगातार पढ़ने लगा। पता ही नहीं चला कि कब इंगलिश की टीचर मिसेज भसीन आयीं और पढ़ाना शुरू कर दिया। अपन राम तो ऐन फ्रैंक में मस्‍त। मिसेज भसीन ने देखा कि मेरा ध्‍यान क्‍लास में नहीं है। शायद एटैंडेंस में मैंने यस मैम भी नहीं बोला था। उन्‍होंने दो तीन बार मेरा नाम पुकारा लेकिन सुनायी किसे देना था। पूरी क्‍लास में सन्नाटा। मिसेज भसीन मेरे सिर पर आ कर खड़ी हो गयीं और बोली- क्‍या पढ़ रहे हो जुगल?
         मैडम को सिर पर खड़ा देख कर मेरे तो हाथ पैर फूल गये। मुंह से मैं मैं ही निकल पाया। मैडम ने मेरे हाथ से किताब ली और टाइटल देख कर पूछा – कहां से लाये?
- पापा की लाइब्रेरी से, सॉरी मैडम, अब आगे से..।
- जब पढ़ लो तो मुझे देना। मैंने नहीं पढ़ी है। कह कर मैडम ब्‍लैक बोर्ड की तरफ बढ़ गयीं।
- अब भी सोचता हूं कि अगर मैं कोई ऐसी-वैसी किताब पढ़ रहा होता तो मेरी तो खैर नहीं थी। जुगल के इस किस्‍से पर खूब तालियां बजीं।
अब बैंकर नीलाभ खड़ा हुआ – मैं झांसी के पास के एक कस्‍बे का हूं। हमारे कस्‍बे में एक ही सिनेमा हॉल था। शुक्रवार के दिन नयी फिल्‍म लगने पर हमारे और आसपास के सभी स्कूलों और इंटर कालेज के कई लड़के यूनिफोर्म पहने ही फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो के लिए पहुंच जाते थे। हमारा पूरा गैंग था। अपने बैग रखने के लिए हमने सिनेमा हाल की कैंटीन वाले को पटा रखा था। उसका लड़का हमारे साथ ही पढ़ता था और वही सबके लिए टिकटों का इंतजाम भी करता था। बेशक बाप के डर से हमारे साथ फिल्‍म नहीं देख पाता था। लेकिन हमारे कॉलेज का प्रिंसिपल हमारा भी बाप था। सीनियर क्‍लासेस के रजिस्‍टर से चेक कराता था कि कौन-कौन से लड़के स्‍कूल से गायब हैं। फिर वह वाइस प्रिंसिपल सिंघल के साथ टार्च ले कर एक-एक बच्‍चे को थियेटर में ढूंढता था। नयी पिक्चर की तो ऐसी तैसी होती ही थी, हम सबको चार दिन के लिए रेस्‍टिकेट कर दिया जाता था। तब दस रुपये जुर्माना दे कर ही दोबारा एडमिशन होता था हमारा। बाद में पता चला था कि ये जुर्माना उन दोनों की कमाई जरिया था।
- हमारा किस्‍सा इंदौर का है। रिया ने बताना शुरु किया – हमारी एक मिस सरीन मैम होती थीं। सातवीं क्‍लास की बात है। वे अक्‍सर बात-बात पर क्लास में आकर नाराज़ हो जाया करती थीं और मुंह फुला कर रूठ जातीं। हम पूरी क्लास के बच्चे माफ़ी माँग-माँग कर थक जाते, तब कहीं जाकर फिर से क्लास शुरू हो पाती।
- और हमारी मिस हरदीप गिल मैम थीं। ये शिखा थी - जो हमें अंग्रेजी और भूगोल पढ़ाया करती थीं। वैसे ग़ज़ब का पढ़ाती थीं लेकिन उनका पेंसिल के सिरे को सिर पर चुभो कर समझाने का जो अंदाज था, वही दुखदायी था। किसी एक स्‍टूडेंट का ग़लत बोलना या लिखना और फिर पूरी क्लास को पनिशमेंट। एक बार हमारी क्लास की एक लड़की ने Pluralके स्पेलिंग गलत बोले थे पुरुलल। बस, फिर क्या था आदेश हुआ - कल सभी प्लुरल शब्द अपनी कॉपी पर हज़ार बार लिख कर लाना। घर पर बैठ कर रात को यही होमवर्क निपटा रही थी कि पापा ने पूछा था  क्या हो रहा है ये सब इतनी रात को। मैंने जब उन्हें बताया तो सुनकर उन्होंने कहा था  कोई ज़रूरत नहीं लिखने की। तुम बच्चों के संग-संग ये पनिशमेंट हमारी भी है, अरे कॉपी पेन तो हमें ही खरीद कर देना पड़ता है। बस फिर क्या था, पापा के डर से मैंने वो लिखना अधूरा छोड़ दिया। अगले दिन सारी क्लास लिख कर लायी थी, सिवाए मेरे। बस क्लास टाइमिंग के बाद हरदीप मैम ने अपने हॉस्टल के कमरे में बिठाकर मुझसे वो काम पूरा करवा कर ही छोड़ा था।
हरलीन ने जो किस्‍सा सुनाया, वह मैं भी जानती थी - नवां शहर से चंडीगढ़ जाने वाले रूट पर लगभग एक-डेढ़ किमी. के फासले पर आई. टी. आई. हुआ करती थी लड़कों की। बस चालक आई. टी. आई. में पढ़ने वाले लड़कों की टोली को आई चलाई कहा करते थे कि इनका काम तो आई. चलाई है, यानी जब बस नवां शहर की तरफ आए तो आई. टी. आई. के सामने रुकवा कर चढ़ लो और जब नवां शहर से बाचकर, चणियाणी, रोपड़ के लिए जा रही हो तो उधर जाने वाली बस से इधर चढ़ जाओ और आई. टी. के सामने रुकवा कर उतर जाओ, पता नहीं वे लड़के दिन में कितने फेरे लगाते होंगे ऐसे ही। मकसद एक ही होता था कि दोनों तरफ की बसों में उस वक्‍त भरपूर लड़कियां होती थीं और सारी बसें लड़कियों की खिलखिलाहट और एक खास किस्‍म की जनाना महक से मह मह कर रही होती थीं।
Ø   
पार्टी रात दो बजे तक चली थी। सभी ने अपने स्‍कूली दिनों के किस्‍से सुना कर समां बांध दिया था। मुझे उस ग्रुप ने पूरे मन से अपना लिया था। मैंने एक बात बहुत शिद्दत से महसूस की थी कि सब के सब पूरी तरह से वर्तमान में जी रहे थे। उसे पूरी तरह एन्‍जाय कर रहे थे और अगर स्‍कूली किस्‍से सुनाने के मामले को छोड़ दिया जाये तो अतीत की छाया कहीं भी नज़र नहीं आयी थी।
हरलीन दिन में बता ही चुकी थी कि उसको छोड़ कर कमोबेश सभी के सभी किसी न किसी रूप में फिल्‍मों और मीडिया से जुड़े हुए हैं। वह खुद भी उसी लाइन से हो कर आयी है। स्‍ट्रगल सबका स्‍थायी रूटीन है और इनमें से कई तो अक्‍सर ही हैंड टू माउथ वाली हालत में आ जाते हैं लेकिन मज़ाल है कि किसी दूसरे को खबर मिले। हां, अगर किसी एक को भी खबर हो जाये तो उसका दुख सबका साझा दुख हो जाता है। हम सब अकेले हैं लेकिन हम में से कोई भी अकेला नहीं है। एक परिवार है हमारा जिसमें लोग आते जाते रहते हैं। कोई एक जाता है तो उसकी जगह दूसरा आ जाता है। कंटीन्‍यूटी बनी रहती है।
जब सब जाने की तैयारी कर रहे थे शिखा ने माइक संभालने की एक्‍टिंग की- सज्‍जनो और सजनियो, आज की स्‍कूल पार्टी बहुत शानदार रही। बेशक बहुत दिनों बाद इतना शानदार चिकन खा कर पेट भर गया लेकिन मन नहीं भरा। है। बॉलीवुड की रीत के अनुसार आज की पार्टी का सिक्‍वेल बनाया जायेगा। बुधवार को एक धार्मिक गजटेड हॉलीडे है और नौकरी करने वालों की छुट्टी भी है। छुट्टी इतने मायने नहीं रखती जितनी ये बात रखती है कि उस दिन ड्राइ डे है। ड्राइ डे पर पीने का मज़ा सब जानते ही हैं। आज की पार्टी का सीक्‍वेल मेरे डेरे पर। सारे इंतज़ाम एक दिन पहले। सब हे हे करके तालियां बजाने लगे।
- लेकिन अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई। हम चाहते हैं कि बारातियों का स्‍वागत चिकन नेहा से किया जाये। सबने तालियां बजायी।
अब माइक रिया ने संभाला – सीक्‍वेल तीन मेरे घर पर। तारीख की घोषणा जल्‍द की जायेगी।
तभी शिखा ने टोका – दोस्‍तो, क्‍या ख्याल है कि नेहा से मुंबई आने की वेलकम पार्टी अभी ली जाये या उनकी यहां मिलने वाली सेलरी का इंतज़ार किया जाये।
इस सवाल के जवाब में सबकी एक ही राय थी कि नेहा पहले सबकी खातिरदारी देख ले, कुछ कमा धमा ले, उसकी तरफ से पार्टी होती रहेगी। मुझे भला क्‍या एतराज हो सकता था।
सबके जाने के बाद मैंने हरलीन से पूछा था – यार एक बात बताओ।
- पूछो जानेमन।
- अभी जो लोग गये हैं, उनमें चार लड़कियां थीं और तीन लड़के थे। रात के दो ढाई बज रहे हैं। इतना तो तय ही है कि सबके घर अलग अलग दिशाओं में होंगे। इत्‍ती रात अकेले। मेरा मतलब।
- यही सवाल है या कुछ और भी। हरलीन आंखें चौड़ी किये मेरी तरफ देख रही थी।      
- सवाल तो यही परेशान कर रहा था मुझे, वैसे....। हरलीन का चेहरा देख कर मुझे लगा कि कहीं कोई गलत सवाल तो नहीं पूछ लिया मैंने।
हरलीन हँसने लगी - ऐसा है नेहा कि तुम्‍हारे एक सवाल के दो जवाब हैं। पहला तो यहां दिल्‍ली, पंजाब या नार्थ इंडिया की तुलना में लड़कियां एकदम सेफ हैं। कोई भी लड़की कहीं से भी देर रात तक अकेले घर आ सकती है। सब आती ही हैं। डर जैसी कोई बात नहीं कि कोई आदमी छोड़ने या लेने जाये लड़की को। यहां न ये संभव है, न रिवाज और न ही ये चोंचला पालने की हैसियत है किसी की। सब अकेली ही आती जाती हैं। जब मैं यहाँ आयी थी तो मेरे मन में भी यही सवाल उठा था कि इतनी देर रात को अकेले। लेकिन वक्‍त ने सब सिखा दिया।
- अब जवाब नम्‍बर दो भी दे दो। तुम्‍हें पता है दूसरा जवाब सुने बिना मुझे नींद नहीं आने वाली।
हरलीन मेरे गले से लिपट गयी थी। मैंने उसे वैसे ही रहने दिया था। वह मेरे कान में फुसफुसायी थी - सब चलता है। सब की सब मैच्‍योर हैं और अपना भला बुरा समझती हैं। एक रात किसी दोस्‍त के घर रह भी लेंगी तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला। आखिर जवान शरीर की कुछ ज़रूरतें होती ही हैं। इग्‍नोर नहीं करना चाहिये उन्‍हें। एक रात अगर शहर के दो कमरे नहीं भी खुले तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। टूथ ब्रश सबके घर में एक्‍स्‍ट्रा रखे होते हैं। हां, सरकार की बात ज़रूर मान लेनी चाहिये। प्‍ले सेफ। और वह खिलखिला कर हंसने लगी थी।
मैं मुस्‍कुरायी थी, कितना आसान होता है कुछ लोगों के लिए जटिल से जटिल बात कह जाना। बात संभालने के हरलीन के तरीके मुझे बहुत अच्‍छे लगे थे। वह कभी भूल कर न तो नेगेटिव बात सोचेगी, न ही करेगी। हमेशा पॉजिटिव। बेशक बेरहम वक्‍त सब सिखा देता है लेकिन उसी बात को कहने का हरलीन का अंदाज निराला।
Ø   
            हम दोनों वहीं पसर गयी थीं। मैंने अपने ऑफिस वालों से बात कर ली थी। लंच के आसपास ही जाना था मुझे इसलिए अगले दिन के लिए हड़बड़ी करने का कोई मतलब नहीं था। हरलीन ने बता ही दिया था कि वह चाहे रात कितनी भी देर से सोये, सुबह 6 बजे उठ ही जाती है।
Ø   
सुबह उसने मेरे लिए भी चाय बनायी तो मेरी भी नींद खुल गयी थी। चाय पीते-पीते ही उसने मुझे घर की डुप्‍लिकेट चाबी थमा दी थी, घर से जुड़ी सारी बातें बता दी थीं और मार्निंग वॉक के समय ही बिल्‍डिंग के वाचमैन से मिलवा दिया था। सोसाइटी के सेक्रेटरी से वह मेरे बारे में पहले ही बात कर चुकी थी कि मैं अपना खुद का इंतज़ाम होने तक यहीं रहने वाली हूं। हरलीन ने बताया था कि ये एक ज़रूरी फार्मैलिटी है जिसे मानना हर किरायेदार के हित में होता है।
चाय पीते समय हरलीन मुझे पिछली रात के सब दोस्‍तों के बारे में एक एक करके बता रही थी। कौन क्‍या करता है, उससे कैसे परिचय हुआ और दोस्‍ती के दायरे में कैसे आया या आयी। रात को बेशक हम सब कई घंटों के लिए एक साथ थे लेकिन एक ही कई लोगों से एक साथ हुई मुलाकात को अलग अलग याद कर पाना संभव नहीं रहता। किसी का चेहरा याद रहा था तो किसी का मैनरिज्‍म या कोई और बात। अचानक मुझे उस लड़की का ख्याल आया जो बेमन से एक कोने में बैठी थी और बिना कुछ खाये पीये दस मिनट में ही वापिस चली गयी थी। हरलीन से पूछा मैंने – कौन थी वह। एकदम मिसफिट लग रही थी।
- उसकी मत पूछो यार। लम्‍बी कहानी है। दरअसल होता ये है कि बॉलीवुड सबके लिए अंधों का हाथी है। जिसे जो पक्ष नज़र आता है वही उसके लिए सच होता है। उसका नाम तृप्ति है लेकिन शायद वह मुंबई की सबसे अतृप्त लड़की है। हर मायने में। रांची की है। कालेज के दिनों में कभी एक्‍टिंग का जुनून रहा होगा। कुछ नाटक किये भी होंगे। उन्‍हीं दिनों एक मुसलमान कलाकार के साथ भाग कर दिल्‍ली आ गयी। शादी वादी कर ली। कुछ बरस तो ठीक निभी। दोनों नाटक और नुक्‍कड़ नाटक करते रहे। पालिटिकल संबंध विकसित किये। पार्टियों के लिए काम किया और खूब पैसे कमाये। एक ईवेंट मैनेजमेंट कंपनी भी खड़ी कर ली। अच्‍छे खासे खा कमा रहे थे। इस बीच एक बेटा भी हो गया। गाड़ी वाड़ी भी जुटा ली थी लेकिन तभी उस लड़के से खटपट शुरू हो गयी। बता रही थी कि उसे हर समय सैक्‍स की भूख रहती थी। न मौका देखता न समय। वह कितना झेलती। इस चक्‍कर में उसने दूसरी लड़की का इंतज़ाम कर लिया और तृप्ति को अपने घर से, अपने जीवन से और अपनी कंपनी से निकाल दिया। बेचारी सड़क पर आ गयी। आवाज़ अच्‍छी थी सो कुछ दिन तो डबिंग, वाइस ओवर वगैरह का काम मिला। लेकिन ऐसे कब तक चलता।
- हमम
- तब तक घर वालों से थोड़ा बहुत पैच अप हो चुका था। बेटे को अपनी बहन के पास छोड़ और चली आयी मुंबई हिरोइन बनने। दो एक साथी रहे होंगे दिल्‍ली के दिनों के जो यहां अपने अपने तरीके से पापड़ बेल रहे थे
- पता है नेहा, यहां सांवला या बहुत खूबसूरत न होना कई बार चल जाता है लेकिन अगर आपके चेहरे पर हर वक्‍त नेगेटिविटी पसरी रहे तो कोई पास नहीं फटकने देता। पिछले एक बरस से हैं यहां और इस बीच कम से कम 500 ऑडिशन तो दिये ही होंगे। मेरी कुछ कास्‍ट डायरेक्टरों से और इसके साथी स्‍ट्रगलरों से बात हुई है। वे बताते हैं कि तृप्ति ऑडिशन में भी वही कसा चेहरा ले कर आती है। कहीं मुस्‍कुराना नहीं। लाइवलीनेस नहीं। बस हर समय तने तनाये डायलाग बोल कर चले आते हैं और शिकायत करते हैं कि लोग कॉम्‍पो के बिना काम नहीं देते। मैंने इसका फोटो प्रोफाइल देखा है। वही तने तनाये चेहरे वाली फोटोज़। इसी अक्‍खड़ स्‍वभाव के चलते आज तक भीड़ में खड़े रहने लायक काम भी नहीं मिला। कभी कोई वाइस रिकार्डिंग के लिए बुला ले तो उससे तो घर नहीं चलता। मकान की लीज है, ऑटो है, मोबाइल है, ढंग के कपड़े हैं और रूखा सूखा ही सही दो वक्‍त का खाना है। अब सबकी कर्जदार हो चुकी है। चिड़चिड़ी होती जा रही है। कुछ खराब अनुभव हुए होंगे। रोज़ ही सबके साथ होते रहते हैं। बस मान कर चल रही है कि बॉलीवुड इसे बिस्‍तर पर सुलाये बिना काम देगा नहीं और ये ऐसा होने नहीं देगी। अब लड़ाई आमने सामने की है।
- हमम
- इधर दो गलतियां और कर बैठी हैं। कभी सत्ताधारी पार्टी के लिए नुक्‍कड़ नाटक किये होंगे। लोगों से अच्‍छे संबंध भी बने होंगे उस वक्‍त। संयोग से उनमें से एक आजकल सूचना प्रसारण मंत्री हैं। मादाम को लगा कि वे इनके सखा रहे हैं। एक साथ टपरे पर चाय पीते रहे हैं। इसे लगा कि वे अगर किसी चैनल हैड को फोन कर देंगे तो इनके आगे शानदार रोल्‍स की लाइन लग जायेगी। यहां से उन्‍हें फोन किया और उनके आगे अपना दुखड़ा रोया। साहब जी ने कह दिया – आ कर मिल जाओ। मैडम ने जरा भी नहीं सोचा कि मंत्रियों के कहने और करने में कितना फर्क होता है। हम सब ने लाख समझाया कि वैसे भी तुम्‍हारे पास तंगी रहती है। आये दिन सामान सड़क पर आने की नौबत आती रहती है। क्‍यूं पांच सात हज़ार की चपत लगवा रही हो। लेकिन नहीं मानी मैडम। पता चला कि पंद्रह दिन में मंत्री महोदय ने न तो इनका फोन उठाया न मिलने का समय दिया। अगर किसी और नम्‍बर से फोन करो तो मंत्री महोदय फोन उठाते ही नहीं। पीए हमेशा यही बतायेंगे कि साब बिजी हैं।
- सो सैड।
- ऊपर से एक परेशानी और हो गयी कि जिस बहन के पास बरस भर से बच्‍चे को रखा हुआ था उसने अल्‍टीमेटम दे दिया कि ले जाओ अपने बच्‍चे को हम कब तक रखेंगे। अब बच्‍चे को साथ ले आयी है। जब से आयी है, बच्‍चे के एडमिशन को ले कर परेशान है। ऑडीशन वगैरह के लिए जाने में तकलीफ अलग से होने लगी है। यहां से भी इसीलिए जल्‍दी निकल गयी थी कि बच्‍चे को अकेले छोड़ कर आयी थी।

- और वो सांवली सी दुबली पहली लड़की जो धनंजय के साथ आयी थी और बहुत कम बोल रही थी?

- वो दीपिका थी। मिसफिट सपनों का एक और प्रोडक्‍ट। पता है नेहा, दिक्कत सपने देखने में नहीं होती। सपने नहीं देखेंगे तो पूरे कैसे करेंगे। संकट तब आता है जब आप अपने कद के हिसाब से सपने नहीं देखते। अपने परों को तौलते नहीं कि आप सबसे पहले कितनी ऊंची उड़ान भरने की काबिलीयत रखते हैं। बाकी उड़ानें तो अपने आप मंजिल तलाश लेंगी। मेरा मानना है कि सपने सीढ़ियों की तरह होते हैं। एक सपना पूरा हो जाये तभी दूसरे के लिए पंख पसारने चाहिये। पर यहां तो जो भी आता है, पहले ही दिन कैटरीना कैफ या रणबीर कपूर को बेदखल करके उसकी जगह लेना चाहता है।

- सही कह रही हो हरलीन, सपने भी पूरा होने के लिए पूरी मेहनत, डेडीकेशन और समय मांगते हैं।

- अब इस दीपिका को ही देख लो। बारहवीं फेल है। लेकिन साहित्‍य में रुचि है। माता पिता हैं नहीं और दिल्‍ली में बड़ी बहन के पास रहती थी। थोड़ा बहुत लिखती पढ़ती थी और अपने हिसाब से कुछ कहानियां और कविताएं इधर उधर छप भी गयी थीं। घर बैठे एक उपन्‍यास लिखा होगा और अपने बल बूते पर छपवा भी लिया। विजिटंग कार्ड बुक कहते हैं जिसे कि जो भी मिले, एक कॉपी थमा दो। ले सब लेते हैं, पर पढ़नी किसने।

            - फिर?

- फिर क्‍या, फेसबुक पर आयी तो सबकी देखा देखी अपनी कविताएं और कहानियां आये दिन अपनी वॉल पर लगाना शुरू कर दिया। लाइक्‍स और कमेंट्स आने लगे तो उत्‍साह बढ़ा और रचनाएं डालने की संख्या भी बढ़ी और फ्रिक्‍वेंसी भी। फेसबुक पर ही कई मित्र बने और वहीं से लोगों ने चने के झाड़़ पर चढ़ाना शुरू कर दिया। अपना ब्‍लाग पहले से बना ही हुआ था तो अब फेसबुक पर रोज ही नयी पोस्‍ट। कोई कहे कि आपकी कहानियों में ग़ज़ब के विजुअल्‍स हैं तो कोई तारीफ करे कि ग़ज़ब लिख डाला। ये तो फिल्‍म की तैयार कहानी है। स्‍क्रिप्‍ट राइटर को तो जरा सी भी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी तो कोई कहे कि आप खुद ही स्‍टोरी राइटर और खुद ही स्‍क्रिप्‍ट राइटर। आपको तो फिल्‍मों और टीवी सीरियल्‍स के लिए लिखना चाहिये।

- फेसबुक कुछ और करे ना करे, चने के झाड़ का काम ज़रूर करता है।

- शिशिर नाम का बंदा फेसबुक से ही उसका दोस्‍त बना था और अपने आपको कैमरामैन बताता था। प्रोफाइल में भी यही लिखा था। बताता कि मुंबई आने के बाद पिछले आठ बरस में किस किस फिल्‍म से जुड़ा रहा है। कहता - एक बार आप आ जाइये। बड़े बड़े डाइरेक्‍टर्स और प्रोड्यूसरों के साथ रोज़ का उठना बैठना है। इस लाइन में बहुत काम है और अच्‍छा लिखने वालों की बेहद कमी। देखती नहीं कितने घटिया सीरियल और कितनी घटिया फिल्‍में आ रही हैं। वही पुरानी सोच। आप पहले से पता सकते हैं कि आगे क्‍या होने वाला है। मैं तो रोज़ ही देखता हूं बल्‍कि कहानी जाने बिना पहले से पता होता है कि क्‍या शूट करना होगा। तुम एक बार आओ तो सही। न जमे तो लौट जाना। न हो तो स्‍क्रिप्‍ट राइटिंग का 6 महीने का कोर्स कर लो। कोर्स में इस लाइन के सब सीनियर्स ही पढ़ाने के लिए आते हैं। एक बार सिलसिला बन जाये तो बल्‍ले बल्‍ले। रहने की चिंता मत करो। पीजी बन कर रहने वालों के लिए कोई दिक्कत नहीं। फिर मैं हूं ना।

- ओह, फिर?
- उसके झांसे में आ गयी। बहन से सवा लाख रुपये उधार लिये और शिशिर को किसी ऐसे ही कोर्स में एडमिशन पक्‍का करने के लिए एक लाख रुपये भेजे और पच्‍चीस हजार रुपये भेजे कमरे का इंतजाम करने के लिए। और चली आयी मुंबई स्‍क्रिप्‍ट राइटर बनने। शिशिर ने अगले दिन ही बता दिया कि दोनों काम हो गये हैं।
- फिर ?
- हालांकि उसने शिशिर को अपने आने के बारे में बता दिया था लेकिन वह न तो स्‍टेशन पर नज़र आया और न ही फोन उठा रहा था। दीपिका के पक्ष में सिर्फ एक ही बात थी कि उसके पास शिशिर के घर का पता था। बहुत मुश्‍किल से उसके घर पहुंची। वहां ताला बंद था। लेकिन एक अच्‍छी बात हुई कि पड़ोसी के घर चाबी थी। बाहर से आयी लड़की का मामला मान कर दीपिका के लिए कमरा खोल दिया गया।
- ओह
- शिशिर आया तो दीपिका को देख कर उसके हाथ पाँव फूल गये। उसने न तो किसी कोर्स में एडमिशन कराया था और न ही कहीं उसे ठहराने की ही बात की थी।
- तय है वह फोटोग्राफर भी नहीं होगा।
- सवाल ही नहीं होता। कैमरा टीम का सामान पेटियों में रखने निकालने का काम करता था। दीपिका ने रोना धोना शुरू कर दिया। पुलिस की धमकी दी। अब पड़ोसियों के दबाव में उसे अपना कमरा दीपिका के लिए खाली करना पड़ा और दीपिका के दबाव में एक फालतू से कोर्स में चार किस्तों में फीस देने की शर्त पर एडमिशन भी कराना पड़ा। शिशिर से पैसे वापिस मिलने का तो सवाल ही नहीं था। जब महीने भर में फीस की पहली किस्त भी नहीं जमा करायी गयी तो कोर्स छूटना ही था।
- अरे
- वैसे भी दीपिका अपने आपको उस कोर्स में मिसफिट पा रही थी। एक तो वहां सब अमीर स्‍टूडेंट और यहां दीपिका जिसे अंग्रेजी के पाँच वाक्‍य भी समझ न आते। वह तो ये सोच के यहां आयी थी कि आते ही स्‍क्रिप्‍ट राइटिंग का काम उसे मिल जाने वाला है।
- अब क्‍या कर रही है?
- करना क्‍या है। कोर्स गया तेल लेने। पहले तो सारे चैनल्‍स में और प्रोडक्‍शन हाउसेस में चक्‍कर काटती रही। अब नौकरी तलाश कर रही है कि पाँच सात हजार की नौकरी मिल जाये तो यहां टिकने का सिलसिला बने। बारहवीं फेल के लिए ऐसी नौकरी भी एक सपना ही है।
- और शिशिर?
- उसने तो तभी अपना मोबाइल नम्‍बर बदल लिया था। अब दीपिका के बस की बात थोड़े ही है कि उसे इस अथाह भीड़ में खोज निकाले। कहने को दीपिका के कमरे में अब भी उसका सामान रखा है जिसे बेच कर हजार रुपये भी न मिलें जबकि दीपिका ने उससे कम से कम नब्‍बे हजार रुपये लेने हैं। कोढ़ में खाज की बात ये कि दो तीन महीने में उसके मकान की लीज़ खत्‍म होने वाली है।
- तुम्‍हारे ग्रुप में कैसे आ गयी ये मरगिल्‍ली?
- मत पूछो। हरलीन का डेरा सबकी शरण स्थली है। कहीं मिल गयी थी पल्‍लवी को। किसी प्रोडक्‍शन हाउस में। काम मांगने गयी होगी। पल्‍लवी ने देखा कि इसे तो बॉलीवुड के शेर चीते खा जायेंगे और डकार भी नहीं लेंगे तो उसी ने सलाह दी थी कि जब भी मौका मिले हमारे ग्रुप में आ जाया करे। दो बातें ढंग की सीखेगी तो अपने आपको बचा कर इस शहर में जी पायेगी।
- पहले भी आती रही है क्‍या?
- नहीं दूसरी तीसरी बार ही आयी है और देखा ही होगा कि यहां भी मिसफिट थी।
Ø   
मुंबई ऑफिस में मेरा जॉब प्रोफाइल बदल गया था। अब मैं पूरे ऑफिस की इंचार्ज थी और मेरा काम अब सिर्फ डॉक्‍यूमेंटरीज शूट करना न रह कर यही काम बाकी टीमों से भी करवाना था और पूरे ऑफिस को मैनेज करना था। यहां के लोग बहुत अच्‍छे थे और अपना काम बखूबी कर ही रहे थे। यह पहली बार था कि मैं ऑफिस में बैठ कर काम कर रही थी। पहला दिन एक दूसरे को जानने और गप्‍प मारने में ही बीत गया था।
Ø   
उस शाम मैं और हरलीन ही थे। हम दोनों रेड वाइन के सिप ले रही थीं। मेरा ध्‍यान अपने मोबाइल पर था और मैं पुराने मैसेजेस डिलिट कर रही थी। तभी हरलीन ने बहुत प्‍यार से हौले से मेरा नाम पुकारा था। मैं उसकी आवाज़ की थरथराहट से चौंक गयी थी। मैंने मोबाइल रख कर उसकी तरफ देखा था। उसका चेहरा एकदम तरल हो रहा था। पूछा था मैंने – कहो हरलीन। जानती हूं तुम कुछ ख़ास बात कहने वाली हो।
- हां नेहा, उस दिन मैंने तुम्‍हें अपने बारे में कुछ कॉमन बातें बतायी थीं। आज एक और बात बताने जा रही हूं। तुम्‍हें सुन कर हैरानी तो होगी लेकिन परेशानी नहीं होनी चाहिये। वह मुझसे आंखें मिलाकर बात कर रही थी।
- अब कहो भी।
- मैं लेस्‍बो हूं नेहा। उसकी आवाज़ अब सम पर आ गयी थी लेकिन उसमें कंपन की किरचें बाकी थीं - लेकिन तुम्हें चिंता करने की ज़रा भी ज़रूरत नहीं। मेरी परमानेंट पार्टनर है बरखा।
मैं एक पल के लिए सचमुच हैरान तो हुई थी लेकिन इसमें परेशान होने जैसी कोई बात नहीं थी। जानती थी अकेली या हॉस्टल में रहने वाली लड़कियां इस तरफ मुड़ ही जाती हैं। स्‍टेशन पर और बाद में घर पहुंचने पर वह जिस तरह से मुझसे लिपट कर मिली थी, उसकी बॉडी लैंग्‍वेज से मुझे ऐसा लगा था लेकिन पूछ नहीं सकती थी। अब हरलीन ने खुद ही अपने पत्‍ते खोल दिये थे। मैं उठ कर हरलीन के पास आ गयी थी और उसे अपने अंक में भर लिया था - तो क्‍या हुआ। इट्स ऑल राइट। इट्स यूअर वे ऑफ लाइफ एंड इट्स परफैक्‍टली ओके विद मी।
हरलीन के चेहरे की रंगत लौट आयी थी। मुझे पता था कि अब मुझे कुछ और नहीं पूछना है। जो भी बताना है हरलीन मुझे खुद ही बतायेगी।
हरलीन ने वाइन का एक बड़ा घूँट लिया, और उसे अपने मुंह के भीतर कुछ देर रह जाने दिया। वह मेरा हाथ अपने हाथों में थामे हुए थी। वाइन भीतर उतार लेने के बाद उसने बताना शुरू किया - मेरी पहली पार्टनर चंडीगढ़ में हॉस्टल में रूम पार्टनर थी। प्रीत नाम था उसका। तुम खुद हॉस्टल में रही हो और अलग अलग शहरों में रही हो तो जानती ही होगी कि ये लेडीज़ हॉस्टल ही लेस्‍बो प्रोडक्‍ट के ग्रूमिंग ग्राउंड्स होते हैं। बहकने, फिसलने, बिगड़ने और बर्बाद होने के पूरे और गारंटीशुदा चांसेस। कारणों के डिटेल्‍स में जाने की ज़रूरत नहीं है। तुम सब जानती हो। अपने बारे में इतना ही कहूंगी कि सब होता चला गया और हम एक दूजे के लिए बेहद ज़रूरी होते चले गये। बाद में वह जॉब के लिए गुड़गावां चली गयी।
बीच बीच में एक दो और भी मिलीं जो मेरी तरह प्यासी रूह थीं। चंडीगढ़ में भी और यहां मुंबई में भी। बीच में लम्‍बे अकेलेपन भी आये। तभी मुझे बरखा मिली थी। बरखा भी रिया की तरह डबिंग आर्टिस्‍ट है। रिया ने ही मिलवाया था। बरखा को उतना काम नहीं मिलता बरखा को। पहले किसी और के साथ रहती थी। साल भर पहले मैं उसे अपने यहां ले आयी। ये देखो उसकी फोटो, और तब हरलीन ने मुझे बरखा की कई तस्‍वीरें दिखायी थीं। लैपटॉप में, मोबाइल में, कैमरे में और फोटो प्रिंट्स भी। क्‍यूट थी बरखा। सारी तस्‍वीरों में उसके चेहरे पर अलस भाव देखा जा सकता था। थोड़ा थोड़ा लापरवाही वाला अंदाज लिये।
पूछ ही लिया मैंने हरलीन से- मुझे ऐसा क्‍यों लग रहा है कि बरखा में जीवन के प्रति उतना उत्‍साह नहीं है जितना मैं तुममें देख रही हूं।
- सही पहचाना नेहा। बरखा है ही ऐसी। एक नम्‍बर की आलसी। बातें भी करेगी तो एक एक शब्‍द के वाक्‍य, जैसे बोलने में भी चार्ज लगता हो। बॉडी मूवमेंट भी बहुत कम। चलने में, बोलने में, हंसने में और काम करने में बेहद लिमिटेड मूवमेंट्स। लेकिन जाने क्‍या बात है बरखा में कि इन सारी कंजूसियों के बावजूद वह बेहद रोमांटिक और क्‍यूट है। पता है वो अपने सारे काम अपनी आंखों से करती है। बिहारी का एक दोहा है ना, उसकी नायिका की तरह। यह कह कर उसने बरखा की तस्‍वीर चूम ली है।
- वापसी कब है उसकी।
- तीन बार तो उसका आना टल चुका है। देखें अब कब आती है।
- मेरे लिए रहने का इंतज़ाम तो करना होगा ना उसके आने से पहले।
- वो सब हो जायेगा। जब तक नहीं आती, यहीं रहो आराम से।
- फिर भी कुछ तो सोचना होगा। एक बार तो दिल्‍ली भी जाना होगा सब कुछ पैक अप करने और सामान वगैरह लाने।
- नेहा डार्लिंग एक बात बताओ, तुम्‍हें वाइन का ये गिलास खत्‍म करते ही तो शिफ्ट नहीं करना है।
- सॉरी मेरा ये मतलब नहीं था।
- इट्स ओके।
- और हमारी ये बात उस दिन वहीं पर खत्‍म हो गयी थी।
Ø   
हरलीन से अच्‍छी पटने लगी थी। अगर मैं देर से आती तो वह सारे काम करके रखती थी और अगर मैं पहले घर आ जाती तो मैं सारे काम देख लेती। लेकिन मैं महसूस कर पा रही थी कि उसे बरखा की गैर मौजूदगी सालती रहती। अब चूंकि वह मुझे सब कुछ बता चुकी थी, किसी न किसी बहाने से बरखा का जिक्र आ ही जाता। वह उससे जुड़े किस्‍से सुनाती और उससे जुड़ी सारी बातें बताती। उसने बताया कि बरखा के पास जब काम नहीं होता था या वह जल्दी फ्री होती तो वह हरलीन के स्‍कूल में ही चली आती और वहीं उसका इंतज़ार करती थी। दोनों तब एक साथ घर वापिस आती।
अचानक हरलीन के मुंह से निकल गया था कि उसने बरखा को अच्‍छी खासी रकम दी है ताकि वह अपने भाई की शादी में शान से घर जा सके। यह बात कहने के बाद हरलीन पछतायी भी थी कि क्‍या कह गयी। उसने तुरंत बात बदली थी और मेरी बांह पकड़ कर भीतर कमरे में ले गयी थी और बरखा का वार्ड रोब दिखाया था। वहां एक ये बढ़ कर एक डिज़ाइनर ड्रेसेस का ढेर लगा पड़ा था।
- देखा उसका कलेक्‍शन। कितना अच्‍छा है ना और ये देखो उसके पर्स। ड्रेस कलेक्‍शन दिखाते समय मैं हरलीन के चेहरे पर चमक देख सकती थी। हरलीन को यह कहने की ज़रूरत नहीं थी कि ये सारा कलेक्‍शन उसका ही गिफ्ट किया हुआ था क्‍योंकि वह अभी थोड़ी देर पहले ही बता चुकी थी कि बरखा को इतना काम नहीं मिल पाता और उसका सारा खर्च हरलीन ही उठाती है। मैंने कलेक्‍शन की खूब तारीफ की थी और हम दोनों ड्रांइगरूम में आ गयी थी।  
Ø   
एक रात हम दोनों यूं ही गप्‍प बाजी कर रही थीं। थोड़ी देर पहले ही एक पार्टी से लौटी थीं और हल्‍का हल्‍का सुरूर बाकी थी। रात के दो तो बज ही रहे होंगे। अगले दिन संडे था तो जल्‍दी जागने और काम पर भागने की चिंता नहीं थी। हम ड्रांइग रूम में ही पसर कर लेटी हुई थीं। सिर्फ एक ही नाइट लैम्‍प की गुनगुनी रोशनी थी कमरे में। तभी हरलीन अपना लैपटॉप लेकर आयी थी और अपनी पुरानी तस्‍वीरों के स्‍लाइड शो दिखाने लगी थी। तय था कि उसकी और बरखा की तस्‍वीरें भी सामने आती ही और उसकी बातें भी होती ही। हमेशा यही होता था कि बातचीत में किसी न किसी बहाने बरखा का जिक्र आ जाता और फिर बाकी बातें बरखा की ही होतीं। मैं देख रही थी कि वह बरखा की एक तस्‍वीर पर उँगली फिरा रही थी मानो अपने सामने बैठी बरखा के बदन को सहला रही हो।
अचानक हरलीन ने बात बदली थी - पता है नेहा, मैंने बरखा के आपरेशन के लिए तीन लाख रुपये इकट्ठे कर लिये हैं। इतने ही और चाहिये। फिर सब एकदम परफैक्‍ट हो जायेगा।
मैंने तुरंत हरलीन की तरफ करवट बदली थी - कैसा ऑपरेशन और फिर सब कुछ कैसे परफैक्‍ट हो जायेगा। क्‍या तकलीफ है बरखा को?
- अरे कोई तकलीफ नहीं है। बरखा का जेंडर चेंज कराने की बात है। हमने डॉक्टरों से बात कर ली है। उसमें मैन्‍स हार्मोन्‍स हैं। ऑपरेशन से उसका जेंडर चेंज हो सकता है। तब हम आराम से शादी कर सकेंगे।
हरलीन की आवाज मोमबत्ती की लौ की तरह कांप रही थी - हम दोनों की सारी तकलीफें खत्‍म हो जायेंगी। बरखा वापिस आ जाये तो पहला काम यही करना है।
मैंने बहुत धीमी आवाज में कहा था - ये तो बहुत अच्‍छी खबर सुनायी हरलीन कि ऐसा भी हो सकता है। बरखा तैयार है क्‍या?
- हां तभी तो हम डॉक्टरों के चक्‍कर काट रहे थे। 
- कितना समय लगता है इस सबमें?
- साल भर से ज्‍यादा लग जाता है। कई तरह के ट्रीटमेंट हैं। साइकियाट्री से ले कर सर्जरी तक।
- किसी और को पता है ये सब?
- बहुत कम। एकाध को ही। हो सकता है उसी ने बात इधर उधर की हो।
- कुछ टेस्‍ट वगैरह हुए हैं क्‍या बरखा के?
- हां जब भी उसके पास टाइम होता है, चली जाती है। अभी तक तो साइकियाट्री ईवैल्‍यूशन से ले कर काउंसलिंग तक चल रहे हैं।
- हममममममम
- सबसे मुश्किल स्‍टेज यही होती है नेहा।
- समझ सकती हूं। आखिर ज़िंदगी का सबसे अहम फैसला है तो डॉक्‍टर्स अपनी ओर से कोई  कमी नहीं छोड़ेंगे।
Ø   
हरलीन के गैंग की पार्टियां पहले की तरह चलती रहतीं। मैं अब इस गैंग में पूरी तरह से शामिल कर ली गयी थी। हर बार किसी न किसी गैंग मेम्‍बर के यहां जमावड़ा होता ही और सब देर तक मस्‍ती करते। इस बीच मुझे लगभग सभी को बेहतर तरीके से जानने का मौका मिला था। दो एक बार ऐसा भी हुआ था कि हरलीन अपने स्‍कूल के बच्‍चों को ले कर बाहर गयी होती या किसी वजह से कहीं न आ पाती तो मुझे कोई न कोई पिक कर ही लेता या छोड़ भी जाता। मैं आते ही एक बेहद कम्‍फर्ट जोन में ऐश से रह रही थी और मुझे एक दिन के लिए भी अकेले या परेशान नहीं होना पड़ा था।
Ø   
बहुत बड़ी खबर थी। पल्‍लवी को जिस सीरियल में रोल मिला था, वह चल निकला था और उसके सौवें एपिसोड पूरे होने पर एक पार्टी दी जा रही थी। उसका रोल पसंद किया जा रहा था और उसे और आगे चलते रहने की गुंजाइश थी। पल्‍लवी को अब पहले से ज्‍यादा पैसे मिलने लगे थे और उसकी इज्‍ज़त भी बढ़ गयी थी। पार्टी में पल्‍लवी ने हम सब को बुलाया था।
आते समय हमें बहुत देर हो गयी थी और पार्टी में खाया पीया सब भूल चुके थे हम।
चेंज करने से पहले ही हरलीन ने व्‍हिस्‍की के दो लार्ज पैग बनाये थे और फ्रिज में से कुछ खाने का सामान निकाल कर माइक्रोवेव में गर्म करने रख दिया था।
अपना गिलास उठाते समय मैंने पूछा था  हरलीन से – यार एक बात बताओ। मैं पार्टी में देख रही थी कि कई लोगों की निगाह तुम पर थी। कितने ही बंदे थे जो तुमसे बात करने के लिए आगे आ रहे थे।
- थैंक्‍स मी लॉर्ड, अब मुद्दे की बात करें।
- उसी पर आ रही हूं। जब तुमसे मुंबई आने के बारे में बात हुई थी तो तुमने बेहद टालू तरीके से बताया था कि फिल्‍मी दुनिया में तुम नहीं जम पायी थी। अब आप मेहरबानी करके जरा बतायेंगी कि वे कौन से कारण थे कि आप चाहते हुए और टेलेंट होते हुए भी वहां से विमुख हो गयीं?
- छोड़ न यार, हरलीन ने लम्‍बा घूँट भरते हुए कहा - बस यूं समझ लो कि वो मेरा फील्‍ड नहीं था तो बाहर आ गयी।
- लेकिन ये फैसला इतना आसान नहीं रहा होगा और न ही एक ही दिन में लिया गया होगा।
- यार बहुत सारी बातें थीं और बहुत सारे अनुभव थे।
- हमममममम
- ओके तो सुनो। इंगलिश में एमए करने के बाद भी खाली बैठी थी। लेक्‍चरशिप मिल नहीं रही नहीं थी और टीचरी करनी नहीं थी। ये बात अलग है कि अब वही कर रही हूं। पढ़ाई के बाद चंडीगढ़ छूटना ही था। धनंजय के साथ कई नाटक कर ही चुकी थी, सोचा, मुंबई चल कर किस्मत आजमायी जाये। एक और बात भी थी कि चंडीगढ़ से वापिस नवां शहर आने के बाद अपनी लेस्‍बो लाइफ एकदम बंद हो गयी थी। प्रीत गुड़गावां जा चुकी थी और अपने छोटे से शहर में ये सब करने के गुंजाइश नहीं थी। सोचा, मुंबई सारे सपने पूरे करेगी। ढेर सारे सपने और उससे भी ज्‍यादा बैंक बैलेंस ले कर आयी थी यहां। यहीं आ कर पता चला था कि कितना मुश्‍किल हैं यहां पैर जमाना। हर दिन ऑडीशन देती थी। काम मिलता भी था लेकिन इतना नहीं कि उसी के भरोसे इस शहर में रहा जा सके। अच्‍छे रोल के लिए कभी मेहनताने में से कट मांगा जाता तो कभी बिस्‍तर गर्म करने की मांग साफ साफ लफ्जों में रखी जाती। मैं ठहरी लेस्‍बो, भला किसका बिस्‍तर गर्म करती।
- हाहा नाइस सिचुएशन।
- एक बार बहुत मजा आया।
- बोल ना
- अब जो नयी नस्ल आ गयी है इस लाइन में, वह बहुत खतरनाक है। वह है कास्टिंग काउच। ज़रूरी नहीं कि ये बंदा कास्टिंग डाइरेक्‍टर हो। वह चैनल में या प्रोडक्‍शन हाउस में कुछ भी हो सकता है। काम उसका बस एक ही है कि चैनल में या प्रोडक्‍शन हाउस को इस बात के लिए कनविंस करना कि ये रोल तो फलां बंदी को मिलना ही चाहिये। हां, उस बंदी को, और अगर कास्टिंग काउच गे है तो उस बंदे को इस रोल को पाने के पहले या बाद में भी उसका बिस्‍तर गर्म करना ही होगा। स्‍मार्ट लड़कों से कहा जाता है कि रोल चाहिये तो लड़की लाओ चाहे तुम्‍हारी गर्ल फ्रेंड ही क्‍यों न हो। उन्‍हें पता है कि बंदा स्‍मार्ट है तो उसकी गर्ल फ्रैंड भी सुंदर होगी।
- ओह माय गॉड। हालत इतने बिगड़ चुके हैं। मैं कितना कम जानती थी यहां के बारे में। हमें तो अपनी डाक्‍यूमेंटरी के लिए एक्‍टर्स जुटाने में ही नानी याद आ जाती है।
- नेहा क्‍या है कि जब अमूमन हर तीसरी लड़की काम मिलने से पहले या काम मिलने के वादे पर बिछने को तैयार बैठी हो तो बिछाने वाले क्‍यों मौका चूकें। हां संकट तब होता है कि लड़की बिछ भी जाये कास्टिंग काउच के नीचे लेकिन कॉम्‍पो के बाद भी काम की गारंटी नहीं। अब तो ये कास्टिंग काउच हर लाइन में हैं। म्‍यूजिक एल्‍बम के कारोबार में, एड फिल्‍म लाइन में, सीरियल लाइन में। होते कुछ और हैं वहां पर लेकिन रोल दिलाने के चक्‍कर में लड़कियों का इंतज़ाम करने की दलाली करते रहते हैं। कभी खुद के लिए तो कभी पैंट नीचे किये लाइन में खड़े चैनल में या प्रोडक्‍शन हाउस के दूसरे लोगों के लिए।
- लेकिन कितने जेनुइन होते हैं ये लोग? काम दिलवा भी सकते हैं क्‍या?
- ऐसा है नेहा कि अनुभवी स्‍ट्रगलर्स को तो आमने सामने मिलते ही या फोन करते ही पता चल जाता है कि बंदा असली है या नकली। वह अगर आफिस से या शूटिंग से बोल रहा है तो उसके पास बात करने के लिए दो मिनट भी नहीं होंगे लेकिन वह अगर लम्‍बी हांक रहा है या शाम को कहीं कॉफी पीने के बहाने बुला रहा है तो इसका मतलब वह फुर्सतिया है। सिर्फ लेगा, देगा कुछ नहीं क्‍योंकि उसके पास देने के लिए कुछ है ही नहीं।
वैसे भी अब प्रोडक्‍शन हाउस वालों के पास कुछ नहीं रहा। सब कुछ चैनल वाले ही तय करते हैं। बहुत हुआ तो आपको दो चार संवाद वाला कोई छोटा सा रोल मिल जायेगा। रोल बदलना, छोटा बड़ा करना या एकदम गायब ही कर देना, सब चलता है आजकल। शोषण हर स्‍तर पर। ऊपर से काम आज और पेमेंट का चेक तीन महीने बाद। उसमें से भी अपना हिस्‍सा मांगने वाले यमदूत सामने खड़े होते हैं।
- और लीड रोल?
- आजकल लीड रोल खरीदे जाते हैं। आप में हैसियत है तो खरीदिये। पे इन कैश या फिर बिस्‍तर वाला रूट है ही सही। हरलीन की आवाज बेहद तल्ख हो गयी है – ये सब जानने के बावजूद काम का मांगने वालों की कोई कमी नहीं। जानती हैं लड़कियां - सेक्‍स या नो सेक्‍स, क्‍या फर्क पड़ता है जब पता है कि यहां कोई भी काम कपड़े उतारे बिना नहीं होने वाला।
- हमम
- और फिर कपड़े उतरवाने वाला सिर्फ कास्टिंग काउच अकेला ही तो नहीं। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन वाला मामला है। जिसका बस चल जाये। डाइरेक्‍टर, कैमरामैन, प्रोड्यूसर, एक्‍सक्‍यूटिव प्रोड्यूसर। पैंट नीचे किये पूरी बिरादरी खड़ी है फिर भी काम की कोई गारंटी नहीं।
- और तुम अपनी बात बता रही थी।
- वो किस्‍सा भी इसी तरह का है। एक जगह मैं एक बहुत अच्‍छे रोल के लिए शार्ट लिस्‍ट हो गयी थी और फाइनल में तीन में थी। जिस दिन सेलेक्‍शन होना था, मैं अपने कांफिडेंस का लेवल बनाये रखने के लिए धनंजय को साथ ले गयी थी। हम बाहर लॉबी में इंतज़ार कर रहे थे जब कास्टिंग काउच वहां से गुज़र कर अपने केबिन में गया। उसने हम दोनों को एक साथ बैठे देख लिया था।
- मुझे भीतर बुलाया गया। दस मिनट बाद जब मैं वह वापिस आयी तो मैंने धनंजय का हाथ पकड़ा और सीधे बाहर की तरफ लपकी। मेरा चेहरा लाल हो रहा था। उफ। ये सब सुनने से पहले मेरे कान क्‍यों नहीं फट गये। कुछ नहीं सूझ रहा था मुझे। धनंजय मुझे पास ही एक कॉफी शॉप में ले गया। पूरी बोतल पानी पीने के बाद मैं बात करने लायक हो पायी थी। धनंजय कुछ समझ नहीं पा रहा था कि आखिर मैं ऐसा क्‍या सुन कर आ गयी थी। मैं उसे बहुत मुश्‍किल से बता पायी थी कि वह कास्टिंग काउच गे है और उसने डिमांड रखी है कि बाहर बैठे अपने बॉय फ्रेंड को रात को भेज देना। रोल मिल जायेगा। ये बताते हुए मैं फफक कर रो पड़ी थी। धनंजय अपने आपको संभाल ले गया था। उसे इस तरह की डिमांड का पता था।
- फिर?
- फिर क्‍या, वही मेरा आखिरी दिन था उस लाइन का। तभी इस स्‍कूल में जॉब मिल गया था तो अपन राम को उस दुनिया को राम राम कहने में जरा भी तकलीफ नहीं हुई।
Ø   
बरखा हमीरपुर से अब तक वापिस नहीं आयी थी। हरलीन उसे जब भी फोन करती, या तो उसका नम्‍बर नहीं मिलता या बरखा न पाने का कोई ऐसा सॉलिड कारण बताती कि हरलीन के पास उसे मानने के अलावा और कोई उपाय न होता। हरलीन के चेहरे पर बरखा की जुदाई सहन न कर पाने के संकेत साफ नजर आने लगे थे। हरलीन की हर बात में बरखा का जिक्र होता ही। हरलीन अंदर वाले कमरे में सोती थी और मैं जिद करके बाहर ड्रांइग रूम में लेकिन बाहर सोते हुए भी उसके लगातार करवटें बदलता हुआ महसूस कर सकती थी। मैं उसके लिए कुछ भी तो नहीं कर सकती थी। न बरखा की जगह ले सकती थी और न ही उसकी जगह खुद को पेश कर सकती थी। मैं उस मिट्टी की नहीं बनी थी। इन सारी बातों के बावजूद हरलीन सामान्य बनने की पूरी कोशिश करती थी।
वह हर पार्टी की स्‍टार होती और उसे सब बहुत पसंद करते थे। वह थी भी इतनी प्‍यारी और केयरिंग कि बरबस उससे जुड़े रहने को जी चाहता था।
Ø   
उस दिन मेरी छुट्टी थी और हरलीन का स्‍कूल था। हरलीन ने मुझे कंपनी देने के लिए अपने दोस्‍त धनंजय को बुलवा लिया था। दोनों चंडीगढ़ के परिचित थे और धनंजय हरलीन का बहुत मान करता था और इस हिसाब से मैं भी उसके सम्‍मान की हकदार बन गयी थी। वह टाइम पर आ गया था। कॉफी पीने के बाद हम दोनों पृथ्वी थियेटर चले गये थे और तय किया था कि लंच वहीं करेंगे।
उस दिन हमने ढेर सारी बातें की थी। अपनी, दुनिया जहान की और बंबई की। बेशक हम पहले भी मिलते रहे थे और एक दूसरे को पहचानते भी थे लेकिन ये पहली बार हो रहा था कि हम अकेले बात कर रहे थे। मुझे अब तक यही पता था कि वह बहुत अच्‍छा एक्‍टर है। बेशक मैंने उसे किसी फिल्‍म या सीरियल में नहीं देखा था। सच कहूं तो मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी।
उसी ने बताया था मुझे - मुंबई आये मुझे 6 बरस तो हो ही गये होंगे। चंडीगढ़ में हरलीन और मैं एक ही कॉलेज में थे। वहां मैं थियेटर करता था। अपना ग्रुप था। ग्रुप का नाम था नेपथ्‍य। काफी नाटक किये। कई नाटकों में हरलीन ने भी रोल किये थे। बीच बीच में थियेटर वर्कशाप करके अच्‍छा माहौल बना लिया था। बहुत कुछ सीखा था थियेटर के बारे में और सिखाया भी था। कॉलेज पूरा होने के बाद भी ये जुनून हावी रहा।
एक दिन तय किया मुंबई चलेंगे। थियेटर भी करेंगे और बॉलीवुड में भी काम करेंगे। तब नहीं जानता था कि मुंबई का थियेटर अमीरों के चोंचले की तरह है। आम आदमी के थियेटर के लिए यहां कोई जगह नहीं। पहली बात तो यही कि नाटक के रिहर्सल के लिए जगह ही नहीं मिलती। जो हैं भी वो इतनी महंगी कि आप सोच भी नहीं सकते। दूसरी तकलीफ ये कि आप रिहर्सल करेंगे तो शाम को ही तो करेंगे। शाम को रिहर्सल करने के लिए कोई लड़की आपको नहीं मिलेगी। थियेटर का कितना भी नशा हो उसे। बेशक यहां हजारों स्‍ट्रगलर्स हैं। एनएसडी के ही 70 परसेंट प्रोडक्‍ट हैं यहां। और शहरों के तो हैं ही मेरी तरह। यहां बरसों से हैं और बिना काम हैं लेकिन सारा दिन खाली होने के बावजूद खाली नहीं हैं। थियेटर के लिए तो बिल्‍कुल नहीं।
- यहीं आ कर पता चला कि आप यहां थियेटर एक जुनून की तरह नहीं कर सकते। बेहद महंगा सौदा है और दर्शक आपको पैसे देकर भी नहीं मिलेंगे।
मैं सुन रही थी। कुछ भी नहीं कहा था मैंने और उसे बोलने दिया था। सिर्फ उसकी आंखों में आंखें डाले देख रही थी।
धनंजय अच्‍छी पर्सनैलिटी का खूबसूरत पंजाबी मुंडा था। हंसमुख था और उसकी कंपनी अच्‍छी लग रही थी। उम्र तीस बत्तीस के आसपास ही रही होगी उसकी। हरलीन से एकाध बरस बड़ा। बेशक वह थियेटर एक्‍टर था लेकिन उसके चेहरे की लकीरों में थकान देख पा रही थी मैं। एक ऐसी थकान जो हताशा और निराशा की ओवर डोज के कारण हो जाया करती है।
वह बता रहा था - शुरू शुरू में दस तरह की तकलीफें हुई। रहने का ठिकाना नहीं, अकेलापन, हर चेहरे पर लदी मनों और टनों अजनबीयत। दिन भर बस काम की तलाश में यहां से वहां भटकना। सिर्फ आश्‍वासन। कीप इन टच। मिलते रहिये। काम का आश्‍वासन कहीं नहीं।
- हमम
- पहले दो बरस तक मैं घर से पैसे मंगवाता रहा। उसकी भी एक लिमिट थी। बेशक वहां कोई कमी नहीं थी लेकिन अपने जरूरी खर्चों के लिए घर से मांगने की भी एक सीमा थी। इस शहर में रहने के लिए कुछ ऐसे खर्चे हैं जो आपको हर हाल में पूरे करने ही हैं। आपको अपना सामान रखने के लिए घर और रात गुजारने के लिए छत चाहिये। इसके लिए लोकेशन, एरिया और सुविधाओं के हिसाब से कम से कम आठ दस हजार तो चाहिये ही। मैक्‍सिम की कोई लिमिट नहीं। मोबाइल, साफ सुथरे कपड़े, फोटो प्रोफाइल, खाना और सबसे महंगा लोकल ट्रांसपोर्ट। पता चलता है कि आप फिल्‍म सिटी के पास नागरी निवारा में रह रहे हैं तो आपको अमूमन रोज ही ऑडीशन के लिए लिंकिंग रोड या लोखंडवाला की तरफ ही आना होगा। तीन सौ रुपये आटो के लिए आपको चाहिये। खुदा ना खास्‍ता आपने रहने का इंतज़ाम अंधेरी वेस्‍ट की तरफ कर लिया है तो प्रोड्यूसरों के चक्‍कर काटने या शूटिंग के लिए आपको फिल्‍म सिटी ही जाना पड़ेगा। इन 6 बरसों में मैं कम से कम 1000 ऑडीशन तो दे ही चुका होऊंगा लेकिन रोल कितने मिले। गिनती के बीस। यही रोना है इस शहर का। सफल हो नहीं पाये और असफल हो कर किस मुंह से वापिस लौटें। और मैं ऐसा करने वाला अकेला नहीं हूं। आइसबर्ग वाला मामला है। आपको स्‍क्रीन पर जो लोग नज़र आ रहे हैं वे चौथाई प्रतिशत तभी नहीं हैं। बाकी सब असफलता की अतल गहराइयों में छुपे बैठे हैं। बीसियों बरसों से संघर्ष कर रहे हैं।
            - हममम
- आपको एक रहस्‍य की बात बताता हूं। मेरे ग्रुप में किसी को भी नहीं पता। सिर्फ हरलीन ही जानती है क्‍योंकि ये काम उसी की वजह से हुआ है। मैं फिल्म सिटी के पास रहता हूं। उस जगह का नाम है नागरी निवारा। फिल्‍म सिटी के एकदम पास लेकिन आम तौर पर गरीबों और मिडल क्‍लास की बहुत बड़ी बस्ती होने के कारण वहां हजारों स्‍ट्रगलर्स रहते हैं। हर फील्‍ड के। लगभग हर दूसरा घर सबलेटिंग पर लगा हुआ है। दस बारह हजार में दो आदमी आराम से शेयरिंग में रह सकते हैं।
- अब सुनो मेरे सीक्रेट वाली बात। सुन कर हंसी आयेगी। वहां कोई भरोसे का धोबी नहीं है जो अगले दिन कपड़े धोकर प्रेस करके दे दे। अब सबके पास इतने जोड़े कहां कि चार या पांच दिन के लिए कपड़े धोबी या ड्राइ क्‍लीनर के पास ब्‍लॉक करवा सके। धोना सबके बस की बात नहीं होती। तो मैं धनंजय चोपड़ा, हिस्‍टरी में पोस्‍ट ग्रेजुएट, जिसके नाटक चंडीगढ़ में धूम मचाते थे, जिसने बाकायदा एक्‍टिंग का कोर्स किया है और कितने ही नौजवानों को एक्‍टिंग सिखायी है, जिसने बीसियों नाटकों में यादगार रोल किये हैं, और डाइरेक्‍शन किया और सिखाया भी है, आजकल धोबी का काम करता है।
- अरे!
- जी, इस खाकसार को हरलीन ने एक अल्‍ट्रा माडर्न वाशिंग मशीन खरीद कर दी है और मैं रोज़ रात को आस पास रहने वाले अपने साथी स्‍ट्रगलर्स के कपड़े इस मशीन में धोता हूं। रात को ही ड्रायर में सुखाता हूं और सुबह प्रेस करके तैयार रखता हूं। और इसी इज्जतदार तरीके से अपना खर्चा चलाता हूं। अच्‍छे पैसे कमा लेता हूं। पहले खाली पेट का स्‍ट्रगल करता था और अब भरे पेट का स्‍ट्रगल करता हूं। कम से कम किसी के आगे हाथ फैलाने या घर से पैसे मंगाने की नौबत नहीं आती। अच्‍छे लोगों में उठता बैठता हूं। बीच बीच में शराब भी पी लेता हूं, किसी अच्‍छे रेस्‍तरां में चिकन बिरयानी भी खा लेता हूं और कैफे कॉफी डे में बैठ कर कॉफी भी पी लेता हूं। ये वाशिंग मशीन ही मेरे मोबाइल का, और महंगे कपड़ों का और कमरे के किराये का और मेरे सो कॉल्‍ड स्‍टेटस का ख्याल रखती है और इसी वाशिंग मशीन के बल पर मैं ऑडीशन देने ऑटो में अच्‍छे कपड़े पहन कर जाता हूं। स्‍ट्रगल करता हूं। कभी कभी रोल मिल भी जाता है। तो घर वालों को तसल्‍ली हो जाती है कि मैं यहां बेकार नहीं बैठा हूं।
- ग्रेट
- अभी एक पुराना लैपटॉप भी खरीदा है। सोच रहा हूं लेखन में भी हाथ आजमा लिया जाये। बस एक ही बात मुझे परेशान करती है, बहुत परेशान करती है।
            - क्‍या? पहली बार मैंने सवाल पूछा है। हम पृथ्‍वी थियेटर में बैठे हैं। आसपास बीसियों एक्‍टर और थियेटर से जुड़े बीसियों लोग बैठे हैं। हर दूसरे तीसरे मिनट में किसी न किसी का या धनंजय का हाथ हैलो के लिए उठता है लेकिन कोई किसी कोई किसी को इससे ज्‍यादा डिस्‍टर्ब नहीं करता।
धनंजय बता रहा है - नेहा जी, ये सोच के ही मेरी रूह कांपने लगती है कि कहीं मैं सचमुच ही धोबी बन कर न रह जाऊं। बेशक अपने गुज़ारे लायक पैसे कमा लेता हूं और मुझे खाली पेट स्‍ट्रगल नहीं करना पड़ता लेकिन हर दिन उम्र बढ़ ही रही है। पहले एक्‍टर के रोल के लिए ऑडीशन देता था, आजकल कैरेक्‍टर के रोल के लिए दे रहा हूं। कल चाचा, बाबा या दादा के रोल के लिए भी देने लगूंगा। सच कहूं तो रोज़ रोज़ ऑडीशन देने के इस काम से थक गया हूं और यहां ऑडीशन के बिना कोई काम मिलता नहीं। दो चार बरस बाद कहीं ऐसा न हो कि मैं धनंजय लॉंड्री का बोर्ड लगा कर सचमुच यही काम करने लगूं - यहां चार घंटे में अर्जेंट वाशिंग होती है।
उस दिन हमारी बात वहीं खत्‍म हो गयी थी। कुछ और कहा या सुना ही नहीं जा सकता था।
Ø   
मेरा जीवन अब सामान्य हो चला था। इस बीच दो तीन अच्‍छी बातें हो गयी थीं। मुझे कंपनी की तरफ से लीज फ्लैट ऑफर किया गया था और मैंने अपनी कोशिशों से हरलीन के घर के पास एवरशाइन नगर में ही एक फनिर्श्‍ड फ्लैट पसंद कर लिया था। मैंने वहां शिफ्ट कर लिया था। शानदार हाउस वार्मिंग की गयी थी और पूरे ग्रुप ने इस बात पर खुशी जाहिर की थी कि पार्टियों के लिए एक और अड्डा जुड़ गया था।
मैंने कंपनी को कुछ डॉक्‍यूमेंटीज़ के प्रोपोजल भेजे थे और वे एप्रूव हो गये थे। पहला प्रोजेक्‍ट जौनसार बाबर के आदिवासी इलाके पर फिल्‍म बनाने का था जहां के बारे में कहा जाता था कि वहां अभी भी सदियों पुरानी महाभारत कालीन बहुपति प्रथा चली आ रही थी। स्‍क्रिप्‍ट का काम पूरा हो चुका था और किसी भी दिन शूट के लिए निकलना था।
Ø   
बरखा अभी भी नहीं लौटी थी। इस बात को ले कर हरलीन तो परेशान थी ही, पूरा ग्रुप भी हरलीन की हालत देखकर परेशान था। कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता था। एक और परेशानी ये भी थी कि हरलीन का स्‍कूल समर वेकेशन के लिए 50 दिन के लिए बंद होने वाला था और वह इस बात को भी ले कर परेशान थी कि वह सारा सारा दिन अकेले क्‍या करेगी। संकट ये भी हो गया था कि मेरा ट्रिप भी ऐसे ही समय पर बन गया था। हालांकि कल ही दोनों की बात हुई थी और बरखा कोई तय तारीख नहीं बता पायी थी।
Ø   
कल जब मैं निकलने वाली थी तो मैंने गैंग की सारी लड़कियों को लंच पर बुला लिया था। तब मुझे क्‍या पता था कि हरलीन के साथ ये हमारा लंच होने जा रहा था।
अब जब हरलीन ही नहीं रही और बरखा से कभी मेरी मुलाकात या सीधे बात ही नहीं हुई थी, और अब तक वह वापिस भी नहीं आयी थी तो पूरी बात किससे पूछूं। पता नहीं क्‍या था जो हरलीन इतने दिनों से सीने में छुपाये हुए थी और उसका अंजाम इतना घातक हुआ कि हरलीन की जान ले बैठा।
Ø   
किसी के भी तो नम्‍बर नहीं मिल रहे। अब शाम को दिल्‍ली पहुंच के ही किसी से बात हो पायेगी। हरलीन मां बाप की इकलौती संतान थी। कैसे सहन कर पायेंगे आंटी अंकल इतना बड़ा हादसा। ऊपर वाले को भी वही लोग ज्‍यादा प्‍यारे क्‍यों होते हैं जो हम सब की आंखों के तारे होते हैं। उफ हरलीन, मुझे तो तुम अपना सबसे करीबी मानने लगी थी। एक बार तो अपने सीने का पत्‍थर मुझसे शेयर किया होता। कोई न कोई रास्‍ता निकालते।
Ø   
ट्रेन किसी स्‍टेशन पर रुकी है। एटेंडेंट ने बताया है कि ये दस मिनट का टेक्‍निकल हाल्‍ट है। मैं तुरंत मोबाइल निकालती हूं और रश्मि का नम्‍बर मिलाती हूं। घंटी जा रही है। उसके फोन उठाते ही फफक कर रोने लगी हूं मैं। उस तरफ रश्मि भी रो रही है। पूछती हूं – कैसे हो गया ये सब।
उसने जो कुछ बताया है, मैं सन्न रह गयी हूं। बता रही है – कल बरखा आयी थी हरलीन के पास। हसबैंड के साथ।
- हसबैंड के साथ, ये कैसे हो सकता है। वो तो ऑपरेशन?
- हां नेहा। कल जो हुआ हरलीन के साथ, यकीन करने को मेरा भी मन नहीं चाहता। बरखा फ्रॅाड थी। ऑपरेशन का उसका सारा खेल हरलीन से पैसे ऐंठते रहने की एक चाल थी।
- लेकिन वो सब जो चल रहा था डॉक्‍टर्स के पास जाना?
- बरखा हरलीन को बेवकूफ बना रही थी। डॉक्‍टर्स के नाम पर भी वह हरलीन से पैसे ऐंठ रही थी। वो ट्रांस सैक्‍सुअल थी और हरलीन के पास रहते हुए ही उसका रिलेशन चल रहा था।
- ये सब बरखा ने बताया?
- जब दोनों में झगड़ा हुआ होगा तो कई बातें सामने आयी होंगी।
- ओह, लेकिन कल तो उसने यही कहा था कि हमीरपुर से आने में वक्‍त लगेगा।
- वह हमीरपुर गयी थी। वहां से वह उसी हफ्ते लौट आयी थी और शादी कर ली थी और शादी करके बांद्रा में ही रह रही थी। अपने कुछ पेपर्स चाहिये थे उसे जो हरलीन के घर रखे थे, वही लेने आयी थी। फोन वही लोकली ही कर रही थी।
- उसका सारा सामान भी तो हरलीन के पास ही रखा था?
- हां, और बरखा को तुम्‍हारे बारे में सब पता ही था। तुम्‍हारे जाने का भी। उसने जानबूझ कर ऐसा टाइम चुना था जब हरलीन अकेली हो। वह ऐसे टाइम पर ही आयी थी। उसे इस धज में पति के साथ देख कर हरलीन बदहवास हो गयी थी। दोनों में काफी झगड़ा हुआ था। लेकिन बरखा के पति के सामने हरलीन दब गयी थी। उसने गुस्‍से में इतना ज़़रूर किया था कि बरखा का सारा सामान उठा कर बाहर फेंक दिया था।
- फिर?
- बरखा और उसके पति ने सारा सामान समेटा था और वहां से चुपचाप चले गये थे। मुझे जैसे ही हरलीन का मैसेज मिला, मैं तुरंत उसके पास गयी थी और पूरी बात सुनी थी। मैंने पूरे गैंग को बुलवा लिया था। हम सब सोच भी नहीं सकते थे कि बरखा इतना बड़ा खेल खेल रही थी हरलीन के साथ। हमने बरखा का नम्‍बर ट्राई किया था लेकिन तब तक उसने अपना मोबाइल बंद कर दिया था। कोई बड़ी बात नहीं, सिम कार्ड ही निकाल कर फेंक दिया हो।
- ओह, ये तो बहुत बड़ा धोखा हुआ।
- हां, हरलीन बुरी तरह आहत थी। उसे सबसे बड़ी तकलीफ इस बात की थी कि बरखा ने उसे धोखा दिया था। इमोशनली और फिजकिली। फाइनैंशियल लॉस तो था ही। एक तरह से हरलीन ही बरखा को एक बरस से पाल ही रही थी।
- हरलीन ने क्‍या बताया था बरखा के जवाब के बारे में?
- हरलीन बता रही थी कि बरखा यही कहती रही - इट्स माय लाइफ। मुझे अपने तरीके से जीने का पूरा हक है। और ऊपर से उसका हसबैंड साथ में था तो हरलीन वैसे ही अकेली पड़ गयी थी।
- हे भगवान, लेकिन हरलीन का सुसाइड का फैसला?
- नेहा, हमारा पूरा गैंग देर रात तक हरलीन के साथ था। हमने जबरदस्ती उसे डिनर खिलाया था और रात ग्‍यारह बजे तक उसके साथ थी।
- तो?
- जब उसकी हालत संभली और उसने कहा था कि अब वह ठीक है और थोड़ा एकांत चाहती है तभी हम वहाँ से निकली थीं। हमें क्‍या पता था कि हमारे जाते ही वह भी हमेशा के लिए घर से निकल जाने वाली है। नेहा, हमें उसे इस हालत में अकेले नहीं छोड़ना चाहिये  था। रश्मि फिर से रोने लगी है। हमें उसे इस हालत में अकेला नहीं छोड़ना चाहिये था।
- तुम्‍हें पता कैसे चला?
- हरलीन भी निराली थी। पूरा पर्स ले कर मरने गयी थी। ट्रेन के नीचे आयी तो पर्स में मोबाइल सेफ रह गया था। पुलिस ने किये गये आखिरी कॉल्‍स का रिकार्ड चेक किया होगा। बरखा वाले कॉल्‍स मैटियरलाइज हुए नहीं थे। मुझे की गयी कॉल ही आखिरी कॉल थी शायद। उसी के बेस पर पुलिस ने मुझे बताया। मैं ही तब सबके साथ गयी थी।
- कोई सुसाइड नोट भी छोड़ा है क्‍या उसने?
- पर्स में तो नहीं ही रहा होगा। बाकी तो घर पर जा कर ही पता चलेगा। अभी तो घर की चाबी भी उसी पर्स में है जो पुलिस के पास है।
- तुम लोग कहां हो इस समय?
- हम सब नीलाभ के घर पर हैं। वही सारी भाग दौड़ कर सकता है। नेहा, रश्‍मि फिर रोने लगी है। हमने एक बेहतरीन दोस्‍त खो दी। हमें उसे अकेले छोड़ कर नहीं जाना चाहिये था।
इधर नम आंखें लिये मैं भी तो यही सोच रही हूं कि मुझे हरलीन को अकेले छोड़ कर नहीं आना चाहिये था।
काश, मुझे ज़रा सा भी अंदाजा होता....।
Ø   

मो. 9930991424