हिंदी के मूर्धन्य कथाकार- उपन्यासकार रांगेय राघव (मूल नाम तिरुमल्लै नंबकम वीर राघव आचार्य) (17 जनवरी, 1923 - 12 सितंबर, 1962) तमिल आयंगर ब्राह्मण थे।
भरतपुर ज़िले में वैर नाम की एक तहसील जो शहर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक वातावरण, ग्रामीण सादगी और संस्कृति का अनूठा संगम है, रांगेय राघव की कर्म स्थली थी।
अपने निवास पर वे नारियल की मूंज के गद्दे पर लेटे-लेटे और अपने पैर के अँगूठे में छत पर टंगे पंखे की डोरी को बाँधकर हिलाते हुए घंटों तक साहित्य की विभिन्न विधाओं और विषयों के बारे में सोचते रहते थे। कई बार तो कई दिन तक कुछ भी न लिखते। हां, जब मूड बनता तो निरन्तर लिखते ही रहते। एक बार लिखने बैठे तो वह उस रचना को पूरा करके ही छोड़ते थे। वे एक ही दिन में दो बिल्कुल अलग विषयों पर लिख सकते थे।
उन्होंने 13 वर्ष की अल्प वय में उन्होंने लिखना शुरू किया था और अंत तक लिखते ही रहे।
वे असाधारण लेखक थे। वे अपने सारे काम व्यवस्थित रूप से करते थे। यहां तक कि लिखने के लिए स्याही भी खुद ही बनाते थे। वे एक बड़ा सा रजिस्टर ले कर उसमें विभिन्न अध्यायों की क्रम संख्या दर्ज कर लेते थे। हर अध्याय के लिए पन्ने छोड़ते चलते थे। इस प्रकार वह बाद वाला अध्याय पहले और पहले वाला अध्याय बाद में लिख लिया करते थे। कभी कभी बीच के अध्याय भी लिखने शुरू कर देते थे। वे दोनों हाथों से रात दिन लिखते थे। वे सिर्फ लेखन के आधार पर ही जीवन यापन करते थे।
वे खूब सिगरेट पीते थे। सिर्फ जानपील नाम की सिगरेट। ऐश-ट्रे होता उनका चाय का प्याला। कमरा हमेशा सिगरेट की गंध और धुएँ से भरा रहता था। सिगरेट पीने की लत ही 39 वर्ष की कच्ची उम्र में उनकी अकाल मृत्यु का कारण बनी।
उनके प्रकाशित ग्रन्थों में 42 उपन्यास, 11 कहानी संग्रह, 12 आलोचनात्मक किताबें, 8 काव्य पुस्तकें, 4 इतिहास संबंधी ग्रंथ, 6 समाज शास्त्र विषयक ग्रंथ, 5 नाटक और लगभग 50 अनूदित पुस्तकें हैं। वे शेक्सपीयर को समूचा हिंदी में उतार लाये थे। हालांकि ये सब रचनाएँ उनके जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी थीं फिर भी वे 20 पांडुलिपियां अपने पीछे छोड़ गये थे।
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