शनिवार, 18 जुलाई 2015

पाश- बीच का रास्ता नहीं होता



जालंधर के गाँव तलवंडी सलेम में जन्‍मे पाश (1950-1988) का पारिवारिक नाम अवतार सिंह था। वे मकतूल के नाम से लिखते रहे। उनके पिता सेना में मेजर थे। वे दसवीं पास थे और उनके पास मुश्किल से हासिल किया गया प्राथमिक अध्यापक का डिप्लोमा था। बाद में प्राइवेट बीए भी किया था।
पाश ने पंद्रह साल की उम्र में अपनी पहली कविता लिखी और उसी समय उनका जुड़ाव कम्युनिस्ट आंदोलन से हुआ। सत्रह बरस की उम्र में पाश एक बौद्धिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता की तरह नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़ गये। वे राजनीति और साहित्य के साथ साथ विज्ञान और दर्शन के भी जानकार थे। पाश गंभीर राजनीतिक मनन और विश्लेषण करते थे। वे घंटों किताबों में डूबे रहते।
19 साल की उम्र में उन्हें एक झूठे केस में फँसाकर जेल में डाला गया और भीषण यंत्रणाएं दी गयीं। लेकिन उनकी मुखर आवाज बंद नहीं की जा सकी। वे और मजबूत बन कर बाहर आये। उनकी कवितायें जेल से बाहर आती रहीं। 1970 में 36 कविताओं का उनका पहला कविता संग्रह ‘लौह कथा’ प्रकाशित हुआ। इन कविताओं में आग ही आग थी। 1972 में पाश छात्र आन्दोलन के दौरान फिर गिरफ्तार हुए। 1974 में उन्हें रेलवे मजदूरों की हड़ताल के दौरान जेल में डाला गया और फिर इमरजेंसी के दौरान वे जेल में रहे।
पाश की कविता को नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता। वे क्रान्‍ति‍कारी कम्युनिस्ट आंदोलन की प्रतिनिधि आवाज तो हैं ही, ये कविताएं कालजयी हैं और हर किस्म की गुलामी के खिलाफ आजाद जिंदगी के लिये हर स्तर से लड़ने के लिये और बदलाव के सपनों को न मरने देने के लिए प्रेरित करती हैं।
पाश ने कई महत्वपूर्ण साहित्यिक-राजनीतिक लेख और मित्रों को पत्र लिखे जो उनकी प्रतिबद्धता दर्शाते हैं। 1971 में जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने अपने गाँव से ‘सिआड़’ पत्रिका निकाली। उन्होंने गाँवों में हस्तलिखित पत्रिका ‘हाँक’ को लोगों के बीच वितरित करने काम भी किया।
पाश के कुछ ही लेख और पत्र बचाये जा सके हैं। वे पाश की राजनीति पर रौशनी डालते हैं, और उनके विरोधियों, पीत-वामियों के कारनामों, लफ्फाजी और झूठी क्रांतिकारिता की गवाही देते हैं। पाश छद्म वामपंथियों का मज़ाक उड़ाते थे और साथ ही युवाओं को संघर्ष के लिए ललकारते थे।
पाश के जीवनकाल में उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए। लौह कथा’, ‘उडदे बाजां मगर’ (उड़ते बाजों के पीछे)  और ‘साड्डे समियां विच’ (हमारे वक़्त में)। उनकी मृत्यु के बाद 1989 में प्रकाशित ‘खिलरे होए पन्ने’ (बिखरे हुए पन्ने) उसके लेखों और चिट्ठियों का संग्रह है। हिंदी में अनूदित दो संग्रह “बीच का रास्ता नहीं होता” और “समय ओ भाई समय” भी प्रकाशित हुए हैं। उनकी कविताओं का एक और संग्रह 1997 में लाहौर में प्रकाशित हुआ। पाश ने सौ- सवा सौ कविताएं ही लिखीं।
उनकी कविताओं में मेहनतकश जनता की आत्मा बोलती थी। इन कविताओं के कई देशी-विदेशी भाषाओँ में अनुवाद प्रकाशित हुए। उन्हें पंजाब साहित्य अकादमी के सर्वोच्च पुरस्कार सहित कई सम्‍मान मिले।
पाश की कविता को एनसीईआरटी की ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक से निकलवाने की मांग राज्यसभा में भाजपा के सांसद रविशंकर प्रसाद सिंह ने की थी।
पाश लगातार सरकारी दमन का शिकार होते रहे, झूठे मुकदमों में फंसाए जाते रहे,  बार-बार जेल गए, मगर झूठे वामपंथीं नेताओं ने पाश को भगोड़ा और गद्दार कहकर किनारे लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
पंजाब में खालिस्तानी उग्रवाद के दौर में ‘पाश’ दरअसल तिहरा संघर्ष कर रहे थे। एक तरफ पूंजीवादी सत्ता, दूसरी तरफ खालिस्तानी और तीसरी तरफ स्टालिनवादी कम्युनिस्टों से वे जूझ रहे थे, जिसमें कविता ही उनका हथियार थी।
पाश अपनी शर्तों पर जिए और मरे। 23 मार्च 1988 को वे अपने ही गांव में खालिस्‍तानियों के हाथों शहीद हुए।
यह दिन भगत सिंह और उनके साथियों की भी शहादत का दिन होता है।

शनिवार, 11 जुलाई 2015

राजकमल चौधरी – आजीवन कठघरे में खड़ा लेखक



हिन्दी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि एवं कहानीकार राजकमल चौधरी (1929 -1967)  का मूल नाम मणीन्द्र नारायण चौधरी था। दोस्‍तों के लिए वे फूलबाबू थे। राजकमल की माता की मृत्यु के उपरान्त उनके पिता मधुसूदन चौधरी ने राजकमल की उम्र की जमुना देवी से पुनर्विवाह कर लिया था। इस शादी की वजह से राजकमल कभी भी अपने पिता को माफ़ नहीं कर सके और पिता के देहावसान के बाद भी राजकमल ने अपने पिता को मुखाग्नि नहीं दी थी लेकिन श्राद्धकर्म पूरे किये थे।
राजकमल मित्रों के बीच बेहद लोकप्रिय थे। वे महिला मित्र बनाने में माहिर थे। उन्‍होंने पहला प्‍यार शोभना से किया। पहली शादी शशिकांता चौधरी से। दूसरी शादी सावित्री शर्मा से और दूसरा प्रेम सावित्री की भतीजी संतोष से किया। बेशक लगाव पहली पत्‍नी शशिकांता से बना रहा।
अपनी शुरूआती पंक्तियाँ उन्‍होंने स्कूल की पुस्तिका पर लिखी थीं। अब तक अप्रकाशित। राजकमल चौधरी की रचनात्मकता मैथिली, हिंदी एवं बंगाली में रही बेशक अंग्रेजी में भी कुछ कवितायें लिखीं। मैथिली में उन्होंने करीब 100 कवितायें, तीन उपन्यास, 37 कहानियाँ, तीन एकांकी और चार आलोचनात्मक निबंध लिखे। उनका अधिकांश लेखन उनके जीवन काल में अप्रकाशित रहा।
उन्होंने हिंदी की तुलना में मैथिली में ज्यादा समय तक लिखा, लेकिन उनका हिंदी साहित्य में योगदान विपुल है। हिंदी में उन्होंने आठ उपन्यास, करीब 250 कवितायें, 92 कहानियाँ, 55 निबंध और तीन नाटक लिखे। ज्‍यादातर लेखन कलकत्ता में किया इसीलिए उनके लेखन में कलकत्ता, वहाँ का जीवन, वर्ग-संघर्ष का बहुधा चित्रण मिलता है।
राजकमल के रचनाकर्म में निर्भीकता के फलस्वरूप उनके कई समकालीन साहित्यकारों ने उनके रचनाकर्म को काफी हेय दृष्टि से देखा और उनकी उपस्थिति को दरकिनार किया एवं बहिष्कार किया। उनकी सोच अपने समय से बहुत आगे की थी। राजकमल चौधरी पर आरोप लगता रहा कि वे अश्‍लीलता, नग्‍नता और विद्रूपता परोसते हैं और कथ्‍य और टेक्‍नीक के धरातल पर अपठनीय और कम पसंद आने लायक रचनाकार हैं। नदी बहती थी', ‘देहगाथा' एवं ‘मछली मरी हुई' उनके काफी चर्चित उपन्‍यास हैं।
राजकमल का जीवन, लेखन, मृत्‍यु सभी कुछ विवादास्‍पद रहा। उन्‍हें मृत्‍यु के बाद भी नहीं बख्‍शा गया। वे हमेशा विवादों से घिरे रहे और बिरादरी बाहर भी रहे। राजकमल का विद्रोह सिर्फ राजनीति के प्रति ही नहीं, उन्‍होंने पूंजीवादी व्‍यवस्‍था की विद्रूपता का भी चित्रण किया है। अनेक लघु पत्रिकाओं युयुत्‍सा, लहर, आधुनिका, दर्पण, निवेदिता, आरंभ, नई धारा आदि के अतिरिक्‍त मैथिली पत्रिकाओं ने राजकमल विशेषांक प्रकाशित किए, जिनमें प्रकाशित सभी लेख उन अपशब्‍दों का विरोध करते हैं और राजकमल की प्रशंसा की गयी और दूसरी तरफ वे अपमान और दंश झेलते रहे।
अपनी पीढ़ी के कुछ थोडे़ से ईमानदार कवियों और व्‍यक्‍तियों में से एक राजकमल को अपने 37 वर्षों के अल्‍पजीवन में घोर उपेक्षा, अपमान और आत्‍मनिर्वाचन का शिकार होना पड़ा था। वे ‘भूखी' और ‘बीट' पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि थे। उन्‍होंने कथ्‍य और टेक्‍नीक का एक नया धरातल स्‍थापित किया था। वे राजनैतिक रूप से सजग और जिम्‍मेदार रचनाकार थे।
आज तक हिन्‍दी जगत ने संभवतः उन्‍हें माफ नहीं किया है। अब जा कर उनका संपूर्ण साहित्‍य एक साथ प्रकाशित हो कर आया है। 

शैलेश मटियानी - बेहद जुझारू लेखक



पहाड़ को अपनी रचनाओं में पूरे पहाड़पन के साथ जीवंत करने वाले लेखक शैलेश मटियानी (1931-2001) पेशे से कसाई थे। दुकान पर कीमा कूटते हुए लेखन जारी रखने वाले मटियानी ने अपने लेखक होने की कीमत चुकाई। उम्र के बारहवें वर्ष में ही अनाथ हो गये। इतना ही नहीं, 1950 के आस-पास लेखन शुरू करने पर मासूम शैलेष को परिचितों से प्रोत्साहन के बजाय ताना मिला।
उन्‍हें एक ब्राह्मण लड़की से प्रेम हो गया था जिस कारण उन्हें अल्मोड़ा छोड़ना पड़ा। उनकी जान को खतरा हो गया था।
पहाड़ से भागकर बंबई गये। वहां आर्थिक रूप से और मानसिक रूप से बहुत कठिन दिन गुजारे। वहां फुटपाथ पर भी रहे। मुफ्त के लंगरों या मंदिरों में या जहां मुफ्त खाना मिलता था, उन लाइनों में वे लगे। कभी पुलिस के डंडे और घूंसे थप्पड़ खाये। जब आवारा बच्चों की तरह पुलिस वाले उन्हें पकड़कर ले जाते थे तो उन्हें बड़ा अच्छा लगता था कि सोने की जगह मिलेगी और खाना तो मिलेगा ही।
1952 से 1957 तक उनका जीवन बंबई जैसे शहर में उसके फुटपाथों पर काफी संघर्ष में बीता। चाट हाउस और ढाबों पर जूठे बर्तन धोये, ग्राहकों को चाय के गिलास पहुँचाये, रेलवे स्टेशनों पर कुलीगीरी की।
जिस वक्त वे एक ढाबे में प्लेटें धोने और चाय लाने का काम कर रहे थे, उस वक्त तक उनकी कहानियां धर्मयुग में छपना शुरू हो गई थीं। वे हमेशा लिखते थे क्योंकि बिना लिखे रह भी नहीं सकते थे या रह सकना संभव नहीं था। आर्थिक दबाव तो थे ही।
पेट भरने के लिए उन्होंने अपना ख़ून भी बेचा। अपराध जगत के कड़वे अनुभवों को आधार बनाकर उन्होंने बोरीवली से बोरीबंदर तक उपन्यास की रचना की।
बार बार अपमान और व्यंग्य की मार झेलते हुए वे अपने लेखक को बचाए रख सके क्‍योंकि इन सारी तकलीफों और जहालत में एक पल के लिए भी उनके मन से लेखक होने का विश्वास डिगा नहीं। यह उनके लेखक होने की तैयारी थी। जितने अधिक कष्ट उठाएंगे, उतना ही लेखक होने का रास्ता खुलता जाएगा। कहते थे - एक लेखक अपने कद से बड़ी रचना कभी लिख ही नहीं सकता।
वे अपने वक्‍त के बेहतरीन कहानीकार रहे। वे जिंदगी से उठाई गई कहानियां लिखते थे। उनकी शुरू की कहानियों की कई लोगों ने नकल की। वे बहुत ओजस्वी वक्ता थे। उनमें जबरदस्त आत्मविश्वास था। अपनी हिदुंत्‍ववादी विचार धारा के चलते वे हमेशा विवादों में घिरे रहे।
एक मामले में लेखकीय स्वाभिमान सामने आ गया, तो तमाम अभावों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट तक केस भी लड़ते रहे।
आर्थिक कारणों से वे ढाई-तीन सौ पारिश्रमिक पाने के लिए वे फालतू के लेखन करने पर मजबूर हुए। अंतिम दिनों में संघर्षों ने उन्‍हें विक्षिप्त बना दिया।
92 में एक हादसे में बेटे की हत्या से वे बहुत विचलित हो गये थे। इस करुण घटना ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया। लेकिन इससे भी वे लड़े। इस लड़ाई ने उन्हें मानसिक विक्षिप्तता की हालत में पहुँचा दिया। बार-बार दौरे पड़ने लगे। उनके अंतिम वर्ष बेहद तकलीफ में गुजरे। सुनने में आता है कि उनके तीखे रुख के चलते एक महत्‍वपूर्ण सार्वजनिक संस्‍थान ने उनकी शोक सभा के लिए अपना हॉल तक देने से मना कर दिया था।
शैलेश मटियानी के 30 कहानी संग्रह, 30 उपन्यास, 7 लोककथा संग्रह, बाल साहित्य की 16 पुस्तकें, 2 गाथा, 3 संस्मरण, वैचारिक निबंध की 13 पुस्तकें हैं। उनकी रचनात्मकता के दो छोर रहे हैं – एक,  कुमायूँ की पर्वतीय पृष्ठभूमि और दूसरा, बंबई का संघर्ष भरा जीवन।
अब शैलेश मटियानी की संपूर्ण कहानियाँ, उनके पुत्र राकेश मटियानी के संपादकत्व में प्रकल्प प्रकाशन, इलाहाबाद से पाँच खंडों में प्रकाशित हो चुकी हैं।

नागार्जुन – बाबा सा कोई नहीं।


30 जून को बाबा का जन्‍मदिन पड़ता है। ये पोस्‍ट बाबा के लिए सादर।
दरभंगा, बिहार में जन्‍मे बाबा (मैथिली में यात्री) के नाम से प्रसिद्ध प्रगतिवादी विचारधारा के लेखक और कवि नागार्जुन (1911-1998) का मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। 1936 में आप श्रीलंका चले गए और वहीं बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की।
नागार्जुन अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में ही सच्‍चे जननायक और जनकवि हैं। रहन-सहन, वेष-भूषा में तो वे निराले और सहज थे ही, कविता लिखने और सस्‍वर गाने में भी वे एकदम सहज होते थे। वे मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि भाषाएं जानते थे और कई भाषाओं में कविता करते थे। वे सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने कवि हैं।
बाबा मैथिली-भाषा आंदोलन के लिए साइकिल के हैंडिल में अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर मिथिला के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में लगे रहे। वे मा‌र्क्सवाद से वह गहरे प्रभावित रहे, लेकिन मा‌र्क्सवाद के तमाम रूप और रंग देखकर वह निराश भी थे। उन्होंने जयप्रकाश नारायण का समर्थन जरूर किया, लेकिन जब जनता पार्टी विफल रही तो बाबा ने जेपी को भी नहीं छोड़ा।
नागार्जुन सच्‍चे जनवादी थे। कहते थे - जो जनता के हित में है वही मेरा बयान है। तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने विशद लेखन कार्य किया। एक बार पटना में बसों की हडताल हुई तो हडतालियों के बीच पहुंच गये और तुरंत लिखे अपने गीत गा कर सबके अपने हो गये। हजारों हड़ताली कर्मचारी बाबा के साथ थिरक थिरक कर नाच गा रहे थे।
उन्‍होंने छः उपन्यास, एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली; (हिन्दी में भी अनूदित) कविता-संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य “धर्मलोक शतकम” तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों की रचना की। उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का संग्रह विशाखा कहीं उपलब्ध नहीं है।
नागार्जुन को मैथिली रचना पत्रहीन नग्न गाछ के लिए में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्‍मानित किया गया था। वे साहित्य अकादमी के फेलो भी रहे।
वे आजीवन सही मायनों में यात्री, फक्‍कड़ और यायावर रहे। वे उत्‍तम कोटि के मेहमान होते थे। किसी के भी घर स्‍नेह भरे बुलावे पर पहुंच जाते और सबसे पहले घर की मालकिन और बच्‍चों से दोस्‍ती गांठते। अपना झोला रखते ही बाहर निकल जाते और मोहल्‍ले के सब लोगों से, धोबी, मोची, नाई से जनम जनम का रिश्‍ता कायम करके लौटते। गृहिणी अगर व्‍यस्‍त है तो रसोई भी संभाल लेते और रसदार व्‍यंजन बनाते और खाते-खिलाते। एक रोचक तथ्‍य है कि वे अपने पूरे जीवन में अपने घर में कम रहे और दोस्‍तों, चाहने वालों और उनके प्रति सखा भाव रखने वालों के घर ज्‍यादा रहे। वे शानो शौकत वाली जगहों पर बहुत असहज हो जाते थे। वे बच्‍चों की तरह रूठते भी थे और अपने स्‍वाभिमान के चलते अच्‍छों अच्‍छों की परवाह नहीं करते थे।
फक्कड़पन और घुमक्कड़ी प्रवृति नागार्जुन के साथी हैं। व्यंग्य की धार उनका अस्‍त्र है। रचना में वे किसी को नहीं बख्‍शते। वे एकाधिक बार जेल भी गये।
छायावादोत्तर काल के वे अकेले कवि हैं जिनकी रचनाएँ ग्रामीण चौपाल से लेकर विद्वानों की बैठक तक में समान रूप से आदर पाती हैं। नागार्जुन ने जहाँ कहीं अन्याय देखा, जन-विरोधी चरित्र की छ्द्मलीला देखी, उन सबका जमकर विरोध किया। बाबा ने नेहरू पर व्यंग्यात्मक शैली में कविता लिखी थी। ब्रिटेन की महारानी के भारत आगमन को नागार्जुन ने देश का अपमान समझा और तीखी कविता लिखी-  आओ रानी हम ढोएँगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की।
इमरजेंसी के दौर में बाबा ने इंदिरा गांधी को भी नहीं बख्‍शा और उन्‍हें बाघिन तक कहा लेकिन सुनने में आता है कि इंदिरा जी बाबा की कविताएं बहुत पसंद करती थीं।