बुधवार, 16 जनवरी 2013

यायावरी


बिलासपुर में एक भरा पूरा दिन पिछले दिनों जब कोलकाता और शांति निकेतन जाने का कार्यक्रम बनाया तो सोचा, वापसी पर नागपुर तो रुकना ही है, बीच में एक दिन बिलासपुर भी रुक लिया जाये। नागपुर में बेशक चार दिन रुकने मन बना कर टिकट बुक कराये थे लेकिन जब वहां रह रहे बेटे ने बताया कि उन दिनों वह नागपुर में नहीं है तो एक दिन बिलासपुर रुकने का फैसला करना ठीक ही लगा। चार बरस पहले कथाकार मित्र सतीश जायसवाल के आग्रह पर वहां जाने के टिकट बुक कराये थे लेकिन सड़क दुर्घटना के कारण वहां जाने के बजाये अस्‍पताल पहुंच गया था और तीन महीने तक बिस्‍तर पर रहना पड़ा था। इस बार भी भाई सतीश जी की ही सलाह ली और नये सिरे से टिकट बुक करवाये। अगर बिलासपुर जाने का फैसला न करता तो बहुत नुक्‍सान में रहता। बता दूं कि सारे नुक्‍सान आर्थिक नहीं होते। न जाता बिलासपुर तो बहुत ही आत्‍मीय लोगों से मिलने, बतियाने और उन्‍हें मित्र बनाने के असीम सुख से वंचित रह जाता। सतीश जी के अनुसार विचार मंच की ओर से मेरा व्‍याख्‍यान और कहानी पाठ रविवार, 18 दिसम्‍बर 2012 को ग्‍यारह बजे रखा गया था। कोलकाता से ट्रेन बिलासपुर सुबह साढ़े आठ बजे पहुंचनी चाहिये थी, लेकिन पहुंची पौने ग्‍यारह बजे। सतीश जी स्‍टेशन से मुझे सीधे ही एक स्‍कूल में आयोजन स्‍थल पर ले चले। उनका आत्‍मीय आदेश हुआ कि मैं साथ वाले कमरे में कपड़े बदल लूं। नहाने के कार्यक्रम को फिलहाल स्‍थगित रखूं। जब हम आयोजन स्‍थल पर पहुंचे तो लोग-बाग जुटने शुरू हो चुके थे। बिना किसी औपचारिकता के मैं पांच मिनट के भीतर अपनी बात कहने के लिए वहां मौजूद था। बताया गया कि विचार मंच के कर्ताधर्ता श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल समय के बहुत पाबंद हैं और ठीक साढ़े बारह बजे कार्यक्रम समाप्‍त कर देना है। बात शुरू करते-करते लगभग 50 लोग जुट चुके थे। सुखद हैरानी थी कि रविवार की सुबह इतने लोग मुझे सुनने के लिए जुट सकते हैं। उनमें से कई तो सीनियर सिटिजन थे। मैंने वैश्‍वीकरण की अच्‍छाइयों और बुराइयों की बात करते हुए यह कहने की कोशिश की कि इतने कठिन समय और तेजी से बदलते समय में लेखक अपने आपको विवश पाता है। मैंने कहा कि बेशक उदारीकरण ने हमें सुविधासंपन्न कर दिया है; टीवी, कम्प्यूटर और मोबाइल हमारी जीवन शैली में अभूतपूर्व परिवर्तन लाए हैं लेकिन हमें इसकी बहुत बड़ी कीमत देनी पड़ रही है। हाल ये है कि प्रत्येक सुबह टीवी पर मल्‍टीनेशनल कंपनियां हमारी क्लास लगाती है कि हम क्या खाएं, क्या पहनें, क्या लगाएं और क्या और कैसे धोएं आदि। हमारे बच्चों को बसंत पंचमी नहीं मालूम, लेकिन वे वेलेंटाइन डे के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। हमारी भाषा बिगड़ चुकी है। आज के रचनाकार के समक्ष समस्या ये है कि वह अच्छे शब्द कहाँ से लाए? आज संवाद के साधन बढ़ गए है लेकिन संवादहीनता आ गई है। लोग अपने कंप्यूटर से चिपके हैं या मोबाइल से लेकिन आपस में बातचीत बंद है। इन परिस्थितियों के कारण मूल्यों, परम्पराओं और संस्कारों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। लेखक भी आखिर उन्‍हीं समस्‍याओं से दो चार होता है, जूझता है जिनसे एक आम आदमी दिन भर जूझता है। मैं लगभग 45 मिनट तक बोला और सब लोग मुझे बहुत ध्‍यान से सुनते रहे। बातचीत के बाद मैंने अपनी कहानी दो जीवन समांतर का पाठ किया और कहानी से जुड़े अपने निजी अनुभव सुनाये। कुछ सवाल जवाब हुए, आत्‍मीय संवाद हुए। पता चला कि विचार मंच की यह 94वीं गोष्‍ठी थी। लगभग 150 सदस्‍य हर महीने दो बार मिलते हैं और चिंतन करते हैं। विचार मंच के संयोजक और मेरे मेज़बान अग्रवाल जी ने बताया कि विचार मंच का कोई पदाधिकारी नहीं है, कोई खाता नहीं है, और न ही कोई और चाय पानी की व्‍यवस्‍था ही होती है। खबर मिलने ही सदस्‍य आते हैं और मेहमानों को सुनते हैं। बेहद आत्‍मीय माहौल में हुई इस सार्थक गोष्‍ठी में कई नये दोस्‍त बने, कई बरस पहले जनसत्‍ता में काम कर चुके पत्रकार मित्र दिनेश ठक्‍कर कई बरस बाद मिले और दिन भर मेरे साथ रहे। पीटीआइ के ब्‍यूरो चीफ मिस्‍टर दुआ मिले और तुरंत दोस्‍त बन गये और दिन भर मेरे साथ रहे। हम तीनों ने शहर का एक चक्‍कर लगाया। अभी द्वारिका प्रसाद जी की के लॉज में खाना खा ही रहे थे कि कई साहित्‍य प्रेमी वहीं मिलने आ गये। श्री बुक स्‍टाल से श्री पीयूष जी न्‍योता देने आये शाम के लिए। उन्‍होंने स्‍थानीय लेखकों के साथ आत्‍मीय मुलाकात रखी थी। सतीश जी उनका नम्‍बर दे ही चुके थे लेकिन मैं बात नहीं कर पाया था। तब मैं नहीं जानता था कि पीयूष के रूप में एक ऐसी शख्‍सियत से मिल रहा हूं जिसे मैं कभी भी भूल नहीं पाऊंगा। वह शख्‍स न केवल किताबें बेचता है, न केवल किताबें पढ़ता है बल्‍कि पाठक भी तैयार करता है। बताया उन्‍होंने कि वे चार लाख की जनसंख्‍या के बीच हर बरस लगभग 6 करोड़ रुपये की किताबें बेच लेते हैं। वे कवि सम्‍मेलन के मौके पर पुस्‍तक मेले आयोजित करते हैं और इस तरह पाठक बनाते हैं। जब मैं श्री बुक स्‍टाल पहुंचा तो कुछ लोग आ चुके थे। मेरे स्‍वागत में बाहर ही बोर्ड लगा हुआ था। पीयूष मुझे अपनी बुक स्‍टाल के भीतर ले गये। करीने से बने किताबों के अलग अलग सेक्‍शन। बच्‍चों की रुचि की किताबें अलग। अंग्रेज़ी और हिंदी लोकप्रिय साहित्‍य और क्‍लासिक साहित्‍य। मैं हैरान रह गया कि बिलासपुर जैसे मझोले कद के शहर में लगभग 1500 से भी अधिक के क्षेत्र में फैले इस स्‍टाल में लगभग सभी प्रकाशकों की किताबें थीं। दुकान का काम मां देखती हैं, उनसे मिलवाया, भाई और बच्‍चों से मिलवाया। सभी बहुत आदर और प्‍यार से मिले। बिलासपुर के साहित्‍य प्रेमियों से किताबों पर ढेर सारी बातें हुई। मैं हैरान था कि जिस भी किताब का जिक्र आता, पीयूष ने वह किताब पढ़ रखी होती। बाबर की आत्‍मकथा हो या बाबरनामा, पीयूष पढ़ चुका था। मुझे आत्‍मकथाएं पढ़ना बहुत पसंद है। स्‍वाभाविक था कि बातचीत आत्‍मकथाओं की तरफ मुड़ गयी और बहस शुरू हो गयी कि आत्मकथाओं में भी लेखक अपने आपको कितना खोलता है या खोलना चाहता है। ये भी सवाल उठा कि आत्‍मकथा का लेखक हमसे जो कुछ भी शेयर करना चाहता है हम उतने से ही संतुष्‍ट क्‍यों नहीं हो जाते, कुछ और की उम्‍मीद क्‍यों करते हैं। लगभग ढाई घंटे तक बेहद सार्थक बातचीत हुई। अभी दिन खत्‍म नहीं हुआ था। सतीश जी ने बताया कि डिनर के लिए तनवीर हसन के घर जाना है। सुबह उनसे मुलाकात हो ही चुकी थी। तनवीर जेएनयू के हैं। वे और उनकी पत्‍नी रश्‍मि रेलवे में उच्‍च पदों पर हैं। एक सुखद शाम और बेहद आत्‍मीय वातावरण में ढेर विषयों पर चर्चा। अगले दिन सवेरे सवेरे देखा तो अखबारों में छपी कल के प्रोग्राम की खबरों के साथ अग्रवाल जी हाजिर हैं। पता चला था कि वे सुबह के समय योगाभ्‍यास करते हैं लेकिन वे मेरी खातिर चले आये थे। वे मुझे स्‍टेशन छोड़ने आये और ट्रेन के चलने तक मेरे साथ रहे। ढेर सारी बातें हुईं। उनके ब्‍लाग में लिखी जा रही उनकी आत्‍मकथा के बारे में, उनकी लिखी मैनेजमेंट की किताबों के बारे में और उनकी जीजिविषा के बारे में। बिलासपुर से चलते समय अफसोस होता रहा कि एक ही दिन के लिए क्‍यों रुका यहां। सूरज प्रकाश mail@surajprakash.com 09930991424