शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

लौटना मुंबई नगरी....

पुणे में लगभग चार बरस और दो महीने बिताने के बाद आज अपनी 29 बरस पुरानी कर्मस्थली मुंबई लौट रहा हूं। मुंबई आना जाना पहले भी होता रहा है। 1989 से 1995 तक मैं अहमदाबाद में रहा था और तब मैं वहां से बहुत अमीर हो कर लौटा था। जि़ंदगी के सही मायनों में अमीर। वहां ढेरों मित्र बने, खूब घुमक्कड़ी की, ट्रैकिंग की, गुजराती भाषा सीखी और कई किताबों के अनुवाद किये थे। खूब मस्ती की थी और गम्भीर साहित्य पढ़ा था। शास्त्रीय संगीत सुनने और गुनने की तमीज वहीं आयी थी। वहीं रहते हुए सीखा था कि शनिवार की दोपहर से ले कर सोमवार की सुबह तक मौन कैसे रहा जा सकता है। एक बार नहीं, कर्इ बार।
एक तरह से वहीं रहते हुए लिखना शुरू हुआ था और पहला कहानी संग्रह वहीं रहते हुए आया था। तभी गुजरात साहित्य अकादमी बनी थी और आस पास और कोई कहानीकार न पा कर उन्होंने पहला साहित्य अकादमी सम्मान मुझे ही थमा दिया था। तब शहर में आने वाले अमूमन सभी साहित्याकारों के सम्मान में साहित्यिक जमावड़े मुझ छड़े के घर पर ही होते थे। हम यार दोस्त तो आपस में मिल कर धमाल मचाते ही थे।
शायद तब दो एक बातें मेरे पक्ष में थीं। एक तो उम्र तब चालीस से कम थी और मैं साहित्य का ककहरा सीख रहा था। अहमदाबाद जाते समय मेरे पास कुल जमा तीन कहानियों की जमा पूंजी थी। हंस में यह जादू नहीं टूटना चाहिये और धर्मयुग में अधूरी तस्वीर तब छपी ही थीं। वर्तमान साहित्य में उर्फ चंदरकला अहमदाबाद में रहते हुए ही आयी थी और मैं रातों रात उस वक्त का सबसे विवादास्पद लेखक बन चुका था। इस तरह से गुजरात ने मुझे बहुत कुछ‍ दिया था और जब मैं वहां से लौटा था तो बेशक कहानियां ज्यादा नहीं थीं मेरे पास लेकिन अगले दस बरस के लेखन के लायक कच्चा माल मेरे पास था और मैं उसी की पुडि़या बना बना कर लिखता छपता रहा। मैं दूसरी बार मुंबई में 1995 से 2005 तक रहा और नौकरी के चक्कर में बेहद व्यस्त रहने के बावजूद मेरी मूल, अनूदित और संपादित 17 किताबें आयीं।
लेकिन सच कहूं तो पुणे यानी पुण्य नगरी में पचास महीने बिता कर जाने के बाद भी मैं लगभग खाली हाथ ही वापिस जा रहा हूं। एक भी कहानी नहीं लिखी। बस, चार्ली चैप्लिन और चार्ल्स डार्विन के अनुवाद ही हो पाये। बेशक पढ़ा खूब और फिल्में भी खूब देखीं लेकिन मैं पुणे में कुछ नया लिखने, दोस्त बनाने, पुणे के भीतर उतरने और बहुत कुछ जानने आया था। हो ही नहीं पाया। मेरी झोली ही फटी निकली। अगर बाद में मेल मुलाकात के न्यौते आये भी तो मेरा अहं आड़े आ गया और नुक्सान में मैं ही रहा। मेरी बहुत अच्छी दोस्त सुनीता इस बात को ले कर आज तक मुझसे नाराज़ है कि मैं खुद आगे बढ़ कर मौके के अनुरूप अपने आपको प्रस्तुत क्यों नहीं कर पाता। ये अलग बहस का मुद्दा है।
हां, इस दौरान ब्लागों और इंटरनेट के जरिये एक बहुत बड़े पाठक वर्ग से जुड़ने का सुख मिला और एक नयी दुनिया से रू ब रू हुआ।
बेशक कुछ बातों का संतोष भी है कि मैं अपने ऑफिस में बेहतर तरीके से हिन्दी और साहित्य के लिए कुछ कर पाया। बैंकिंग महाविद्यालय में कहानी पाठ, नाटक, प्रेम चंद की 125वीं जयंती पर कई आयोजन, बैंकिंग विषयों पर राष्ट्रीय स्तर के 6 सेमिनार और 1000 से भी ज्यादा बैंकरों को कम्‍प्‍यूटर, अनुवाद और अब यूनिकोड का प्रशिक्षण संतोष देने वाले प्रसंग हैं। कहानी पाठ की परम्परा शायद बैंकिंग जगत में मैंने ही शुरू की हो। सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, शेखर जोशी, गोविंद मिश्र, मनहर चौहान, आबिद सुरती, ओमा शर्मा, दामोदर खड़से, रजनी गुप्त, अल्पना मिश्र और वंदना राग सरीखे कहानीकारों ने हमारे यहां कहानी पाठ करके अगर बैंकरों का दिल जीता तो राजेन्द्र यादव और वेद राही ने भी अपनी उपस्थिति से महाविद्यालय को गरिमा प्रदन की।
तो विदा पुणे नगरी, आना जाना तो लगा रहेगा लेकिन ये कचोट जरूर रहेगी कि जो कुछ सोच कर आया था, दिया नहीं तुमने मुझे।
फिर सही।