बुधवार, 7 नवंबर 2007

अब दीवाली . . . .




अब दीवाली . . . .

अब नहीं बनाती मां मिठाई दीवाली पर
हम सब भाई बहन खूब रगड़ रगड़ कर पूरा घर आंगन नहीं चमकाते
अब बड़े भाई दिन रात लग कर नहीं बनाते
बांस की खपचियों और पन्नीदार कागजों से रंग बिरंगा कंदील
और हम भाग भाग कर घर के हर कोने अंतरे में
पानी में अच्छी तरह से भिगो कर रखे गए दीप नहीं जलाते
पूरा घर नहीं सजाते अपने अपने तरीके से।

अब बच्चे नहीं रोते पटाखों और फुलझड़ियों के लिए
ज़िद नहीं करते नए कपड़े दिलाने के लिए और न ही
दीवाली की छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार करते हैं।

हम देर रात तक बाज़ार की रौनक देखने अब नहीं निकलते और न ही
मिट्टी की रंग बिरंगी लक्ष्मी, ऐर दूसरी चीजें लाते हैं
दीवाली पर लगने वाले बाजार से

अब हम नहीं लाते खील बताशे, देवी देवताओं के चमकीले कैलेंडर
और आले में रखने के लिए बड़े पेट वाला मिट़टी का कोई माधो।
अब हम दीवाली पर ढेर सारे कार्ड नहीं भेजते
आते भी नहीं कहीं से
कार्ड या मिलने जुलने वाले।

सब कुछ बदल गया है इस बीच
मां बेहद बूढ़ी हो गई है।
उससे मेहनत के काम नहीं हो पाते
वह तो बेचारी अपने गठिया की वजह से
पालथी मार कर बैठ भी नहीं पाती
कई बरस से वह जमीन पर पसर कर नहीं बैठी है।
नहीं गाए हैं उसने त्यौहारों के गीत।

और फिर वहां है ही कौन
किसके लिए बनाए
ये सब खाने के लिए
अकेले बुड्ढे बुढ़िया के पाव भर मिठाई काफी।
कोइ भी दे जाता है।
वैसे भी अब कहां पचती है इतनी सी भी मिठाई
जब खुशी और बच्चे साथ न हों . . .

बड़े भाई भी अब बूढ़े होने की दहलीज पर हैं।
कौन करे ये सब झंझट
बच्चे ले आते हैं चाइनीज लड़ियां सस्ते में
और पूरा घर जग जग करने लगता है।

अब कोई भी मिट्टी के खिलौने नहीं खेलता
मिलते भी नहीं है शायद कहीं
देवी देवता भी अब चांदी और सोने के हो गए हैं।
या बहुत हुआ तो कागज की लुगदी के।

अब घर की दीवारों पर कैलेंडर लगाने की जगह नहीं बची है
वहां हुसैन, सूजा और सतीश गुजराल आ गए हैं
या फिर शाहरूख खान या ऐश्वर्या राय और ब्रिटनी स्पीयर्स
पापा . . .छी आप भी . . .
आज कल ये कैलेंडर घरों में कौन लगाता है
हम झोपड़पट्टी वाले थोड़े हैं
ये सब कबाड़ अब यहां नहीं चलेगा।

अब खील बताशे सिर्फ बाजार में देख लिए जाते हैं
लाए नहीं जाते
गिफ्ट पैक ड्राइ फ्रूट्स के चलते भला
और क्या लेना देना।

नहीं बनाई जाती घर में अब दस तरह की मिठाइयां
बहुत हुआ तो ब्रजवासी के यहां से कुछ मिठाइयां मंगा लेंगे
होम डिलीवरी है उनकी।

कागजी सजावट के दिन लद गए
चलो चलते हैं सब किसी मॉल में,
नया खुला है अमेरिकन डॉलर स्टोर
ले आते हैं कुछ चाइनीज आइटम

वहीं वापसी में मैकडोनाल्ड में कुछ खा लेंगे।
कौन बनाए इतनी शॉपिंग के बाद घर में खाना।

मैं देखता हूं
मेरे बच्चे अजीब तरह से दीवाली मनाते हैं।
एसएमएस भेज कर विश करते हैं
हर त्यौहार के लिए पहले से बने बनाए
वही ईमेल कार्ड
पूरी दुनिया में सबके बीच
फारवर्ड होते रहते हैं।

अब नहीं आते नाते रिश्तेदार दीपावली की बधाई देने
अलबत्ता डाकिया, कूरियरवाला, माली, वाचमैन और दूसरे सब
जरूर आते हैं विश करने . . .नहीं . . .दीवाली की बख्शीश के लिए
और काम वाली बाई बोनस के लिए।

एक अजीब बात हो गई है
हमें पूजा की आरती याद ही नहीं आती।
कैसेट रखा है एक
हर पूजा के लिए उसमें ढेर सारी आरतियां हैं।

अब कोई उमंग नहीं उठती दीवाली के लिए
रंग बिरंगी जलती बुझती रौशनियां आंखों में चुभती हैं
पटाखों का कानफोड़ू शोर देर तक सोने नहीं देता
आंखों में जलन सी मची रहती है।
कहीं जाने का मन नहीं होता, ट्रैफिक इतना कि बस . . .

अब तो यही मन करता है
दीवाली हो या नए साल का आगमन
इस बार भी छुट्टियों पर कहीं दूर निकल जाएं
अंडमान या पाटनी कोट की तरफ
इस सब गहमागहमी से दूर।

कई बार सोचते भी हैं
चलो मां पिता की तरफ ही हो आएं
लेकिन ट्रेनों की हालत देख कर रूह कांप उठती है
और हर बार टल जाता है घर की तरफ
इस दीपावली पर भी जाना।

फोन पर ही हाल चाल पूछ लिए जाते हैं और
शुरू हो जाती है पैकिंग
गोवा की ऑल इन्क्लूसिव
ट्रिप के लिए।

—सूरज प्रकाश

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

कुछ और चिरकीं

भाई बोधिसत्‍व ने जब शुरुआत कर ही दी है तो स्‍वाभाविक है कि सब साथी अपने अपने दिमाग की हार्ड डिस्‍क में तलाशेंगे कि शायद कहीं चिरकीं की कोई फाइल डिलिट होने से रह गयी हो. तो लीजिये पेश है, हमारी याद में जो थे चिरकीं-
चिरकीं प्रसंग से पहले दो एक बातें
• रूस में चिरकिन कई लोगों का सरनेम हुआ करता है.. इस नाम वाले कवि विद्वान और कवि वहां हुए हैं.
• चिरकीं दुनिया में अकेले ऐसे कवि नहीं थे जो अपनी रचना का आधार वहां से तलाशते थे.. फ्रांस, इंगलैंड में भी ऐसे कवि हुए हैं जिन्‍होंने गू, पाद, हगने की आदतों, और गू की ईश्‍वरीय खासियतों को अपनी रचना का आधार बनाया है.
• फ्रांस के Euslrog de Beaulieo, Gilles Corrozal और Piron, इंगलैंड के स्वि‍फ्ट ऐसे ही कवि हैं.
कुछेक बानगियां देखिये
Gilles Corrozel की कविता हैः
"Recess of great comfort
Whether it is situated
in the fields or in the citys
Recess in which no one dare enter
Except for cleaning his stomach
Recess of great dignity"

इसी तरह से फ्रांस के Euslrog de Beaulieo अपनी कविता में पाखाने की तारीफ यूं करते हैं :

"When the cherries become ripe
Many black soils of strange shapes
Will breed for many days and urgents
Then will mature and become products of various colours and breaths"

एक अन्‍य फ्रांसीसी कवि पिरॉन की कविता यूं हैः

"What am I seeing oh! God
It is night soil
What a wonderful substance it is It is excreted by
the greatest of all Kings
Its odour speaks of majesty"

• एक वक्‍त गू महिमा का ये आलम था कि दाइयां बच्‍चे की पहली टट्टी देख कर उसके भविष्‍य के बारे में बता दिया करती थीं. ये तो अपने भारत में ही पंजाब के कुछ हिस्‍सों में होता रहा है कि अगर किसी परिवार में कई कन्‍याओं के बाद अगर लड़का पैदा होता था या विवाह के कई बरस के बाद लड़का पैदा होता था तो बच्‍चे की दादी बच्‍चे का पहला गू (बेशक जरा सा ही और दलिये में मिला कर) खाती थीं.
• चिरकीं के नाम को ले कर मतभेद हैं कि वे चिरकीन थे, चिरकिन थे या चिरकीं लेकिन वे जो भी थे, लाजवाब थे.
मेरे कलेक्‍शन में उनकी कुछ और रचनाएं हैं. शब्‍द आगे पीछे हो सकते हैं. लेकिन मूल भाव यही रहे होंगे.
• पाठकों के पास अगर इनके मौलिक संस्‍करण हों तो स्‍वागत है.
1. जो भी कमाऊंगा मैं अब सब का सब लगाऊंगा पाखाने में
जब अगली दफा घर आऊंगा तेरे कभी नहीं मूतूंगा वहां पे.
2. कल जो उनकी याद में दस्‍त ऐसा आ गया
पोंक से दीवार पर तस्‍वीर उनकी बन गयी
3. जिधर देखता हूं उधर तू ही तू है
इधर टट्टियां हैं, उधर गू ही गू है
4. टूं को टंकारो पूं की पिचकारी
ठस वस सब छोड़ो भइया, फुसकारी की बलिहारी
5. गुरुड़ गुरुड़ मेरा पेट करे
निकल लेंड हत्‍यारे

6. दर्द करता है निकलता क्‍यों नहीं
क्‍या मैं हौवा हूं जो तुझे खा जाऊंगा.

7. गर पाखाने में आग लग गयी
तो उसे मूत कर बुझाऊंगा.

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2007

कहानीकार अस्‍पताल में

प्रवासी कहानीकार अस्‍पताल में है. नानावती अस्‍पताल, मुंबई, वार्ड नम्‍बर 16बी, रूम नम्‍बर 335बी. वैसे घबराने की कोई बात नहीं है. बस, थोड़ी शारीरिक तकलीफें पैं‍डिंग चल रही थीं सो सबका इलाज करवाने लंदन से आये हैं. आप पूछेंगे भला, ये उल्‍टे बांस बरेली को क्‍यों. हमारे नेता तो मामूली जुकाम का इलाज कराने लंदन और पता नहीं कहां चले जाते हैं. तो भई सीधी सी बात है. हमारे कहानीकार मित्र बता रहे हैं कि वहां इलाज कराने के दो तरीके हैं. पहला है नेशनल इंश्‍यूरेंस स्‍कीम में और दूसरा प्राइवेट. जहां तक पहले तरीके से इलाज कराने का सवाल है तो छः महीने में तो टैस्‍ट ही पूरे नहीं होते. इलाज कब शुरू होगा ये वहां की रानी जाने या ऊपर वाला गॉड. तभी तो उनका राष्‍ट्रीय गीत ही ये है- गॉड सेव द किंग. यानी वहां के राजा को भी अपने डॉक्‍टरों पर भरोसा नहीं. तो अपन को कैसे होगा. आखिर वहां भी तो अपनी ही भारतीय बिरादरी के डॉक्‍टर हैं. और जो दूसरा तरीका है इलाज का, वो इतना महंगा है कि दो कन्‍सलटैंसी कराने में ही 400 पाउंड खुल जायें. इलाज तो बाद में शुरू होगा. और इन 400 पाउंड में ही इंगलैड से भारत आने जाने का टिकट कटवा कर हमारे प्रवासी कहानीकार मित्र इलाज करवाने इंडिया चले आये हैं.
वैसे शिकायतें मामूली हैं. चौबीस बरस पुराना स्‍पौंडिलासिस, खर्राटे भरने की पुरानी आदत जिसकी वजह से अक्‍सर उनकी बीवी उन्‍हें बेडरूम से बाहर निकाल देती है और पिछले साल सिर में लगी गुम चोट की वजह से हुई तकलीफें. वे दायीं तरफ नहीं देख पाते, दायां हाथ ऊपर नहीं कर पाते और हर वक्‍त दायें कंधे में सनसनाहट सी महसूस करते रहते हैं. उनका इलाज शुरू हो गया है और गर्दन में आठ किलो का वजन लटका दिया गया है. बाकी एक्‍सरसाइज भी साथ साथ.
वैसे वे यहां चल रहे इलाज से बहुत खुश हैं लेकिन उनकी कुछ मौलिक तकलीफें हैं जो मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूं.
जब हम उन्‍हें दशहरे के दिन अस्‍पताल ले जा रहे थे तो वे खुश थे कि दिन भर आसपास युवा और सुंदर नर्सें होंगी जो उनकी सेवा करेंगी और उनका दिल बहलाये रखेंगी (वे खुद हैंडसम हैं) पर हुआ ये कि सारी की सारी नर्सें लगता है कुपोषण की शिकार हैं. बाइ वन गेट वन फ्री वाली. कमजोर इतनी कि इंजेक्‍शन के सामान की ट्रे भी मुश्किल से उठा पायें. कहानीकार मित्र ने सोचा कि अपने हिस्‍से का खाना दे कर शायद उन्‍हें कुछ राहत दी जा सके लेकिन वहां तो आवां का आवां ही खराब है. सारी की सारी एक ही पैकिंग में सप्‍लाई वाली. बेचारे कहानीकार मित्र इसी बात को ले कर सारा दिन दुखी रहते हैं. वे आती हैं. कहती हैं- उठो अंकल. दवा का टाइम हो गया या इंजेक्‍शन लगाना है. बेचारे कुढ़ते रहते हैं.
उनका दूसरा दुख है कि 1998 में लंदन जाने से पहले उनके सैकड़ों मित्र थे जिनके वे हमेशा काम आते थे. अब दस बार फोन पर बताने के बाद भी कोई उनसे मिलने नहीं आता. जो आते हैं वे दो घंटे बैठ कर (विजिटिंग आवर्स दो ही घंटे हैं) पहले अपनी ग़ज़लें और कविताएं पेलते हैं, तब हाले मरीज पूछते हैं. इससे तो न ही आते तो बेहतर था.
कुछ मित्र हैं जिनके न आ पाने के बहाने ही खतम नहीं हो रहे. किसी को कुत्‍ते ने काट लिया है तो किसी की आंख के नीचे जल गया है और वे चश्‍मा नहीं पहन पा रहे.
दो दिन से हमारे मित्र और कुढ़े बैठे हैं. उनके एक करोड़पति मित्र हैं. सिनेमाई दुनिया के आदमी हैं. पहली बार मिलने आये तो मिठाई का एक डिब्‍बा दे गये. उनके जाने के बाद खोला तो कम से कम दस दिन पुरानी मिठाई थी जो खाने के लायक नहीं रही थी. अगले दिन दोबारा आये तो उनके हाथ में पानी की बोतल थी. दो घंटे अपनी लंतरानियां हांकते रहे. जाते समय अपनी बोतल में से आधा पानी कहानीकार मित्र की बोतल में डाल गये कि लो भइया. हम कुछ दे कर ही जा रहे हैं. मेरे मित्र की हालत क्‍या हुई होगी, आप अंदाजा लगा सकते हैं.
खैर करने को बातें तो बहुत सारी हैं. उन्‍हें अभी अस्‍पताल में ही रहना है कुछ दिन और. इस तरह के किस्‍से तो चलते रहेंगे.
आप चाहें तो वक्‍त निकाल कर उनसे मिलने जा सकते हैं या फोन करके हाल पूछ सकते हैं. उन्‍हें अच्‍छा लगेगा. उनका नम्‍बर है (0)9833959216. आप उन्‍हें kahanikar@gmail पर ईमेल करके भी उनके हाल पूछ सकते हैं.
अरे, मैं अपने प्रवासी कहानीकार का नाम तो बताना भूल ही गया.
वे है आप सबके परिचित तेजेन्‍द्र शर्मा.

सोमवार, 29 अक्तूबर 2007

बाबा कार्ल मार्क्‍स की मज़ार


बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार, बरसात और कम्यूनिस्ट कोना

पिछले बरस यानी 2006 में कथा यूके का इंदु शर्मा कथा सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत को उनके उपन्यास कैसी आगी लगाई के लिए हाउस हॉफ लॉर्ड्स में दिया गया। इसी सिलसिले में मैं उनके साथ जून 2006 में बीस दिन के लिए लंदन गया था। सम्मान आयोजन के पहले और बाद में हम दोनों खूब घूमे। बसों में . टयूब में . तेजेद्र शर्मा की कार में और पैदल भी। हम लगातार कई कई मील पैदल चलते रहते और लंदन के आम जीवन को नजदीक से देखने . समझने और अपने-अपने कैमरे में उतारने की कोशिश करते। हम कहीं भी घूमने निकल जाते और किसी ऐसी जगह जा पहुंचते जहां आम तौर पर कोई पैदल चलता नज़र ही न आता।
एक बार हमने तय किया कि बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार तक चला जाये। असगर भाई का विचार था कि कहीं इंटरनेट कैफे में जा कर पहले लोकेशन, जाने वाली ट्यूब और दूसरी बातों की जानकारी ले लेते हैं तो वहां तक पहुंचने में आसानी रहेगी। उन्हें इतना भर पता था कि हमें हाईगेट ट्यूब स्टेशन तक पहुंचना है और ये वाला कब्रिस्तान वहां से थोड़ी ही दूरी पर है। लेकिन मेरा विचार था कि हाईगेट स्टेशन तक पहुंच कर वहीं से जानकारी ले लेंगे।
हाईगेट पहुंचने में हमें कोई तकलीफ नहीं हुई। अब हमारे सामने एक ही संकट था कि हमारे पास लोकल नक्शा नहीं था और दूसरी बात हाईगेट स्टेशन से बाहर निकलने के तीन रास्ते थे और हमें पता नहीं था कि किस रास्ते से हमारी मंजिल आयेगी। हमारी दुविधा को भांप कर रेलवे का एक अफसर हमारे पास आया और मदद करने की पेशकश की। जब हमने बताया कि हमारी आज की मंजिल कौन सी है तो उसने हमें लोकल एरिया का नक्शा देते हुए समझाया कि हम वहां तक कैसे पहुंच सकते हैं।
बाहर निकलने पर हमने पाया कि बेशक हम लंदन के बीचों-बीच थे लेकिन अहसास ऐसे हो रहा था मानो इंगलैंड के दूर दराज के किसी ग्रामीण इलाके की तरफ जा निकले हों। लंदन की यही खासियत है कि इतनी हरियाली . मीलों लम्बे बगीचे और सदियों पहले बने एक जैसी शैली के मकान देख कर हमेशा यही लगने लगता है कि हम शहर के बाहरी इलाके में चले आये हों। बेशक हाईगेट सिमेटरी तक बस भी जाती थी लेकिन हमने एक बार फिर पैदल चलना तय किया। रास्ते में एक छोटा-सा पार्क देख कर बैठ गये और डिब्बा बंद बीयर का आनंद लिया।
आगे चलने पर पता नहीं कैसे हुआ कि हम सिमेटरी वाली गली में मुड़ने के बजाये सीधे निकल गये और भटक गये। वहां कोई भी पैदल चलने वाला नहीं था जो हमें गाइड करता। हम नक्शे के हिसाब से चलते ही रहे। तभी हमारी तरह का एक और बंदा मिला जो वहीं जाना चाहता था।
खैर... अपनी मंजिल का पता मिला हमें और हम आगे बढ़े। ये एक बहुत ही भव्य किस्म की कॉलोनी थी और वहां बने बंगलों को देख कर आसानी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता था वहां कौन लोग बसते होंगे। एक मजेदार ख्याल आया कि हमारे सुपर स्टार अमिताभ बच्चन अगर अपनी 227 करोड़ की सारी की सारी पूंजी भी ले कर वहां बंगला खरीदने जायें तो शायद खरीद न पायें।
ऐसी जगह के पास थी बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार। मीलों लम्बा कब्रिस्तान। अस्सी बरस की तो रही ही होगी वह बुढ़िया जो हमें कब्रिस्तान के गेट पर रिसेप्शनिस्ट के रूप में मिली। एंट्री फी दो पाउंड। हम भारतीय कहीं भी पाउंड को रुपये में कन्वर्ट करना नहीं भूलते। हिसाब लगा लिय़ा 184 रुपये प्रति टिकट। अगर कब्रिस्तान की गाइड बुक चाहिये तो दो पाउंड और। ये इंगलैंड में ही हो सकता है कि कब्रिस्तान की भी गाइड बुक है और पूरे पैसे देने के बाद ही मिलती है। हमने टिकट तो लिये लेकिन बाबा कार्ल मार्क्स तक मुफ्त में जाने का रास्ता पूछ लिया। उस भव्य बुढ़िया ने बताया कि आगे जा कर बायीं तरफ मुड़ जाना। ये भी खूब रही। मार्क्स साहब मरने के बाद भी बायीं तरफ।
मौसम भीग रहा था और बीच बीच में फुहार अपने रंग दिखा रही थी। कभी झींसी पड़ती तो कभी बौछारें तेज हो जातीं।
हम खरामा-खरामा कर्बिस्तान की हरियाली . विस्तार और एकदम शांत परिवेश का आनंद लेते बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार तक पहुंचे। देखते ही ठिठक कर रह गये। भव्य। अप्रतिम। कई सवाल सिर उठाने लगे। एक पूंजीवादी देश में रहते हुए वहां की नीतियों के खिलाफ जीवन भर लिखने वाले विचारक की भी इतनी शानदार कब्र। कोई आठ फुट ऊंचे चबूतरे पर बनी है कार्ल मार्क्स की भव्य आवक्ष प्रतिमा। आस पास जितनी कब्रें ह़ैं उनके बाशिंदे बाबा की तुलना में एकदम दम बौने नजर आते हैं। बाबा की कब्र पर बड़े बड़े हर्फों में खुदा है - वर्कर्स ऑफ ऑल लैंड्स . युनाइट। ये कम्यूनिस्ट मैनिफैस्टों की अंतिम पंक्ति है।
ये भी कैसी विडम्बना है जीवन की। जीओ तो मुफलिसी में और मरो तो ऐसी शानदार जगह पर इतना बढ़िया कोना नसीब में लिखा होता है।
उनकी मज़ार पर इस समय जो शिलालेख लगा ह़ै वह 1954 में गेट ब्रिटेन की कम्यूनिस्ट पार्टी ने लगवाया था और उस स्थल को विनम्रता पूर्वक सजाया गया था। एक और अजीब बात इस मज़ार के साथ जुड़ी हुई है कि 1970 में इसे उड़ा देने का असफल प्रयास किया गया था।
अभी हम मार्क्स बाबा की तस्वीरें ले ही रहे थे कि हमारी निगाह सामने वाले कोने की तरफ गयी जहां कुछ कब्रों पर ताजे फूल चढ़ाये गये थे। हम देख कर हैरान रहे गये कि ये पूरा का पूरा कोना दुनिया भर के ऐसे कम्यूनिस्ट नेताओं की कब्रों के लिए सुरक्षित था जिन्होंने पिछले दशकों में इंगलैंड में रह कर देश निकाला झेलते हुए यहां से अपने-अपने देश की राजनीति का सूत्र संचालन किया था। यहां पर हमने ईराकी . अफ्रीकी . लातिनी देशों के कई प्रसिद्ध नेताओं की कब्रें देखीं। ज्यादातर कब्रों पर इस्लामी नाम खुदे हुए दिखायी दिये। किसी ने लंदन में तीस तो किसी ने बीस बरस बिताये थे और अपने अपने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी और अंत समय आने पर यहीं . बाबा कार्ल मार्क्स से चंद कदम दूर ही सुपुर्दे खाक किये गये थे। उस कोने में कम से कम पचास कब्रें तो रही ही होंगी।
कब्रिस्तान सौ बरस से भी ज्यादा पुराना होने के बावजूद अभी भी इस्तेमाल में लाया जा रहा था। बरसात बहुत तेज होने के कारण हम ज्यादा भीतर तक नहीं जा पाये थे लेकिन कब्रों पर लगे फलक पढ़ कर लग रहा था कि ये कब्रगाह ऐसे वैसों के लिए तो कतई नहीं है। दफनाये गये लोगों में कोई काउंट था तो कोई काउंटेस। कोई गवर्नर था तो कोई राजदूत।
वापसी पर हम जिस रास्ते से हो कर आय़े वह एक बहुत बड़ा हरा भरा खूबसूरत बाग था जिसमें सैकड़ों किस्म के फूल और पेड़ लगे हुए थे। वहां से वापिस आने का दिल ही नहीं कर रहा था।
हम दोनों ही सोच रहे थे . रहने को नहीं . मरने को ही ये जगह मिल जाये तो यही जन्नत है।

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007

ज़ख्मी पांवों और बुलंद हौसलों का शहर.....बंबई

ज़ख्मी पांवों और बुलंद हौसलों का शहर.....बंबई

बंबई.. बॉम्बे... मुंबई.. . मुम्बाई.. ...जितने नाम हैं मुंबई के, उससे कई गुना चेहरे हैं इस मायावी नगरी के.. सपनों का शहर.. सबके सपने पूरे करने वाला शहर.. सबके सपने चूर चूर करने वाला शहर.... बार बार सपनों में आने वाला शहर .. तरह तरह से लुभाने, भरमाने और ललचाने वाला शहर और अपने पास बुला कर पूरी तरह भुला देने वाला शहर....टूटे सपनों की एक बहुत बड़ी, विशाल और रोजाना बड़ी होती जाती आकाश को छूती कब्रगाह ....टूटे बिखरे सपनों और टूटे दिल वाले ज़िंदा - मुरदा इन्सानों का हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा मकबरा..निदा फाज़ली के शब्दों में हादसों का शहर... हौले हौले सांस लेता, धड़कता बेदिल मुंबई का दिल जिसे इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं कि यहां कौन जीता है और कौन मरता है.. आप ज़िंदा हैं या कल रात मर गये यह जानने की किसे फुर्सत....।
तो ...क्या है बंबई या नये मुहावरे में कहें तो मुंबई.. कौन - सा चेहरा सच्चा है इसका और कौन सा झूठा.. किस चेहरे पर विश्वास करें और किस चेहरे से बच कर रहें कि दिन-दहाड़े खुली आंखों धोखा न खा जायें.. ऐ बाबू ज़रा बच .. संभल के ... हां सुना नहीं क्या ....ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां .... कहीं पत्ता, कहीं सट्टा.. कहीं जूआ कहीं रेस.. कहीं टमटम.. कहीं ट्रामें कहीं मोटर कहीं रेल...ज़रा हट के ज़रा बच के ये है बांबे मेरी जान.. . तो ... कौन सी मुंबई और किसकी बंबई है ? किसकी सगी और किसकी पराई.. किन शर्तों पर मेरी और किन शर्तों पर आपकी... और कितनी देर के लिए ..कब अपनायेगी और कब छूट जायेगी समंदर किनारे की रेत की मानिंद हथेलियों से बंबई। कब हंसायेगी और कब तक रुलायेगी मुंबई ....। कितने इम्तिहान लेगी ये बंबई ..!
यह वही मुंबई है ना जहां एक वक्त के फिल्मों के बेताज बादशाह भगवान दादा, जिनका जुहू पर 25 कमरे का आलीशान घर हुआ करता था, मरने से पहले अपने आखिरी दिनों तक तीस तीस सेकेण्ड के रोल पाने के लिए दिन भर जूनियर कलाकारों की भीड़ में खड़े रहते थे।.. यह वही मुंबई है ना जहां बोझा ढोने और फुटपाथ पर सोने वाला एक मामूली सा कुली हाजी मस्तान अंडर वर्ल्ड का किंग बन जाता है और जिसके जीवन पर बनी फिल्म में हिन्दी सिनेमा का अब तक का सबसे बड़ा कलाकार अमिताभ बच्चन रोल अदा करता है। अपने वक्त के सबसे बड़े, मशहूर और स्थापित कितने ही लेखकों, गीतकारों, अभिनेताओं और दूसरी सफल हस्तियों को इसी नगरिया ने संघर्ष के दिनों में फुटपाथ पर सुलाया है, वड़ा पाव खिला कर अपना संघर्ष और अपनी कोशिशें जारी रखने की हिम्मत दी है और उनके कान में सफलता का यह मंत्र फूंका है - जो कुछ हासिल करना है, यहीं पर करना है। वापिस लौटना भी चाहो तो कौन सा मुंह ले कर जाओगे? और वे यहीं पर रह गये और सफल हो कर दिखाया।
इस शहर की किसी डायरी में यह बात दर्ज नहीं है कि यहां कितने लोग खाली हाथ और बुलंद हौसले लेकर आये थे और उन्होंने अपनी मेहनत और काबलियत के बल पर एक दिन अपने सारे सपने सच करके दिखाये। यह बात भी किसी की डायरी में दर्ज नहीं है कि कितने लोग यहां बेशुमार दौलत ले कर आये और रातों रात फुटपाथ पर आ गये।...और बदकिस्मती से यह वही नगरी है जहां टूटे सपनों की किरचों से हर दूसरी रूह, हर आत्मा और हर जिस्म जख्मी है। मशहूर शायर शहरयार ने इस शहर के ही बारे में तो कहा था ना .. सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यूं है .. इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है.
कुछ भी हो आखिर बंबई .. बंबई ही है। जो किसी की भी नहीं फिर भी सबकी है। जिसका कोई नहीं उसकी बंबई है। जिसके पास कुछ भी नहीं और सिर्फ बंबई है उसे भी रात को भूखा सोने की ज़रूरत नहीं। बंबई उसे अपनी रात की बांहों में ज़रूर पनाह देगी और आधे पेट ही सही, रोटी भी देगी। जिसके सिर पर छत नहीं उसे भी बंबई अपनी अपना लेती है। ख्वाजा अहमद अब्बास ने ऐसे ही तो नहीं कहा था - रहने को घर नहीं है सारा जहां हमारा....।
बंबई का ग्लैमर, यहां का शो-बिजिनेस, यहां की शानो-शौकत और यहां की बेइंतहां दौलत सबको अपनी तरफ खींचती है, बुलाती है और न्यौता देती है हिम्मत है तो कुछ बन कर दिखाओ। ये सब कुछ तुम्हारा भी हो सकता है। सिर्फ हासिल करना आना चाहिये। आंकड़े बताते हैं कि इस शहर में सपने खरीदने रोजाना तीन सौ से लेकर चार सौ तक लड़कियां और इतने ही लड़के रोजाना आते हैं। किसी भी तरह की रोजी रोटी की तलाश में आने वाले दूसरे लोगों की संख्या तो इनसे ज्यादा ही है। वैसे आंकड़े तो ये भी बताते हैं कि जो भी इस शख्स इस शहर के मिज़ाज को नहीं पहचान पाता, या अपनी हैसियन से ज्यादा ऊंचे सपने देखना शुरू कर देता है तो वापिस तो वह भी नहीं जाता। या तो वह शहर की लाखों की भीड़ में हमेशा हमेशा के लिए गुम हो जाता है या किसी दिन लोकल ट्रेन के नीचे कट कर मुक्ति पा लेता है। लोकल ट्रेनें बेशक इस नगर की धड़कन हैं। एक दिन भी लोकल गाड़ियां बंद हुईं नहीं कि शहर का दम घुटने लगता है और यूं लगने लगता है कि अब गया और तब गया। सपनों के बाज़ार में लुटे पिटे कितने ही लोग इन्हीं लोकल गाड़ियों से मुक्ति मांगते हैं। शहर में मरने का सबसे आसान और गारंटीशुदा तरीका। जो एक ही किस्त में मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, वे फिर शहर के किसी भी बीयर बार में, दारू के अड्डे में या नशे के किसी और अड्डे पर, कहीं भी अपना ग़म गलत करते हुए किस्तों में मरते हैं लेकिन वे उन सपनों का भूल कर भी ज़िक्र नहीं करेंगे जो कभी उन्हें खींच कर यहां लाये थे। इसी शहर में रंगीन और चकाचौंध से भरे सपनों की तलाश में रोज़ाना अलग अलग रूटों, गाड़ियों, बसों पर सवार और आश्वासनों की पोटली लिये यहां आने वाली या लायी जाने वाली सैकड़ों लड़कियां आखिर कहां जाती या पहुंचा दी जाती हैं, कहने की ज़रूरत नहीं है।
दरअसल बंबई चरम सीमाओं का शहर है। इस पार या उस पार। बिलकुल इधर या बिलकुल उधर। बीच वालों के लिए कोई जगह नहीं है यहां। आप कुछ भी करें यहां, आप या तो सबसे आगे रहना होगा या सबसे पीछे। बीच में रहेंगे तो आगे वाले आगे नहीं आने देंगे और पीछे वाले धक्का देंगे। या तो आप के सामने पूरा आसमान होना चाहिये या पीठ पीछे दीवार तभी आप इस शहर में ज़िंदा रह पायेंगे।
बंबई विरोधाभासों का शहर है। देश का सबसे बड़ा कॉस्मोपॉलिटन शहर आपकी प्राइवेसी की खूब कद्र करता है, इतनी ज्यादा कि आप न जानना चाहें तो ज़िंदगी भर आपको अपने पड़ोसी का नाम भी पता न चले और आप किसी से बोलना बतियाना चाहें तो कोई भी नहीं मिलेगा और आपको पागल कर देने वाली भीड़ में भी इतना अकेलापन दे देगा कि आप किसी से दो मीठे बोल बोलने के लिए तरस जायें। यह इसी शहर में हो सकता है कि यहां के मूल बाशिंदे ज़िंदगी की छोटी छोटी ज़रूरतों के लिए लगातार संघर्ष करते रहें और बाहर वाले आ कर अपनी किस्मत का सितारा बुलंदी तक ले जायें। यह बात यहां के हर क्षेत्र में देखी जा सकती है।
यह भी इसी शहर में होता है कि आप पीढ़ियों से यहां रहते हुए भी अपनी मूल पहचान को बनाये रख सकते हैं और बिना मराठी सीखे सैकड़ों साल यहां आराम से गुज़ार सकते हैं।
कितनी अजीब बात है कि यहां अगर कोई शख्स बिलकुल भी शिकायत नहीं करता और हर हाल में खाता पीता मस्त रहता है वह है फुटपाथ पर रहने वाला आदमी..। उसे किसी से कोई शिकायत नहीं। उसके पास न छत है न फर्श.. वह कहीं भी टीन टप्पर डाल कर सो जाता है। टीन टप्पर नहीं तो ये मेरा आसमान तो है..पानी नहीं तो कोई बात नहीं आसपास गटर तो होगा, उसी में से निकाल कर पी लेंगे। कुछ नहीं होता हमारे बच्चों को । वे बीमार वीमार होने लगे तो हो चुका काम...। इसी गटर के पानी में नहा भी लेंगे, कपड़े भी धो लेंगे और खाना भी बना लेंगे। और तो और कहीं पीने पिलाने का प्रोग्राम बन गया तो शराब में पानी भी इसी गटर का ही मिलाया जायेगा। उसके बाद खाना है तो ठीक वरना इसी एकाध नौटांक के नशे पर ही गा बजा कर, गाली गलौज करके वहीं गिर पड़ कर रात गुजार लेंगे। ज़िंदगी की निहायत व्यक्तिगत जरूरतों के लिए प्रायवेसी नहीं तो कोई बात नहीं। जब ऊपर वाले ने कुछ दिया ही नहीं तो किससे शर्म और कैसी शर्म...। न उसे सचिन की अगली सेंचुरी का तनाव, न पाकिस्तान से भारत के टेस्ट मैच हार जाने की चिंता, न डॉलर के रेट बढ़ जाने की चिंता और न इन्कम टैक्स रेड की चिंता। उसे न इस बात की चिंता कि अपनी बीबी को साड़ी से मैचिंग लिपस्टिक नहीं दिलवा पाया और न इस बात की ंिचंता कि मेडिकल में अपने लड़के के लिए इतना डोनेशन कहां से लाये....।
कितने मामूली सपने ले कर आता है वह इस शहर में और कितना मस्त रहता है।
तो इसका मतलब यही हुआ न कि जितना बड़ा सपना उतनी ही बड़ी छलांग और उतनी ही बड़ी दुनिया आपके कदमों के तले। और जितना बड़ा सपना टूटेगा उतनी ही बड़ी किरचें चुभेंगी और उतना ही ज्यादा लहू बहेगा।
मुंबई इसी का नाम है। हर आदमी के लिए अलग मायने रखती है मुंबई। सबको संघर्ष करने के लिए बुलाती है बंबई लेकिन सबको उनका हिस्सा नहीं देती। बहुत बेमुरव्वत है बंबई। बहुत रुलाती, तड़पाती और सताती है बंबई। लेकिन फिर भी जाने क्या कशिश है इसकी सर जमीं में कि वापिस ही नहीं जाने देती। न सफल आदमी को न असफल आदमी को। दोनों यहीं के हो कर रह जाते हैं और यहीं जीने मरने को अभिशप्त होते हैं।
सफलताओं और असफलताओं की कितनी कहानियां रोज़ लिखी जाती हैं अरब सागर के किनारे की रेती पर और कितने सपने रोज़ खरीदे , बेचे और भुनाये जाते हैं यहां। कोई नहीं देखता कि कितनी लड़कियां रोज यहां सपनों की तलाश में आती हैं और कितने दिन में टूटे बिखरे सपनों की अर्थी अपने कमज़ोर कांधों पर लिये वे हमेशा हमेशा के लिए कहां गुम हो जाती हैं। कितने सपनों के सौदागर यहां चौराहे चौराहे अपनी दुकाने सजाये बैठे हैं, कोई गिनती नहीं। अपने मकान के सपना.. अपने घर का सपना ... कैरियर का सपना.., प्यार भरे दो बोल सुन लेने के सपना .. किसी को अपना बना लेने का सपना और किसी का बन जाने का सपना...कुछ कह सुन लेने का सपना, दुनिया की चोटी पर बिठा देने का, दो वक्त की इज्जत की रोटी का सपना..कुछ कर दिखाने का सपना, यह सपना और वह सपना.... यहां कोई सपनों का हिसाब किताब नहीं रखता..। एक बार किसी ने नाथू राम गोडसे से पूछा था - क्या आपने इससे पहले भी बापू को मारने की कोशिश की थी तो उसने जवाब दिया था - जब हम किसी को यह बताते हैं कि हमारे कितने बच्चे हैं तो हम अपनी बीवी के अबार्शनों की संख्या नहीं बताते।
यह शहर भी आपके टूटे, बिखरे चूर चूर हुए सपनों का, आपकी असफलताओं का कोई हिसाब किताब नहीं रखता। हिसाब पूछता भी नहीं। यह भी नहीं पूछता कि आप यहां तक कैसे पहुंचे.. बस.. मायने यह रखता है कि आप कहां से चल कर आये थे और कहां तक पहुंच कर दिखाया। अगर आपने कुछ कर दिखाया है तो शहर सुबह उठ कर पहला सलाम आपको ही को करेगा वरना सुबह सुबह जुहू और चौपाटी पर अरब सागर की लहरें आपका लंगोट तक बहा ले जायेंगी और आपको पता भी नहीं चलेगा।
तो यही बंबई आपके पास चल कर आती है सपनों की बातें करने। आपके पास कलकत्ता आता है रवीद्र बाबू के ज़रिये, शरत और सत्यजीत राय के जरिये, संगीत और सौन्दर्य के जरिये। आपके पास रूस आता है तॉलस्ताय, गोर्की और चेखव के ज़रिये। और भी कई शहर आतें हैं किसी न किसी वजह से। सिर्फ बंबई ही आती है सिर्फ सपने ले कर। भरमाने वाले सपने ले कर। जो बंबई फिल्में परोसती हैं या टीवी सीरियल वाले परोसते हैं या सपने दिखाने वाले परोसते हैं उसकी सच्चाई से सब वाकिफ़ हैं और ऐसी बंबई के आप तक पहुंचने या न पहुंचने के बीच कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। वे भी तो सपने ही परोसते हैं। चिकने चमकीले सपने। उन सपनों की बंबई असली बंबई नहीं होती।
आपको अपनी बंबई देखनी हो तो खुद आना होगा उस तक । चल कर। अपनी शर्तों पर नहीं, उसकी शर्तों परे। बंबई आपको अपनाये या नहीं, ये आप पर उतना ही निर्भर करता है जितना बंबई पर कि वह आपको स्वीकारे या नहीं।
आमीन
सूरज प्रकाश