रविवार, 12 अप्रैल 2015

नागर जी का कानपुर



हिंदी के महान साहित्यकार अमृत लाल नागर (1916-1990) घर के अन्दर तख़्त पर बैठ कर लेखन कार्य करते थे। लिखने का समय सुबह का ही रहता। जब वे अपने तख्‍त पर लिखने के लिए आसन जमा लेते तो अपनी पत्‍नी प्रतिभा से कह देते कि यदि कोई मिलने आये तो कह देना कि नागर जी कानपुर गये हैं। यही तख्‍त ही उनका कानपुर था। कोई बहुत ही सगा या प्रिय आ कर उन्‍हें प्‍यार भरी आवाज में पुकारता तभी वह अपने कानपुर से लौटते। नहीं तो लिखने का काम पूरा होने तक अपने कानपुर में ही जमे रहते।
अपने पात्रों से बहुत जूझते थे नागर जी और तभी उन्‍हें कागज पर उतारते जब उन्‍हें लगता कि हां अब मेरे पात्र जीवंत हो उठे हैं।
रात देर तक पढ़ते थे वे लेकिन लिखते समय अगर किसी विकट स्‍थिति में फंस जाते तो नागर जी मूड फ्रेश करने के लिए मेरठ से छपने वाले सस्‍ते जासूसी उपन्‍यास पढ़ते थे।
उनकी पत्‍नी ने उन्हें सारे सांसारिक झमेलों से मुक्‍त कर रखा था और वे इस बात को मानते भी थे। अपने खुद के बाहरी कामों में वे इतने भोले थे कि एक बार  अपनी रायल्‍टी का चेक जमा कराने गये और चेक ही कहीं खो आये।
शाम उनकी भाँग की महफिलों के लिए सुरक्षित रहती।
उन्‍होंने कुछ उपन्‍यासों की डिक्‍टेशन भी दी थी। प्रसिद्ध कहानीकार मुद्राराक्षस ने भी उनके उपन्‍यासों की डिक्‍टेशन ली थी।
उनके एक उपन्‍यास बूंद और समुद्र में एक हवेली का जिक्र आता है। नागर जी ने बाकायदा उस हवेली का नक्‍शा बना रखा था। पूछने पर बताते कि भई आजकल मैं सारा दिन इसी हवेली में रहता हूं। मुझे पता तो होना चाहिये ना कि इसका कौन सा दरवाजा किस तरफ खुलता है और आँगन में धूप आती है या नहीं।
उनका डाक का पता बहुत आसान था- नागर जी, चौक, लखनऊ।

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