लेखकों की बातें – किस्सा तेइस।
पहाड़ पर जाकर लिखने वाला गरीब लेखक
आधुनिक पंजाबी उपन्यास लेखन के जनक नानक सिंह (1897-1971) की माली हालत ऐसी नहीं थी कि पहाड़ों पर जा कर अपने उपन्यास लिखें। वैसे भी फ्री लांस राइटर थे, नौकरी करते नहीं थे। लेकिन उन्होंने अपने कई उपन्यास धरमशाला, डलहौज़ी, मैकलोड गंज, कश्मीर आदि जगहों पर जा कर लिखे।
सवाल उठता है कि जब घर का खर्च चलाने के लाले पड़े हुए हों तो कोई लेखक भला महीनों तक पहाड़ों पर जा कर लिखने की कैसे सोच सकता है।
दरअसल नानक सिंह फुल टाइम लेखक थे। कुछ और करना न तो आता था और न ही उनके बस में था। उपन्यास लिखना ही उनका काम था जिसके लिए वे पहाड़ों पर जाते थे। वहीं लिख पाते थे। वहां जायेंगे नहीं तो लिखेंगे कैसे और लिखेंगे नहीं तो घर का खर्च कैसे चलायेंगे। बच्चों की फीस कहां से देंगे।
पहाड़ पर लिखना भी उनके लिए मजदूरी करने जैसा ही था। खुद ही अंगीठी या स्टोव पर चाय बनाना, खुद रोटी पकाना, अपने कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना। वहीं खाना पकाना, वहीं लिखना और वहीं सो रहना। कभी ज्यादा लिखा और खाना बनाने का मन नहीं किया तो आस पास के ढाबे पर चले गये।
आप कल्पना कर सकते हैं कि उनके सारे उपन्यासों के अनगिनत पात्र उनके घनघोर अकेलेपन से निकल कर आये हैं। बस वे होते और उनके पात्र होते। इन पात्रों को वे कागजों पर उतार उतार कर चारपाई के नीचे फेंकते जाते।
पीने के नाम पर वे कहवा ही पीते थे। शायद ये बात भी रही हो कि वे कुछ और पीना एफोर्ड ही न कर पाते हों।
वे बेहद विनम्र, धीर धरने वाले और साधु स्वभाव के लेखक थे तभी तो वे पंजाबी और इस तरह से विश्व साहित्य को पवित्तर पापी, आदमखोर और एक म्यान दो तलवारें जैसी अमर कृतियां दे गये। उनके 7 कहानी-संग्रह, 2 नाटक, 11 कविता-संग्रह और 35 उपन्यास हैं। उन्हें 1961 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
पहाड़ पर जाकर लिखने वाला गरीब लेखक
आधुनिक पंजाबी उपन्यास लेखन के जनक नानक सिंह (1897-1971) की माली हालत ऐसी नहीं थी कि पहाड़ों पर जा कर अपने उपन्यास लिखें। वैसे भी फ्री लांस राइटर थे, नौकरी करते नहीं थे। लेकिन उन्होंने अपने कई उपन्यास धरमशाला, डलहौज़ी, मैकलोड गंज, कश्मीर आदि जगहों पर जा कर लिखे।
सवाल उठता है कि जब घर का खर्च चलाने के लाले पड़े हुए हों तो कोई लेखक भला महीनों तक पहाड़ों पर जा कर लिखने की कैसे सोच सकता है।
दरअसल नानक सिंह फुल टाइम लेखक थे। कुछ और करना न तो आता था और न ही उनके बस में था। उपन्यास लिखना ही उनका काम था जिसके लिए वे पहाड़ों पर जाते थे। वहीं लिख पाते थे। वहां जायेंगे नहीं तो लिखेंगे कैसे और लिखेंगे नहीं तो घर का खर्च कैसे चलायेंगे। बच्चों की फीस कहां से देंगे।
पहाड़ पर लिखना भी उनके लिए मजदूरी करने जैसा ही था। खुद ही अंगीठी या स्टोव पर चाय बनाना, खुद रोटी पकाना, अपने कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना। वहीं खाना पकाना, वहीं लिखना और वहीं सो रहना। कभी ज्यादा लिखा और खाना बनाने का मन नहीं किया तो आस पास के ढाबे पर चले गये।
आप कल्पना कर सकते हैं कि उनके सारे उपन्यासों के अनगिनत पात्र उनके घनघोर अकेलेपन से निकल कर आये हैं। बस वे होते और उनके पात्र होते। इन पात्रों को वे कागजों पर उतार उतार कर चारपाई के नीचे फेंकते जाते।
पीने के नाम पर वे कहवा ही पीते थे। शायद ये बात भी रही हो कि वे कुछ और पीना एफोर्ड ही न कर पाते हों।
वे बेहद विनम्र, धीर धरने वाले और साधु स्वभाव के लेखक थे तभी तो वे पंजाबी और इस तरह से विश्व साहित्य को पवित्तर पापी, आदमखोर और एक म्यान दो तलवारें जैसी अमर कृतियां दे गये। उनके 7 कहानी-संग्रह, 2 नाटक, 11 कविता-संग्रह और 35 उपन्यास हैं। उन्हें 1961 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
1 टिप्पणी:
So inspiring and so touching. Surajji, I have just discovered your blog, courtesy my old friend Neha Sharad. And I am loving' it (as they say in the McDonalds ads.). Excuse me for the English comments but it's too complicated to write in Hindi at this hour (late, late night and a few pegs down). Will try my best to post future comments in Hindi.
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