मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

महानगर की कथाएं - एक और विकल्‍पहीन



उस स्कूल की हैडमिस्ट्रेस रोज ही देखती है कि मिसेज मनचन्दा स्कूल का समय खत्म हो जाने के बाद भी स्कूल में ही बैठी रहती हैं और लाइब्रेरी वगैरह में समय गुजारती हैं। वे आती भी सबसे पहले हैं। बाकि अध्यापिकाएं तो जितनी देर से आती हैं उतनी ही जल्दी जाने की हड़बड़ी में होती हैं। अगर मैनेजमेन्ट ने हर अध्यापिका के लिये कम से कम पांच घण्टे स्कूल में रहने की शर्त न लगा रखी होती तो कई अध्यापिकाएं तो अपने दो तीन पीरियड पढ़ा कर ही फूट लेतीं।
मिसेज मनचन्दा ने हाल ही में यह स्कूल ज्‍वाइन किया है। वे सुन्दर हैं, जवान हैं और सबसे बड़ी बात, बाकि अध्यापिकाओं की तुलना में उनके पास डिग्री भी बड़ी है, बेशक वेतन उनका इतना मामूली है कि महीने भर आने जाने का ऑटोरिक्शा का भाड़ा भी न निकले।
आखिर पूछ ही लिया प्रधानाध्यापिका ने उनसे।
मिसेज मनचन्दा ने ठण्डी सांस भर कर जवाब दिया है - आपका पूछना सही है। दरअसल मेरा घर बहुत छोटा है, एक ही कमरे का मकान। उसी में हमारे साथ रिश्ते का हमारा जवान देवर रहता है। रात पाली में काम करता है. मेरे पति शाम सात बजे तक ही आ पाते हैं लेकिन देवर सारा दिन घर पर रहता है। अब मैं कैसे बताऊं कि सारा दिन घर से बाहर रहने के लिये ही ये नौकरी कर रही हूं। बेशक इस नौकरी से मेरे हाथ में एक भी पैसा नहीं आता, फिर भी किसी तरह के दैहिक शोषण की आशंका से बची रहती हूं। न सही दैहिक शोषण का डर, सारा दिन उस निठल्ले की चाकरी तो नहीं बजानी पड़ती। घर पर उनकी मौजूदगी में तो मैं घड़ी भर लेट कर कमर तक सीधी करने की कल्पना नहीं कर पाती।

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

महानगर की कथाएं- एक – विकल्‍पहीन

वे बहुत सारे हैं। अलग अलग उम्र के लेकिन लगभग सभी रिटायर्ड या अपना सब कुछ बच्चों को सौंप कर दीन दुनिया से, सांसारिक दायित्वों से मुक्त। सवेरे दस बजते न बजते वे धीरे–धीरे आ जुटते हैं यहाँ और सारा दिन यहीं गुजारते हैं। मुंबई के एक बहुत ही सम्पन्न उपनगर भयंदर में स्टेशन के बाहर, वेस्ट की तरफ। रेलवे ट्रैक के किनारे गिट्टी पत्थरों के ढेर पर उनकी महफिल जमती है और दिन भर जमी ही रहती है। यहाँ अखबार पढ़े जाते हैं, समाचारों पर बहस होती है, सुख दुख सुने सुनाये जाते हैं और मिल जुल कर जितनी भी जुट पाये, दो चार बार चाय पी जाती है, पत्ते खेले जाते हैं और शेयरों के दामों में उतार चढ़ावों पर, अकेले दुकेले बूढ़ों की हत्या पर, बलात्कार के मामलों और राजनैतिक उठापटक पर चिंता व्यक्त की जाती है। सिर्फ बरसात के दिनों में या तेज गर्मी के दिनों में व्यवधान होता है उन लोगों के बैठने में।
कंकरीट के इस जंगल में कोई पार्क, हरा भरा पेड़ या कुंए की कोई जगत नहीं हैं, नहीं तो यह चौपाल वहीं जमती। वे दिन भर आती जाती ट्रेनों को देखते रहते हैं और इस तरह से अपना वक्त गुजारते हैं। शाम ढलने पर वे एक–एक करके जाने लगते हैं। एक बार फिर यहाँ पर लौट कर आने के लिए।
उनके दिन इसी तरह से गुजर रहे हैं। आगे भी उन्हें यहीं बैठकर इसी तरह से पत्ते खेलते हुए बातें करते हुए और मिल जुल कर कटिंग चाय पीते हुए दिन गुजारने हैं।
ये बूढ़े, सब के सब बूढ़े अच्छे घरों से आते हैं और सबके अपने घर–बार हैं। बरसों बरस आपने सारे के सारे दिन यहाँ स्टेशन के बाहर, रेलवे की रोड़ी की ढेरी पर आम तौर पर धूप बरसात या खराब मौसम की परवाह न करते हुए बिताने के पीछे एक नहीं कई वजहें हैं।
किसी का घर इतना छोटा है कि अगर वे दिन भर घर पर ही जमे रहें तो बहू बेटियों को नहाने तक ही तकलीफ हो जाये। मजबूरन उन्हें बाहर आना ही पड़ता है ताकि बहू बेटियों की परदेदारी बनी रहे। किसी का बेशक घर बड़ा है लेकिन उसमें रहने वालों के दिल बहुत छोटे हैं और उनमें इतनी सी भी जगह नहीं बची है कि घर के ये बुजुर्ग, जिन्होंने अपना सारा जीवन उनके लिए होम कर दिया और आज उनके बच्चे किसी न किसी इज्जतदार काम धंधे से लगे हुए हैं, उनके लिए अब इतनी भी जगह नहीं बची है कि वे आराम से अपने घर पर ही रह कर, पोतों के साथ खेलते हुए, सुख दुख के दिन आराम से गुजार सके। गुंजाइश ही नहीं बची है, इसलिए रोज रोज की किच किच से बचने के लिए यहाँ चले आते हैं। यहाँ तो सब उन जैसे ही तो हैं। किसी से भी कुछ भी छुपा हुआ नहीं है।
बेशक वे आपस में नहीं जानते कि कौन कहाँ रहता है, कइयों के तो पूरे नाम भी नहीं मालूम होते उन्हें, लेकिन फिर भी सब ठीक ठाक चलता रहता है।
बस, संकट एक ही है। अगर उनमें से कोई अचानक आना बंद कर दे तो बाकी लोगों को सच्चाई का पता भी नहीं चल पाता।
बेशक थोड़े दिन बाद कोई नया बूढ़ा आ कर उस ग्रुप में शामिल हो जाता है।
भयंदर में ही रहने वाले मेरे मार्क्सवादी दोस्त हृदयेश मयंक इसे पूंजीवादी व्यवस्था की देन मानते हैं जहाँ किसी भी अनुत्पादक व्यक्ति या वस्तु का यही हश्र होता है – कूड़े का ढेर। दोस्त की दोस्त जानें लेकिन सच यही है कि इस देश के हर घर में एक अदद बूढ़ा है जो समाज से, जीवन से, परिवार से और अपने आसपास की दुनिया से पूरी तरह रिटायर कर दिया गया है और वह अपने आखिरी दिन अपने शहर में सड़क या रेल की पटरी के किनारे पत्थर–गिट्टियों पर बैठ कर बिताने को मजबूर है।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

मेरा उपन्‍यास देस बिराना विकिसोर्स पर

मित्रो
विकीसोर्स पर बहुत कम हिन्‍दी साहित्‍य उपलब्‍ध है. बेशक बहुत से हिन्‍दी रचनाकारों की स्‍तरीय रचनाएं ब्‍लागों में या इधर उधर बिखरी हुई हैं. हम सब को मिल कर इस बात की कोशिश करनी चाहिये कि हमारा साहित्‍य किसी कॉमन प्‍लेटफार्म पर भी उपलब्‍ध हो. इसी दिशा में एक प्रयास करते हुए आज मैंने अपना उपन्‍यास देस बिराना इस पते पर डाला है -
http://wikisource.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B8_%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE
बेहद पठनीय और सहज भाषा शैली में रचा गया यह मार्मिक उपन्यास एक ऐसे अकेले लड़के की कथा लेकर चलता है जिसे किन्हीं कारणों के चलते सिर्फ चौदह साल की मासूम उम्र में घर छोड़ना पड़ता है, लेकिन आगे पढ़ने की ललक, कुछ कर दिखाने की तमन्ना और उसके मन में बसा हुआ घर का आतंक उसे बहुत भटकाते हैं।
यह अपने तरह का पहला उपन्यास है जो एक साथ ज़िंदगी के कई प्रश्नों से बारीकी से जूझता है। अकेलापन क्या होता है, और घर से बाहर रहने वाले के लिए घर क्या मायने रखता है, बाहर की ज़िंदगी और घर की ज़िंदगी और आगे बढ़ने की ललक आदमी को सफल तो बना देती है लेकिन उसे किन किन मोर्चों पर क्या क्या खोना पड़ता है, इन सब सवालों की यह उपन्यास बहुत ही बारीकी से पड़ताल करता है। इसी उपन्यास से हमें पता चलता है कि भारत से बाहर की चमकीली दुनिया दरअसल कितनी फीकी और बदरंग है तथा लंदन में भारतीय समुदाय की असलियत क्या है। यह उपन्‍यास एमपी3 में ऑडियो में भी उपलब्‍ध है)
सूरज प्रकाश