भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (७ मई, १८६१ – ७ अगस्त, १९४१) आठ बरस की उम्र में वे कविता लिखने लगे थे और सोलह बरस की वय में वे भानुसिंह के छद्मनाम कविता संग्रह दे चुके थे।
वे भोर होते ही तैयार हो कर अपनी सजी धजी मेज पर आ विराजते। एक अगरबत्ती जलाते और लिखना शुरू करते। ग्यारह बजे तक लिखने का काम करते।
लिखने के बाद का समय मिलने जुलने वालों के लिए और खाने का होता था। मेहमान अगर खास हुए तो उन्हें भी भोजन के लिए बुलाते।
दोपहर भर आराम करते और शाम के वक्त वे अपनी मित्र मंडली में अपनी रचनाएं सुनाते। ये रचनाएं दो तीन बार भी सुनायी जातीं और सबकी राय ली जाती। बांग्ला में इसे आवृत्ति कहा जाता है।
उनकी रचनाओं में जो काटा पीटी होती थी उसमें भी आप उनकी कला के दर्शन कर सकते थे।
उनकी रचनाओं में संशोधन करते समय जो चित्रांकन किये गये हैं, उनसे महाकवि की मन:स्थिति को समझने में बहुत मदद मिलती है।
बाद के जीवन में जब वे अस्वस्थ रहने लगे थे, वे बोल कर लिखाने लगे थे। दो सहायक उनके लिए रचनाएं लिपिबद्ध करते। लिपिक शब्द वहीं से आया है।
इसके अलावा, दिन भर आने वाले विचारों को रोका तो नहीं जा सकता था, इन कीमती विचारों को लिखने के लिए उनके आसपास कागज, कलम और स्याही का इंतजाम रहता।
उन्होंने इंगलैंड में रहने वाले अपने भाई से और दुनिया भर में बसे अपने मित्रों से कह रखा था कि उन्हें जो भी उपहार भेजना चाहे, केवल साहित्य की किताबें ही भेजी जायें।
गीतांजलि की रचना से पहले उन्होंने एक अध्यापक की सेवाएं ले कर संस्कृत सीखी थी और उपनिषदों का अध्ययन किया था।
वे दुनिया के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।
टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की।
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