मंगलवार, 27 अगस्त 2019

कुर्सी खाली करने के बाद.....

चुनावी माहौल में एक बहुत पुरानी रचना (शायद बीस बरस पुरानी)

खबर है कि पोलैंड के भूतपूर्व राष्ट्रपति अब फिर से अपने पुराने धंधे में लौटना चाहते हैं। वे मजदूर नेता से राष्ट्रपति बनने से पहले बिजली मिस्त्री थे। अब फिर से वे बिजली की बिगड़ी चीजें दुरुस्त करेंगे।
स्वाभाविक है कि जब वे ये काम करेंगे तो अपने संस्थान के सेवा नियमों का भी पालन करेंगे। वक्त से आएंगे, जाएंगे। दिन भर डांगरी या यूनिफॉर्म पहनकर अपने औजारों का झोला लटकाए ड्यूटी बजाते मिलेंगे। लंच का भोंपू बजने पर साथियों के साथ मिल बैठ कर टिफिन खोलेंगे। शाम होते ही अपनी साइकिल की घंटी टुनटुनाते हुए बाजार से सब्जी भाजी लाते हुए घर लौटेंगे। यह भी स्वाभाविक है कि नौकरी के साथ जुडी सारी सुविधाओं का लाभ भी उठाएंगे। वे भी महंगाई भत्ते की अगली किस्त का, वार्षिक वेतन वृद्धि का और त्योहार अग्रिम का इंतजार करेंगे। उनके संस्थान में जब हड़ताल होगी तो वे भी नारेबाजी करेंगे ही, बेशक तोड़फोड़ ना करें।
ये सारी बातें सोचते हुए ख्याल आ रहा है कि अगर हमारे यहां भी सेवानिवृत्त या भूतपूर्व या हारे हुए प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, केंद्रीय मंत्री या अन्य नेतागण भी अपने पुराने काम धंधे पर लौटने लगे तो कैसा माहौल बनेगा। राजीव गांधी की हत्या ना हुई होती तो वे भी 10 सशस्त्र कमांडो से घिरे जहाज चला रहे होते या अक्सर होने वाली पायलटों की हड़ताल में हिस्सा ले रहे होते। ज्ञानी जैल सिंह बढ़ई गिरी करते हुए कुर्सियां मेजें ठोकते मिलते। जो राष्ट्रपति या मंत्रीगण खेती की पृष्ठभूमि से आए हैं वे भी सेवानिवृत्ति के बाद बीज भंडार में या डीजल या खाद के लिए अपनी बारी का इंतजार करते हुए दिन गुजारते। कितना अजीब लगेगा नारियल की खेती से जुड़े भूतपूर्व नेता को पेड़ पर चढ़ कर नारियल तोड़ते देखकर।
वैसे तो अपने यहां ना तो कोई नेता रिटायर होता है ना भूतपूर्व। भूतपूर्व मंत्री गवर्नर बना दिए जाते हैं और वर्तमान गवर्नर सक्रिय राजनीति में आकर मंत्री बनने के लिए रात दिन छटपटाते रहते हैं। कुर्सी से उनका नाता सिर्फ ऊपर वाला ही काट सकता है। उस हालत में उनकी कुर्सी, पद, मकान वगैरह उनके परिवारजनों के हिस्से में ही आते हैं। वे न भी लेना चाहते हों तो चमचे उनके पैर पकड़ते हैं कि आप आ जाइये। आप ही देश को बचा सकती हैं।
अब संकट अपने देश का ये है कि यहां के ज्यादातर नेता आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। इस चुनाव में उन वृद्ध और वयोवृदृध नेताओं की आखिरी खेप भी निपट जायेगी जो वाया आजादी की लड़ाई राजनीति में आए थे। बाद में तो जो भी सत्ता संभालेंगे उनकी सप्लाई का ठेका अपराध जगत ही लेगा। जो आपराधिक पृष्ठभूमि से नहीं भी आए हैं, उनके कारनामें ऐसे हैं कि प्रोफेशनल अपराधी उनसे ट्रेनिंग लें। खैर, जो नेता आपराधिक पृष्ठभूमि से आए हैं
उन नेताओं को वहीं वापिस लौटना होगा। वैसे तो वे चुने जाने के बाद भी बिना वापिस लौटे अपने पुराने धंधे ही करते रहे हैं। कई नेताओं ने तो चुनाव भी जेल में रहते हुए लड़े और जीते हैं। शायद ही किसी देश की राजनीति में एक साथ बलात्कारी, स्मगलर करचोर, रिश्वतखोर, जालसाज, अपराध जगत से सीधा नाता रखने वाले, सरकारी मकान पर कब्जा जमाए रखने वाले करोड़ों डकार जाने वाले नेता एक साथ मिलें। तो क्या फर्क पड़ेगा अगर वो रिटायर हो भी जाएं। हां जो जेल से आए थे उन्हें जरूर तकलीफ होगी। इतनी सुविधाएं भोगने के बाद फिर से चक्की पीसना भारी पड़ेगा।
कुछ ऐसे भी होंगे जिन्हें अपना पुराना धंधा अपनाने में तकलीफ होगी। पहले सत्संग करते थे, आशीर्वाद देते थे। हालांकि पैर छूने वालों की यहां भी कमी नहीं है लेकिन राजनीति का खून चख लेने के बाद भला गंगाजल और कंदमूल उन्हें कैसे लगेंगे।
कुछेक के लिए तकलीफ होगी कि वे कई कई बरसों से अपने चुनाव क्षेत्र में ही नहीं गये है। उनके मतदाता लट्ठ लिये उन्हें ढूंढ रहे हैं। कुछेक को तो वे लोग ढूंढ रहे हैं जिनका पैसा खाकर भी काम नहीं किया गया है।
ऐसा नहीं है कि हमारे सारे नेता वहीं से आये हों। कई तो दूध के धुले हुए हैं। वे भी और उनके वस्त्र भी। कहीं कोई दाग नहीं। तो कितना अजीब लगेगा सेवानिवृत्त होकर कोई राष्ट्रपति फिर से अध्यापकी में लौटे, बच्चों को पहाड़े याद कराए, बच्चों को बेंच पर खड़ा करे या कोई प्रधानमंत्री चाय की दुकान में लौट कर चाय बेचे।
एक और संकट भी है। लेस वलेसा जब राष्ट्रपति के चुनाव हार कर अपने धंधे में लौट रहे हैं तो उनकी इतनी उम्र बाकी है और उनमें इतना दमखम भी है कि अपने पुराने काम को कर सकें बल्कि कुछेक बरस काम करते रह सकें। अपने यहां पर आलम यह है कि जब वे समाज के किसी काम के नहीं रहते तभी राजनीति में आते हैं।
नहीं, हम नहीं चाहेंगे कि हमारे राजनीतिज्ञ लोग अपने पुराने धंधे में लौटे। किसी भूतपूर्व मंत्री को गैंगवार करते या बलात्कार करते हमसे नहीं देखा जाएगा। राजनीति के अपराधीकरण का मामला फिर भी हमने झेल लिया है अब अपराधों का राजनीतिकरण होने लगे तो.....।

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