मंगलवार, 27 अगस्त 2019

बोध कथा - बर्तनों के बच्चे

बोध कथा - बर्तनों के बच्चे
बचपन में ये कथा सुनी थी।
अब बोध कथा के रूप में प्रस्तुत है।
एक गांव में रहने के लिए एक नया शहरी आया। चाय पानी के बहाने सबसे मेल जोल बढ़ाया।
एक दिन वह गांव के सबसे धनी आदमी के घर पहुंचा और बोला - शहर से कुछ मेहमान आने वाले हैं। खाना बनाने के लिए बर्तन कम पड़ रहे हैं। थोड़े से बर्तन उधार दे दीजिये, शाम को लौटा दूंगा।
अब भला बर्तनों के लिए कौन मना करता है। उन्होंने गिन कर ढेर सारे बर्तन दे दिए।
शाम को जब बर्तन वापिस आए तो धनी आदमी ने देखा कि दो एक कटोरी और कुछ चम्मच ज्यादा हैं। पूछने पर शहरी ने लापरवाही से बताया कि बर्तनों ने बच्चे दे दिए होंगे। धनी आदमी हैरान - ये तो अनहोनी बात है कि बर्तन भी बच्चे देते हैं। अब वह भला घर आए अतिरिक्त बर्तनों को कैसे ठुकराता।
अब तो ये अक्सर होने लगा। बर्तन मांगे जाते और शाम को कुछ अतिरिक्त बर्तन भी मिल जाते। धनी व्यक्ति खुश।
अब होने ये लगा कि बहुत ज्यादा बर्तन मांगे जाने लगे और बच्चों के रूप में बर्तन भी बड़े और ज्यादा आने लगे।
एक दिन हुआ ये कि शहरी आदमी ढेर सारे बर्तन ले गया और कई दिन तक वापिस ही नहीं किए। सेठ घबराया और खुद चल कर शहरी के घर पहुंचा और बर्तनों के बारे में पूछा।
शहरी आदमी लापरवाही से बोला - वो ऐसा हुआ कि बीती रात सारे बर्तन मर गए।
सेठ हैरान - भला बर्तन कैसे मर सकते हैं।
शहरी बोला - ठीक उसी तरह से जिस तरह से बर्तनों के बच्चे हो रहे थे।
इस बोध कथा का उस देश से कुछ लेना देना नहीं है जहां पहले कुछ चतुर लोग बैंकों से पैसा उठा कर वक्त पर लौटाते भी रहते हैं और बैंक कर्मियों को कीमती उपहार दे कर खुश रखते हैं।
फिर एक दिन आता है कि बैंकों से चतुर लोगों के पास गया सारा धन खुदकुशी कर लेता है। सुसाइड नोट भी नहीं मिलता।
कर लो जो करना है।

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