अवधेश कुमार - एक मलंग
कवि दोस्त
छोटा कद, मुश्किल से
पाँच फुट, साफ गोरा रंग, मंगोलियन
फीचर्स, छोटे छोटे कदमों से चलता हुआ,
कभी भी हड़बड़ी में नहीं, चेहरे पर चिपकी स्थायी मुस्कुराहट, लंबे बाल और हमेशा ही अपने आप में मस्त रहने वाला। वह बहुत संभल कर
बोलता था। कुछ खास कहने के लिए वह अतिरिक्त समय लेता था। ये अवधेश था।
बेहतरीन
कवि, चित्रकार, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, अभिनेता, निदेशक, मंच की बैक स्टेज की सारी गतिविधियां अकेले संभालने वाला, कविता पोस्टर बनाने में माहिर, अध्यापक, भयंकर पढ़ाकू, किस्सागो,
किताबों के बेहद शानदार कवर डिजाइनर बनाने वाला यारबाश और मलंग। सच कहूं तो वह क्या
नहीं था और उसने शौक और रोज़गार के लिए क्या क्या नहीं क्या।
वह
अज्ञेय जी द्वारा संपादित चौथा सप्तक का कवि था, उन्हीं के द्वारा संपादित नया
प्रतीक में नियमित रूप से छपता था, कभी भी उनसे मिलने जा
सकता था, शंकर्स वीकली द्वारा आयोजित चित्रकला में पहला
पुरस्कार पा चुका था और एक बार जब उसका घर नये सिरे से बन रहा था और उसे ढेर सारे
पैसों की जरूरत थी तो वह दिल्ली में एक ही हफ्ते में लगभग सभी प्रकाशकों के लिए
दो ढाई सौ कवर बना कर अपनी जरूरत के पैसे ले कर गया था। उसकी कविताएं और चित्रांकन
किसी भी स्तरीय पत्रिका में देखे जा सकते थे।
वह बेहद
प्यारा दोस्त था। इतना कि उससे जरा सा भी औपचारिक नहीं हुआ जा सकता था। यहां तक
कि उसके दोस्त जब उसे अपने दफ्तर का काम दिलाते और समय पर पूरा न होने पर प्रिय
महोदय के सरकारी संबोधन वाली चिट्ठी उसे लिखते थे तो वह बेहद खफा हो जाता था।
अवधेश
किसी जॉब से टिकना नहीं जानता था। देहरादून और मसूरी के बेहतरीन स्कूलों में उसे
काम मिले, दिल्ली के प्रकाशकों ने उसकी काबलियत देख कर उसे मनमाने वेतन पर अपने
यहां रखना चाहा लेकिन अवधेश ने शायद ही पूरे जीवन में कोई नौकरी एक महीने से ज्यादा
की हो।
वह बहुत
पीता था। वैसे उसे किसी भी तरह की शराब से परहेज नहीं था लेकिन कच्ची और देसी
दारू में उसका मन ज्यादा रमता था। जब दिल्ली में कहीं भी सार्वजनिक स्थल पर
पीने की मनाही थी तो वह निर्मल वर्मा के पात्रों की तरह वह कनाट प्लेस से
बाराखंबा रोड पर शाम के धुंधलके में मंडी हाउस की तरफ आते हुए हाफ बोतल घूँट घूँट
भरते हुए नीट ही खत्म कर चुका होता था। हम दोनों ने दिल्ली
में न जाने कितने नाटक और फिल्में एक साथ देखीं। फिल्म या नाटक खत्म होने तक
उसका अद्धा भीतर उतर चुका होता था। थियेटर
उसके पीने के लिए सबसे मुफीद जगह होती थी। यही शराब ही उसे सिर्फ उनचास बरस की उम्र में लील
गयी थी। शराब के आगे वह कुछ नहीं देख पाता था।
जिस दिन
देहरादून के कबाड़ी बाजार में फुटपाथ पर बेशकीमती किताबें बिकने के लिए नजर आतीं, ये समझना मुश्किल
नहीं होता था कि अवधेश ने आज अपनी दारू का इंतजाम कैसे किया होगा।
उसे पता
था कि वह गोद लिया गया है और अपने इन माता पिता की असली संतान नहीं है, इस बात से
उसे बहुत तकलीफ होती थी। शराब की शरण में जाने का एक कारण यह भी था। हालांकि उसकी मां
बहुत पहले मर चुकी थी और पिता ने ही पाला था। पिता
और अवधेश में कभी नहीं बनी थी।
वह
मिलने या काम करने का वादा करके महीनों नज़र न आये, ये उसके सब दोस्त जानते थे। वह
अपने आपको जस्टीफाई करना जानता था। उसे न तो इग्नोर किया जा सकता था और न ही वह
इग्नोर किया जाना सहन कर सकता था।
उसका एक ही कविता संग्रह जिप्सी लड़की छपा था।
1999 में लीवर में पानी भर जाने पर जब वह गुजरा तो उसके कागजों में हजारों कविताएं, रेखांकन, सैकड़ों नायाब पेंटिंग्स वगैरह रही होंगी। न जाने कौन कबाडी तौल कर ले
गया होगा।
अवधेश की कुछ कविताएं
यहां पर हैं।
मेरी किताब लेखकों की
दुनिया में से
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