एक पंजाबी भाषी द्वारा गुजराती से हिंदी में अनुवाद
तीस बरस पहले की बात है। मेरे संस्थान द्वारा मुझे एक छोटी सी खता पर सज़ा के तौर पर अहमदाबाद ट्रांसफर कर दिया गया था। मुझे पत्नी और तीन बरस के बेटे को बंबई छोड़ कर जाना था। कई बरस के लिए। मैंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और तय किया कि कुछ काम करके ही लौटूंगा।
अहमदाबाद जा कर पता चला कि गुजराती सीखने के लिए कहीं कोई कक्षाएं नहीं लगतीं। बस, खुद ही अखबार पढ़कर और याद दोस्तों के साथ गलत सलत बोल कर सीखनी होगी। वही किया। तब तक मेरी कुल जमा तीन ही कहानियां प्रकाशित हुई थीं और इतनी ही पत्रिकाओं में स्वीकृत थीं।
गुजराती लेखकों से मिलना शुरू किया। व्यंग्य लेखक विनोद भट्ट से मिलने गया। वे तपाक से मिले। चा पीते हुए पूछने लगे कि मेरा साहित्य कैसा लगता है?
मैंने जवाब दिया - आप गजब लिखते हैं लेकिन आपकी रचनाओं के अनुवाद खराब हैं।
वे परेशान हो गये - ऐसा कैसे कह सकते हैं? अच्छे अनुवादकों ने अनुवाद किये हैं।
मैंने बताया कि ये अनुवाद गुज्जू हिंदी में है जो गुजरात में बोली जाती है। आपके अनुवादक यहीं के हैं तो वे वही हिंदी जानते हैं जो यहां बोली जाती है। पूरे भारत में बोली जाने वाली हिंदी अलग है।
राजकमल प्रकाशन से छपी उनकी व्यंग्य रचनाओं की किताब सामने ही रखी थी। मैंने पहले ही पेज पर दस शब्दों पर घेरे डाल कर बताया कि ये शब्द यहीं बोले जाते हैं, बाहर के हिंदी पाठक नहीं जानते।
वे पूछने लगे – उपाय क्या है?
है तो लेकिन अनुवादक की ईगो आड़े आयेगी। वह अपने अनुवाद किसी ऐसे व्यक्ति से ठीक कराये जिसने हिंदी कहीं और सीखी हो और गुजराती भी जानता हो। दूसरा उपाय ये है कि इन रचनाओं के अनुवाद हिंदी भाषी क्षेत्र में रहने वाले अनुवादक करें।
- कहां मिलेंगे ऐसे अनुवादक? वे परेशान हो गये।
- आप खोजिये। मैं मुस्कुराया।
- आप करेंगे? उनका अगला सवाल था।
अब सलाह दे कर मैं ही घिर गया था। अहमदाबाद आये हुए एक महीना भी नहीं हुआ था। काम चलाऊ गुजराती ही सीख पाया था।
मैंन चुनौती स्वीकार कर ली। उन्होंने उसी समय अपनी कई किताबें मुझे थमा दीं और एक लैटरहेड पर लिखा कि वे अपनी सारी प्रकाशित और भावी रचनाओं के हिंदी में अनुवाद के अधिकार दे रहे हैं।
इस तरह से एक महीना पहले ही अहमदाबाद गये एक पंजाबी भाषी द्वारा गुजराती से हिंदी में अनुवाद का सिलसिला शुरू हुआ।
आगे आने वाले महीनों में कोई भी महीना या रविवार ऐसा न जाता जब किसी न किसी हिंदी अखबार या स्तरीय पत्रिका में उनकी किसी रचना का हिंदी अनुवाद न छपा होता।
वे बहुत अच्छे दोस्त बन गये थे। मेरी भी कुछ कहानियो के अनुवाद उन्होंने गुजराती में छपवाये। उनकी देखा देखी दूसरे गुजराती लेखक भी मेरे पीछे पड़ गये कि मैं उनकी रचनाओं के भी हिंदी अनुवाद करूं।
मेरी भी सीमा थी। मुझे अपना लेखन करके अपनी पहचान बनानी थी। पूरा गुजरात घूमना था। एनिमल फार्म जैसी कुछ अंग्रेजी किताबें हाथ लग गयी थीं जिनका अनुवाद करना चाह रहा था। कुछ दूसरी गुजराती किताबें भी हिंदी में लाने का मन था।
मैंने विनोद भाई की कुल चार किताबों का हिंदी अनुवाद किया जो राजकमल प्रकाशन से भूल चूक लेनी देनी और चेखव और बर्नार्ड शॉ के रूप में पेपरबैक में छपीं। आज भी ये किताबें खूब पसंद की जाती हैं। बाद में मैंने गुजराती से कई किताबों के अनुवाद किये। उनका जिक्र बाद में
अहमदाबाद जा कर पता चला कि गुजराती सीखने के लिए कहीं कोई कक्षाएं नहीं लगतीं। बस, खुद ही अखबार पढ़कर और याद दोस्तों के साथ गलत सलत बोल कर सीखनी होगी। वही किया। तब तक मेरी कुल जमा तीन ही कहानियां प्रकाशित हुई थीं और इतनी ही पत्रिकाओं में स्वीकृत थीं।
गुजराती लेखकों से मिलना शुरू किया। व्यंग्य लेखक विनोद भट्ट से मिलने गया। वे तपाक से मिले। चा पीते हुए पूछने लगे कि मेरा साहित्य कैसा लगता है?
मैंने जवाब दिया - आप गजब लिखते हैं लेकिन आपकी रचनाओं के अनुवाद खराब हैं।
वे परेशान हो गये - ऐसा कैसे कह सकते हैं? अच्छे अनुवादकों ने अनुवाद किये हैं।
मैंने बताया कि ये अनुवाद गुज्जू हिंदी में है जो गुजरात में बोली जाती है। आपके अनुवादक यहीं के हैं तो वे वही हिंदी जानते हैं जो यहां बोली जाती है। पूरे भारत में बोली जाने वाली हिंदी अलग है।
राजकमल प्रकाशन से छपी उनकी व्यंग्य रचनाओं की किताब सामने ही रखी थी। मैंने पहले ही पेज पर दस शब्दों पर घेरे डाल कर बताया कि ये शब्द यहीं बोले जाते हैं, बाहर के हिंदी पाठक नहीं जानते।
वे पूछने लगे – उपाय क्या है?
है तो लेकिन अनुवादक की ईगो आड़े आयेगी। वह अपने अनुवाद किसी ऐसे व्यक्ति से ठीक कराये जिसने हिंदी कहीं और सीखी हो और गुजराती भी जानता हो। दूसरा उपाय ये है कि इन रचनाओं के अनुवाद हिंदी भाषी क्षेत्र में रहने वाले अनुवादक करें।
- कहां मिलेंगे ऐसे अनुवादक? वे परेशान हो गये।
- आप खोजिये। मैं मुस्कुराया।
- आप करेंगे? उनका अगला सवाल था।
अब सलाह दे कर मैं ही घिर गया था। अहमदाबाद आये हुए एक महीना भी नहीं हुआ था। काम चलाऊ गुजराती ही सीख पाया था।
मैंन चुनौती स्वीकार कर ली। उन्होंने उसी समय अपनी कई किताबें मुझे थमा दीं और एक लैटरहेड पर लिखा कि वे अपनी सारी प्रकाशित और भावी रचनाओं के हिंदी में अनुवाद के अधिकार दे रहे हैं।
इस तरह से एक महीना पहले ही अहमदाबाद गये एक पंजाबी भाषी द्वारा गुजराती से हिंदी में अनुवाद का सिलसिला शुरू हुआ।
आगे आने वाले महीनों में कोई भी महीना या रविवार ऐसा न जाता जब किसी न किसी हिंदी अखबार या स्तरीय पत्रिका में उनकी किसी रचना का हिंदी अनुवाद न छपा होता।
वे बहुत अच्छे दोस्त बन गये थे। मेरी भी कुछ कहानियो के अनुवाद उन्होंने गुजराती में छपवाये। उनकी देखा देखी दूसरे गुजराती लेखक भी मेरे पीछे पड़ गये कि मैं उनकी रचनाओं के भी हिंदी अनुवाद करूं।
मेरी भी सीमा थी। मुझे अपना लेखन करके अपनी पहचान बनानी थी। पूरा गुजरात घूमना था। एनिमल फार्म जैसी कुछ अंग्रेजी किताबें हाथ लग गयी थीं जिनका अनुवाद करना चाह रहा था। कुछ दूसरी गुजराती किताबें भी हिंदी में लाने का मन था।
मैंने विनोद भाई की कुल चार किताबों का हिंदी अनुवाद किया जो राजकमल प्रकाशन से भूल चूक लेनी देनी और चेखव और बर्नार्ड शॉ के रूप में पेपरबैक में छपीं। आज भी ये किताबें खूब पसंद की जाती हैं। बाद में मैंने गुजराती से कई किताबों के अनुवाद किये। उनका जिक्र बाद में
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