विभाजन के समय पाकिस्तान के सरायकी इलाके (झंग, मुल्तान, बन्नू, कुहाट, डेरा गाजी खान, डेरा इस्माइल खान वगैरा से लाखों लोग दर बदर होकर इस तरफ आए थे और देश में जहां भी संभव हुआ, बस गए थे। बहुत सारे सरायकी लोग मुंबई की तरफ भी आए होंगे। अपनी जमीन से बिछुड़ने के दूसरे हादसों के साथ जो सबसे ज्यादा नुकसान उन लोगों को उठाना पड़ा था वह था कि उनकी लिखने पढ़ने की भाषा वहीं रह गई थी और सिर्फ बोली ही उनके साथ आयी थी। वह बोली भी दूसरी तीसरी पीढ़ी के आते आते अब अंतिम सांसें ले रही है।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि पाकिस्तान में अभी भी 2 करोड़ लोग सरायकी भाषा लिखते पढ़ते और बोलते हैं और इस भाषा में वहां पर फिल्में बनती हैं और मुल्तान यूनिवर्सिटी में सरायकी विभाग भी है और पीएचडी तक की पढ़ाई होती है। सरायकी भाषा में अच्छा खासा साहित्य लिखा जाता है। हम पिछली पीढ़ी के लोग ही कभी कभार घर पर ही अपनी बोली बानी बोल कर खुश हो लेते हैं। आज की पीढ़ी शायद ही अपनी बोली में बात करती हो। ये बहुत बड़ा खतरा है एक शानदार और मुहावरेदार भाषा के खत्म हो जाने का।
इस बात की कोशिश है कि हम मुंबई में बसे सरायकी लोग इस बात की गंभीरता को समझें और आपस में मिल जुल कर अपनी विलुप्त हो रही भाषा को बचाने की कोशिश करें। दिल्ली में ये कोशिश मलिक राज राजकुमार और उनके साथी कर रहे हैं और उन्होंने फेसबुक पर अपनी बोली मुल्तानी पेज बनाया है जिसमें 100000 से अधिक सदस्य हैं। दिल्ली में रेडियो पर भी सरायकी में प्रोग्राम देने शुरू किये जा चुके हैं।
इच्छा है कि मुंबई में भी उन इलाकों से आ कर बसे सभी साथियों का एक समूह बनाया जाए और आपस में संवाद स्थापित किया जाए।
यदि आप भी उन इलाकों से हैं और चाहते हैं कि हम भी अपनी भाषा के लिए कुछ करें तो सहमति दें। हम जल्दी ही मिलने के लिए कोई प्लेटफार्म बनाते हैं।
मेरे माता पिता बन्नू से आए थे और नौकरी के चक्कर में देहरादून में बस गए थे। मैं खुद रिजर्व बैंक की नौकरी में रहा और पिछले 37 बरस से मुंबई में हूं।
आप अपने डिटेल्स दे सकते हैं। जल्द ही हम सब मिलकर
कुछ ठोस काम करने के बारे में सोचते हैं।
आपसे ये भी अनुरोध है कि इस संदेश को अपने परिचित सरायकी बंधुओं तक पहुंचाएं।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि पाकिस्तान में अभी भी 2 करोड़ लोग सरायकी भाषा लिखते पढ़ते और बोलते हैं और इस भाषा में वहां पर फिल्में बनती हैं और मुल्तान यूनिवर्सिटी में सरायकी विभाग भी है और पीएचडी तक की पढ़ाई होती है। सरायकी भाषा में अच्छा खासा साहित्य लिखा जाता है। हम पिछली पीढ़ी के लोग ही कभी कभार घर पर ही अपनी बोली बानी बोल कर खुश हो लेते हैं। आज की पीढ़ी शायद ही अपनी बोली में बात करती हो। ये बहुत बड़ा खतरा है एक शानदार और मुहावरेदार भाषा के खत्म हो जाने का।
इस बात की कोशिश है कि हम मुंबई में बसे सरायकी लोग इस बात की गंभीरता को समझें और आपस में मिल जुल कर अपनी विलुप्त हो रही भाषा को बचाने की कोशिश करें। दिल्ली में ये कोशिश मलिक राज राजकुमार और उनके साथी कर रहे हैं और उन्होंने फेसबुक पर अपनी बोली मुल्तानी पेज बनाया है जिसमें 100000 से अधिक सदस्य हैं। दिल्ली में रेडियो पर भी सरायकी में प्रोग्राम देने शुरू किये जा चुके हैं।
इच्छा है कि मुंबई में भी उन इलाकों से आ कर बसे सभी साथियों का एक समूह बनाया जाए और आपस में संवाद स्थापित किया जाए।
यदि आप भी उन इलाकों से हैं और चाहते हैं कि हम भी अपनी भाषा के लिए कुछ करें तो सहमति दें। हम जल्दी ही मिलने के लिए कोई प्लेटफार्म बनाते हैं।
मेरे माता पिता बन्नू से आए थे और नौकरी के चक्कर में देहरादून में बस गए थे। मैं खुद रिजर्व बैंक की नौकरी में रहा और पिछले 37 बरस से मुंबई में हूं।
आप अपने डिटेल्स दे सकते हैं। जल्द ही हम सब मिलकर
कुछ ठोस काम करने के बारे में सोचते हैं।
आपसे ये भी अनुरोध है कि इस संदेश को अपने परिचित सरायकी बंधुओं तक पहुंचाएं।
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