अच्छी किताबें पाठकों की मोहताज नहीं होतीं। वे अपने पाठक खुद ढूंढ लेती हैं। उन्हें कहीं नहीं जाना पड़ता। पाठक भी अच्छी किताबों की तलाश में भटकते रहते हैं। अच्छी किताबें पा लेने पर पाठक की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। किताबें जितनी ज्यादा पीले कागज़़ वाली, पुरानेपन की हल्की-सी गंध लिये और हाथ लगाते ही फटने-फटने को होती हैं, उतनी ही ज्यादा कीमती और प्रिय होती हैं। किताबें जितनी ज्यादा मुड़ी-तुड़ी, कोनों से फटी हुई और पन्ना-पन्ना अलग हो चुकी होती हैं, उनके नसीब में उतने ही ज्यादा पाठक आये होते हैं।
अच्छी किताबें अक्सर अपने घर का रास्ता भूल जाती हैं और दर-दर भटकते हुए नये-नये पाठकों के घर पहुंचती रहती हैं। खराब किताबें सजी-संवरी एक कोने में बैठी अपने पाठक की राह देखती टेसुए बहाती रहती हैं। बदकिस्मती से गलत जगह पड़ी अच्छी किताबें भी अपने पाठक की राह देखते-देखते दम तोड़ देती हैं और उनमें भरा सारा ज्ञान सूख जाता है।
अच्छी किताबें अच्छे पाठकों को देखते ही खिल उठती हैं और खराब पाठकों की सोहबत में कुम्हलाती रहती हैं। किताब खराब हो और पाठक अच्छा हो तो भी बात नहीं बनती। किताबें हिंसक तो हो ही नहीं सकतीं। किताबें न तो कभी हम पर छींटाकशी करती हैं और न ही कभी गुस्सा होती हैं। हम उनके पास कभी जायें तो वे हमें सोते हुए नज़र नहीं आयेंगी। हम उनसे कुछ भी जानकारी मांगें या कोई भी उलटा-सीधा सवाल पूछें, वे तब भी हमसे कुछ भी नहीं छिपायेंगी। किताबें उदारमना होती हैं।
हम उनके साथ शरारत करें तो भी वे कुछ भी नहीं बोलेंगी। कितनी भली होती हैं किताबें कि किसी भी बात का बुरा नहीं मानतीं। आप कबीर के पास मिलान कुंडेरा को बिठा दीजिये या ओरहान पामुक को रहीम के पास बिठा दीजिये, दोनों ही किताबें बुरा नहीं मानेंगी, आप अगली सुबह उनकी जगह बदल कर पामुक को श्याम सिंह शशि के पास और कामू को संत रैदास के पास जगह दे दीजिये, वे इसका भी बुरा नहीं मानेंगी।
किताबें हमें दोस्त बनाना चाहती हैं और हमारे साथ अपना सब कुछ शेयर करना चाहती हैं, लेकिन हम हैं कि अच्छी किताबों से मुंह चुराते फिरते हैं। किताबें छोटे बच्चे की तरह हमारे सीने से लग जाने को छटपटाती हैं लेकिन हम हैं कि जूते पर तो चार हज़ार रुपये खर्च कर देंगे, बच्चे को खिलौना भी हज़ार रुपये का दिलवा देंगे लेकिन हम किताब की हसरत भरी निगाहों की अनदेखी करके आगे बढ़ जायेंगे। भला बंद किताबें भी किसी को कुछ दे सकती हैं!! नहीं ना!!
सोचें कि पूरी दुनिया में जितनी किताबें छपती हैं, उनमें से कितनों को पाठक नसीब होते होंगे और कितनी किताबों की जितनी प्रतियां छपती हैं उनमें से कितनी प्रतियां बिन खुले ही रह जाती होंगी। कई किताबों को तो अपनी पूरी उम्र बिता देने के बाद भी एक भी पाठक नसीब नहीं होता।
अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत पढ़ा था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। हमारे वक्त का ये बहुत कड़ा सच अच्छी और बुरी किताबों पर भी लागू होता है। अच्छी किताबें कम छपती हैं, अच्छी किताबों के लेखक भी कम होते हैं और उनके पाठक तो और भी कम होते हैं लेकिन सिर्फ कम होने के कारण उनका महत्व कम नहीं हो जाता। ये बात अलग है कि बहुत ज्यादा संख्या में छप रही, पुरस्कृत और समीक्षित हो रही खराब किताबों की भीड़ में अच्छी किताबें नज़र ही नहीं आतीं और कई बार पाठकों तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं।
कलाम साहब ने किताबों को ले कर क्या ही खूबसूरत बात कही है। एक अच्छी किताब सौ दोस्तों के बराबर होती है और एक अच्छा दोस्त पूरी लाइब्रेरी के बराबर होता
प्रिय मित्र अर्पणा दीप्ति के लिए सस्नेह
अच्छी किताबें अक्सर अपने घर का रास्ता भूल जाती हैं और दर-दर भटकते हुए नये-नये पाठकों के घर पहुंचती रहती हैं। खराब किताबें सजी-संवरी एक कोने में बैठी अपने पाठक की राह देखती टेसुए बहाती रहती हैं। बदकिस्मती से गलत जगह पड़ी अच्छी किताबें भी अपने पाठक की राह देखते-देखते दम तोड़ देती हैं और उनमें भरा सारा ज्ञान सूख जाता है।
अच्छी किताबें अच्छे पाठकों को देखते ही खिल उठती हैं और खराब पाठकों की सोहबत में कुम्हलाती रहती हैं। किताब खराब हो और पाठक अच्छा हो तो भी बात नहीं बनती। किताबें हिंसक तो हो ही नहीं सकतीं। किताबें न तो कभी हम पर छींटाकशी करती हैं और न ही कभी गुस्सा होती हैं। हम उनके पास कभी जायें तो वे हमें सोते हुए नज़र नहीं आयेंगी। हम उनसे कुछ भी जानकारी मांगें या कोई भी उलटा-सीधा सवाल पूछें, वे तब भी हमसे कुछ भी नहीं छिपायेंगी। किताबें उदारमना होती हैं।
हम उनके साथ शरारत करें तो भी वे कुछ भी नहीं बोलेंगी। कितनी भली होती हैं किताबें कि किसी भी बात का बुरा नहीं मानतीं। आप कबीर के पास मिलान कुंडेरा को बिठा दीजिये या ओरहान पामुक को रहीम के पास बिठा दीजिये, दोनों ही किताबें बुरा नहीं मानेंगी, आप अगली सुबह उनकी जगह बदल कर पामुक को श्याम सिंह शशि के पास और कामू को संत रैदास के पास जगह दे दीजिये, वे इसका भी बुरा नहीं मानेंगी।
किताबें हमें दोस्त बनाना चाहती हैं और हमारे साथ अपना सब कुछ शेयर करना चाहती हैं, लेकिन हम हैं कि अच्छी किताबों से मुंह चुराते फिरते हैं। किताबें छोटे बच्चे की तरह हमारे सीने से लग जाने को छटपटाती हैं लेकिन हम हैं कि जूते पर तो चार हज़ार रुपये खर्च कर देंगे, बच्चे को खिलौना भी हज़ार रुपये का दिलवा देंगे लेकिन हम किताब की हसरत भरी निगाहों की अनदेखी करके आगे बढ़ जायेंगे। भला बंद किताबें भी किसी को कुछ दे सकती हैं!! नहीं ना!!
सोचें कि पूरी दुनिया में जितनी किताबें छपती हैं, उनमें से कितनों को पाठक नसीब होते होंगे और कितनी किताबों की जितनी प्रतियां छपती हैं उनमें से कितनी प्रतियां बिन खुले ही रह जाती होंगी। कई किताबों को तो अपनी पूरी उम्र बिता देने के बाद भी एक भी पाठक नसीब नहीं होता।
अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत पढ़ा था कि बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। हमारे वक्त का ये बहुत कड़ा सच अच्छी और बुरी किताबों पर भी लागू होता है। अच्छी किताबें कम छपती हैं, अच्छी किताबों के लेखक भी कम होते हैं और उनके पाठक तो और भी कम होते हैं लेकिन सिर्फ कम होने के कारण उनका महत्व कम नहीं हो जाता। ये बात अलग है कि बहुत ज्यादा संख्या में छप रही, पुरस्कृत और समीक्षित हो रही खराब किताबों की भीड़ में अच्छी किताबें नज़र ही नहीं आतीं और कई बार पाठकों तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं।
कलाम साहब ने किताबों को ले कर क्या ही खूबसूरत बात कही है। एक अच्छी किताब सौ दोस्तों के बराबर होती है और एक अच्छा दोस्त पूरी लाइब्रेरी के बराबर होता
प्रिय मित्र अर्पणा दीप्ति के लिए सस्नेह
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