देवेन्द्र सत्यार्थी - लोकगीतों के फकीर बादशाह
देवेन्द्र सत्यार्थी (मूल नाम देव इंदर बत्ता) (1908-2003) को बचपन से ही लोकगीत जमा करने का शौक था लेकिन एक ऐसा हादसा हुआ कि लोक गीत जिस कॉपी में लिखे थे, वह जला दी गयी। लेकिन हिम्मत नहीं हारी और फिर जुट गये। एक बार घर से एक रुपया भी चुराया ताकि गड़रियों के लोक गीत सुन कर जमा कर सकें।
डीएवी कॉलेज लाहौर में एडमिशन करवाया लेकिन वहाँ मन नहीं लगा और 20 वर्ष की उमर में बिना टिकट घर छोड़ कर भाग गए। लोक गीत उन्हें पुकार रहे थे। वे अगले बीस बरस तक लोक यात्री बन कर चलते रहे। कहीं कुछ खाने को मिल गया तो खा लिया। बस हसरत यही होती थी कि कोई महत्वपूर्ण गीत उनकी कॉपी में उतरने से रह न जाये।
विवाह हुआ। पत्नी साथ चल पड़ी। बेटी हुई। वह भी हमसफर बन गयी। सत्यार्थी जी ने सभी भारतीय भाषाओं के लगभग तीन लाख बीस हजार लोक गीत जमा किए थे और उनके बारे में लिखा था। पहली बेटी कविता का जन्म हुआ तो वे घर पर नहीं थे और जब उसकी अकाल मृत्यु हुई तो भी वे घर पर नहीं थे।
सत्यार्थी जी सब्जी लेने निकलते और चार महीने बाद लौट कर आते। कब आयेंगे, कहाँ होंगे किसी को पता नहीं होता था। खुद उन्हें भी नहीं। जहाँ मन किया, चल पड़ते। उनके पैरों को कोई रोक नहीं सकता था। कई बार भूखे रहना पड़ा। किसी ने किराए के पैसे दे दिए, खाना खिला दिया, मदद कर दी, काम चलता रहा।
लोकगीतों के लिए बाबा ने बहुत ठोकरें खायीं। पूरी जिंदगी फटेहाल घूमते रहे। उनकी जेब हमेशा खाली रहती थी। गरीबी ही हमेशा उसमें आसन जमाए रहती थी। किसी संस्थान के कोई नहीं स्कॉलरशिप नहीं, मदद नहीं। उनकी पत्नी शांति ने सिलाई मशीन चला कर बच्चों को पाल पोस कर बड़ा किया।
गांधीजी, नेहरू जी, टैगोर आदि सब सत्यार्थी जी के बेहद निकट थे। शांति निकेतन जैसे सत्यार्थी जी का दूसरा घर था और कविवर उन्हें अक्सर शाम की चाय पर बुलाया करते थे। गाँधी जी उन्हें बहुत मानते थे।
साहिर ने अपनी जिंदगी में एक ही संस्मरण लिखा और वह सत्यार्थी जी पर था। एक बार लोकगीत जमा करने साहिर के साथ लायलपुर जाने वाले थे। ट्रेन में पैर रखने की जगह नहीं थी लेकिन लोकगीतों के फकीर बादशाह ने मिलिटरी के डिब्बे में अलग अलग भाषाओं के गीत सुनाने की शर्त पर दोनों के लिए जगह बना ली थी।
टीकमगढ़ के राजा के कहने पर एक लोक गीत सुनाया। पूछा गया कि ये लोक गीत कैसे मिला तो सत्यार्थी जी ने बताया कि आपकी जेल में बंद एक महिला कैदी से सुना है। यह बात सुन कर उस महिला को छोड़ दिया गया था।
कोलकाता में वे अपनी पत्नी को एक अट्ठनी दे कर शांति निकेतन चले गए और कई दिन तक नहीं लौटे। बेचारी परेशानी में तब कलकत्ता में ही रह रहे अज्ञेय जी के पास गुहार लगाने पहुंची।
पाकिस्तान गए तो निकले थे पंद्रह दिन के लिए लेकिन 4 महीने तक नहीं लौटे तो पत्नी को मजबूरन नेहरू जी को पत्र लिखना पड़ा था कि मेरे पति की तलाश करायें। सत्यार्थी जी ने पाकिस्तान में गुलाम अब्बासी की किताब आनंदी खरीदी तो अब्बासी ने लिखा था - मुझे लगा, मेरी किताब की एक लाख प्रतियाँ बिक गयी हैं।
आठ बरस तक आजकल पत्रिका के संपादक भी रहे। सत्यार्थी जी ने रेडियो के लिए लगभग एक हजार लोग गीत चुन कर दिए थे लेकिन उन्होंने मानदेय इसलिए मना कर दिया कि ये तो जनता की पूंजी है, इनके कॉपीराइट मेरे नहीं, भारत माता के हैं।
सत्यार्थी जी ने लोक गीत, कहानी, कविता, निबंध, रेखाचित्र और संस्मरण, उपन्यास, कथा, यात्रा वृतांत और साक्षात्कार पर कुल 70 किताबें लिखीं। उन्हें पद्मश्री दी गयी थी। वे कहते थे - सोचने विचारने वाले वही हैं जो इंसानी रिश्तों के पुल बनाते हैं। ज्यादा चीखने चिल्लाने से बेहतर है आप अंधेरे में कोई दीया जलाएं।
सत्यार्थी जी 95 वर्ष की उमर में बीमारी की वजह से गुजरे। अंतिम दिनों में सिर पर लगी चोट की वजह से उनकी याददाश्त चली गयी थी।
प्रसिद्ध कथाकार प्रकाश मनु ने न केवल सत्यार्थी जी के पूरे साहित्य का संपादन संकलन किया है बल्कि एक तरह से उन्हें फिर से जीवित किया है।
डीएवी कॉलेज लाहौर में एडमिशन करवाया लेकिन वहाँ मन नहीं लगा और 20 वर्ष की उमर में बिना टिकट घर छोड़ कर भाग गए। लोक गीत उन्हें पुकार रहे थे। वे अगले बीस बरस तक लोक यात्री बन कर चलते रहे। कहीं कुछ खाने को मिल गया तो खा लिया। बस हसरत यही होती थी कि कोई महत्वपूर्ण गीत उनकी कॉपी में उतरने से रह न जाये।
विवाह हुआ। पत्नी साथ चल पड़ी। बेटी हुई। वह भी हमसफर बन गयी। सत्यार्थी जी ने सभी भारतीय भाषाओं के लगभग तीन लाख बीस हजार लोक गीत जमा किए थे और उनके बारे में लिखा था। पहली बेटी कविता का जन्म हुआ तो वे घर पर नहीं थे और जब उसकी अकाल मृत्यु हुई तो भी वे घर पर नहीं थे।
सत्यार्थी जी सब्जी लेने निकलते और चार महीने बाद लौट कर आते। कब आयेंगे, कहाँ होंगे किसी को पता नहीं होता था। खुद उन्हें भी नहीं। जहाँ मन किया, चल पड़ते। उनके पैरों को कोई रोक नहीं सकता था। कई बार भूखे रहना पड़ा। किसी ने किराए के पैसे दे दिए, खाना खिला दिया, मदद कर दी, काम चलता रहा।
लोकगीतों के लिए बाबा ने बहुत ठोकरें खायीं। पूरी जिंदगी फटेहाल घूमते रहे। उनकी जेब हमेशा खाली रहती थी। गरीबी ही हमेशा उसमें आसन जमाए रहती थी। किसी संस्थान के कोई नहीं स्कॉलरशिप नहीं, मदद नहीं। उनकी पत्नी शांति ने सिलाई मशीन चला कर बच्चों को पाल पोस कर बड़ा किया।
गांधीजी, नेहरू जी, टैगोर आदि सब सत्यार्थी जी के बेहद निकट थे। शांति निकेतन जैसे सत्यार्थी जी का दूसरा घर था और कविवर उन्हें अक्सर शाम की चाय पर बुलाया करते थे। गाँधी जी उन्हें बहुत मानते थे।
साहिर ने अपनी जिंदगी में एक ही संस्मरण लिखा और वह सत्यार्थी जी पर था। एक बार लोकगीत जमा करने साहिर के साथ लायलपुर जाने वाले थे। ट्रेन में पैर रखने की जगह नहीं थी लेकिन लोकगीतों के फकीर बादशाह ने मिलिटरी के डिब्बे में अलग अलग भाषाओं के गीत सुनाने की शर्त पर दोनों के लिए जगह बना ली थी।
टीकमगढ़ के राजा के कहने पर एक लोक गीत सुनाया। पूछा गया कि ये लोक गीत कैसे मिला तो सत्यार्थी जी ने बताया कि आपकी जेल में बंद एक महिला कैदी से सुना है। यह बात सुन कर उस महिला को छोड़ दिया गया था।
कोलकाता में वे अपनी पत्नी को एक अट्ठनी दे कर शांति निकेतन चले गए और कई दिन तक नहीं लौटे। बेचारी परेशानी में तब कलकत्ता में ही रह रहे अज्ञेय जी के पास गुहार लगाने पहुंची।
पाकिस्तान गए तो निकले थे पंद्रह दिन के लिए लेकिन 4 महीने तक नहीं लौटे तो पत्नी को मजबूरन नेहरू जी को पत्र लिखना पड़ा था कि मेरे पति की तलाश करायें। सत्यार्थी जी ने पाकिस्तान में गुलाम अब्बासी की किताब आनंदी खरीदी तो अब्बासी ने लिखा था - मुझे लगा, मेरी किताब की एक लाख प्रतियाँ बिक गयी हैं।
आठ बरस तक आजकल पत्रिका के संपादक भी रहे। सत्यार्थी जी ने रेडियो के लिए लगभग एक हजार लोग गीत चुन कर दिए थे लेकिन उन्होंने मानदेय इसलिए मना कर दिया कि ये तो जनता की पूंजी है, इनके कॉपीराइट मेरे नहीं, भारत माता के हैं।
सत्यार्थी जी ने लोक गीत, कहानी, कविता, निबंध, रेखाचित्र और संस्मरण, उपन्यास, कथा, यात्रा वृतांत और साक्षात्कार पर कुल 70 किताबें लिखीं। उन्हें पद्मश्री दी गयी थी। वे कहते थे - सोचने विचारने वाले वही हैं जो इंसानी रिश्तों के पुल बनाते हैं। ज्यादा चीखने चिल्लाने से बेहतर है आप अंधेरे में कोई दीया जलाएं।
सत्यार्थी जी 95 वर्ष की उमर में बीमारी की वजह से गुजरे। अंतिम दिनों में सिर पर लगी चोट की वजह से उनकी याददाश्त चली गयी थी।
प्रसिद्ध कथाकार प्रकाश मनु ने न केवल सत्यार्थी जी के पूरे साहित्य का संपादन संकलन किया है बल्कि एक तरह से उन्हें फिर से जीवित किया है।
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