विष्णु प्रभाकर - हिंदी का आवारा मसीहा
हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक विष्णु प्रभाकर (विष्णु दयाल) (1912-2009) उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर के गांव मीरापुर में जन्मे थे। उनकी आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई। घर की माली हालत ठीक नहीं होने के चलते वे आगे की पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाए और गृहस्थी चलाने के लिए उन्हें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के तौर पर सरकारी नौकरी करनी पड़ी। उन्हें प्रतिमाह 18 रुपये मिलते थे, लेकिन मेधावी और लगनशील विष्णु ने पढाई जारी रखी और हिन्दी में प्रभाकर व हिन्दी भूषण की उपाधि के साथ ही संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बी.ए की डिग्री प्राप्त की।
1931 में हिन्दी मिलाप में पहली कहानी दीवाली के दिन छपने के साथ ही उनके लेखन का जो सिलसिला शुरू हुआ, जो आजीवन चलता रहा। विष्णु प्रभाकर पर महात्मा गाँधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा असर पड़ा। इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही। उन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखा।
विष्णु प्रभाकर के पहले नाटक का नाम हत्या के बाद था। हिसार में नाटक मंडली में भी काम किया और बाद के दिनों में लेखन को ही अपनी जीविका बना लिया। आजादी के बाद वे नई दिल्ली आ गये और सितम्बर 1955 में आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के तौर पर नियुक्त हो गये जहाँ उन्होंने 1957 तक काम किया।
नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से वे शरत चन्द्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखने के लिए प्रेरित हुए जिसके लिए वे शरत को जानने के लगभग सभी सभी स्रोतों, जगहों तक गए, बांग्ला भी सीखी और जब यह जीवनी छपी तो साहित्य में विष्णु जी की धूम मच गयी। इसके लिए इन्हें 'पाब्लो नेरूदा सम्मान', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' जैसे कई विदेशी पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। नाटक 'सत्ता के आर-पार' पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'मूर्ति देवी पुरस्कार' प्रदान किया गया। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रभाकर जी को 'शलाका सम्मान' भी मिला। उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार भी मिला, किंतु राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोध स्वरूप उन्होंने 2005 में पद्मभूषण की उपाधि वापस करने घोषणा कर दी।
प्रभाकर जी का पहला कहानी संग्रह ‘आदि और अंत’ 1945 में प्रकाशित हुआ था। मूल लेखन के अतिरिक्त विष्णु प्रभाकर ने 60 से अधिक पुस्तकों का संपादन भी किया। विष्णु प्रभाकर जी आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशन संबंधी मीडिया के विविध क्षेत्रों में पर्याप्त लोकप्रिय रहे। देश-विदेश की अनेक यात्राएँ करने वाले विष्णु जी जीवन पर्यंत स्वतंत्र रचनाकार के रूप में साहित्य साधनारत रहे। वे जीवन के प्रति समर्पित आस्थावान साहित्यकार थे। उनका कहना था कि एक साहित्यकार को सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है।
वे जब तक संभव हो सका, कुंडे वालान स्थित अपने घर से पैदल चल कर कनाट प्लेस में मोहन सिंह प्लेस में कॉफी हाउस में हर शनिवार अड्डेबाजी के लिए पहुंचते रहे। जिस मेज पर वे बैठते, सारे साहित्यकार उसी मेज पर आ जुटते और वे हमेशा बातचीत के केन्द्र में सहज ही आ जाते।
वे साहित्यकार, शोधार्थी या पाठकों के हर खत का जवाब दिया करते थे। बाद में ऐसा भी हुआ कि वे खत बोल कर लिखवाते और हस्ताक्षर करते।
उनकी आत्म-कथा, 'पंखहीन' तीन खंडों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।
उनका एक मकान एक किरायेदार ने बेईमानी करके हथिया लिया था और विष्णु जी के जाली हस्ताक्षर करके उसे बेच भी दिया था। बरसों केस चलता रहा। विष्णु जी इतने सरल मन के थे कि एक मंत्री के आश्वासन देने के बावजूद अपनी व्यथा नहीं कह पाये थे। उनके एक घनघोर पाठक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने गहरी छानबीन करके वे हस्ताक्षर जाली सिद्ध कर दिये थे। दरअसल जाली हस्ताक्षर के नीचे दो बिंदु लगे हुए थे जबकि विष्णु जी अपने हस्ताक्षर के नीचे दो बिंदु नहीं लगाते थे। इस तरह से उनका मकान खाली करवाया जा सका था। विष्णु जी ने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी। इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया था।
1931 में हिन्दी मिलाप में पहली कहानी दीवाली के दिन छपने के साथ ही उनके लेखन का जो सिलसिला शुरू हुआ, जो आजीवन चलता रहा। विष्णु प्रभाकर पर महात्मा गाँधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा असर पड़ा। इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही। उन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखा।
विष्णु प्रभाकर के पहले नाटक का नाम हत्या के बाद था। हिसार में नाटक मंडली में भी काम किया और बाद के दिनों में लेखन को ही अपनी जीविका बना लिया। आजादी के बाद वे नई दिल्ली आ गये और सितम्बर 1955 में आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के तौर पर नियुक्त हो गये जहाँ उन्होंने 1957 तक काम किया।
नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से वे शरत चन्द्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखने के लिए प्रेरित हुए जिसके लिए वे शरत को जानने के लगभग सभी सभी स्रोतों, जगहों तक गए, बांग्ला भी सीखी और जब यह जीवनी छपी तो साहित्य में विष्णु जी की धूम मच गयी। इसके लिए इन्हें 'पाब्लो नेरूदा सम्मान', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' जैसे कई विदेशी पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। नाटक 'सत्ता के आर-पार' पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'मूर्ति देवी पुरस्कार' प्रदान किया गया। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रभाकर जी को 'शलाका सम्मान' भी मिला। उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार भी मिला, किंतु राष्ट्रपति भवन में दुर्व्यवहार के विरोध स्वरूप उन्होंने 2005 में पद्मभूषण की उपाधि वापस करने घोषणा कर दी।
प्रभाकर जी का पहला कहानी संग्रह ‘आदि और अंत’ 1945 में प्रकाशित हुआ था। मूल लेखन के अतिरिक्त विष्णु प्रभाकर ने 60 से अधिक पुस्तकों का संपादन भी किया। विष्णु प्रभाकर जी आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशन संबंधी मीडिया के विविध क्षेत्रों में पर्याप्त लोकप्रिय रहे। देश-विदेश की अनेक यात्राएँ करने वाले विष्णु जी जीवन पर्यंत स्वतंत्र रचनाकार के रूप में साहित्य साधनारत रहे। वे जीवन के प्रति समर्पित आस्थावान साहित्यकार थे। उनका कहना था कि एक साहित्यकार को सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है।
वे जब तक संभव हो सका, कुंडे वालान स्थित अपने घर से पैदल चल कर कनाट प्लेस में मोहन सिंह प्लेस में कॉफी हाउस में हर शनिवार अड्डेबाजी के लिए पहुंचते रहे। जिस मेज पर वे बैठते, सारे साहित्यकार उसी मेज पर आ जुटते और वे हमेशा बातचीत के केन्द्र में सहज ही आ जाते।
वे साहित्यकार, शोधार्थी या पाठकों के हर खत का जवाब दिया करते थे। बाद में ऐसा भी हुआ कि वे खत बोल कर लिखवाते और हस्ताक्षर करते।
उनकी आत्म-कथा, 'पंखहीन' तीन खंडों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।
उनका एक मकान एक किरायेदार ने बेईमानी करके हथिया लिया था और विष्णु जी के जाली हस्ताक्षर करके उसे बेच भी दिया था। बरसों केस चलता रहा। विष्णु जी इतने सरल मन के थे कि एक मंत्री के आश्वासन देने के बावजूद अपनी व्यथा नहीं कह पाये थे। उनके एक घनघोर पाठक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने गहरी छानबीन करके वे हस्ताक्षर जाली सिद्ध कर दिये थे। दरअसल जाली हस्ताक्षर के नीचे दो बिंदु लगे हुए थे जबकि विष्णु जी अपने हस्ताक्षर के नीचे दो बिंदु नहीं लगाते थे। इस तरह से उनका मकान खाली करवाया जा सका था। विष्णु जी ने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी। इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया था।
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