हम पूरे जीवन में कितनी किताबें पढ़ते हैं।
अक्सर मैं दोस्तों को, लेखकों और घनघोर पाठकों को यह कहते सुनता हूं कि उन्होंने हजारों किताबें पढ़ी हैं। कई बार पढ़ी गयी किताबें दस हज़ार भी होती हैं और पंद्रह हज़ार भी। मजे की बात, यह दावा करने वाले पाठक 30 बरस के भी होते हैं और चालीस या पचास बरस के भी।
आइए, देखते हैं, हम सचमुच अपने पूरे जीवन में कितनी किताबें पढ़ सकते हैं, या पढ़ते हैं या पढ़ने का दावा कर सकते हैं।
आमतौर पर हमारा पुस्तकों से नाता सात आठ बरस की उम्र से ही शुरू हो जाता है जब हम अपनी पसंद की पत्रिकाएं, कहानियां और हाथ में लग जाने वाली कोई भी किताब पढ़ना शुरू कर देते हैं।
मुझे नहीं पता कि आजकल के बेहद जागरुक, स्मार्ट और बहुत तेज बुद्धि बच्चे पढ़ने के लिए किस तरह की किताबों से और किस भाषा से पढ़ने का सिलसिला शुरू करते हैं।
अपनी बात कहूं तो जब हम छोटे थे तो चंदा मामा, राजा भैया, बालभारती और गीता प्रेस से छपने वाली किताबें और पंचतंत्र की कहानियां, जातक कथाएं आदि से पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ। जब थोड़े बड़े हुए तो किशोर कहानियां हाथ लगने लगीं। तब हम एक दिन में दो ढाई घंटे में एक किताब की दर से तीन चार किताबें पढ़ कर किनारे कर दिया करते थे।
उम्र बढ़ने के साथ पढ़ने का विकास गुलशन नंदा, रानू, दत्त भारती और वेद प्रकाश कांबोज से होते हुए प्रेमचंद और और देवकीनंदन खत्री तक पहुंचा। बीए तक पहुंचने तक कालजयी और समकालीन साहित्य और विश्व साहित्य पढ़ने का चस्का लगा।
देखा जाए तो गंभीर साहित्य पढ़ना बीस बाइस की उम्र तक शुरू हो पाता है और अगर आप अच्छे पाठक हैं तो आजीवन चलता है नहीं तो आमतौर पर लोग एक एक किताब खत्म करने में कई बार महीना लगा देते हैं।
आइए देखें, एक अच्छे और घनघोर पाठक के पढ़ने का ग्राफ किस तरह से बनता है। अगर आप बहुत अच्छे पाठक हैं तो हो सकता है, सौ डेढ़ सौ पन्ने की किताब एक दिन में खत्म कर दें और ऐसा भी हो सकता है कि आप दस, बीस या पचास पन्ने पढ़कर उस दिन का पढ़ने का अपना कोटा पूरा कर लें।
मान लीजिए, एक किताब 240 पेज की है और आप उसे तीन दिन में खत्म करते हैं तो इसका मतलब हुआ कि आपने एक दिन में लगभग 80 पेज पढ़े। आपके पढ़ने की यही औसत गति मानें तो इसका मतलब हुआ कि आप साल में रोज़ाना नियमित रूप से पढ़ने के बाद 100 किताबों से अधिक नहीं पढ़ सकते। अगर आप 2 दिन में भी एक किताब खत्म करते हैं तो पूरे बरस का औसत डेढ़ सौ किताबों का आता है जो कि सारी बातों को देखते हुए बहुत मुश्किल है।
क्या यह संभव है। हम बीच बीच में फिल्म देखते हैं, दूसरे काम भी करते हैं, बीमार भी होते हैं, यात्रा में भी होते हैं और सामाजिक कार्यों में भी हमें समय देना होता है और न चाहते हुए भी कई बार किताबें पीछे छूट जाती हैं। परिवार कभी अपने हिस्से का समय मांगता है। हम किसी ऐसी जगह पर भी हो सकते हैं जहां पर हमारे पास रोज़ाना पढ़ने के लिए इतनी किताबें न हों। तो हम चाह कर भी हर वर्ष सौ या अधिक किताबें पढ़ने का अपना कोटा पूरा नहीं कर सकते।
चलिए मान लेते हैं कि आपने एक वर्ष में 100 किताबें पढ़ीं। और आपने गंभीर रूप से पढ़ना 20 बरस की उम्र से शुरू किया है तो 100 किताबें 1 वर्ष में पढ़ने का मतलब हुआ, आपने 10 वर्ष में 1000 किताबें पढ़ी और आपकी उम्र इस समय चालीस बरस है तो आपके पास पढ़ने के लिए 20 बरस थे और आपने कुल मिलाकर 2000 किताबें पढ़ी। 50 बरस में यानी लगातार तीस बरस तक हर रोज सौ पन्ने पढ़ने के बाद आपने तीन हज़ार किताबें और 60 बरस की उम्र में तक पहुंचने के बाद आपकी पढ़ी गयी कुल किताबों की संख्या चार हजार तक पहुंचती है। और यह संख्या तब होगी आपने सारे काम छोड़ कर रोजाना सौ पन्ने पढ़ने के नियम का कड़ाई से पालन किया हो।
इसका मतलब हुआ कि जो लोग यह दावा करते हैं कि वह हर दिन एक किताब पूरी कर सकते हैं उनसे सहमत नहीं हुआ जा सकता। कोई किताब 400 पन्ने की भी हो सकती है और 500 पन्ने की भी। आप कितना भी चाहें हर दिन के सीमित समय में और हर दिन की भागदौड़ के बीच में नियमित रूप से इतने घंटे किताब के लिए नहीं निकाल सकते। आजकल के आपाधापी के जीवन में जब सोशल मीडिया हमारा अधिकांश समय लील जाता है, हजारों किताबें पढ़ने का दावा धरा का धरा रह जाता है।
कई बार ऐसा भी होता है कि किताब शुरू करते ही आप को किताब पसंद नहीं आयी और आपने छोड़ दी और आपके हाथ में दूसरी किताब नहीं है तो उस दिन का कोटा बिना कोई किताब पढ़ ही पूरा हो जाएगा।
एक बात और भी है। हम सिर्फ पढ़ते ही नहीं हैं लिखते भी हैं। तो हमें लिखने और पढ़ने के समय के बीच में संतुलन बनाना होता है। एक आदर्श स्थिति होती है कि आप 90 पेज पढ़ें और 10 पेज लिखें। इसका मतलब हम नियमित रूप से पढ़ने लिखने का यह संतुलन बनाए रखें तो हम हजारों पन्ने लिख भी सकते हैं लेकिन जिस तरह से पढ़ना हर दिन के लिए नियमित नहीं हो सकता उसी तरह से लिखने के लिए भी हम यह नहीं कह सकते कि हम अस्सी पन्ने पढ़ेंगे और आठ पन्ने लिखेंगे। हां तब की बात अलग है जब हम कोई बड़ी रचना लिखने में कुछ दिन के लिए पूरी तरह से डूब जाएं। तो पढ़ने के समय की कुर्बानी देनी होगी।
बांग्ला उपन्यासकार पांच पांच सौ पन्नों के सौ डेढ़ सौ उपन्यास लिखने के लिए मशहूर हैं लेकिन यह जानना भी रुचिकर होगा कि वे पूरे जीवन में सारे दायित्व निभाने और अड्डेबाजी करने के बाद कितनी किताबें पढ़ने के लिए समय निकाल पाते हैं।
किसी भी लेखक के लिए पढ़ना और लिखना कितना भी नियमित क्यों न हो, वह यह दावा नहीं कर सकते कि हमने दस हजार किताबें पढ़ीं।
हम सब पढ़ने लिखने वालों के घर में एक निजी पुस्तकालय होता है और उसमें हजारों पुस्तकें होती हैं। यह दावा भी बेमानी होता है कि इधर उधर की किताबों के अलावा हमनें अपने पुस्तकालय की सारी किताबें चाट रखी हैं। तय है कि ये सारी किताबें पढ़ी नहीं गई होतीं। हर पुस्तकालय में कम से कम 40% किताब ऐसी होती हैं जो हमारे पास आ तो गई होती हैं लेकिन हमारी पसंद की नहीं होतीं। हमारे लायक नहीं होतीं। कई किताबें तो खुलती ही नहीं है और बिना पढ़े दम तोड़ देती हैं। कई किताबें ऐसी होती हैं जो आधी अधूरी पढ़ी गई होती हैं। इनमें उन किताबों का कोई कसूर नहीं होता जितना उनका गलती से वहां पहुंच जाने का होता है।
आइए, देखते हैं, हम सचमुच अपने पूरे जीवन में कितनी किताबें पढ़ सकते हैं, या पढ़ते हैं या पढ़ने का दावा कर सकते हैं।
आमतौर पर हमारा पुस्तकों से नाता सात आठ बरस की उम्र से ही शुरू हो जाता है जब हम अपनी पसंद की पत्रिकाएं, कहानियां और हाथ में लग जाने वाली कोई भी किताब पढ़ना शुरू कर देते हैं।
मुझे नहीं पता कि आजकल के बेहद जागरुक, स्मार्ट और बहुत तेज बुद्धि बच्चे पढ़ने के लिए किस तरह की किताबों से और किस भाषा से पढ़ने का सिलसिला शुरू करते हैं।
अपनी बात कहूं तो जब हम छोटे थे तो चंदा मामा, राजा भैया, बालभारती और गीता प्रेस से छपने वाली किताबें और पंचतंत्र की कहानियां, जातक कथाएं आदि से पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ। जब थोड़े बड़े हुए तो किशोर कहानियां हाथ लगने लगीं। तब हम एक दिन में दो ढाई घंटे में एक किताब की दर से तीन चार किताबें पढ़ कर किनारे कर दिया करते थे।
उम्र बढ़ने के साथ पढ़ने का विकास गुलशन नंदा, रानू, दत्त भारती और वेद प्रकाश कांबोज से होते हुए प्रेमचंद और और देवकीनंदन खत्री तक पहुंचा। बीए तक पहुंचने तक कालजयी और समकालीन साहित्य और विश्व साहित्य पढ़ने का चस्का लगा।
देखा जाए तो गंभीर साहित्य पढ़ना बीस बाइस की उम्र तक शुरू हो पाता है और अगर आप अच्छे पाठक हैं तो आजीवन चलता है नहीं तो आमतौर पर लोग एक एक किताब खत्म करने में कई बार महीना लगा देते हैं।
आइए देखें, एक अच्छे और घनघोर पाठक के पढ़ने का ग्राफ किस तरह से बनता है। अगर आप बहुत अच्छे पाठक हैं तो हो सकता है, सौ डेढ़ सौ पन्ने की किताब एक दिन में खत्म कर दें और ऐसा भी हो सकता है कि आप दस, बीस या पचास पन्ने पढ़कर उस दिन का पढ़ने का अपना कोटा पूरा कर लें।
मान लीजिए, एक किताब 240 पेज की है और आप उसे तीन दिन में खत्म करते हैं तो इसका मतलब हुआ कि आपने एक दिन में लगभग 80 पेज पढ़े। आपके पढ़ने की यही औसत गति मानें तो इसका मतलब हुआ कि आप साल में रोज़ाना नियमित रूप से पढ़ने के बाद 100 किताबों से अधिक नहीं पढ़ सकते। अगर आप 2 दिन में भी एक किताब खत्म करते हैं तो पूरे बरस का औसत डेढ़ सौ किताबों का आता है जो कि सारी बातों को देखते हुए बहुत मुश्किल है।
क्या यह संभव है। हम बीच बीच में फिल्म देखते हैं, दूसरे काम भी करते हैं, बीमार भी होते हैं, यात्रा में भी होते हैं और सामाजिक कार्यों में भी हमें समय देना होता है और न चाहते हुए भी कई बार किताबें पीछे छूट जाती हैं। परिवार कभी अपने हिस्से का समय मांगता है। हम किसी ऐसी जगह पर भी हो सकते हैं जहां पर हमारे पास रोज़ाना पढ़ने के लिए इतनी किताबें न हों। तो हम चाह कर भी हर वर्ष सौ या अधिक किताबें पढ़ने का अपना कोटा पूरा नहीं कर सकते।
चलिए मान लेते हैं कि आपने एक वर्ष में 100 किताबें पढ़ीं। और आपने गंभीर रूप से पढ़ना 20 बरस की उम्र से शुरू किया है तो 100 किताबें 1 वर्ष में पढ़ने का मतलब हुआ, आपने 10 वर्ष में 1000 किताबें पढ़ी और आपकी उम्र इस समय चालीस बरस है तो आपके पास पढ़ने के लिए 20 बरस थे और आपने कुल मिलाकर 2000 किताबें पढ़ी। 50 बरस में यानी लगातार तीस बरस तक हर रोज सौ पन्ने पढ़ने के बाद आपने तीन हज़ार किताबें और 60 बरस की उम्र में तक पहुंचने के बाद आपकी पढ़ी गयी कुल किताबों की संख्या चार हजार तक पहुंचती है। और यह संख्या तब होगी आपने सारे काम छोड़ कर रोजाना सौ पन्ने पढ़ने के नियम का कड़ाई से पालन किया हो।
इसका मतलब हुआ कि जो लोग यह दावा करते हैं कि वह हर दिन एक किताब पूरी कर सकते हैं उनसे सहमत नहीं हुआ जा सकता। कोई किताब 400 पन्ने की भी हो सकती है और 500 पन्ने की भी। आप कितना भी चाहें हर दिन के सीमित समय में और हर दिन की भागदौड़ के बीच में नियमित रूप से इतने घंटे किताब के लिए नहीं निकाल सकते। आजकल के आपाधापी के जीवन में जब सोशल मीडिया हमारा अधिकांश समय लील जाता है, हजारों किताबें पढ़ने का दावा धरा का धरा रह जाता है।
कई बार ऐसा भी होता है कि किताब शुरू करते ही आप को किताब पसंद नहीं आयी और आपने छोड़ दी और आपके हाथ में दूसरी किताब नहीं है तो उस दिन का कोटा बिना कोई किताब पढ़ ही पूरा हो जाएगा।
एक बात और भी है। हम सिर्फ पढ़ते ही नहीं हैं लिखते भी हैं। तो हमें लिखने और पढ़ने के समय के बीच में संतुलन बनाना होता है। एक आदर्श स्थिति होती है कि आप 90 पेज पढ़ें और 10 पेज लिखें। इसका मतलब हम नियमित रूप से पढ़ने लिखने का यह संतुलन बनाए रखें तो हम हजारों पन्ने लिख भी सकते हैं लेकिन जिस तरह से पढ़ना हर दिन के लिए नियमित नहीं हो सकता उसी तरह से लिखने के लिए भी हम यह नहीं कह सकते कि हम अस्सी पन्ने पढ़ेंगे और आठ पन्ने लिखेंगे। हां तब की बात अलग है जब हम कोई बड़ी रचना लिखने में कुछ दिन के लिए पूरी तरह से डूब जाएं। तो पढ़ने के समय की कुर्बानी देनी होगी।
बांग्ला उपन्यासकार पांच पांच सौ पन्नों के सौ डेढ़ सौ उपन्यास लिखने के लिए मशहूर हैं लेकिन यह जानना भी रुचिकर होगा कि वे पूरे जीवन में सारे दायित्व निभाने और अड्डेबाजी करने के बाद कितनी किताबें पढ़ने के लिए समय निकाल पाते हैं।
किसी भी लेखक के लिए पढ़ना और लिखना कितना भी नियमित क्यों न हो, वह यह दावा नहीं कर सकते कि हमने दस हजार किताबें पढ़ीं।
हम सब पढ़ने लिखने वालों के घर में एक निजी पुस्तकालय होता है और उसमें हजारों पुस्तकें होती हैं। यह दावा भी बेमानी होता है कि इधर उधर की किताबों के अलावा हमनें अपने पुस्तकालय की सारी किताबें चाट रखी हैं। तय है कि ये सारी किताबें पढ़ी नहीं गई होतीं। हर पुस्तकालय में कम से कम 40% किताब ऐसी होती हैं जो हमारे पास आ तो गई होती हैं लेकिन हमारी पसंद की नहीं होतीं। हमारे लायक नहीं होतीं। कई किताबें तो खुलती ही नहीं है और बिना पढ़े दम तोड़ देती हैं। कई किताबें ऐसी होती हैं जो आधी अधूरी पढ़ी गई होती हैं। इनमें उन किताबों का कोई कसूर नहीं होता जितना उनका गलती से वहां पहुंच जाने का होता है।
यह जानना भी रोचक है कि हम कौन सी किताबें पढ़ते हैं।
सबसे ज्यादा वे किताबें पढ़ी जाती हैं जो पाठक कहीं से चुरा कर लाता है। किताब चुराने का जोखिम तभी उठाया जायेगा जब किताब नजर तो आ रही हो लेकिन हमारे पास न हो।
फिर उन किताबों का नम्बर आता है जिन्हें हम उधार मांग कर तो लाते हैं लेकिन वापिस नहीं करते। करना ही नहीं चाहते। जिसके यहां से उधार लाये थे, उसके घर आने पर छुपा देते हैं।
फुटपाथ पर बिक रही अचानक नज़र आ गयी वे किताबें भी खूब पढ़ी जाती हैं जिनकी हम कब से तलाश कर रहे थे।
पूरे पैसे दे कर खरीदी गयी किताबें भी अपना नम्बर आने पर आधी अधूरी पढ़ ही ली जाती हैं।
सबसे ज्यादा वे किताबें पढ़ी जाती हैं जो पाठक कहीं से चुरा कर लाता है। किताब चुराने का जोखिम तभी उठाया जायेगा जब किताब नजर तो आ रही हो लेकिन हमारे पास न हो।
फिर उन किताबों का नम्बर आता है जिन्हें हम उधार मांग कर तो लाते हैं लेकिन वापिस नहीं करते। करना ही नहीं चाहते। जिसके यहां से उधार लाये थे, उसके घर आने पर छुपा देते हैं।
फुटपाथ पर बिक रही अचानक नज़र आ गयी वे किताबें भी खूब पढ़ी जाती हैं जिनकी हम कब से तलाश कर रहे थे।
पूरे पैसे दे कर खरीदी गयी किताबें भी अपना नम्बर आने पर आधी अधूरी पढ़ ही ली जाती हैं।
लाइब्रेरी से लायी गयी किताबें पूरी नहीं पढ़ी जातीं और उन्हें वापिस करने का वक्त आ जाता है।
रोज़ाना डाक में उपहार में आने वाली या किसी आयोजन में अचानक लेखक के सामने पड़ जाने पर भेंट कर दी गयी किताबें कभी नहीं पढ़ी जातीं। कई बार तो भेंट की गयी किताबें भेंटकर्ता के जाते ही किसी और पाठक के पास ठेल दी जाती हैं। वह आगे ठेलने की सोचता रहे या बिन पढ़े एक कोने में रखे रहे।
कोर्स की किताबें पढ़ने में हमारी नानी मरती है और समीक्षा के लिए आयी किताबें भी तब तक पढ़े जाने का इंतज़ार करती रहती हैं जब तक संपादक की तरफ से चार बार अल्टीमेटम न मिल जाये। तब भी वे कितनी पढ़ी जाती हैं। हम जानते हैं।
पुस्तक मेलों में खरीदी गयी किताबें भी पूरे पढ़े जाने का इंतज़ार करते करते थक जाती हैं और अगला पुस्तक मेला सिर पर आ खड़ा होता है।
यात्रा में टाइम पास करने के लिए स्टेशन, बस अड्डे या एयरपोर्ट पर खरीदी गयी किताबें यात्रा में जितनी पढ़ ली जायें, उतना ही, बाकी वे कहीं कोने में या बैग ही में पड़े-पड़े अपनी कहानी का अंत बताने के लिए बेचैन अपने इकलौते पाठक को वक्त मिलने का इंतज़ार करती रहती हैं।
रोज़ाना डाक में उपहार में आने वाली या किसी आयोजन में अचानक लेखक के सामने पड़ जाने पर भेंट कर दी गयी किताबें कभी नहीं पढ़ी जातीं। कई बार तो भेंट की गयी किताबें भेंटकर्ता के जाते ही किसी और पाठक के पास ठेल दी जाती हैं। वह आगे ठेलने की सोचता रहे या बिन पढ़े एक कोने में रखे रहे।
कोर्स की किताबें पढ़ने में हमारी नानी मरती है और समीक्षा के लिए आयी किताबें भी तब तक पढ़े जाने का इंतज़ार करती रहती हैं जब तक संपादक की तरफ से चार बार अल्टीमेटम न मिल जाये। तब भी वे कितनी पढ़ी जाती हैं। हम जानते हैं।
पुस्तक मेलों में खरीदी गयी किताबें भी पूरे पढ़े जाने का इंतज़ार करते करते थक जाती हैं और अगला पुस्तक मेला सिर पर आ खड़ा होता है।
यात्रा में टाइम पास करने के लिए स्टेशन, बस अड्डे या एयरपोर्ट पर खरीदी गयी किताबें यात्रा में जितनी पढ़ ली जायें, उतना ही, बाकी वे कहीं कोने में या बैग ही में पड़े-पड़े अपनी कहानी का अंत बताने के लिए बेचैन अपने इकलौते पाठक को वक्त मिलने का इंतज़ार करती रहती हैं।
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