होली पर एक पुरानी लेकिन सरस रचना
कई होलियाँ याद आती हैं। बचपन के शहर देहरादून की होलियाँ जहाँ बड़े लोग झांझ मझीरे ले कर फ़िल्मी गानों की अश्लील पैरोडियाँ गाते हुए गली मोहल्लों में निकलते थे। हमें सहसा यकीन नहीं होता था कि ये बड़े भाइयों सरीखे युवा लोग, जिनकी हम इतनी इज़्ज़त करते हैं और उनसे इतना डरते हैं, इस तरह से सरेआम अश्लील गाने भी गा सकते हैं।
बाद में जब हैदराबाद गया तो वहाँ की होलियाँ याद आती हैं। लोग अपने चेहरे पर पहले ही सफ़ेद रंग का कोई पेंट पोत कर निकलते थे ताकि उस पर कोई दूजा रंग चढ़े ही नहीं। फिर बाद में मुंबई की होलियाँ। रंग खेलने के बाद जुहू तट पर जाना याद आता है जहाँ हज़ारों लोग रंग खेलने के बाद हरहराते समंदर के साथ होली खेलने आते हैं और समंदर सबसे थोड़ा थोड़ा रंग ले कर बहुत रंगीन हो जाता है और जब ठाठें मारता हुआ सबसे होली खेलने के लिए हर ऊंची लहर के साथ सब को गले लगाने के लिए आगे बढ़ता है तो बहुत ही रमणीय नज़ारा होता है।
वैसे मुंबई वासी अपनी ही सोसाइटियों में होली खेलते हैं। बहुत ऊंची आवाज़ में संगीत, एक दूजे की बीवियों पर बाल्टी भर-भर कर या माली वाले पाइप से पानी डालना, बस यही होली होती है, आम मुंबइया बाबुओं की। सड़कों पर टोलियाँ कम ही निकलती हैं। हाँ, कुछ लोग पी-पा कर सड़क पर शाम तक बेसुध पड़े रहते हैं। कुछेक युवा हा हा हू हू करते हुए तेज़ रफ़्तार गाड़ियाँ चलाते भी नज़र आ जाते हैं।
अब तो कई बरसों से होली खेलना ही छोड़ दिया है। बहुत हो ली होली। अगर कपड़े गीले करवाना ही होली है तो नहीं खेलनी मुझे। पहले से तय नहीं रहता कि होली खेलने नीचे उतरना है या नहीं। मूड बना तो ठीक वरना घर पर ही भले।
मैं यहाँ अमदावाद की जिस होली का ज़िक्र कर रहा हूँ, दरअसल ये घटना होली के दिन की नहीं, शाम की है। स्थानीय अख़बार गुजरात वैभव ने किसी पार्टी प्लॉट पर रात्रि भोज का निमंत्रण दिया था। मैं और मेरे कवि मित्र श्री प्रकाश मिश्र भी आमंत्रित थे। वैसे हम दोनों कहीं भी एक साथ जाते थे तो मेरी मोटर साइकिल पर ही चलते थे, लेकिन उस दिन पता नहीं कैसे हुआ कि उनके स्कूटर पर ही चलने की बात तय हुई। शायद सात आठ कि.मी. जाना था।
जब वहाँ पहुँचे तो कई परिचित लोग मिले। बातचीत होती रही। खाने से पहले भांग मिली ठंडाई का आयोजन था। मैंने भी लोगों की देखा देखी दो एक गिलास ठंडाई ले ली लेकिन कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया। तभी आयोजक शर्मा परिवार के सबसे युवा मनीष शर्मा जो मेरे अच्छे परिचित थे, मेरे पास आए और बात करते हुए अचानक उन्होंने पूछा कि मैंने ठंडाई ली है या नहीं। जब मैंने बताया कि हाँ, ली तो है लेकिन मुझे तो इसमें कोई ख़ास बात नज़र नहीं आई। वे मुस्कुराए और मेरी बाँह पकड़ कर मुझे एक तरफ़ ले जाते हुए बोले, अरे, इस चालू ठंडाई में थोड़े ही मज़ा है, आइए मैं आपको ख़ास तौर पर ख़ास मेहमानों के लिए बनाई गई ठंडाई पिलाता हूँ।
वे मुझे एक कमरे में ले गए जहाँ ख़ास लोगों के लिए ख़ास ठंडई का इंतज़ाम था। एक बड़ा गिलास मुझे पेश किया गया और तब मुझे लगा, हाँ इस गिलास में कुछ था। एक गिलास हलक से नीचे उतारा ही था कि उनके बड़े भाई ने एक और गिलास ज़बरदस्ती पिला दिया।
साढ़े नौ बजने को आए थे। मेहमानों ने भोजन करना शुरू कर दिया था। ज़मीन पर बिछी जाजमों पर बैठ कर भोजन करना था। स्वादिष्ट भोजन था। पूरी कचौरी, हलवा वगैरह और गुजरात के स्थानीय और होली के व्यंजन।
अब तक भांग ने अपना काम करना शुरू कर दिया था। मैं खाना तो खा रहा था लेकिन धीरे-धीरे मुझे महसूस होना शुरू हुआ कि मुझे खाने के हर निवाले के लिए अपना हाथ धरती में बहुत नीचे तक ले जाना पड़ रहा है और मेरा हाथ वहाँ तक पहुँच ही नहीं पा रहा है। पानी पीना चाहा तो गिलास तक हाथ ही न पहुँचे। मेरी हालत ख़राब हो रही थी, मुझे बहुत ज़्यादा भूख और प्यास लगी थी लेकिन किसी भी चीज़ तक मेरा हाथ ही नहीं पहुँच पा रहा था। मैं ऊँचाई और गहराई का अहसास खो चुका था। मैं भुनभुना रहा था, बड़बड़ा रहा था लेकिन किसी तक भी अपनी आवाज़ नहीं पहुँचा पा रहा था कि कोई मुझे बताए कि मैं क्या करूँ। पंगत में साथ बैठे खाने वाले कब के खा कर जा चुके थे और मेरी पत्तल में अभी भी खाने की चीज़ें जस की तस पड़ी हुई थीं और मैं बेहद भूखा था।
शायद मैं आधा घंटा तो इसी हालत में बैठा ही रहा होऊँगा। तभी श्री प्रकाश मिश्रा जी मुझे ढूँढते हुए आए और बोले चलो भई, बहुत खा लिया तुमने। और कितना खाओगे। साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। चलना नहीं है क्या।
मैं आधे अधूरे पेट उठा तो दूसरी समस्या शुरू। उनके स्कूटर की सीट मुझे इतनी ऊँची लग रही थी कि मैं किसी तरह भी उस पर चढ़ नहीं पा रहा था। आस पास तमाशबीन जुट आए थे। मैं लगातार इस बात का रोना रो रहा था कि मैं आख़िर इतनी ऊँची सीट पर चढूँ कैसे? तभी मैंने देखा कि चार पाँच आदमियों ने मुझे किसी तरह से गोद में उठा कर स्कूटर पर बैठा ही दिया है। श्री प्रकाश जी ने स्कूटर स्टार्ट किया और मैंने उन्हें पीछे से कस कर पकड़ लिया।
अब एक और मुसीबत शुरू हो गई मेरे साथ। मुझे लगा कि ये स्कूटर अनंत काल से चल ही रहा है और हम कहीं नहीं पहुँच रहे। मैंने कम से कम बीस बार तो मिश्रा जी से पूछा ही होगा कि हम पहुँच क्यों नहीं रहे हैं।
आख़िर जब मुझे अपना घर नज़र आया तो मैं छोटे बच्चे की तरह खुशी से चिल्लाने लगा कि मेरा घर आ गया। मिश्र जी ने मुझे किसी तरह से स्कूटर से उतारा, मेरी जेब से चाबी निकाली और दरवाज़ा खोला। मिश्रा जी कब वापस गए और मैं कब सोया, मुझे कोई ख़बर नहीं। अलबत्ता सुबह जब उठा तो पिछली रात की अपनी सारी बेवकूफ़ियाँ मुझे याद थीं।
हँसी भी आ रही थी कि भांग भी क्या चीज़ है कि अच्छे भले आदमी का कार्टून बना देती है।
बाद में जब हैदराबाद गया तो वहाँ की होलियाँ याद आती हैं। लोग अपने चेहरे पर पहले ही सफ़ेद रंग का कोई पेंट पोत कर निकलते थे ताकि उस पर कोई दूजा रंग चढ़े ही नहीं। फिर बाद में मुंबई की होलियाँ। रंग खेलने के बाद जुहू तट पर जाना याद आता है जहाँ हज़ारों लोग रंग खेलने के बाद हरहराते समंदर के साथ होली खेलने आते हैं और समंदर सबसे थोड़ा थोड़ा रंग ले कर बहुत रंगीन हो जाता है और जब ठाठें मारता हुआ सबसे होली खेलने के लिए हर ऊंची लहर के साथ सब को गले लगाने के लिए आगे बढ़ता है तो बहुत ही रमणीय नज़ारा होता है।
वैसे मुंबई वासी अपनी ही सोसाइटियों में होली खेलते हैं। बहुत ऊंची आवाज़ में संगीत, एक दूजे की बीवियों पर बाल्टी भर-भर कर या माली वाले पाइप से पानी डालना, बस यही होली होती है, आम मुंबइया बाबुओं की। सड़कों पर टोलियाँ कम ही निकलती हैं। हाँ, कुछ लोग पी-पा कर सड़क पर शाम तक बेसुध पड़े रहते हैं। कुछेक युवा हा हा हू हू करते हुए तेज़ रफ़्तार गाड़ियाँ चलाते भी नज़र आ जाते हैं।
अब तो कई बरसों से होली खेलना ही छोड़ दिया है। बहुत हो ली होली। अगर कपड़े गीले करवाना ही होली है तो नहीं खेलनी मुझे। पहले से तय नहीं रहता कि होली खेलने नीचे उतरना है या नहीं। मूड बना तो ठीक वरना घर पर ही भले।
मैं यहाँ अमदावाद की जिस होली का ज़िक्र कर रहा हूँ, दरअसल ये घटना होली के दिन की नहीं, शाम की है। स्थानीय अख़बार गुजरात वैभव ने किसी पार्टी प्लॉट पर रात्रि भोज का निमंत्रण दिया था। मैं और मेरे कवि मित्र श्री प्रकाश मिश्र भी आमंत्रित थे। वैसे हम दोनों कहीं भी एक साथ जाते थे तो मेरी मोटर साइकिल पर ही चलते थे, लेकिन उस दिन पता नहीं कैसे हुआ कि उनके स्कूटर पर ही चलने की बात तय हुई। शायद सात आठ कि.मी. जाना था।
जब वहाँ पहुँचे तो कई परिचित लोग मिले। बातचीत होती रही। खाने से पहले भांग मिली ठंडाई का आयोजन था। मैंने भी लोगों की देखा देखी दो एक गिलास ठंडाई ले ली लेकिन कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया। तभी आयोजक शर्मा परिवार के सबसे युवा मनीष शर्मा जो मेरे अच्छे परिचित थे, मेरे पास आए और बात करते हुए अचानक उन्होंने पूछा कि मैंने ठंडाई ली है या नहीं। जब मैंने बताया कि हाँ, ली तो है लेकिन मुझे तो इसमें कोई ख़ास बात नज़र नहीं आई। वे मुस्कुराए और मेरी बाँह पकड़ कर मुझे एक तरफ़ ले जाते हुए बोले, अरे, इस चालू ठंडाई में थोड़े ही मज़ा है, आइए मैं आपको ख़ास तौर पर ख़ास मेहमानों के लिए बनाई गई ठंडाई पिलाता हूँ।
वे मुझे एक कमरे में ले गए जहाँ ख़ास लोगों के लिए ख़ास ठंडई का इंतज़ाम था। एक बड़ा गिलास मुझे पेश किया गया और तब मुझे लगा, हाँ इस गिलास में कुछ था। एक गिलास हलक से नीचे उतारा ही था कि उनके बड़े भाई ने एक और गिलास ज़बरदस्ती पिला दिया।
साढ़े नौ बजने को आए थे। मेहमानों ने भोजन करना शुरू कर दिया था। ज़मीन पर बिछी जाजमों पर बैठ कर भोजन करना था। स्वादिष्ट भोजन था। पूरी कचौरी, हलवा वगैरह और गुजरात के स्थानीय और होली के व्यंजन।
अब तक भांग ने अपना काम करना शुरू कर दिया था। मैं खाना तो खा रहा था लेकिन धीरे-धीरे मुझे महसूस होना शुरू हुआ कि मुझे खाने के हर निवाले के लिए अपना हाथ धरती में बहुत नीचे तक ले जाना पड़ रहा है और मेरा हाथ वहाँ तक पहुँच ही नहीं पा रहा है। पानी पीना चाहा तो गिलास तक हाथ ही न पहुँचे। मेरी हालत ख़राब हो रही थी, मुझे बहुत ज़्यादा भूख और प्यास लगी थी लेकिन किसी भी चीज़ तक मेरा हाथ ही नहीं पहुँच पा रहा था। मैं ऊँचाई और गहराई का अहसास खो चुका था। मैं भुनभुना रहा था, बड़बड़ा रहा था लेकिन किसी तक भी अपनी आवाज़ नहीं पहुँचा पा रहा था कि कोई मुझे बताए कि मैं क्या करूँ। पंगत में साथ बैठे खाने वाले कब के खा कर जा चुके थे और मेरी पत्तल में अभी भी खाने की चीज़ें जस की तस पड़ी हुई थीं और मैं बेहद भूखा था।
शायद मैं आधा घंटा तो इसी हालत में बैठा ही रहा होऊँगा। तभी श्री प्रकाश मिश्रा जी मुझे ढूँढते हुए आए और बोले चलो भई, बहुत खा लिया तुमने। और कितना खाओगे। साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। चलना नहीं है क्या।
मैं आधे अधूरे पेट उठा तो दूसरी समस्या शुरू। उनके स्कूटर की सीट मुझे इतनी ऊँची लग रही थी कि मैं किसी तरह भी उस पर चढ़ नहीं पा रहा था। आस पास तमाशबीन जुट आए थे। मैं लगातार इस बात का रोना रो रहा था कि मैं आख़िर इतनी ऊँची सीट पर चढूँ कैसे? तभी मैंने देखा कि चार पाँच आदमियों ने मुझे किसी तरह से गोद में उठा कर स्कूटर पर बैठा ही दिया है। श्री प्रकाश जी ने स्कूटर स्टार्ट किया और मैंने उन्हें पीछे से कस कर पकड़ लिया।
अब एक और मुसीबत शुरू हो गई मेरे साथ। मुझे लगा कि ये स्कूटर अनंत काल से चल ही रहा है और हम कहीं नहीं पहुँच रहे। मैंने कम से कम बीस बार तो मिश्रा जी से पूछा ही होगा कि हम पहुँच क्यों नहीं रहे हैं।
आख़िर जब मुझे अपना घर नज़र आया तो मैं छोटे बच्चे की तरह खुशी से चिल्लाने लगा कि मेरा घर आ गया। मिश्र जी ने मुझे किसी तरह से स्कूटर से उतारा, मेरी जेब से चाबी निकाली और दरवाज़ा खोला। मिश्रा जी कब वापस गए और मैं कब सोया, मुझे कोई ख़बर नहीं। अलबत्ता सुबह जब उठा तो पिछली रात की अपनी सारी बेवकूफ़ियाँ मुझे याद थीं।
हँसी भी आ रही थी कि भांग भी क्या चीज़ है कि अच्छे भले आदमी का कार्टून बना देती है।
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