रविवार, 11 अगस्त 2019

महात्मा गांधी की आत्‍मकथा का अनुवाद

महात्मा गांधी की आत्‍मकथा का अनुवाद
मैं शायद हिंदी का अकेला अनुवादक हूं जिसे पिछली सदी की विश्व की 2 महान विभूतियों - चार्ली चैप्लिन और महात्मा गांधी की आत्मकथाओं के अनुवाद का मौका मिला।
महात्मा गांधी की आत्मकथा का अनुवाद मैंने गुजराती से किया था।
बहुत पहले मैंने श्री काशिनाथ त्रिवेदी द्वारा 1960 के आसपास अनुदित और नवजीवन प्रैस द्वारा प्रकाशित महात्मा गांधी की आत्मकथा पढ़ी थी और मुझे अच्छी नहीं लगी था। यह गुज्जू हिंदी में थी और उसमें कई शब्द ऐसे थे जो हिंदी में है ही नहीं।
मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन मुझे राजकमल प्रकाशन की ओर से इस आत्मकथा के अनुवाद का प्रस्ताव मिलेगा।
यह बात 2011 की है। मैं तब तक रिजर्व बैंक से रिटायर नहीं हुआ था।
एक दिन राजकमल प्रकाशन के सर्वे सर्वा अशोक माहेश्वरी जी का फोन आया कि वह मुझसे महात्मा गांधी की आत्मकथा का अनुवाद कराना चाहते हैं। मैंने कहा - मैं पंजाबी और आप गुजराती से महात्मा गांधी की आत्‍मकथा का अनुवाद कराना चाहते हैं।
वे बोले 1हम आपके गुजराती भाषा ज्ञान के बारे में जानते हैं। विनोद भट्ट की किताबों के आपके किए अनुवाद हम नहीं छाप चुके हैं। है। आपने गिजुभाई बधेका और दिनकर जोशी की किताबों के जो अनुवाद किए हैं उनके बारे में पता है। हम जानते हैं कि आप महात्मा गांधी की आत्‍मकथा का बेहतर अनुवाद करेंगे।
बात तय होते होते मानदेय पर अटक गयी और एक बेहतरीन आत्मकथा के अनुवाद का मौका हाथ से निकल गया।
कुछ दिन बाद प्रेम जनमेजय जी मुंबई आए हुए थे। मुझे एक घटिया सी संस्था से कोई सम्मान मिलना था। सम्मान तो क्या ही होता, मस्ती और ड्राइव का मजा लेने के लिए जा रहे थे। जब हम वर्ली सी लिंक पार कर रहे थे तो मैंने उन्हें बताया कि राजकमल से इस तरह का प्रस्ताव आया है लेकिन मानदेय पर मामला अटक गया है।
पुल पार करते ही उन्होंने आदेश दिया कि अशोक जी को फोन करके अभी बताओ कि तुम यह अनुवाद कर रहे हो।
मैंने अशोक जी को फोन किया कि मैं यह अनुवाद कर रहा हूं। वे खुश हो गए।
तब मैंने प्रेम जी से पूछा - आपने मुझसे ये फोन क्यों करवाया।
वे बोले- तुम रिजर्व बैंक में इतने वरिष्ठ अधिकारी हो। अच्छी खासी तनख्वाह पाते हो। अपनी मर्जी से अनुवाद करते हो। अनुवाद के पैसों से तुम्हारा घर तो नहीं चलता ना। और न ही तुम किताब में अपने नाम के नीचे यह लिखवाओगे कि इस अनुवाद के लिए तुम्हें कितने पैसे मिले।
मैं कुछ भी नहीं कह सका। मैंने राजकमल प्रकाशन के लिए अनुवाद किया। यह अनुवाद बहुत पसंद किया गया। इतना ज्यादा कि दिल्ली के कई प्रकाशकों ने बिना मेरा नाम डाले राजकमल से छपे इस अनुवाद से हूबहू नकल करके अपने अपने प्रकाशनों से यह अनुवाद बिना या छद्म नाम से छापा और मुझे किसी भी तरह के मानदेय और नाम से वंचित किया।
किस-किस से लड़ता। ये बेनाम अनुवाद अमेजन पर भी बिक रहे हैं।
महात्मा गांधी की आत्‍मकथा बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक है। आजकल गांधी, नेहरू या उस दौर के दूसरे वरिष्ठ नेताओं को बिना पढ़े, बिना समझे उन पर बहस की जा रही है। उनके योगदान की अनदेखी करके छोटी-छोटी बातों को तूल देख कर उनके व्यक्तित्व और उनके कृतित्व को नकारा जा रहा है।
महात्मा गांधी की आत्मकथा इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए कि उन्हें आप समझें, जानें और उनसे प्रेरणा लें। एक दुबला पतला आदमी अपनी जिद से क्या क्या नहीं कर सका। आपको उन्हें जाने बिना कैसे पता चलेगा कि वे कितने जुनूनी और जिद्दी थे। वे कैसे काम करते थे, कैसे समाज सेवा करते थे, कैसे दलितों की सेवा करते थे और इस सारी जद्दोजहद में अपने परिवार की तरफ पूरा ध्यान भी नहीं दे पाए। उनका बड़ा बेटा हरिलाल आवारा निकल गया और जिंदगी भर बेतरतीब जिंदगी जीता रहा। गांधी जी चाह कर भी उसके उसके लिए कुछ भी नहीं कर पाये (दो दिन पहले की उजाले की परछाई वाली पोस्ट देखें।)
महात्मा गांधी और चार्ली चैप्लिन की आत्‍मकथाओं के अनुवाद के बाद मन है कि मैं पिछली सदी के तीसरे महानायक अल्बर्ट आइंस्टीन की आत्‍मकथा या जीवनी का अनुवाद करूं।
ये बड़ा लेकिन संतुष्टि देने वाला काम है। मुझे पता है राजकमल प्रकाशन मेरे इस अनुवाद को भी सहर्ष प्रकाशित करेंगे।

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