आज मुंबई के नवभारत टाइम्स में। एक देवतुल्य व्यक्तित्व से मुलाकात।
पढ़ने की सुविधा के लिए मूल लेख दे रहा हूं
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पिछले दिनों की देहरादून की यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धि रही चिपको आंदोलन के प्रणेता देवतुल्य पद्म विभूषण सुंदरलाल बहुगुणा जी से मिलना। बहुगुणा जी अपनी बेटी और दामाद के पास रहते हैं और प्रसिद्ध पर्यारणविद और प्रखर पत्रकार उनके पुत्र राजीव नयन बहु्गुणा जब देहरादून में होते हैं तो उनके आसपास ही बने रहते हैं।
जब मैं बहुगुणा जी से मिलने पहुंचा तो तीसरी मंजिल की छत पर लेटे हुए धूप सेंक रहे थे। निश्चित ही वे छत पर खुद ही आये होंगे। बेहद आकर्षक व्यक्तित्व, लंबी सफेद दाढ़ी और पतली लेकिन सीधी तनी काया। जब वे धीमे धीमे बात करते हैं और बीच बीच में बच्चों जैसी निश्छल हँसी हँसते हैं तो जी करता है बस, उनकी बातें सुनते रहें। उनके पास स्मृतियों का अद्भुत खजाना है।
वे बात शुरू करते हुए बताते हैं कि हमारे ऋषियों ने कहा है कि एक पेड़ दस पुत्रों के समान होता है। जीने के लिए सबसे जरूरी हैं आक्सीजन और पानी। पेड़ होंगे तो आक्सीजन भी मिलेगी और जमीन इस लायक भी होगी कि पानी के बहाव को रोक सके। आप बाकी चीजें तो जुटा सकते हैं लेकिन आक्सीजन कहां से लायेंगे। भारतीय संस्कृति का विकास जंगलों में ही हुआ है। वहां ऋषि मुनि रहते थे और जीवन यापन करते थे, वे अपने वातावरण के प्रति बहुत सतर्क थे जबकि हमारा सिस्टम ही वनों का दुश्मन है।
वे बताते हैं कि इंदिरा गांधी पर्यावरण के पति बहुत सतर्क थीं। उन्हीं के आदेशों के चलते पन्द्रह बरसों के लिए पेड़ों के कटान पर रोक लगी थी। उन्होंने राज्यों से कह रखा था कि एक पेड़ भी काटा गया तो ग्रांट बंद हो जाएगी। अभी भी एक हजार फुट से ऊपर के इलाकों पर पेड़ कटने बंद हैं। तभी राजीव नयन ने बताया कि गंगोत्री और बदरी नाथ वगैरह से ऋषिकेश तक सड़कें चौड़ी करने के लिए पचास हजार पेड़ों की बलि दी जा रही है और गलत तरीकों से की जा रही इस कटान से दस मजदूर मर चुके हैं। वे चिंता व्यक्त करते हैं कि पहाड़ों पर फोर लेन सड़कें बना कर कारें सरपट दौड़ाने की क्या जरूरत है।
सुंदरलाल बहुगुणा जी ने न केवल पेड़ बचाने के लिए आंदोलन और उपवास किये थे, वे टिहरी बांध बनने के लिए भी वे लंबे उपवास पर बैठे थे। वे मानते हैं कि वनों की उपज पर पहला हक वहां के निवासियों का होता है न कि सबसे ज्यादा कीमत देने वाले ठेकेदारों का।
वे आगे बताते हैं कि जंगलों का सबसे ज्यादा नुक्सान अंग्रेजों ने किया। वे पहाड़ों पर चीड़ के वन लगा गये। चीड़ कारोबारी रूप से कमाऊ दरख्त है लेकिन प्रकृति का संतुलन बिगाड़ता है। इसकी पत्तियां अम्लीय होती हैं और जमीन को भी अम्लीय बाती हैं। चीड़ की जड़ें पानी को रोकती नहीं और इन पेड़ों के नीचे कुछ उगता नहीं। अब अंग्रेज ठहरे व्यापारी। चीड़ के लट्ठे नदियों में बहा कर नीचे तक लाते और अच्छी कमाई करते। नतीजा ये हुआ कि पहाडों पर गरीबी बहुत हो गयी। पहले वहां मनुष्य और जमीन का अनुपात बहुत अच्छा था। लोग कम थे और जमीन ज्यादा थी। अब वहां गरीबी सबसे ज्यादा है।
नदियों के प्रदूषण पर बात चलने वे कहते हैं कि पहाड़ों पर नदी सर्पाकार चलती है, ऊपर से नीचे की ओर दोनों कूलों से टकराती हुई बहती है तो इस तरह से पहाड़ों से टकरा कर अपने आपको साफ करती चलती रहती है लेकिन नीचे उतरने के बाद उसमें हर तरह की गंदगी डाली जाती है। अब नदियों को गंदा होने से बचाने के बजाये सारा धन और श्रम नदियों की सफाई पर खर्च किया जा रहा है। ये तरीका गलत है।
वे पानी की कमी पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए बताते हैं कि जिस पानी के लिए मुगल बादशाह प्याऊ लगाते थे वही पानी अब बोतलों में बिक रहा है। साफ पानी अब सबसे बड़ी समस्या हो गयी है। ऐसा कब तक चलेगा।
अपने पुराने साथियों को याद करते हुए वे अपने साथी कवि घनश्याम सैलानी और कुंवर प्रसून के नाम लेते हैं। बताते हैं कि स्वास्थ्य के कारणों से वे अब देहरादून ही रहते हैं तो बाकी साथियों से मिलना नहीं हो पाता।
अपनी सबसे लंबी यात्रा के बारे में वे उत्साह से बताते हैं - मैं 1981 से 1983 तक 4867 किमी की कश्मीर से कोहिमा की यात्रा पर निकला था। मध्य हिमालय से होते हुए कश्मीर से उत्तराखंड, नेपाल, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, भूटान और अरुणांचल प्रदेश होते हुए कोहिमा तक पहुंचा था। इस यात्रा में तीन सौ दिन लगे थे और ये यात्रा बिना पैसे के की गयी थी। सब जगह बच्चे मेरा पिट्ठू बैग देख कर हिप्पी हिप्पी चिल्लाते। मैं स्थानीय निवासियों और बच्चों के साथ पेड़ों और पर्यावरण की बात करता। लोग मुझसे पूछते कि आप खायेंगे कहां और रहेंगे कहां। मैं सबसे कहता कि अपने घर से मेरे लिए एक रोटी ले आओ। इस चक्कर में पचासों रोटियां जमा हो जातीं। सारे गांव वाले हैरान हो जाते कि एक रोटी वाला कौन आया है भाई। वैसे यात्रा में और लोग जुड़ते जाते थे लेकिन चला मैं अकेला ही था। कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने एक फारेस्ट कंजरवेटर सरदार सोहन सिंह को मेरे साथ लगा दिया था कि इन्हें कश्मीर के बाहर तक छोड़ आओ।
बहुगुणा जी बताते हैं - तेरह बरस की उम्र में सावर्जनिक जीवन में आ गया था। नौकरी की नहीं कभी। बस एक कम बाद एक मिशन इस जान के साथ जुड़ते चले गये।
जब मैं उनकी उम्र पूछता हूं तो वे बाल सुलभ हँसी के साथ बताते हैं कि 91 पार कर चुका बौर शतक पूरा करूंगा।
मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए वे बताते हैं कि अब तो एक ही तरीका बचता है कि वृक्षों की खेती की जाए। ऐसे फलदार वृक्ष लगाए जाएं जिनकी न्यूट्रीशन वैल्यू बहुत ज्यादा होती है जैसे कि अखरोट। इनसे आक्सीजन भी मिलती है और पानी का बहाव भी रुकता है।
वे आखिर में एक गीत सुनाते हैं जिसकी शुरू की पंक्तियां इस तरह से हैं-
धन्यवाद ए प्रभु तेरा
हम करते बारम्बार
वृक्षों का कर सृजन निकट से
करता हमको प्यार
प्राण वायु इनसे मिल पायी
भोजन जल की है बहुतायी।
जब मैं बहुगुणा जी से मिलने पहुंचा तो तीसरी मंजिल की छत पर लेटे हुए धूप सेंक रहे थे। निश्चित ही वे छत पर खुद ही आये होंगे। बेहद आकर्षक व्यक्तित्व, लंबी सफेद दाढ़ी और पतली लेकिन सीधी तनी काया। जब वे धीमे धीमे बात करते हैं और बीच बीच में बच्चों जैसी निश्छल हँसी हँसते हैं तो जी करता है बस, उनकी बातें सुनते रहें। उनके पास स्मृतियों का अद्भुत खजाना है।
वे बात शुरू करते हुए बताते हैं कि हमारे ऋषियों ने कहा है कि एक पेड़ दस पुत्रों के समान होता है। जीने के लिए सबसे जरूरी हैं आक्सीजन और पानी। पेड़ होंगे तो आक्सीजन भी मिलेगी और जमीन इस लायक भी होगी कि पानी के बहाव को रोक सके। आप बाकी चीजें तो जुटा सकते हैं लेकिन आक्सीजन कहां से लायेंगे। भारतीय संस्कृति का विकास जंगलों में ही हुआ है। वहां ऋषि मुनि रहते थे और जीवन यापन करते थे, वे अपने वातावरण के प्रति बहुत सतर्क थे जबकि हमारा सिस्टम ही वनों का दुश्मन है।
वे बताते हैं कि इंदिरा गांधी पर्यावरण के पति बहुत सतर्क थीं। उन्हीं के आदेशों के चलते पन्द्रह बरसों के लिए पेड़ों के कटान पर रोक लगी थी। उन्होंने राज्यों से कह रखा था कि एक पेड़ भी काटा गया तो ग्रांट बंद हो जाएगी। अभी भी एक हजार फुट से ऊपर के इलाकों पर पेड़ कटने बंद हैं। तभी राजीव नयन ने बताया कि गंगोत्री और बदरी नाथ वगैरह से ऋषिकेश तक सड़कें चौड़ी करने के लिए पचास हजार पेड़ों की बलि दी जा रही है और गलत तरीकों से की जा रही इस कटान से दस मजदूर मर चुके हैं। वे चिंता व्यक्त करते हैं कि पहाड़ों पर फोर लेन सड़कें बना कर कारें सरपट दौड़ाने की क्या जरूरत है।
सुंदरलाल बहुगुणा जी ने न केवल पेड़ बचाने के लिए आंदोलन और उपवास किये थे, वे टिहरी बांध बनने के लिए भी वे लंबे उपवास पर बैठे थे। वे मानते हैं कि वनों की उपज पर पहला हक वहां के निवासियों का होता है न कि सबसे ज्यादा कीमत देने वाले ठेकेदारों का।
वे आगे बताते हैं कि जंगलों का सबसे ज्यादा नुक्सान अंग्रेजों ने किया। वे पहाड़ों पर चीड़ के वन लगा गये। चीड़ कारोबारी रूप से कमाऊ दरख्त है लेकिन प्रकृति का संतुलन बिगाड़ता है। इसकी पत्तियां अम्लीय होती हैं और जमीन को भी अम्लीय बाती हैं। चीड़ की जड़ें पानी को रोकती नहीं और इन पेड़ों के नीचे कुछ उगता नहीं। अब अंग्रेज ठहरे व्यापारी। चीड़ के लट्ठे नदियों में बहा कर नीचे तक लाते और अच्छी कमाई करते। नतीजा ये हुआ कि पहाडों पर गरीबी बहुत हो गयी। पहले वहां मनुष्य और जमीन का अनुपात बहुत अच्छा था। लोग कम थे और जमीन ज्यादा थी। अब वहां गरीबी सबसे ज्यादा है।
नदियों के प्रदूषण पर बात चलने वे कहते हैं कि पहाड़ों पर नदी सर्पाकार चलती है, ऊपर से नीचे की ओर दोनों कूलों से टकराती हुई बहती है तो इस तरह से पहाड़ों से टकरा कर अपने आपको साफ करती चलती रहती है लेकिन नीचे उतरने के बाद उसमें हर तरह की गंदगी डाली जाती है। अब नदियों को गंदा होने से बचाने के बजाये सारा धन और श्रम नदियों की सफाई पर खर्च किया जा रहा है। ये तरीका गलत है।
वे पानी की कमी पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए बताते हैं कि जिस पानी के लिए मुगल बादशाह प्याऊ लगाते थे वही पानी अब बोतलों में बिक रहा है। साफ पानी अब सबसे बड़ी समस्या हो गयी है। ऐसा कब तक चलेगा।
अपने पुराने साथियों को याद करते हुए वे अपने साथी कवि घनश्याम सैलानी और कुंवर प्रसून के नाम लेते हैं। बताते हैं कि स्वास्थ्य के कारणों से वे अब देहरादून ही रहते हैं तो बाकी साथियों से मिलना नहीं हो पाता।
अपनी सबसे लंबी यात्रा के बारे में वे उत्साह से बताते हैं - मैं 1981 से 1983 तक 4867 किमी की कश्मीर से कोहिमा की यात्रा पर निकला था। मध्य हिमालय से होते हुए कश्मीर से उत्तराखंड, नेपाल, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, भूटान और अरुणांचल प्रदेश होते हुए कोहिमा तक पहुंचा था। इस यात्रा में तीन सौ दिन लगे थे और ये यात्रा बिना पैसे के की गयी थी। सब जगह बच्चे मेरा पिट्ठू बैग देख कर हिप्पी हिप्पी चिल्लाते। मैं स्थानीय निवासियों और बच्चों के साथ पेड़ों और पर्यावरण की बात करता। लोग मुझसे पूछते कि आप खायेंगे कहां और रहेंगे कहां। मैं सबसे कहता कि अपने घर से मेरे लिए एक रोटी ले आओ। इस चक्कर में पचासों रोटियां जमा हो जातीं। सारे गांव वाले हैरान हो जाते कि एक रोटी वाला कौन आया है भाई। वैसे यात्रा में और लोग जुड़ते जाते थे लेकिन चला मैं अकेला ही था। कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने एक फारेस्ट कंजरवेटर सरदार सोहन सिंह को मेरे साथ लगा दिया था कि इन्हें कश्मीर के बाहर तक छोड़ आओ।
बहुगुणा जी बताते हैं - तेरह बरस की उम्र में सावर्जनिक जीवन में आ गया था। नौकरी की नहीं कभी। बस एक कम बाद एक मिशन इस जान के साथ जुड़ते चले गये।
जब मैं उनकी उम्र पूछता हूं तो वे बाल सुलभ हँसी के साथ बताते हैं कि 91 पार कर चुका बौर शतक पूरा करूंगा।
मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को बेहतर बनाने के लिए वे बताते हैं कि अब तो एक ही तरीका बचता है कि वृक्षों की खेती की जाए। ऐसे फलदार वृक्ष लगाए जाएं जिनकी न्यूट्रीशन वैल्यू बहुत ज्यादा होती है जैसे कि अखरोट। इनसे आक्सीजन भी मिलती है और पानी का बहाव भी रुकता है।
वे आखिर में एक गीत सुनाते हैं जिसकी शुरू की पंक्तियां इस तरह से हैं-
धन्यवाद ए प्रभु तेरा
हम करते बारम्बार
वृक्षों का कर सृजन निकट से
करता हमको प्यार
प्राण वायु इनसे मिल पायी
भोजन जल की है बहुतायी।
मैं अपने आपको खुशकिस्मत मानता हूं कि उनके विराट व्यक्तित्व के दर्शन करने और उनके सानिध्य में कुछ घंटे बिताने का मौका मिला। वे सौ बरस जीने की अपनी इच्छा पूरी करें।
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