रविवार, 6 दिसंबर 2015

फ़िराक गोरखपुरी – बहुत पहले से उन कदमों की आहट



उर्दू भाषा के श्रेष्‍ठ रचनाकार फ़िराक गोरखपुरी (मूल नाम रघुपति सहाय) (28 अगस्त 1896 - 3 मार्च 1982) गोरखपुर के रहने वाले थे। राम कृष्ण की कहानियों के शुरुआती अध्‍ययन के बाद उनकी शिक्षा अरबी, फारसी और अंग्रेजी में हुई। उनके पिता भी जाने माने शायर थे।
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वंदे मातरम के रचयिता - बंकिम चंद्र चट्टोपाध्‍याय


पुरातनपंथी बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्‍मे ऋषि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्‍याय (1838 – 1894) श्रेष्‍ठ कवि, लेखक और पत्रकार थे। उनके भाई संजीब चंद्र चट्टोपाध्‍याय भी उपन्‍यासकार थे। वे कलकत्‍ता विश्‍वविद्यालय के शुरुआती ग्रेजुएट्स में से एक थे। बाद में उन्‍होंने वकालत की डिग्री भी ली। वे मेधावी छात्र थे। पढ़ने लिखने में उनका मन लगता था। खाली समय में वे संस्‍कृत भी सीखते।
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कारपेंटरी से ज्ञानपीठ पुरस्‍कार तक का सफ़र –गुरदयाल सिंह


गुरदयाल सिंह (10 जनवरी, 1933 -)  आम आदमी की बात कहने वाले पंजाबी भाषा के विख्यात कथाकार हैं।
वे परिवार के पहले लड़के थे जो स्‍कूल जाने लगे थे। वे लिखते हैं कि स्‍कूल मेरे लिए ऐेसा जेलखाना था जिसके बारे में यही सोचता कि यहां से कभी रिहाई मिल जायेगी। बचपन से ही पारिवारिक बढ़ईगिरी के धंधे में लग जाना पड़ा। अभी वे 12-13 बरस के ही थे और कुछ सोचने-समझने लायक़ हो रहे थे, घरेलू हालात के चलते उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा, ताकि बढ़ई के धंधे में वह अपने पिता की मदद कर सकें।
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दिविक रमेश – शहतूत के पेड़़ पर बैठ कर लिखता था कविताएं



मुझे याद आ रहे हैं वे शुरुआत के दिन जब मुझे छिप छिप कर लिखना होता था और अपने लिखे को भी छिपा कर रखना होता था। स्पष्ट है तब मुझे एकांत में ही लिखना होता था। उस समय रात का समय सबसे अनुकूल प्रतीत होता था। बाद में दिन में नौकरी करने और रात में बी.ए.-एम.ए. करने की विवशता ने रात में लिखना मेरी आदत बना दी। मेरी कितनी ही रचनाएं, रात में, और वह भी अंधेरे में लिखी गई हैं। बहुत बार खुले आसमान के नीचे। शायद तारों का भी हाथ रहा होगा। आसपास जब सब सो रहे होते तो मैं कोरे कागज पर अंदाजे से मोटे-मोटे अक्षरों में लिख लेता। फिर दिन के एकांत में उसे अंतिम रूप दे लेता। एक और बात याद आयी। शुरू के दिनों की। घर के सामने एक शहतूत का पेड़ था। कितनी ही रचनाएं उसकी भी देन हैं। उस पर
चढ़ कर शाखाओं के बीच गद्दी बिछाकर बैठ जाता, स्कूली पढ़ाई के बहाने। और लिखी जाती कविताएं आदि। मेरे रचनात्मक साहित्य का वह अच्छा प्रेरणा स्थल रहा है। दिन में वहां बैठकर इत्मीनान से सोचा जा सकता था और लिखा भी।
विवाह हुआ। काफी बड़ा होने तक, मुझे शांत एकांत ही जरूरी लगता रहा। बहुत बार खिड़की से पेड़ों को देर तक ताकते रहने ने भी मुझे रचनात्मक बनाया है। जाने कब पेड़ो की टहनियों और पत्तों से रचना मस्तिष्क में और फिर कागज पर उतरने लगती। एक समयावधि में, खास कर कविता के लिए, बीड़ी जरूरी सी लगने लगी थी लेकिन वह जरूरत बहुत जल्दी छूट भी गई। महसूस किया कि काफी देर तक बीड़ियां पीने और माथे को देर तक दोनों हाथों से दबाए रखने के बावजूद कुछ नहीं लिखा गया। बाद में.लिखने का कोई खास समय नहीं रहा।
विशेष रूप से कविता-रचना के लिए जो मेरी विशेष विधा है। कोई भी पंक्ति कौंधती तो लिख लेता हूं-जितनी भी कौंधती हैं लिख लेता हूं। बाद में, थोड़े एकान्त में लिख लेता हूं। अब जरूरी नहीं अपनी स्टडी में ही बैठ कर लिखूं। स्थान गेस्ट हाऊस या होटल का कमरा हो सकता है, रेल का डिब्बा हो सकता है, किसी मित्र या परिजन का घर भी हो सकता है।
मेरे काव्य नाटक ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ की रचना का प्रारम्भ रेल के सफर में ही हुआ था। पर रचना पूरी घर पर आकर ही हो पाती है। अब घर में किसी अन्य की मौजूदगी अधिक दखल पैदा नहीं करती जैसे पहले पैदा करती थी लेकिन उस मौजूदगी बोलना व्यवधान का काम जरूर करता है और रचना बनने से चूक जाती है। कुल मिलाकर बात एकान्त में ही बनती है। पहले तो मैं अपनी स्टडी के दरवाजे भी बंद करके बैठता था। किसी का खटखटाना भी व्यवधान लगता था। यूं जब भी पहाड़ों या समुद्र के किनारों से लौटा हूं अधिक रचनामय हुआ हूं। मुझे तो हवाई जहाज से बादलों के समुन्द्र ने भी रचना के लिए प्रेरित किया है। शुरू शुरू में जब कहानियां लिखता था तो याद आ रहा है कि मुझे इतना समय और ऐसा स्थान चाहिए होता था जहां मैं एक ही बार में पूरी कहानी लिख लूं। लिखते समय मुझे चाय आदि के लिए पूछा जाना भी रास नहीं आता। एक और बात। बहुत बार न लिखने के अंतराल आए हैं और लगने लगा है कि बस अब नहीं लिखा जाएगा। लेकिन रचनात्मक पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते न जाने कब फिर रचना लौट आई है। पुस्तक के पन्ने एक तरफ रह गए हैं और मैं रचना की प्रक्रिया का अंग बन गया हूं। बड़ी विचित्र और हाथ में पूरी तरह न आने वाली चीज़ है यह रचना प्रक्रिया। इतना तो कह ही सकता हूं कि भले ही मेरी रचनाओं में सामाजिक सरोकार बुनियादी तौर पर रहते हों लेकिन प्रकृति और प्राकृतिक सम्पदा की निकटता ने मुझे रचना के लिए प्रेरित किया है।

मोबाइल – 099101 77099

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

जैक लंडन – कहां कहां से गुज़र गया

जितनी रोमांचक और दिल पर सीधे असर करने वाली जैक लंडन की कहानियां होती हैं, उससे कहीं ज्‍यादा रोमांचक और दिल दहला देने वाली जैक लंडन (जनवरी 12, 1876 – नवम्‍बर  22, 1916) की खुद की कहानी है। सैन फ्रांसिस्‍को में वे एक अनब्‍याही मां की कोख से जन्‍मे थे। बड़े होने के बाद एक बार जब उन्‍हें मां के कागजों से उसकी आत्‍महत्‍या की कोशिश और अपने संभावित पिता के बारे में कुछ जानकारी मिली तो जैक ने विलियम चैने नाम के एक वकील को कन्‍फर्म करने के लिए खत लिखा। चैने ने बड़े भोलेपन से जवाब दिया था – बेटे, मैं तो नामर्द हूं। तुम्‍हारा पिता कैसे हो सकता हूं। हांफलां आदमी तुम्‍हारी मां के यहां खूब आया करते थे, वे ही शायद तुम्‍हारे पिता हों। 

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जयश्री रॉय - मेरे लेखन का सफर



2010 में ब्रेस्ट कैंसर हुआ तो लगा, इतना कुछ अपने भीतर ले कर
चली गई तो मर कर भी मुक्ति नहीं मिलेगी। उन दिनों हाथ में मेडिकल
रिपोर्ट्स की फाइल ले कर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक अपनी
ज़िंदगी कि मीयाद पूछती फिर रही थी। केमो के दौरान अस्पताल के
बिस्तर पर 26 साल के अंतराल के बाद एक कहानी लिखी जो हंस में
छपी। इसके बाद लिखने-छपने का सिलसिला चल पड़ा। मेरे शब्द हाथ
पकडकर मुझे मृत्यु की काली सुरंग से खींच जिंदगी की ओर ले चला।
दूसरों के लिए लेखन क्या है मैं नहीं जानती, मेरे लिए यह जीने की एक
कोशिश है!
लिखने के लिए मुझे कोई सहूलियत नहीं मिलती। बस काम और
जिम्मेदारियों के बीच जहां थोड़ा समय मिल जाये। खाना बनाते, घर
सम्हालते... डायनिंग टेबल पर डायरी-पेन पड़े रहते हैं। कूकर की दो
सीटी के बीच, दाल में छौंक लगाते... दो बज गए बच्चे आ जाएँगे स्कूल
से, महरी नहीं आई, जूठे बर्तनों की ढेर पड़ी है... मेरी कहानियों से जली
दाल की महक आए तो अचरज नहीं!
रात को मैं बेहतर लिखती हूँ। अक्सर बारह बजे के बाद। सारी-सारी रात!
डॉक्टर की सख़्त मनाही के बावजूद। पहले हाथ से, अब कम्प्यूटर पर।
कहानियाँ प्रायः एक सीटिंग में। शायद ही कभी कोई एडिटिंग। बेहद
इंपल्सिव। धैर्य का भी अभाव। जब लिखने का मूड बन जाता है, किसी
काम में मन नहीं लगता जब तक कि लिख ना लूँ। अपना लिखा मैं
छपने से पहले किसी को दिखाती नहीं। सिरजने में ही सारा सुख।
छपना, ना छपना महत्वपूर्ण नहीं। टोटका आदि में यकीन नहीं। तीन
महीने पहले स्ट्रोक में जिस्म का बायाँ हिस्सा प्रभावित हुआ है। बाएँ
हाथ से लिखती/टाइप करती थी। स्ट्रोक के एक महीने के अंदर एक
कहानी लिख कर पूरा किया! जैसा कि पहले भी कहा, लिखना मेरे लिए
जीने की एक कोशिश है!
मुझे शब्दों से प्यार रहा है, किस हद तक कह कर समझाना मुश्किल!
मुझे लगता है, अब तक के जीवन में मैंने अपने हिस्से का आधा समय
सपने देखने और कल्पना लोक में विचरण करते हुये बिताया है। बचपन
में जाड़े के दिनों रज़ाई ओढ़ कर दिन चढ़े तक, गर्मियों में खुली छत पर
चाँद को तकते हुए... चाँद को तकते रहने की मेरी इस ‘अजीब-सी’
आदत की वजह से घर में कोई मुझे ‘मून गर्ल’ तो कोई ‘चकोरी’ कह
कर चिढ़ाया करता था। सेंसेटिव और संकोची स्वभाव की होने के कारण
कागज़ में खुद को व्यक्त करना ज़्यादा सहज प्रतीत होता था। तो छिप-
छिप कर लिखती थी और बिस्तर के नीचे रख देती थी। वर्षों यही
किया। एस एस सी के बाद गर्मियों की लंबी दोपहरें काटने के लिए पत्र-
पत्रिकाओं में पत्र आदि लिखने लगी और पुरस्कृत भी होने लगी। साथ
ही रेडियो सिलॉन में मेरे लिखे कई लंबे कार्यक्रम प्रसारित हुए। यह सब
बहुत उत्साहवर्धक था। धर्मयुग, अवकाश जैसी पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ
छपीं। संपादकों, पाठकों के गट्ठर बांध कर पत्र आते। मैं अचानक बैठे-
बिठाये लेखिका बन गई थी! वह एक अलग ही तरह का समय था! मगर
कॉलेज जॉइन करते ही लिखना छूट गया। पूरे 26 सालों के लिए!
जिम्मेदारियाँ मेरे हिस्से कुछ ज़्यादा ही आईं। ना जाने किस-किस का
जीवन मैंने जिया और मेरा जीवन कोई और। यदि जीवन में निरंतर
आने वाली दुश्वारियां कोई दुर्भाग्य या नियति ना हो कर महज संयोग
थीं तो यह संयोग कुछ ज़्यादा ही घटा मेरे साथ। जो किया, जितना
किया सबके लिए वह मेरा अपना कंसर्न था मगर इससे बंधी तो रह ही
गई। सालों मन का कुछ कर ना सकी। लेखन भी। इसके लिए जिस
मनःस्थिति की ज़रूरत होती है उसका नितांत अभाव रहा। मन में
संवेदनाएं उमड़ती-गुमड़तीं, एक क्रिएटिव एंज़ाइटी में रात-दिन परेशान
मगर कभी कुछ लिख ना सकी। ‘राइटर्स ब्लॉक’ जैसी स्थिति! कई बार
भीतर की बेचैनी से निजात पाने के लिए कागज-कलम ले कर घंटों बैठी
कागज पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती रही मगर एक शब्द लिख ना
सकी। सोचती थी जिस शब्द से मैंने इस शिद्दत से प्यार किया, जब
भी बुलाऊंगी, वह मुझ तक दौड़ा चला आयेगा। मगर मैं गलत थी, मेरे
शब्द मुझसे रूठ गए थे! निराशा का वह अजब दौर था। जैसे कोई अर्से
से प्रसव पीड़ा में हो मगर अपने बच्चे को जन्म ना दे सके। कई बार
बैठ कर रोती थी...
बीमार माँ-बाप, परिवार और बच्चों की देख-भाल के लिए लेक्चरार की
नौकरी छोड़नी पड़ी। बेटे के 15 साल के होने तक एक पत्रिका पलट कर
देख ना सकी। एम ए करने के बाद हिन्दी साहित्य से कोई संपर्क नहीं
रहा। 2010 में जीवन में पहली बार ‘हंस’ पत्रिका देखी जिस में ‘मुबारक
पहला कदम’ में मेरी पहली कहानी छपी थी।

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

कैफ़ी आज़मी - तुम इतना जो मुस्‍कुरा रहे हो



उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के रहने वाले कैफ़ी आज़मी (मूल नाम अख़्तर हुसैन रिज़्वी) (19 जनवरी, 1919 - 10 मई, 2002) उर्दू के बेहतरीन शायर थे। उनके तहसीलदार पिता उन्हें आधुनिक शिक्षा देना चाहते थे किंतु रिश्तेदारों के दबाव के कारण कैफ़ी को इस्लाम धर्म की शिक्षा पाने के लिए लखनऊ के 'सुलतान-उल-मदरिया' में भर्ती किया गया। लेकिन वहां वे टिके नहीं। वहां वे यूनियनबाजी में पड़ गये और लंबी हड़ताल करा दी। बाहर निकाले ही जाने थे।
वे लखनऊ और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों में पढ़े और उर्दू, अरबी और फ़ारसी भाषाओं का ज्ञान हासिल किया।
वे बहुत कम उम्र में ही वे शायरी करने लगे थे। 11 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली गज़ल लिखी।

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विष्‍णु प्रभाकर - हिंदी का आवारा मसीहा



हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक विष्णु प्रभाकर (विष्णु दयाल) (1912-2009) उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर के गांव मीरापुर में जन्‍मे थे। उनकी आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई। घर की माली हालत ठीक नहीं होने के चलते वे आगे की पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाए और गृहस्थी चलाने के लिए उन्हें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के तौर पर सरकारी नौकरी करनी पड़ी। उन्हें प्रतिमाह 18 रुपये मिलते थे, लेकिन मेधावी और लगनशील विष्णु ने पढाई जारी रखी और हिन्दी में प्रभाकर व हिन्दी भूषण की उपाधि के साथ ही संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बी.ए की डिग्री प्राप्त की।
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अन्‍ना भाऊ साठे – फकीरी से फकीरा तक का सफ़र



एक रोचक किस्‍सा है। जब नेहरू जी रूस गये तो उनसे पूछा गया कि आपके यहां गरीबों और वंचितों की कहानी कहने वाला कथाकार, कलाकार, गायक, वादक  और समाज सुधारक अन्‍ना भाऊ साठे है, कैसा है वह। नेहरू जी परेशान। कौन है अन्‍ना भाऊ साठे जिसे मैं नहीं जानता और रूस वाले पूछ रहे हैं।
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श्रीलाल शुक्ल – धारदार लेखक



हिन्दी के प्रमुख व्यंग्य लेखक श्रीलाल शुक्ल (31 दिसम्बर 1925 - 28 अक्टूबर 2011) अवधी, अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी जानते थे। वे 13-14 साल की उम्र में ही संस्कृत और हिंदी में कविता- कहानी लिखने लगे थे। संघर्ष करके वे पढ़े और प्रांतीय सिविल सेवा में अफ़सर बने और बाद में पदोन्नति पाकर आईएएस बने। अपनी सरकारी सेवा में मिले अनूठे और रोचक अनुभवों को उन्‍होंने अपनी रचनाओं के लिए कच्‍चे माल के रूप में उपयोग किया। 
उनके 10 उपन्यास, 4 कहानी संग्रह, 9 व्यंग्य संग्रह, 2 निबंध पुस्‍तकें, 1 आलोचना पुस्तक आदि हैं। 

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बुधवार, 4 नवंबर 2015

शहरयार – रेत को निचोड़कर पानी निकालने वाला शायर

आंवला, जिला बरेली में जन्‍मे कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ उर्फ शहरयार ( 6 जून 1936 - 13 फरवरी 2012) के वालिद पुलिस अफसर थे और अक्‍सर तबादलों पर रहते थे। शहरयार की शुरुआती पढ़ाई हरदोई में हुई। फिर वे अलीगढ़ चले आये। वहां अंग्रेजी मीडियम से पढ़े-लिखे शहरयार को उर्दू पढ़नी पढ़ी। स्कूली पढ़ाई पूरी करके यूनिवर्सिटी पहुँचे और फिर वहीं के हो रहे।
शहरयार कद-काठी से मज़बूत और सजीले थे। अच्छे खिलाड़ी और एथलीट भी थे। वालिद की इच्छा थी कि बेटे जी भी पुलिस अफसर बन जाएँ। इसके लिए उन्होंने भरपूर कोशिश की। लेकिन शहरयार के मन में कुछ और था। दरोगाई का फॉर्म ही जमा नहीं किया।
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सोमवार, 2 नवंबर 2015

रजनी गुप्‍त


लक्‍जरी से दूर दूर तक नाता नहीं रहा कभी
न,  मुझे लिखने के लिए खुद को मेज पर खींच लाने के लिए कभी तैयार करने की नौबत नही आयी
बल्कि अपने आसपास बिखरे जीवन की बहुतेरी कतरनों को जोड़ने सीने की उधेड़बुन में तमाम किरदार
निरंतर मेरे दिलोदिमाग में दौड़ते, खदकते, रचते, पकते व पन्‍नों पर उतरने के लिए अपनी बारी की
प्रतीक्षा करते रहते। अचानक से शब्‍द आते हैं कि धड़धड़ाते हुए सुपरफास्‍ट ट्रेन की तरह पन्‍ने दर
पन्‍ने रंगते चले जाते हैं, ऐसे में किसे सुधि होगी कि वो किसी विशेष रंग के पेन या स्‍याही की बाट
जोहे। पन्‍ने जरूर फुलस्‍कैप खुले हों ताकि पलटने में सहू‍लियत हो। रजिस्‍टर पर या नोटबुक
पर लिखना रास नही आता। न कभी शब्‍द गिनने की आदत रही, न ही मेरे लिए कुछ न कुछ रचते
रहने का या राइटर्स ब्‍लॉक से बचने के लिए कभी कुछ भी जुगत भिड़ानी पड़ी। जब जब जो जो नए
विषय मेरे भीतर पनपते गए, वे धीरे धीरे मेरी लेखनी का अंग बनते गए। इस समय मोबाइल,
फेसबुक और व्‍हाट्सअप की आभासी दुनिया में जीते जागते नवदंपतियेां की फास्‍ट लाइफ पर नया
उपन्‍यास लिखा जा रहा है ‘चिल यार‘।
मुझे अपनी इस दुनिया में दिन रात जीना पड़ता है। यह सच है कि एक बाहरी दुनिया लोगों को ऊपर
से नजर आती है पर रचनाकार हमेशा किसी ने किसी दुनिया में अनवरत विचरण करते रहने के लिए
अभिशप्‍त है। शायद ये बात किसी को अटपटी लग सकती है मगर सच्‍चाई यही है कि मेरा लेखन
एकांतवासी लेखन कभी नहीं रहा बल्कि घर व दफ्तर के झमेलों के बीच लिखना ही मेरी आदत है। मेरा
अनुभव है कि पहाड़ों पर जाकर या कुदरती खूबसूरती से भरी पूरी जगह पर मेरा लेखन हो ही नही
सकता, चाहकर भी। वहां जाकर प्रकृति के सानिध्‍य में खुद को बिसराकर एकाकार होना चाहती हूं। आंखें मूंदे सुध बुध बिसार बस रम जाना चाहती हूं अनूठे सौंदर्य से भरे अदभुत संसार में।
सच तो यह है कि लिखने के लिए खास जीवन शैली या खुद को तैयार करने के नायाब तरीके या खास आदतें या निश्‍चित तयशुदा समय या हैरान कर देने वाले पक्ष, मेरे साथ ये सब कभी नहीं। जब लिखने के लिए मन अकुलाने लगे या जबरदस्‍त लेखकीय दबाव मन को इतना मथ डाले, कोई घटना व्‍यथित कर डाले या बेचैनी इतनी बढ़ जाए तब न तो दिन रात का अंतर सूझता है, न ही सुसज्जित कुर्सी मेज की दरकार, न चाय कॉफी की तलब, न ही एकांत या पहाड़ों पर चले जाने जैसी लेखकीय लक्‍जरी नसीब हुई कभी। सच तो ये है कि मेरी कलम अपनी हठधर्मिता से मुझसे जबरन मनचाहा समय छीनकर लिखवाने में सक्षम है। घर हो या
बाहर, मुझे जब जहां जो भी गलत, एकतरफा, पक्षपाती, पूर्वाग्रही या अन्‍यायपूर्ण लगा, वहां मैंने जीवन से सीधे मुठभेड़ करने के लिए कलम को अपना हथियार बनाकर पूरी ताकत से प्रहार किया व पूरी आक्रामकता के साथ डटकर सिस्‍टम पर सवाल भी उठाए, फिर बात चाहे राजनीति की दुष्‍चक्र में फंसी ‘ये आम रास्‍ता नहीं‘ की नायिका की हो, चाहे ‘कितने कठघरे‘ जो जेल जीवन की बेगुनाह बंदिनियों पर एक सच्‍चा किस्‍स । कितने कटघरे की कथानायिका के जीवन में घटी सच्‍ची कहानी हो। सचमुच घर दफ्तर के शोर शरावे के बीच ही रचे गये हैं सभी उपन्‍यास।  
इन उपन्‍यासों को रचते बुनते व पन्‍नों पर उतारते समय मेरी दोनों बेटियां छोटी थीं, सो उनके साथ उनके ही स्‍टडी रूम को शेयर करते हुए मेरा अधिकांश लेखन हुआ है। यह एक अजीब सा तथ्‍य है कि कुछ पेरेंट्स बच्‍चों से पढ़ने के लिए कहते हैं पर मेरी बेटियां मुझे पढ़ते देख बड़ी हुई हैं। उनके ही कमरे में, उनकी ही मेज कुर्सी पर या बिस्‍तर पर रखी चौकी पर दिन रात बीता है मेरा। अब मेरे बच्‍चे बाहर पढ़ने चले गए, ऐसे में
मेरे सामने अब ये नयी चुनौती आन खड़ी है कि ऐसे नितांत एकांत क्षणों में पूर्ववत अपने सृजनयात्रा को
जारी रखने में सफल हो पाती हूं या नहीं।

रजनी गुप्‍त
मोबाइल 09452295943

सूर्यबाला - सात तालों के अंदर लेखन

उस इंटरव्यू लेने वाली लड़की ने एक छोटा सा प्रश्नभर किया था- कैसे लिखती हैं आप?
मेरा उत्तर उससे भी छोटा था- ‘एक अपराध की तरह...’
सचमुच मेरे अंदर हमेशा एक संग्राम सा छिड़ा रहता है। मां, पत्नी और तमाम सारी दुनियावी भूमिकाएं, बहुत प्यारी जिम्मेदारियां इस ‘लेखिका’ को डराती, धमकाती, सात तालों के अंदर ठेलती रहती हैं... और वह है कि चोरी छुपे यह लिखने का अपराध करने से बाज नहीं आती...। उसे खुद भी वह सात तालों के अंदर वाली कोठरी ही सुहाती है लेकिन यह लिखने वाले ‘अपराध’ के बिना भी तो उसे चैन नहीं आता... जितना-जितना वह एक सुबह से रात तक, एक आम गृहणी वाली घरेलू अस्तव्यस्तताओं के साथ लस्त-पस्त रहती है, उतनी-उतनी ये बेचैनियां उसे उद्विग्न, परेशान किये रहती हैं लेकिन अंततः जब वह ‘इलहामी’ क्षण आता है तो जैसे कलम चारों-धाम पर निकली होती है।
मेज? कैसी मेज? जब जानती भी नहीं थी कि कवि, कथाकार होना क्या होता है, तब बहुत छुटपन में एक नीम अंधेरी शाम, अकेली होने पर कुछ शब्द, पंक्तियां अनायास सूझती चली गई थीं। उन्हें लिखती भी क्या, बस मन-मन में दुहराती चली गई थीं। पूरी होने पर बकायदे सोलह पंक्तियों की एक तुकबंदी तैयार थी... बहनों ने सुनी, बचपनियां तारीफें की और बात आई गई हो गयी....
दूसरी शुरूआत ‘आज’ के बालसंसद स्तंभ से और क्रमशः साप्ताहिक साहित्य परिशष्टों में शिफ्ट होती चली गई। तब तक कविताओं के साथ कहानियां भी जुड़ गई थीं।
लेकिन सात-आठ वर्ष बीतते न बीतते कलम का डिब्बा बंद। ‘आज’ अतीत हो गया। पी.एच.डी. विवाह, बच्चे, गृहस्थी का अपरंपार सुख-जिम्मेदारियां....
लेकिन पति बच्चों के ऑफिस और स्कूल जाने के बाद बचा समय अब मेरा था। भाग-भाग कर काम निपटाती और फिर भर बाहों समेटकर बैठ जातीं इस समय को। भाग, कहां भागेगा अब मेरी पकड़ से। दिमाग की सारी ट्रैफिक कागज पर छितरने लगती।...
दोपहर हुई, बाहर बच्चों की जीप की आवाज आई। टाइम इज ओवर... फटाक-फटाक सारे लिखे अधलिखे कागज दराजों में बंद, ‘लेखिका की बच्ची’ भी... और कमर कस के तैयार....।
कोई समझेगा? मेरा संघर्ष बिल्कुल अलग अजूबे तरह का रहा है। बहुत भले मानुषों के बीच बीतने वाले, ‘बहुत अच्छे समय’ के बीच से, लिखने की मुहलत, समय, इजाजत निकलाने का संघर्ष....। मैं सबके साथ होना, हंसना बोलना चाहती हूं.... लेकिन-लेकिन मुझे इतना यह, और यह लिखना भी है। मैं इतने अच्छे लोगों का मन कैसे दुःखी करूं! (खुद अपना भी) लेकिन मेरा मन बेतरह कर रहा है कि एक चिड़िया की तरह उड़ जाऊं और यह बात लिखकर वापस हो आ जाऊं।
वैसे भी अभी तक किसी की जानकारी या जरा भी उपस्थिति में मैं बिलकुल नहीं लिख सकती। किसी को कानोंकान खबर न हो कि मैं इस समय.... किसी का फोन भी आये तो भी, बस यही कि सामने के फ्लैट में.... या बाथरूम.... या पूजा... (इतना ईमानदार और दयनीय झूठ तो पूजा वाले भगवान माफ कर ही देंगे।)
सबसे बड़ी समस्या तब आई थी जब राज (पति) रिटायर हुए थे। वे मस्त, मै लस्त। ... बुरी तरह अपराध बोध से ग्रस्त... इस आदमी के साथ तो मैं जीवन का लम्हा-लम्हा बितना चाहती हूं न! अभी तक यह इतना व्यस्त था कि उसके संग साथ को तरसती रही लेकिन अब?
तब एक दिन राज ने कहा था- ’मैं कहीं घर से बाहर चला जाया करूं? नहीं ऽऽऽ मैंने कानों पर हाथ रखकर चीख पड़ना चाहा, मुझे लिखने देने के लिए तुम बाहर जा रहे हो, यह सोचकर मेरा अपराध बोध मुझे जीने देगा क्या?
लिखने के लिए बस अपनी वाली टेबिल, ड्रॉर में भी ढेर सारी पेनों में कोई एक... लेकिन कहीं कलम बदली, जैसे किसी ने बुलाया, या कुछ और... तो दुबारा लिखना मुश्किल.... वही कलम, वही फ्लो चाहिए....
कागज? साफ शफ्फाक, फुलस्केप बिलकुल नहीं। उनसे मेरा आत्मविश्वास गायब और मेरी लेखिका के होश फाख्ता। ऐसे ही मुड़े तुड़े पुराने कागजों, टाइप किये पृष्ठों के पीछे ही मेरा पहला ड्राफ्ट हुआ करता है।...
सनकें? थोड़ी बहुत न हों तो समय मिलते ही लेखन पर टूटूं कैसे?.... बहुत सालों पहले मिट्टी जैसे भुरभुरे वंशलोचन की आदत थी। मुंह में डाला और लिखने बैठ गयी। इन दिनों सौंफ या सुपारी... एक चुटकी डाल लेने से रिमोट का काम करता है।
-सूर्यबाला
मो. 9930968670

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

मनीषा कुलश्रेष्‍ठ

आज हमारे साथ अपने लेखन की पेचीदगियां शेयर कर रही हैं कथाकार मनीषा कुलश्रेष्‍ठ

यायावरी का बायप्रोडक्ट
लिखने की मेरी तकलीफ़ बाहरी कोई नहीं हैं,  भीतरी हैं। आलस्य, हर बार नए सिरे से आत्मविश्वासहीनता। लिखने की बेचैनी बनी रहती है, पर लिखने बैठने का मन नहीं होता। हर रोज़ मैं जाग कर आईपैड ऑन करती हूँ, लिखना शुरू करने के लिए, शब्द स्क्रीन पर उतर आने को बेताब हैं मगर मेरी उंगलियों की जड़ता है कि टूटती ही नहीं। ऐसे में मैं एडिक्शन की हद तक ‘स्पाइडर सॉलिटियर’ खेलती हूँ। शब्द अड़ जाते हैं,  निकलते नहीं। हर बार लगता है, अब नहीं लिख सकूंगी, लेकिन हफ्तों में सही जड़ता टूटती तो है, शब्द निकलते हैं.....तब मेरे पात्र अपना अतीत, अपना दर्शन, अपना – अपना तुर्श व्यक्तित्व लिए चुपचाप आकर मेरी गुमी हुई नींद से खेलते हुए, मेरे सिरहाने खड़े रहते हैं। बग़ावत करते हुए। सिफारिशें - शिकायतें करते हैं।
कहानियाँ परेशान कम करती हैं लेकिन उपन्यास तो बहुत परेशान करते हैं। आजकल मैं एक स्किज़ोफ्रेनिक पात्र पर उपन्यास लिख रही हूँ, यकीन मानिए भ्रम होने लगा कि मैं भी अवास्तविक आवाजों, वहम और वहशतों के घेरे में हूँ। उपन्यास अपने फाइनल ड्राफ़्ट में था और समय कम। मैंने सब छोड़ा और दो दिन का ब्रेक लिया।
यायावरी बाय डिफ़ॉल्ट मेरे हिस्से में आई ही है। यायावरी का बायप्रोडक्ट है, बार - बार जड़ से उखड़ने का अवसाद, जो कि अब आदत में बदल गया है। ‘दाग़ अच्छे हैं’ की तर्ज पर कुछ लोग कहते हैं, यायावरी अच्छी है लेखन के लिए। अपना ही आलस और न लिख पाने की जड़ - अवस्था अवसाद जगाती है, एक भय भी। यह सोच कर कि ‘मन्नो, अब नहीं तो कब? यही वक्त है, जिसके गर्भ में असीम संभावनाएं हैं। मेज पर बैठते ही तो नींद आती है।
मेरा असली लेखन कभी भी मेज़ पर बैठ कर नहीं होता। मेज़ पर तो आखिरी दिनों में संयोजन के लिए बैठती हूँ। तरतीबी तो पूरे ही व्यक्तित्व में नहीं है, सो लेखन में भी बेतरतीबी रहती है। मसलन किसी सोची हुई कहानी के टुकड़े मेरे आई पैड में, डायरी में, कागज़ के टुकड़ों, पेपर नेपकिन्स और स्मृति में बिखरे रहते हैं। जिनको मैं अंतत: जिग सॉ पज़ल की तरह जोड़ती हूं और यही क़वायद सच में मेरे लिए मुश्किल साबित होती है। असली मेहनत जिग- सॉ पज़ल जो आपने लिख के पटक दी है, उसे जोड़ने में होती है।
सब के विपरीत मुझे हमेशा क्यों यह लगता है कि किसी भी रचनात्मक लेखन की पहली शर्त यही हो कि लेखक को उस विषय या प्लॉट का कोई अनुभव ना हो। बस कानों सुना हो या कल्पनाओं में जिया हो, या दिवास्वप्नों में उतरा हो। स्वानुभूत चीज़ लिखने में शब्द अकसर साथ नहीं देते और कलम व्यर्थ के विवरणों – वर्णनों में उलझ जाती है, और आप खुद को अपनी कहानी या उपन्यास के प्लॉट में से मिटाने या स्मज करने में कहानी को बिगाड़ देते हो। यही वजह है कि मैं ने अपनी स्मृतियों से कहीं ज़्यादा अपनी फंतासियों पर यक़ीन किया है क्योंकि फंतासियाँ मैं कहीं बारीक तफ़सीलों में जीती हूँ।
राइटर्स ब्लॉक अकसर संक्रमित करता है। दो - चार महीने उंगलियाँ जड़ रहती हैं, कलम उदास। हाल ही में  डेढ़ साल कुछ नहीं लिखा। लंबा वनवास रहा.. वैसे राइटर्स ब्लॉक में नकारात्मक कुछ नहीं है। यह अपने लिए खींची अगली चुनौती के लिए पर तौलना है, जिसे पार करने में कई बार लंबा समय लग जाता है।
हाँ लिखते हुए मैंने भी अपनी कुछ सनकें पाल रखी हैं। चाय - कॉफी मुझे अतिरिक्त उद्विग्नता देते हैं। संयमित जाग्रति के लिए मुझे कुछ चबाते हुए लिखना हमेशा प्रिय है, इससे दिमाग़ कमाल की उर्वरता में रहता है। भुनी सौंफ़ या मुरमुरे और नमकीन। मैं रात के सन्नाटों में ही लिख सकती हूँ क्योंकि बहुत महीन है मेरी एकाग्रता का कांच।
मेरा लिखना रात ग्यारह बजे से सुबह चार तक चलता है, नॉवल लिखते हुए मेरी बॉडी क्लॉक उलट जाती है। मुझे खाली काग़ज और काले रंग की स्याही वाला फाउंटेन पेन आज भी बहुत प्रिय है, लेकिन दाहिने अंगूठे का टैंडन और कुछ नर्व्ज़ कट जाने के बाद पेन से तो मैं आधा पन्ना भी नहीं लिख पाती, मैं आई पैड पर लिखती हूँ। मुझे रेल यात्राओं में लिखना बहुत प्रिय है। मैं एडिटिंग की कायल हूँ, सधाव और संक्षिप्तता की। लिखकर कैंची लेकर बैठना बहुत ज़रूरी लगता है।
 मनीषा कुलश्रेष्ठ
09911252907

असगर वजाहत

वरिष्‍ठ कथाकार, नाटककार, लघुकथा विशेषज्ञ, यायावर, फोटोग्राफर और यारबाश असगर वजाहत अपने लिखने की तकलीफों के बारे में कुछ रोचक बातें हमसे शेयर कर रहे हैं।

लिखने के बारे में अपने आप को तैयार करना? दो तीन बातें हैं। दरअसल लिखने के बारे में मुझे परिस्थितियां या विचार बहुत प्रेरित करते हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई विचार मन में तेजी से घुसता  है और फिर वह मुझे  चैन नहीं लेने देता जब तक कि आप अपनी बात को कागज पर न उतार लें। उतारने को एक कप चाय या जब पीता था तब सिगरेट मदद करती है। कुछ लोग शराब पीकर लिखते हैं लेकिन मुझसे यह नहीं होता। अपने आपको लेखन के लिए तैयार उस समय अधिक पाता हूं जब शारीरिक और और मानसिक रूप से कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती। शरीर का कोई हिस्सा दुःख रहा है, कहीं जाने की जल्दी है, कोई ज़रूरी काम करना है... ऐसे हालत में काम नहीं हो पाता। हाँ,  कभी-कभी अपने साथ ज्यादती भी करनी पड़ जाती है। लेकिन उसका नतीजा जल्दी सामने आ जाता है और यह पता चलता है कि लिखना कुछ और था लिख कुछ और गया। इसलिए लिखने का काम छोड़ कर अपने आप को बुरा भला कहने का काम शुरू हो जाता है।
अनुभव ने सिखाया है कि अपने ऊपर ज़ोर डालना बेकार है। जब जिस  बात को बाहर आना है वह बाहर निकलेगी उसका कोई दिन कोई तारीख, कोई समय नहीं है।  आफिस में बैठ कर भी कुछ कहानियां मैंने लिखी हैं।
एक बार ये हुआ कि सोचा किसी होटल में किराये का कमरा ले लिया जाए और वहां रह कर लिखा जाये। गए साहब। कमरा ले लिया। कमरे में आये तो बिलकुल अलग लगा। मैं कमरे में रखी हर चीज़ से अपना परिचय कराने लगा। इस काम में बहुत समय निकल गया। और कमरे से दोस्ती किये बिना मैं यहाँ बैठ कर लिख नहीं पाऊंगा। मन उकता गया...दो घंटे बाद कमरा छोड़ दिया। होटल वाले हैरान ..और मैं परेशान...।
मैं कुछ भी लिखने से पहले यह पसंद करता हूं कि अपने दोस्तों के साथ उसे शेयर कर सकूं। ऐसा करने से मेरे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार होता है। कभी-कभी तो बातचीत के दौरान  बंद  गाठें  खुल  जाती हैं जिनको अकेले में  नहीं सुलझा पाया था। जब मैं बात करता हूँ तो दूसरे आदमी या दोस्त की मौजूदगी एक तरह की चुनौती देती है।  इस चुनौती की वजह से दिमाग़ जल्दी जल्दी काम करना शुरू कर देता है। विशेष रूप से नाटक लिखने के लिए यह तैयारी बहुत काम आती है। नाटक के विषय को जितने लोग के साथ शेयर करता  हूं उतना ही अच्छा होता है। बहुत से सुझाव काम के भी हो सकते है और कुछ सुझाव बेकार भी हो सकते हैं।
टोटके तो ऐसा कुछ नहीं है जिन पर विश्वास करता हूं। हां यह जरूर है कि सफेद कागज पर काली रौशनाई से लिखना पसंद करता हूं।  सफेद को काला  करने का जुनून-सा उठता रहता है। सफेद काग़ज़ मुझे बेचैन कर देता है। यदि कागज पर लाइनें खींची हो तो मुझे  लिखने में असुविधा होती है। कलम  ठीक ढंग से नहीं चल रहा हो तो मैं उठाकर फेंक देता हूं। इसी वजह से  अच्छे कलम लिखने के लिए रखे हैं। अच्छे का मतलब महंगे नहीं बल्कि लगातार काम करने वाले। अगर लिखना बहुत जरूरी हो जाए तो कलम कागज की बंदिश भी टूट जाती है।
बुढ़ापे में भी मै बच्चों की तरह स्टेशनरी के लिए पागल रहता हूँ। बहुत साल पहले की बात है..न्यूयॉर्क में एक बहुत धनी महिला से दोस्ती हो गयी थी। उसने एक बार मुझसे पूछा था कि मै न्यूयॉर्क में क्या देखना या करना चाहता हूँ...मतलब उसके पास इतना धन था और मेरे ऊपर इतनी मेहरबान थी कि मैं कुछ भी कर या मांग सकता था... वह कितना ही पैसा खर्च कर सकती थी। मैंने उससे कहा था कि मुझे न्यूयॉर्क का सबसे बड़ा स्टेशनरी स्टोर दिखा दो। वह मुझे ले गयी थी। क्या स्टोर था। मैं तो पागल हो गया था..।
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा आधा लिखा कोई पढ़े। कोई कोशिश करता है तो मुझे बड़ी परेशानी होती है। मैं चाहता हूं कि मैं अपनी जो भी चीज, अपनी रचना किसी के सामने पढ़ने के लिए रखूं तब ही वह पढ़ी जाये, उससे पहले नहीं।
शांति हो अच्छा है...न हो तो न हो...। कंप्यूटर पर  लिखना दो मित्रों ने सिखाया है...मेरे गुरू हैं... एक तो मौलाना सूरज प्रकाश.... जिनकी दाढ़ी  के कारण आजकल के हालात में चिंतित रहता हूँ...। दूसरे मित्र हैं भरत तिवारी जो हिन्दी वेब पर बहुत एक्टिव हैं... इन दोनों की मेहरबानी से छुट-पुट खट-पट कर लेता हूँ ...पर लंबा काम हाथ से ही होता है।

असगर वजाहत
 मोबाइल 9818149015

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

मोपासां- आधुनिक कहानी के जनक


हेनरी रेने अल्‍बर्ट गय द मोपासां (1850 -1893) को आधुनिक कहानी का जनक माना जाता है।
अभी वे 11 बरस के ही थे कि उनकी मां उन्‍हें और उनके छोटे भाई को लेकर अपने पति से कानूनी रूप से अलग हो गयी थीं। वे बहुत समझदार और साहित्‍य प्रेमी महिला थीं। मोपासां के विकास में मां का बहुत बड़़ा हाथ है। मोपासां का बचपन मस्‍ती करते हुए और मछली मारते हुए बीता। 13 बरस की उम्र में वे हॉस्‍टल में रहने चले गये।
लेखकों की दुनिया अब ईबुक के रूप में notnul.com पर उपलब्‍ध। मूल्‍य सौ रूपये।संपर्क: support@notnul.com, neelabh.srivastav@notnul.com

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

जयनंदन - लोहा छीलने से कलम थामने तक का सफ़र

हम भारतीय अपने बारे में, खासकर अपनी तकलीफों के बारे में बताने के मामले में बेहद संकोची होते हैं। लेखक तो और भी ज्‍यादा। भारतीय लेखक लिखते समय किन तकलीफों से गुज़रता है और उनसे कैसे पार पाता है, हम बहुत कम जानते हैं। आज की कड़ी में हम रू बरू हो रहे हैं समकालीन कथाकार जयनंदन की लिखने से जुड़ी तकलीफ़ों से।

बचपन से ही मुझे अपने भीतर बहुत सारी शिकायतें दिखायी पड़ती थीं। अपने जीवन से, अपने समाज से, अपने परिवार से, व्यवस्था से, परंपरा से। हर पल ऐसा लगता था कि मुझे बहुत कुछ कहना है.....विरोध करना है.....धिक्कार पिलाना है। और इन सबके लिए मुझे लगा कि लेखन ही एक सुलभ और अचूक हथियार हो सकता है लेकिन हालात ने मुझे अनुभव के अनेक जमीनी धरातलों पर घसीटा। बहुत कम ही उम्र में मैंने खेती के तमाम श्रमसाध्य पचड़े झेल लिये, फिर कारखाने में 20 बरस तक मज़दूर के तौर पर तेल, ग्रीज़ और कालिख से लिथड़कर विभिन्न मशीनों पर लोहा छीला।
मैं साहित्य में उन जंगली पौधों की तरह उगा, जिसका न कोई माली होता है, न संरक्षक, न शुभचिंतक। खुली प्राकृतिक आंधी, पानी, धूप और दुनियाबी निष्ठुरताओं के घूरे से ही कुकुरमुत्ते की तरह मैंने गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध अपना सिर उठाया।
जब कारखाने में था तो वहां चप्पे-चप्पे पर संघर्ष और मुश्किलें बिछी थीं। वहां लिखने पर सख्त पाबंदी थी। मैं मज़दूर था, मुझे श्रम करने की अनुमति थी, कलम चलाने की नहीं। जिन अफसरों को पता चल गया कि मैं काम छोड़कर यदा-कदा लिखने में डूब जाता हूं, वे मुझ पर खास नज़र रखने लगे थे। लिखते हुए मैं कई बार पकड़ा गया और मुझे अनुशासनात्मक कार्रवाई से भी गुज़रना पड़ा। मेरे लेखन को मेरी सिंसियर ड्यूटी के खिलाफ मेरा एक नकारात्मक पक्ष समझ कर सुपरवाइजर मुझ पर ज्यादा नज़र रखता था और मुझे कोसकर हतोत्साहित करना अपना फर्ज़ समझता था।
मगर मेरी धुन इतनी पक्की थी कि इन प्रतिकूलताओं के बावजूद मैंने अपने कामगार जीवन में भी लगातार कहानियां लिखीं और प्रकाशित हुआ।
भावनाओं और विचारों का अजीब गणित है...जहां बंदिशें, रुकावटें और मुश्‍किलें होती हैं, वहां भावनाओं का ज्वार ज्यादा उठता है। तो उन दिनों खूब और तेज रेला उठता रहता था मेरे अंदर जिन्हें कागज़ पर उतारने के लिए एक-एक शब्द लिखने के लिए जैसे मुझे जूझना पड़ता था। लिखने की मेज़ तो मेरे नसीब में कभी रही ही नहीं। बारह मीटर लंबी बेड वे ग्राइंडिंग मशीन आगे-पीछे चल रही है। जॉब से स्पार्क निकल रहा है और कुलेंट निर्झर की तरह बह रहा है। मैं कागज-कलम लेकर स्विच पैनल पर बैठा हूं। आधा ध्यान लिखने पर है और आधा ध्यान इस बात पर कि कोई साहब आकर टोक न दे। ड्रिलिंग सेक्शन के बगल में रशियन स्लॉटिंग मशीन ऊपर-नीचे रेसिप्रोकेट कर रही है। किसी जॉब में कट लगा हुआ है। मैं बेड पर चढ़कर इंडेक्सिंग हेड पर बैठा हूं...कुछ सोचता हुआ....कुछ मनन करता हुआ। टूल रूम में मैं सिंलिड्रिकल ग्राइंडिंग मशीन में भिड़ा हूं। आठ घंटे का कोटा जल्दी-जल्दी पूरा करके आलमारियों के पीछे छिपकर बैठना है और जो भाव उमड़ रहा है, उसे लिखना है, जब्त नहीं हो रहा है। अगर शॉप के अंदर कहीं छिपने की जगह नहीं मिली तो शेड के बाहर पीछे की झाड़ी में बैठकर कहीं लिखना है। आज सोचकर ताज्जुब होता है कि कैसे कारखाने के कान फाड़ू शोर की स्थिति में भी मैंने लिखा।
इन दिनों मैं ऑफिस में स्थानांतरित होकर आ गया हूं। लोहे छीलने, काटने और तराशने वाले हाथ को अब कलम पकड़ने की ऑफिशियल मान्यता मिल गयी है। मतलब अब मुझे तनख्वाह कलम की बदौलत मिल रही है। आठ घंटे खड़े-खड़े पसीने से सराबोर होकर किसी रोबोट की तरह काम करने की घुटन का अंत हो गया है और अब वातानुकूलित हॉल में भव्य कुर्सी और मेज पर बैठने के दिन आ गये हैं। एमए पास करना और साहित्य में होना काम आ गया। इस तरह लेखन जो पहले अल्पकालीन जुनून था, अब पूर्णकालिक लक्ष्य बन गया और आजीविका का स्रोत भी।
लिखने का मेरा कोई मुकर्रर वक्त नहीं है और न ही मुझे कोई विशेष मूड और माहौल की ज़रूरत होती है। जब कोई मुद्दा या प्रसंग या वारदात नींदें उड़ा देती है तो उसके पूरा लिखे जाने तक गहरी नींद नहीं आती। अन्य लेखकों की तरह लिखने को लेकर अपनी न कोई खास आदतें हैं, न चोंचले हैं और न टोटके हैं। दरअसल अर्से तक मज़दूर रहा हुआ मैं खुद को साहित्य का साहब न समझकर साहित्य का मजदूर ही समझता हूं।
मोबाइल : 09431328758

मेरे पास लिखने की मेज़ ही नहीं थी - सुभाष पंत

हम भारतीय अपने बारे में, खासकर अपनी तकलीफों के बारे में बताने के मामले में बेहद संकोची होते हैं। लेखक तो और भी ज्‍यादा। भारतीय लेखक लिखते समय किन तकलीफों से गुज़रता है और उनसे कैसे पार पाता है, हम बहुत कम जानते हैं। आज की कड़ी से हम यही कोशिश करेंगे कि अपने वरिष्‍ठ और समकालीन लेखकों की लिखने से जुड़ी तकलीफ़ों से रू ब रू हों। शुरुआत कर रहे हैं वरिष्‍ठ कथाकार सुभाष पंत से।

मैं लिखने की मेज़ पर कैसे आया, जबकि मेरे पास लिखने के लिए कोई मेज़ ही नहीं थी। मैंने कभी लेखक नहीं होना चाहा था। लेखक मुझे विशिष्‍ट मानव प्रजाति के महान लोग लगते थे। मैं गरीबी रेखा से नीचे का लड़का था, हालांकि तब गरीबी रेखा खींची नहीं जाती थी।
1972 में मैं अहमदाबाद जा रहा था। किसी स्टेशन पर मैंने रेलगाड़ी की खिड़की से अपने बचे खाने का पैकेट बाहर फेंका, जो अब खाने योग्य नहीं रहा था। उस जूठन पर एक औरत और उसके दो बच्चे ऐसे झपटे मानो वे अशर्फी लूट रहे हों। सहसा मेरे भीतर पता नहीं क्या हुआ। कुछ ऐसी बेचैनी जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। मेरी फेंकी जूठन पर किसी को लपकते देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। बची यात्रा के दौरान मुझे ऐसा लगता रहा जैसे वे तीन जोड़ी आँखें निरन्तर मेरा पीछा कर रही हैं...। वे चालीस साल से अब तक मेरा पीछा कर रही है। शायद हमेशा करती रहेंगी...।
उन आँखों ने ही मुझे विवश करके लिखने की मेज़ पर बैठाया, जबकि मेरे पास लिखने की मेज़ थी ही नहीं। मैंने बिस्तर पर घुटने के बल बैठ कर पहली कहानी ’गाय का दूध’ लिखी। गाय का दूध कहानी धारा के विरुद्ध यथार्थवादी कहानी थी। कमलेश्‍वर जी ने इसे सारिका के विशेषांक फरवरी 73 में मेरे पोट्रेट के साथ प्रकाशित किया। कहानी देश की सभी भाषाओं में अनूदित हुई और उस अंक की सर्वश्रेष्‍ठ कहानी मानी गयी। मैं न चाहते हुए लेखको की पांत में शामिल हो गया।
तीन जोड़ी आँखों ने मुझे लिखना सिखाया और यह भी बताया कि मुझे क्या और किनके लिए लिखना है। मैं बिना किसी तैयारी के लेखन में आ गया। मेरे पास लेखक का मिजाज़, शख्सियत, नफ़ासत और लटके-झटके कभी नहीं रहे। मुझे लिखने के लिए भी कोई नाटक करने की ज़रूरत कभी नहीं करनी पड़ी। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि लिखने के लिए पहाड़ पर जाने की ज़रूरत पड़ती है।
2000 में कम्प्यूटर पर आने से पहले का मेरा तमाम लेखन घुटनों के बल बिस्तर पर बैठ कर ही हुआ। लिखने के लिए मुझे एकांत की ज़रूरत नहीं होती। मैं किसी भी माहौल में लिख लेता हूँ। शोर शराबे में भी। गपशप मारते हुए भी। टीवी देखते हुए भी। जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब फाउन्टेंट पैन से लिखता था। मेरी हस्तलिपि बहुत खूबसूरत थी। इसलिए मुझे ऐसे कागज़ की ज़रूरत होती थी, जिस पर स्याही न फैले और ऐसा पैन चाहिए होता था, जिसकी निब ठीक हो। फाउन्टेन के प्रति मुझमें इतना मोह था कि मैं उनकी चोरी भी कर सकता था। खराब निब के पैन से मैं कभी कुछ नहीं लिख पाया।
पांडुलिपि में कोई काट-छाँट भी मुझे कभी बर्दाश्‍त नहीं हुई। किसी पृष्‍ठ पर एक भी गलती हो जाती तो उसे काटकर सुधारने की जगह मैं पूरा पृष्‍ठ ही फिर से लिखना पसंद करता था। एक बैठक मे पाँच-सात लाइनों से ज्यादा मैंने कभी नहीं लिखा। चाहे लिखने का कितना ही भीतरी दबाव रहा हो। इतना लिखने के बाद मैं टहल लेता हूँ या गपशप मार लेता हूँ। कहानियों के ज्‍यादातर आइडिया शाम को टहलते समय आते हैं।
मैं किसी रचना को लिखने में बहुत वक्त देता हूँ, ताकि उसके साथ मेरा रिश्‍ता बहुत समय तक बना रहे। यह एक खास किस्म की रचनात्मक काहिली भी हो सकती है। लेकिन मुझे अपनी इस काहिली से प्यार है...।
मैं 1974 के आसपास हिंदी में एमए कर रहा था। भाषा विज्ञान का पेपर था। आता जाता कुछ था नहीं। समय बिताने के लिए मैंने उन तीन घंटों में वहां एक पूरी कहानी ही लिख मारी। घर आकर उसे फिर से लिखा। ये कहानी सारिका में छपी थी।
कथानक के चयन में मैं काफी सावधान रहता हूँ। कहानी में अगर उसकी कोई सामाजिक प्रासंगिता न हो, तो उसे मैं अपनी रचना में जगह नहीं देता। लेखन मेरे लिए सामाजिक दायित्व है। यह एक गैर लेखकीय मनोवृति हो सकती है, लेकिन मैं मजबूर हूँ।
किसी रचना के पात्र के नाम को लेकर मेरे भीतर कोई लेखकीय सनक ज़रूर है। पात्र का कोई ठीक नाम नहीं सूझता तो रचना शुरू नहीं होती। ’पहल’ के आग्रह पर मुझे कहानी लिखनी थी। मैंने मिसेज बरनाबास नाम की पात्रा से ’सिंगिंग बेल’ कहानी लिखनी आरम्भ की। नहीं लिख सका। कई बार कोशिश की। कहानी आगे नहीं बढ़ी। फिर अनायास मिसेज डिसूजा के नाम से इसे लिखना शुरू किया तो कहानी लिखी गई। इसी तरह जब रतिनाथ योगेश्‍वर देहरादून में थे तो उनके नाम ने मुझे बहुत अपील किया। रतीनाथ के नाम वाली कहानी लिखी गयी और कमलेश्‍वर जी ने छापी।
बस पात्र के नाम के चयन वाला ही मेरा लेखकीय टोटका है। वरना तो मैं एक खुली किताब हूँ....।
मोबाइल : 09897254818

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ - बोल कि लब आजाद हैं तेरे

सियालकोट (पंजाब) में जन्‍मे फ़ैज़ (13 फरवरी, 1911- 20 नवंबर 1984) अंग्रेज़ी और अरबी में पोस्‍ट ग्रेजुएट थे। फ़ैज़ ने दुनिया के बारे में बहुत कुछ ऐसी किताबों से जाना जो उनकी अलमारी में छुपा कर रखी जाती थीं। वे अरबी, फारसी, उर्दू तथा पंजाबी जानते थे। पंजाबी में लिखते भी थे। 1941 में उनकी पहली किताब नक्‍श ए फरियादी छपी थी। शायरी की उनकी आठ किताबें हैं।
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भीष्म साहनी – विभाजन की त्रासदी के लेखक


रावलपिंडी, पाकिस्तान में जन्मे भीष्म साहनी (8 अगस्‍त 1915 – 15 जुलाई 2003) प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखक थे। वे विभाजन से पूर्व रावलपिंडी में अवैतनिक शिक्षक होने के साथ-साथ व्यापार भी करते रहे। वे स्वाधीनता के आंदोलन से भी जुड़े रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्हें जेल जाना पड़ा था।
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शिव कुमार बटालवी - पंजाबी का लाडला शायर


गांव बड़ा पिंड लोहटिया, शकरगढ़ तहसील (अब पाकिस्तान) में जन्‍मे शिव कुमार 'बटालवी' (1936 -1973) पंजाबी भाषा के सबसे विख्यात और लोकप्रिय कवि रहे। उनका परिवार विभाजन में बटाला में आ बसा था। शिव के पिता तहसीलदार थे। दोनों की आपस में कभी नहीं बनी।
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शनिवार, 26 सितंबर 2015

इस बार लेखकों की कुछ चुहलबाजी

 
किस्‍सा एक
कविवर मैथिलीशरण गुप्‍त और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहीं बैठे थे। गुप्‍त जी चिरगांव के रहने वाले थे और द्विवेदी जी बलिया के। गुप्‍त जी को शरारत सूझी। द्विवेदी जी से पूछ बैठे - पंडित जी, आप कहां के रहने वाले हैं?
- बलिया के। द्विवेदी जी ने जवाब दिया।
दद्दा तुरंत बोले - लेकिन बलिया के लोग तो बलियाटिक होते हैं।
- लेकिन चिरगंवार नहीं होते। द्विवेदी जी ने भोलेपन से जवाब दिया।

किस्‍सा दो

किस्‍सा दिल्‍ली का है। एक दिन शाम को टी हाउस के पीछे सरदारजी के चाय वाले खोखे में सौमित्र मोहन, गौरी शंकर कपूर, जगदीश चंद्र, हरि प्रकाश त्यागी और सुरेश उनियाल का जमावड़ा बैठा था। तभी हांफते हुए मुद्रा राक्षस वहां आ पहुंचे। पहुंच कर राहत की सांस ली।
- थैंक गॉड, योगेश गुप्त अभी नहीं आया।
किसी ने पूछा - ऐसा क्या हो गया?
मुद्रा राक्षस बोले - योगेश अभी रेडियो पर कहानी पढ़ कर आया है। डेढ़ सौ रुपए का चैक उसके पास है और उसे दिखाकर तीन लोगों से 100-100 रुपए उधार ले चुका है। यहां तो किसी से नहीं लिए न।
बाद में पता चला कि योगेश तो गैंडामल हेमराज कैमिस्ट के यहां से चैक के बदले सवा सौ रुपए लेकर घर जा चुके थे।

किस्‍सा तीन

एक बार गंगा प्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन आदि मुफ्त की दारू की तलाश में घूम रहे थे लेकिन कहीं मिल नहीं रही थी। सोचा कि शायद भीष्म साहनी के पास मिल जाए। करोलबाग से पटेल नगर पहुंचे। घंटी बजाई। दरवाजा भीष्मजी ने ही खेला।
पूछा – भीष्म जी दारू है?
भीष्म जी बोले - हां है, आप अंदर जो आइए। तीनों अंदर आए।
भीष्म जी ने पूछा - क्या पीएंगे, चाय या ठंडा।
विमल बोले - दारू है तो वही ले आइए।
भीष्म जी बोले - है तो लेकिन यहां नहीं है।
- फिर कहां है?
- बंबई में। भाई के पास।
इसके बाद तीनों की जो खिसियानी हंसी छूटी तो भीष्म जी की समझ में नहीं आया कि वे किस बात पर हंस रहे हैं।

किस्‍सा चार

कमलेश्वर जी दूरदर्शन के नए नये एडीश्‍नल डायरेक्टर जनरल बने थे। मंडी हाउस के अपने दफ्तर में बैठते थे। एक बार हिमांशु जोशी और सुरेश उनियाल उनसे मिलने के लिए गए। काफी गपशप के बाद सुरेश उनियाल ने एक किस्सा सुनाया - एक किसान अपनी बैलगाड़ी में बैठकर दिल्ली आया। दो बैल गाड़ी को खींच रहे थे और एक पीछे बंधा साथ चल रहा था। इंडिया गेट के पास आए तो एक पुलिस वाले ने रोका।
पूछा - यह तीसरा बैल क्या कर रहा है?
किसान बोला - साहब, ये तो एडीश्‍नल है।
ठहाकों से कमरा गूंज उठा। सबसे ऊँचा ठहाका कमलेश्‍वर जी का था।

किस्‍सा पाँच
 
किस्‍सा मुंबई का है। कुछ शायर नियमित रूप से एक रेस्‍तरां में मिलते हैं। अड्डेबाजी करते हैं, सुनते सुनाते हैं। चाय कॉफी के कई दौर चलते हैं। वहां पर एक वरिष्‍ठ शायर भी अगर शहर में हों और फुर्सत में हों तो ज़रूर आते हैं। वे हमेशा सबसे आखिर में जाते हैं और इस चक्‍कर में अमूमन सबकी चाय कॉफी का बिल भी अदा करते हैं। उस समूह में शामिल हुए एक नये शायर ने उनसे पूछ ही लिया - जनाब, आप जब भी आते हैं, सबसे आखिर में जाते हैं और हर बार हम सबके बिल भी अदा करते हैं। कोई खास वजह?
उन जनाब ने बहुत भोलेपन से जवाब दिया – बेशक हम सब यहां यार दोस्‍त ही बैठते हैं, एक दूसरे की इज्‍ज़त करते हैं लेकिन तुमने देखा होगा कि इनमें से जो भी उठ कर जाता है, बाकी सब उसी की बुराई करने लग जाते हैं। उसके बाद जो जाता है, बुराई का केन्‍द्र वह बन जाता है। ये सिलसिला रोज़ाना इसी तरह से चलता है। बरखुरदार, मैं किसी को भी ये मौका नहीं देना चाहता कि मेरे जाने पर मेरी बुराई करे।
शायर चूंकि अभी हैं, इसलिए नाम लेना ठीक नहीं।

धूमिल


वाराणसी के पास खेवली गांव में मध्यवर्गीय परिवार जन्‍मे सुदामा पाण्डेय धूमिल (9 नवंबर 1936- 10 फरवरी 1975) समकालीन हिंदी कविता के महत्‍वपूर्ण कवि थे। 1960 के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसके प्रतिनिधि कवि हैं। वे परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता के विरोध में कविता रचते हैं।
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मंटो के टाइपराइटर


कृशन चंदर जब  दिल्‍ली रेडियो में थे, तभी पहले मंटो और फिर अश्‍क भी रेडियो में आ गये थे। तीनों में गाढ़ी छनती थी। चुहलबाजी और छेड़छाड़ उनकी ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्‍सा थे। रूठना मनाना चलता रहता था। कृशन चन्दर की एक किताब से एक बेहद रोचक प्रसंग जो मंटो के जर्बदस्‍त सेंस हॅाफ ह्यूमर का परिचय देता है।

- मंटो के पास टाइपराइटर था और मंटो अपने तमाम ड्रामे इसी तरह लिखता था कि काग़ज़ को टाइपराइटर पर चढ़ा कर बैठ जाता था और टाइप करना शुरू कर देता था। मंटो का ख्याल है कि टाइपराइटर से बढ़कर प्रेरणा देने वाली दूसरी कोई मशीन दुनिया में नहीं है। शब्द गढ़े-गढ़ाये, मोतियों की आब लिए हुए, साफ़-सुथरे मशीन से निकल जाते हैं। क़लम की तरह नहीं कि निब घिसी हुई है तो रोशनाई कम है या काग़ज़ इतना पतला है कि स्याही उसके आर-पार हो जाती है या खुरदरा है और स्याही फैल जाती है। एक लेखक के लिए टाइपराइटर उतना ही ज़रूरी है जितना पति के लिए पत्नी। और एक उपेन्द्र नाथ अश्क और किशन चन्दर हैं कि क़लम घिस-घिस किए जा रहे हैं।
"अरे मियाँ, कहीं अज़ीम अंदब की तखलीक़ (महान साहित्य का सृजन) आठ आने के होल्डर से भी हो सकता है। तुम गधे हो, निरे गधे।"
मैं तो ख़ैर चुप रहा, पर दो-तीन दिन के बाद हम लोग क्या देखते हैं कि अश्क साहब अपने बग़ल में उर्दू का टाइपराइटर दबाये चले आ रहे हैं और अपने मंटो की मेज़ के सामने अपना टाइपराइटर सजा दिया और खट-खट करने लगे।
"अरे, उर्दू के टाइपराइटर से क्या होता है? अँग्रेजी टाइपराइटर भी होना चाहिए। किशन, तुमने मेरा अँग्रेज़ी का टाइपराइटर देखा है? दिल्ली भर में ऐसा टाइपराइटर कहीं न होगा। एक दिन लाकर तुम्हें दिखाऊँगा।"
अश्‍क ने इस पर न केवल अँग्रेजी का, बल्कि हिन्दी का टाइपराइटर भी ख़रीद लिया। अब जब अश्‍क आता तो अक्‍सर चपरासी एक छोड़ तीन टाइपराइटर उठाये उसके पीछे दाखिल होता और अश्क मंटो के सामने से गुज़र जाता, क्योंकि मंटो के पास सिर्फ दो टाइपराइटर थे। आख़िर मंटो ने ग़ुस्से में आकर अपना अँग्रेजी टाइपराइटर बेच दिया और फिर उर्दू टाइपराइटर को भी वह नहीं रखना चाहता था, पर उससे काम में थोड़ी आसानी हो जाती थी, इसलिए उसे पहले पहल नहीं बेचा - पर तीन टाइपराइटर की मार वह कब तक खाता। आख़िर उसने उर्दू का टाइपराइटर भी बेच दिया।
कहने लगा, "लाख कहो, वह बात मशीन में नहीं आ सकती जो क़लम में है। काग़ज़, क़लम और दिमाग में जो रिश्ता है वह टाइपराइटर से क़ायम नहीं होता। एक तो कमबख़्त खटाख़ट शोर किए जाता है - मुसलसल, मुतवातिर- और क़लम किस रवानी से चलता है। मालूम होता है रोशनाई सीधी दिमाग़ से निकल कर काग़ज की सतह पर बह रही है। हाय, यह शेफ़र्स का क़लम किस क़दर ख़ूबसूरत है। इसका नुकीला स्ट्रीमलाइन हुस्न देखो, जैसे बान्द्रा की क्रिश्‍चियन छोकरी।"
और अश्क ने जल कर कहा, "तुम्हारा भी कोई दीन-ईमान है। कल तक टाइपराइटर की तारीफ़ करते थे। आज अपने पास टाइपराइटर है तो क़लम की तारीफ़ करने लगे। वाह। यह भी कोई बात है। हमारे एक हजार रुपये ख़र्च हो गये।"
मंटो ज़ोर से हँसने लगा।

मंटो


सहादत हसन मर जायेगा लेकिन मंटो जि़ंदा रहेगा - मंटो

समराला, पंजाब में जन्‍मे सआदत हसन मंटो (11 मई, 1912  - 18 जनवरी, 1955) उर्दू के सबसे बड़े कहानीकार माने जाते हैं। वे कश्‍मीरी थे।
मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। पतंगबाजी का शौक था। उर्दू में कमज़ोर होने के कारण मंटो एंट्रेंस में दो बार फेल हो गये थे। वे एक नामी बैरिस्टर के बेटे थे। अपने अब्‍बा से उनकी कभी नहीं बनी लेकिन मां को बहुत चाहते थे। मंटो ने कभी एक ड्रामेटिक क्लब खोल कर आग़ा हश्र का एक नाटक पेश करने का इरादा किया था लेकिन उनके गुस्‍सैल पिता ने सब सामान तोड़ ताड़ दिया।
बेशक मंटो ने अपने पिता के देहांत पर अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा - लाल कमरा।
22 साल की उम्र में वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िल हुए।
मंटो अपने वक़्त से आगे के रचनाकार थे। मंटो की पहली कहानी तमाशा जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर आयी थी। पहली किताब आतिशपारे 1936 में आयी। उन्‍होंने 17 महीने तक दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में भी काम किया और उन दिनों खूब लिखा। मंटो ने फ़िल्म और रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, संपादन और पत्रकारिता भी की। उन्‍होंने मिर्जा गालिब फिल्‍म की पटकथा लिखी थी जिसे 1954 में हिंदी फिल्‍म का पहला राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिला था। मंटो ने विदेशी कहानाकारों को खूब पढ़ा था। उन्‍होंने अनुवाद भी किये थे।
मंटो ने सफ़िया से शादी की थी। उनकी तीन बेटियां थीं।
वे लाहौर,दिल्‍ली और बंबई के चक्‍कर काटते रहे। आखिर में बंबई गये और वहां जनवरी, 1948 तक रहे। 1948 में वे पाकिस्तान चले गए। वे बंबई से नहीं जाना चाहते थे लेकिन उनकी कंपनी बॉम्बे टाकीज के मालिकों को अल्टीमेटम मिला - या तो अपने सब मुस्लिम कर्मचारियों को बर्खास्त कर दें या फिर अपनी सारी जायदाद को अपनी आँखों के सामने बर्बाद होते देखने के लिए तैयार हो जाएं। मंटो के लिए ये बहुत बड़ा सदमा था। पाकिस्‍तान वे बेहतरी के लिए गये थे लेकिन वहां मनचाही जिदंगी न पा सके। बाद में इशरत आपा को लिखे खतों में उन्‍होंने भारत वापिस आने की मंशा जाहिर की थी।
मंटो ने अपने 19 बरस के साहित्यिक जीवन से 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र,एक उपन्‍यास और 70 लेख लिखे। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। दो एक बार ऐसा भी दौर आया कि उन्‍होंने रोज़ एक कहानी लिखी। 1954 में उन्‍होंने 110 कहानियां लिखीं। घर चलाने और शराब की जरूरत उनसे ये सब कराती थी। वे न लेखन छोड़ सकते थे न शराब। कई बार नकद पैसों के लिए अख़बार के दफ्तर में बैठ कर कागज पैन मांग कर कहानियां लिखीं।
उनकी कहानियों - बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ पर लंबे मुक़दमे चले। दो भारत में और तीन पाकिस्‍तान में। वे कहते थे कि मेरी कहानियां अश्‍लील नहीं हैं, वह समाज ही अश्‍लील  है जहां से मैं कहानियां उठाता हूं। वे लेखक तो संवेदना पर चोट पहुंचने पर ही कलम उठाता है। बेशक इन मुकदमों में बरी किये जाते रहे लेकिन इन मुकदमों ने उन्‍हें आर्थिक, मानसिक और शारीरिक तौर पर बुरी तरह से तोड़ दिया था। यहां तक कि उन्‍हें दो बार पागलखाने में भी भर्ती होना पड़ा। ऊपर से देखने पर मंटो की कहानियां दंगों, साम्‍प्रदायिकता और वेश्याओं पर लिखी मामूली कहानियाँ लगती हैं लेकिन ये कहानियाँ पाठक को भीतर तक हिला देने की ताकत रखती हैं। वे ताजिंदगी खुद से, अपने हालात से और आसपास के नकली माहौल से जूझते रहे।
मंटो को ऐसे भी दिन  देखने पड़े जब शराब और दूसरी ज़रूरतों के लिए उन्‍हें दोस्‍तों से पैसे उधार मांगने पड़ते थे। इसके बावजूद उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी।
पाकिस्‍तान में पूरे अरसे फकीरी और बदहाली में रहने वाले मंटो को 2012 में मरणोपरांत निशान ए इम्‍तियाज से नवाजा गया।  2005 में वहां उनकी याद में डाक टिकट भी निकाला गया था।
फ्रॉड मंटो का प्रिय शब्‍द था जिसके अर्थ इस्‍तेमाल के साथ बदलते रहते थे।
मंटो ने अपनी कब्र के लिए ये इबादत तैयार की थी - यहां सआदत हसन मंटो लेटा हुआ और उसके साथ कहानी लेखन की कला और रहस्य भी दफन हो रहे हैं। टनों मिट्टी के नीचे दबा वह सोच रहा है कि क्या वह खुदा से बड़ा कहानी लेखक नहीं है। अफसोस उनकी कब्र पर लगाये गये पत्‍थर पर ये शब्‍द नहीं हैं।
मंटो की कई कहानियां नेट पर उपलब्‍ध हैं अौर कई कहानियों पर बनी फिल्‍में यूट्यूब पर देखी जा सकती है।

शरत चंद्र चट्टोपाध्‍याय

शरत चंद्र चट्टोपाध्‍याय (15 सितंबर 1876 – 16 जनवरी 1938) बीसवीं सदी के शुरु के बरसों के बेहतरीन बांग्‍ला उपन्‍यासकार और कथाकार थे।
शरत चंद्र बेशक बेहद गरीबी में पले लेकिन मनोवैज्ञानिक तौर पर वे बहुत अमीर थे। उन्‍हें और उनके परिवार को घर चलाने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था। वे अपने मामा के पास भागलपुर में रहने को मजबूर हुए। इस चक्‍कर में बार बार स्कूल बदलने पड़े। पढ़ाई छूटती रही। घर में इतनी गरीबी थी कि पिता को अपना घर 225 रुपये में बेचना पड़ा था।
उनकी रचनाएं ने केवल बांग्‍ला भाषा की बल्‍कि भारतीय साहित्‍य की अमूल्‍य निधि हैं। उनकी गिनती बीसवीं सदी के महानतम कथाकारों में होती है। उनकी रचनात्‍मक पृष्‍ठभूमि, उनकी रचनाओं की विषय वस्‍तु, कथा कहने का ढंग और चरित्र चित्रण सब अनूठे हैं। वे हमेशा कुछ नया, कुछ अलग और कुछ बेहतर रचने के लिए लालायित रहते। शरत चंद्र की रचनाओं की नकल नहीं की जा सकती। उनकी रचनाएं खुद बोलती हैं।
शरत चंद्र मानते हैं कि अपने पिता से उन्‍हें गरीबी के अलावा उनकी अधूरी और अप्रकाशित रचनाओं की संपदा और कुछ रचने का हद दर्जे का जुनून भी मिले जिससे उन्‍हें अपनी रचनाओं के लिए जमीन तैयार करने में बहुत मदद मिली।
शरत चंद्र की अपने पिता से नहीं बनती थी। वे घर छोड़ कर भटकते रहे और नागा भिक्षुओं के दल में शामिल हो गये। पिता के मरने के बाद कलकत्‍ता में 30 रुपये की मामूली नौकरी की करने पर मजबूर हुए। बाद में बेहतर नौकरी की तलाश में वे रंगून गये। वहीं पर अपने चाचा सुरेन्‍द्र नाथ के अनुरोध पर एक प्रतियोगिता के लिए अपनी एक कहानी भेजी। कहानी को पहला पुरस्‍कार मिला। बाद में यही कहानी उन चाचा के नाम से छपी।
शरत चंद्र  दूसरों के नाम से कई कहानियां लिखते रहे। ये एक गरीब लेखक के लेखन की बेहतरीन शुरुआत थी। इस बीच उन्‍हें कलकत्‍ता में नियमित नौकरी मिल गयी थी और लेखन की गाड़ी चल पड़ी थी।
विराज बहू से उन्‍हें अपार सफलता मिली। इस पर नाटक खेले गये। उपन्‍यासों के अन्‍य भाषाओं में अनुवाद हुए। रातों रात प्रसिद्धि मिली। ढाका विश्‍वविद्यालय ने डी लिट्ट की मानद उपाधि दी। वे मानते हैं कि लेखन में उन्‍हें संघर्ष नहीं करना पड़ा।
लेखन और चित्रकला के अलावा शरत चंद्र ने देश की आजा़दी के आंदोलन में भी हिस्‍सा लिया। वे हावड़ा जिला कांग्रेस के अध्‍यक्ष भी रहे। पहला विवाह शांतिदेवी से 1906 में हुआ। उनसे एक पुत्र हुआ।
दोनों ही 1908 में प्‍लेग से गुजर गये थे। बाद में 1910 में एक बाल विधवा से विवाह किया। उनकी कृतियों पर भारतीय भाषाओं में पचास से भी अधिक फिल्‍में बनी हैं। अकेले देवदास पर ही 16 फिल्‍में बनी हैं।
शरत चंद्र अनन्‍य लेखक थे और उन पर टैगोर की छाया कहीं दिखायी नहीं देती। हां वे बंकिंम चंद्र के लेखन के नजदीक माने जाते हैं। बेशक समाज का कुलीन तबका शरत चंद्र के लेखन को पसंद नहीं करता था। यहां तक कि पाथेरदाबी उपन्‍यास और उसके नाट्य रूपांतरण को 1927 से 1939 तक बैन करके रखा गया। उन्‍होंने हस्‍तलिखित पत्रिका शिशु भी निकाली थी और उनकी शुरुआती कहानियां उसमें छपी थीं।
शरत चंद्र बेहतरीन गायक, वादक और मंच कलाकार भी थे। अक्‍सर महिलाओं के किरदार निभाते। खिलाड़ी तो वे थे ही। उन्‍होंने होम्‍योपैथी की दवाएं बांटी, स्‍कूल खोला और कीर्तन पार्टी भी बनायी।
विख्‍यात हिंदी लेखक विष्‍णु प्रभाकर ने 14 बरस की कठिन यात्राएं करके शरत चंद्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखी थी।
शरत चंद्र के गांव में उनकी याद में हर बरस जनवरी में सात दिन का शरत मेला लगता है। मेला पूरी तरह से शरत चंद्र को समर्पित होता है। अब इसका स्‍वरूप हस्‍तशिल्‍प मेले का होने लगा है।

शनिवार, 19 सितंबर 2015

अहमद फ़राज़ – रंजिश ही सही



अहमद फ़राज़ (1931 - 2008) फैज अहमद फैज के बाद उर्दू के सबसे बड़े और क्रांतिकारी शायर माने जाते हैं। अहमद फ़राज़  फैज साहब को ही अपना रोल मॉडल मानते थे। फ़राज़ की शायरी आम और खास दोनों के लिए है। वे पाकिस्‍तान और भारत दोनों ही देशों के मकबूल शायर हैं। उन्‍होंने उर्दू और फारसी का अध्‍ययन किया था और पेशावर युनिवर्सिटी में पढ़ाया भी। वे कहते हैं कि मैं भीतरी दबाव होने पर ही लिख पाता हूं।
फैज की तरह ही उन्‍होंने अपना बेहतरीन लेखन देश निकाला के समय ही किया। जिआ उल हक के शासन काल में पाकिस्‍तानी हुकूमत के खिलाफ लिखने के कारण वे जेल भेजे गये। उन्‍हें दो बार देश छोड़ के चले जाने का फरमान मिला। वे 6 बरस तक ब्रिटेन, केनडा और यूरोप में भटकते रहे।
दूसरी बार देश छोड़ने का किस्‍सा यूं है कि एक बार वे मंच से अपनी एक नज्‍़म पढ़ कर नीचे आये। ये नज्‍़म उस समय की तानाशाही के खिलाफ जाती थी। नीचे आते ही एक पुलिस अधिकारी ने उनसे बेहद विनम्रता से कहा कि आप मेरे साथ चलिये। पुलिस स्‍टेशन पहुंचने पर उस पुलिस अधिकारी ने कहा – फ़राज़ साहब, मुझे अपने सीनियर आफिसर्स की तरफ से ये हुक्‍म हुआ है कि मैं आपको दो विकल्‍प दूं। या तो आपको जेल जाना होगा या फिर शाम की सबसे पहली फ्लाइट से आपको ये मुल्‍क छोड़ना होगा। आपकी टिकट और वीजा मेरे पास हैं। फ़राज़ साहब को इतना भी वक्‍त नहीं दिया गया कि वे विकल्‍पों के बारे में सोच सकें या घर जा कर अपना बोरिया बिस्‍तर ही ला सकें। उन्‍होंने अपने मुल्‍क को विदा कहने में ही खैरियत समझी। उस समय पाकिस्‍तान में सैनिक शासन चल रहा था।
सरकार बदलने पर वे लौटे। तब पहले वे पाकिस्‍तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के अध्‍यक्ष बनाये गये और फिर पाकिस्‍तान बुक काउंसिल के अध्‍यक्ष बनाये गये।
जब फ़राज़ साहब को पाकिस्‍तान बुक काउंसिल का चेयरमैन बनाया गया तो वे पूरे जोशो खरोश के साथ चाहते रहे कि पाकिस्‍तान और भारत को किताबों के जरिये ही नजदीक लाया जा सकता है। उनकी निगाह में साझी कल्‍चर, वैश्विक भाईचारा, आपसी समझ और प्‍यार बढ़ाने में किताबों से बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता।
जिस समय वे पाकिस्‍तान बुक काउंसिल के चेयरमैन थे तो उस वक्‍त उन्‍होंने भारत से दो जहाज भर कर यहां के नामी लेखकों की किताबें मंगवायी थीं। अगर उन्‍हें थोड़ा और समय मिला होता तो उन्‍होंने भारत और पाकिस्‍तान के बीच संबंध बेहतर बनाने के लिए और ठोस काम किया होता। दस बीस जहाज किताबें इधर उधर होतीं।
एक बार वे अपने साथ किताबों के कुछ बंडल भारत लाये थे। किताबें देखते ही कस्‍टम काउंटर पर खड़े अधिकारी की निगाहों में सवालिया निशान नज़र आये। तभी उस अधिकारी के पीछे खड़े उसके वरिष्‍ठ अधिकारी ने फ़राज़ साहब को पहचानते हुए कहा – अरे जानते नहीं क्‍या, ये हमारे देश में भी उतने ही लोकप्रिय शायर हैं  जितने कि अपने देश पाकिस्‍तान में हैं। और वह अधिकारी खुद उन्‍हें बाहर तक छोड़ने आया।
उनकी किताबें हिंदी में भी उपलब्‍ध हैं। www.gadyakosh.org पर उनकी शायरी की झलक देखी जा सकती है।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

गजानन माधव मुक्तिबोध – पार्टनर, तुम्‍हारी पॅालिटिक्‍स क्‍या है?



कवियों के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध (1917-1964) मिडिल की परीक्षा में फेल हो गए थे। पिता की पुलिस की नौकरी के मुक्तिबोध की पढाई में बाधा पड़ती रहती थी। बाद में इन्दौर के होल्कर कॉलेज से 1938 में बी.ए. करके उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए। इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा।
पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद 1939 में शांता जी से प्रेम विवाह किया।
उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बम्बई, बंगलौर, बनारस तथा जबलपुर आदि जगहों पर भिन्न-भिन्न नौकरियाँ कीं- मास्टरी से वायुसेना, पत्रकारिता से पार्टी तक का काम किया। सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं वसुधा तथा नया ख़ून में काम किया। कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी।
बनारस में  त्रिलोचन शास्त्री के साथ हंस के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे। वेतन साठ रुपये था।
1942 के आस-पास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके। 1947 में जबलपुर चले गये। वहाँ हितकारिणी हाई स्कूल में वह अध्यापक हो गये और फिर नागपुर जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर रहा। उनका अध्‍ययन बहुत व्‍यापक था। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी।
उज्जैन में मुक्तिबोध ने मध्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली। मुक्तिबोध नवोदित प्रतिभाओं का निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहते और उन्हें आगे लाते। मुक्तिबोध का मज़दूरों से जुड़ाव ज़मीनी था  और वे उनसे घुल मिल कर रहे। अक्सर कष्ट में पड़े साथियों और साहित्यिक बन्धुओं के लिए दौड़-धूप करते।
मुक्तिबोध गरीबों के मुहल्ले में रहते थे। कुली, मजदूर, रिक्शा चालक, क्लर्क, टाइमकीपर,दर्जी वगैरह उनके पड़ोसी थे। मुक्तिबोध ने संघर्षपूर्ण और अभावों वाला जीवन जिया और इस संघर्ष को अपनी विराट रचनात्मकता का आधार बनाया। वे अपने टुटहे फाउंटेन पैन से दूतावासों से आए हुए बुलेटिनों की दूसरी तरफ रचनाएं लिखते।
सन 1949 में नागपुर आने पर काफी अर्से तक मुक्तिबोध इलाहाबाद, बनारस और फिर जबलपुर के अपने अनुभवों के कारण बेहद आशंकाग्रस्त रहते थे। वे पर्सीक्यूशन मेनिया के शिकार हो गये थे और उन्हें हवा में तलवारें दिखाई देतीं। रात को सपने में मोटी-मोटी छिपकलियां उनके ऊपर गिरतीं, वे पसीने-पसीने हो जाते। नागपुर में काफी दिनों तक यह मेनिया बीच-बीच में उभर जाता।
1953 में लिखना शुरू किया। मुक्तिबोध तार सप्तक के पहले कवि थे। उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवन काल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल एक साहित्यिक की डायरी प्रकाशि‍त की थी। मुक्तिबोध को उम्र ज़रूर कम मिली, पर कविता, कहानी और आलोचना में उन्होंने युग बदल देने वाला काम किया। उनकी मृत्यु के कुछ ही दिन बाद उनकी महान कविता अंधेरे में कल्पना पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
मुक्तिबोध अपनी पांडुलिपियों का कई-कई बार संशोधन करते। एक कोने में फटे हुए पुराने ड्राफ्टों का ढेर बढ़ता जाता। उनके पास टिन का एक जंग खाया संदूक था जिसमें अंडर रिपेयर रचनाएं जमा होती रहतीं। मुक्तिबोध लेखन और जीवन दोनों के अधूरे ड्राफ्ट ही ढोते रहे। वे कड़क, मीठी, कम से कम दूध वाली, काली चाय पुराने, बदरंग कपों में पीते। अभाव इतने सहे कि पति पत्‍नी को महीने के चार-पांच दिन इसी चाय के सहारे गुजारने पड़ते। हमेशा कर्ज तले दबे रहते। कई बार तो लेनदारों से छुपते छुपाते भी गलियां पार करनी पड़तीं।
पार्टनर तुम्‍हारी पॅालिटिक्‍स क्‍या है?  उनका प्रिय जुमला था और अंधेरे में उनकी सर्वाधिक चर्चित कविता है।
वे आजीवन बेचैन रहे और यही बेचैनी और जद्दोजहद उनकी कविता में नज़र आती है। उनकी कविता का कैनवास बहुत बड़ा है।
उन्‍हें 1964 में पक्षाघात हो गया था। आठ महीने तक बीमारी से जूझने के बाद वे 11 सितम्‍बर को मूर्छा में ही चल बसे थे।

भारतेंदु हरिश्चन्द्र हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार

भारतेंदु हरिश्चन्द्र (9 सितम्बर 1850 - 6 जनवरी 1885) हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। वे आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं।
जिस समय भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने लिखना शुरू किया, देश ग़ुलाम था और ब्रिटिश आधिपत्य में लोग अंग्रेज़ी पढ़ना और समझना गौरव की बात समझते थे। ऐसे वातावरण में हरिश्चन्द्र ने  हिंदी के प्रति अलख जगायी। वे काशी नगरी के प्रसिद्ध 'सेठ अमीचंद' के वंश में जन्‍मे थे। इनके पिता 'बाबू गोपाल चन्द्र' भी एक कवि थे। वे 5 वर्ष के थे तो मां और जब दस वर्ष के थे तो पिता चल बसे। भारतेंदु जी मित्र मण्डली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे। आपस में खूब बातें होतीं। भारतेन्दु जी उदार थे इसलिए साहित्यकारों की हमेशा  मदद करते। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर ही विद्वतजनों ने इन्हें 'भारतेंदु की उपाधि प्रदान की।
वे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार थे।
भारतेंदु जी विविध भाषाओं में रचनाएं करते थे, किन्तु ब्रजभाषा पर इनका असाधारण अधिकार था। इनका साहित्य प्रेममय था, इसलिए प्रेम को लेकर ही इन्होंने अपने 'सप्त संग्रह' प्रकाशित किए हैं। प्रेम माधुरी इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। 'सुलोचना' इनका प्रमुख आख्यान है। 'बादशाह दर्पण' भारतेंदु जी का इतिहास की जानकारी देने वाला ग्रन्थ है।
हरिश्चन्द्र बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। वे बहुत कम उम्र में ही रचनाएँ करने लगे थे। हिन्दी गद्य साहित्य को इन्होंने विशेष समृद्धि प्रदान की है। इन्होंने दोहा, चौपाई, छन्द, बरवै, हरि गीतिका, कवित्त एवं सवैया आदि पर काम किया। इन्होंने न केवल कहानी और कविता के क्षेत्र में कार्य किया अपितु नाटक के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। एक रोचक बात है कि नाटक में पात्रों का चयन और भूमिका आदि के विषय में इन्होंने पूरा लेखन स्वयं खुद के जीवन के अनुभव से किया है।
भारतेंदु जी मात्र पैंतीस बरस जीये लेकिन उन्‍होंने  20 काव्‍य संग्रह, 10 नाटक और 7 सप्‍त संग्रह रचे।
भारतेंदु जी ने भक्ति रस से पगी रचनाएँ की हैं। ये रचनाएं घनानंद एवं रसखान की रचनाओं के स्‍तर की हैं। भारतेंदु जी अपने देश के प्रति बहुत निष्ठा रखते थे। वे सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन के हिमायती थे। उन्होंने संयोग की अपेक्षा वियोग पर विशेष बल दिया है। वे स्वतंत्रता प्रेमी एवं प्रगतिशील विचारक एवं लेखक थे। उन्होंने मां सरस्वती की साधना में अपना धन पानी की तरह बहाया और साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
उनके जीवन का अन्तिम दौर आर्थिक तंगी से गुजरा, क्योंकि धन का उन्होंने बहुत बड़ा भाग साहित्य समाज सेवा के लिए लगाया। ये भाषा की शुद्धता के पक्ष में थे। इनकी भाषा बड़ी परिष्कृत एवं प्रवाह से भरी है। भारतेंदु जी की रचनाओं में इनकी रचनात्मक प्रतिभा को भली प्रकार देखा जा सकता है।
उन्होंने समाज और साहित्य का प्रत्येक कोना झाँका है और सभी विषयों पर अपनी कलम चलायी है। उन्‍होंने अपने जीवन काल में लेखन के अलावा कोई दूसरा कार्य नहीं किया।
वाराणसी के ठठेरा बाजार की तंग गलियों में बने उनके तिमंजिला घर में उनकी वह पालकी आज भी रखी हुई है जिस पर बैठ कर वे घर से बाहर जाते थे। अपने वाराणसी प्रवास के दौरान मुझे उनका घर भीतर बाहर से देखने का अवसर मिला था।

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।

स्वदेश दीपक - आत्मा का दुख कभी बाँटा नहीं जा सकता।


बेहद लोकप्रिय नाटककार, उपन्यासकार और कहानी लेखक स्वदेश दीपक (१९४२ -) यारबाश आदमी हैं। वे हिंदी और अंग्रेजी में एमए हैं। वे आजीवन अम्बाला के कैंट एरिया में रहे। वे बेशक अंग्रेजी के प्राध्‍यापक थे लेकिन उनकी रचनाओं के अधिकांश पात्र जीवन से और  सेना से ही आये हैं।
  स्‍वदेश ने चौदह बरस की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। उनका जन्‍म दरअसल 1939 का है। विभाजन के बाद उनका परिवार राजपुरा में आ बसा था और स्‍वदेश वहीं से पढ़ने के लिए ट्रेन से अंबाला आते जाते थे। 
स्‍वदेश की रचनाओं में भरी हुई बंदूक और मौत बहुत ज्‍यादा आती है। दरअसल स्‍वदेश के पिता दंगों के दौरान लगातार सात दिनों तक अपने दोस्‍तों के साथ अपने घरों की छतों पर बंदूकें लिये लुटेरों का मुकाबला करते रहे थे और गांव वालों की रक्षा करते रहे थे। स्‍वदेश और उनकी बडी बहन ने तब भयंकर कत्‍लेआम देखे थे। 
भारत पहुंचने के बाद स्‍वदेश दीपक के पिता फेफड़ों में बारूद और धूआं भर जाने की वजह से टीबी से गुजरे थे। इन सारी बातों ने बालक स्‍वदेश के दिलो दिमाग पर मौत की भयावह कहानी लिख दी थी।
स्‍वदेश दीपक की शुरुआती कहानियां जलंधर के अखबारों में छपीं। पहली कहानी लाल 
फीते का टुकड़ा 1957 में मनोहर कहानियां में छपी। तब वे स्‍वदेश भारद्वाज थे। ज्ञानोदय में 1960 में छपी कहानी से वे पहचान में आये।
1990 की शुरुआत में स्‍वदेश दीपक में बाइपोलर डिस्‍आर्डर के लक्षण दिखायी दिये। दो एक बार आत्‍महत्या की कोशिश की और बेहद डरावना समय उन्‍होंने देखा। अपने हाथों की नसें काटीं और खुद को जलाने की भी कोशिश की। लंबे समय तक उनका इलाज चला और ठीक होने में बरसों लग गये। अज्ञातवास के इन सात बरसों में स्वदेश दीपक खुद से ही लड़ते रहे, सबसे पहले अपने आप से दोस्ती टूटी, फिर घरवालों से फिर कलम से, दोस्ती हुई। 
2001 के आसपास ठीक होने पर उन्‍होंने इस हौलनाक वक्‍त को लिखना शुरू किया। मौत के हाथों से निकल कर आने के ये दिल दहला देने वाले हादसे मैंने मांडू नहीं देखा के रूप में कथादेश में छपे थे। ये मर्मस्पर्शी संस्मरण दिल दहला देते हैं। तब वे स्वस्थ हुए तो अम्बाला शहर में 108 माल रोड के अपने पुश्तैनी मकान के बरामदे में अकेले बैठे सिगरेट के लंबे कश खींचते रहते और अंधियारे अतीत में उतरते हुए चुन चुन कर दिल दहला देने वाले प्रसंग उकेरते। यह स्वदेश दीपक ही थे, सुख और दुःख  में दुख को चुनने वाले। दुःख, जिसके लिए कोई मरहम पट्टी, कोई दवा- दारु कोई इलाज नहीं। जितना दुरुहपन, दुःख, त्रासदी उनकी कहानियों और उपन्यास  के पात्र सहते है लगभग वही दुरूहपन स्वदेश जी के अपने जीवन में भी पसरा हुआ था। स्‍वदेश दीपक के रचे अधिकांश चरित्र दर्दनाक मौत मरते हैं। मौत आखिर तक उनका पीछा करती है और वे मौत के आगे हार जाते हैं।
    हिंदी के दस श्रेष्‍ठ नाटकों में गिना जाने वाला और सर्वाधिक खेला जाना वाला उनका सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय, प्रासंगिक, सामाजिक और राजनीतिक नाटक कोर्ट मार्शल है। 4000 से अधिक मंचन हुए हैं इसके। कोर्ट मार्शल की विशेषता है कि वह दर्शक को मोहलत नहीं देता। रंजित कपूर, अरविंद गौड़, उषा गांगुली और अभिजित चौधरी ने कोर्ट मार्शल के यादगार मंचन किये हैं। उनकी रचनाओं में 8 कहानी संग्रह, 2 उपन्यास, 5 नाटक और एक संस्मरण की पुस्‍तक है। 
वे 2 जून 2006 की सुबह घर से सैर करने के लिए निकले थे तब से वे घर नहीं लौटे हैं। उन दिनों वे गहरे अवसाद में थे। बायपोलर डिर्स्‍आडर के मरीज तो वे थे ही। 
अरविंद गौड़ को अभी भी लगता है कि स्‍वदेश दीपक कहीं नहीं गये हैं और वे हर प्रस्‍तुति के बाद उन्‍हें दर्शकों के बीच खोजते हैं कि शायद वे आखरी पंक्‍ति में बैठे नाटक का आनंद ले रहे होंगे।
उनकी पत्‍नी गीता जी जब तक रहीं,उन्‍होंने कभी रात को घर का दरवाजा बंद नहीं किया, शायद स्‍वदेश लौट अायें।

सोमवार, 31 अगस्त 2015

लोकगीतों के फकीर बादशाह - देवेन्‍द्र सत्‍यार्थी



देवेन्‍द्र सत्‍यार्थी (मूल नाम देव इंद्र बत्‍ता) (1908-2003) को बचपन से ही लोकगीत जमा करने का शौक था लेकिन एक ऐसा हादसा हुआ कि लोक गीत जिस कॉपी में लिखे थे, वह जला दी गयी। लेकिन हिम्‍मत नहीं हारी और फिर जुट गये। एक बार घर से एक रुपया भी चुराया ताकि गड़रियों के लोक गीत सुन कर जमा कर सकें।
डीएवी कॉलेज लाहौर में एडमिशन करवाया लेकिन वहाँ मन नहीं लगा और 20 वर्ष की उमर में बिना टिकट घर छोड़ कर भाग गए। लोक गीत उन्‍हें पुकार रहे थे। वे अगले बीस बरस तक लोक यात्री बन कर चलते रहे। कहीं कुछ खाने को मिल गया तो खा लिया। बस हसरत यही होती थी कि कोई महत्‍वपूर्ण  गीत उनकी कॉपी में उतरने से रह न जाये।
विवाह हुआ। पत्नी साथ चल पड़ी। बेटी हुई। वह भी हमसफर बन गयी। सत्‍यार्थी जी ने सभी भारतीय भाषाओं के लगभग तीन लाख बीस हजार लोक गीत जमा किए थे और उनके बारे में लिखा था। पहली बेटी कविता का जन्म हुआ तो वे घर पर नहीं थे और जब उसकी अकाल मृत्यु हुई तो भी वे घर पर नहीं थे।
सत्‍यार्थी जी सब्जी लेने निकलते और चार महीने बाद लौट कर आते। कब आयेंगे, कहाँ होंगे किसी को पता नहीं होता था। खुद उन्‍हें भी नहीं। जहाँ मन किया, चल पड़ते। उनके पैरों को कोई रोक नहीं सकता था। कई बार भूखे रहना पड़ा। किसी ने किराए के पैसे दे दिए, खाना खिला दिया, मदद कर दी, काम चलता रहा।
लोकगीतों के लिए बाबा ने बहुत ठोकरें खायीं। पूरी जिंदगी फटेहाल घूमते रहे। उनकी जेब हमेशा खाली रहती थी। गरीबी ही हमेशा उसमें आसन जमाए रहती थी। किसी संस्थान के कोई नहीं स्कॉलरशिप नहीं, मदद नहीं। उनकी पत्नी शांति ने सिलाई मशीन चला कर बच्‍चों को पाल पोस कर बड़ा किया।
गांधीजी, नेहरू जी, टैगोर आदि सब सत्‍यार्थी जी के बेहद निकट थे। शांति निकेतन जैसे सत्‍यार्थी जी का दूसरा घर था और कविवर उन्‍हें अक्‍सर शाम की चाय पर बुलाया करते थे। गाँधी जी उन्‍हें बहुत मानते थे।
साहिर ने अपनी जिंदगी में एक ही संस्‍मरण लिखा और वह सत्‍यार्थी जी पर था। एक बार लोकगीत जमा करने साहिर के साथ लायलपुर जाने वाले थे। ट्रेन में पैर रखने की जगह नहीं थी लेकिन लोकगीतों के फकीर बादशाह ने मिलिटरी के डिब्बे में अलग अलग भाषाओं के गीत सुनाने की शर्त पर दोनों के लिए जगह बना ली थी।
टीकमगढ़ के राजा के कहने पर एक लोक गीत सुनाया। पूछा गया कि ये लोक गीत कैसे मिला तो सत्‍यार्थी जी ने बताया कि आपकी जेल में बंद एक महिला कैदी से सुना है। यह बात सुन कर उस महिला को छोड़ दिया गया था।
कोलकाता में वे अपनी पत्‍नी को एक अट्ठनी दे कर शांति निकेतन चले गए और कई दिन तक नहीं लौटे। बेचारी परेशानी में तब कलकत्‍ता में ही रह रहे अज्ञेय जी के पास गुहार लगाने पहुंची।
पाकिस्तान गए तो निकले थे पंद्रह दिन के लिए लेकिन 4 महीने तक नहीं लौटे तो पत्नी को मजबूरन नेहरू जी को पत्र लिखना पड़ा था कि मेरे पति की तलाश करायें। सत्‍यार्थी जी ने पाकिस्तान में गुलाम अब्‍बासी की किताब आनंदी खरीदी तो अब्‍बासी ने लिखा था - मुझे लगा, मेरी किताब की एक लाख प्रतियाँ बिक गयी हैं।
आठ बरस तक आजकल पत्रिका के संपादक भी रहे। सत्‍यार्थी जी ने रेडियो के लिए लगभग एक हजार लोग गीत चुन कर दिए थे लेकिन उन्होंने मानदेय इसलिए मना कर दिया कि ये तो जनता की पूंजी है, इनके कॉपीराइट मेरे नहीं, भारत माता के हैं।
सत्‍यार्थी जी ने लोक गीत, कहानी, कविता, निबंध, रेखाचित्र और संस्मरण, उपन्‍यास, कथा, यात्रा वृतांत और साक्षात्कार पर कुल 70 किताबें लिखीं। उन्‍हें पद्मश्री दी गयी थी। वे कहते थे - सोचने विचारने वाले वही हैं जो इंसानी रिश्तों के पुल बनाते हैं। ज्‍यादा चीखने चिल्लाने से बेहतर है आप अंधेरे में कोई दीया जलाएं।
सत्‍यार्थी जी 95 वर्ष की उमर में बीमारी की वजह से गुजरे। अंतिम दिनों में सिर पर लगी चोट की वजह से उनकी याददाश्‍त चली गयी थी।
प्रसिद्ध कथाकार प्रकाश मनु ने न केवल सत्‍यार्थी जी के पूरे साहित्य का संपादन संकलन किया है बल्कि एक तरह से उन्‍हें फिर से जीवित किया है।

भुवनेश्‍वर - एक बड़े लेखक का बीहड़ जीवन और अंत

किस्‍सा अट्ठावन - एक बड़े लेखक का बीहड़ जीवन और अंत - भुवनेश्वर (1910- )
पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव। बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाये। वे कद में नाटे और देखने में सांवले थे।
वरिष्ठ लेखक श्री दूधनाथ सिंह भुवनेश्वर को प्रेमचंद की खोज मानते हैं। प्रेमचंद कहते थे कि यदि भुवनेश्वर में कटुता और जैनेन्‍द्र में दुरूहता कम हो तो दोनों का भविष्‍य बहुत उज्ज्वल है। भुवनेश्वर की एक मात्र प्रकाशित किताब कारवां की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी थी। उनकी अब तक प्राप्त 12 कहानियों में से 9 और अब तक प्राप्त 17 नाटकों में से 9 प्रेमचंद के हंस में ही प्रकाशित हुए। उनकी कहानी भेड़िये की तुलना में तब की और बाद की भी कोई कहानी नहीं ठहरती। वे बहुत उर्वर, कल्पनाशील, प्रखर और सहज लेखक थे। उनकी पहली रचना सूरदास की पद शैली में लिखी गयी कविता है।
भुवनेश्वर के नाटकों में से किसी का भी मंचन उनके जीवन काल में नहीं हुआ। इतने बड़े नाटककार की कृतियों को मंच पर उतारने के बारे में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने कभी नहीं सोचा।
बाइबिल भुवनेश्वर की प्रिय किताब थी। वे गांधी जी को बहुत मानते थे।
भुवनेश्वर ने कई बार हाडा, वीपी, आरडी आदि छद्म नामों से भी लिखा। भुवनेश्वर को हिंदी एकांकी का जनक माना जाता है। भुवनेश्वर के कद का लेखक, चिंतक और सूझबूझ से भरा व्‍यक्‍ति हर युग में पैदा नहीं होता। भुवनेश्वर ने छिटपुट रेडियो की नौकरियां कीं लेकिन वहां उनका दम घुटता था। कई बार तो रेडियो से मिली किताब की समीक्षा करने के बजाये किताब बेच कर दारू पी लेते। हालांकि खुद फटेहाल होते हुए भी वे दूसरों की मदद कर दिया करते थे।
भुवनेश्वर बेहद सूझबूझ वाले और ब्रिलिएंट आदमी थे। वे अच्‍छी अंग्रेजी बोलना और लिखना पसंद करते थे। अंग्रेजी में लिखी गयी उनकी 10 कविताएं साहित्‍य की अमूल्य धरोहर हैं। शास्त्रीय संगीत में उनकी रुचि थे। जब मस्‍ती में होते तो कबीर, सूर, तुलसी मीरा के पद गाते। वे किसी से ज्‍यादा बात करना पसंद नहीं करते थे। वे उर्दू शायरों को पसंद करते थे।
भुवनेश्वर कई मित्रों के यहां महीनों निःसंकोच रह लिया करते थे और किसी से भी पैसे मांगने में शर्म नहीं करते थे। उनके कपड़े तक इस्‍तेमाल करते। वे कई बार कवि शमशेर बहादुर सिंह के घर रहे और शमशेर जी ने अपने बनिये से कह रखा था कि भुवनेश्वर को जो भी जरूरत हो, दे दिया करें और पैसे वे चुकायेंगे। मजे की बात ये कि खुद शमशेर जी का बनिये का उधार खाता उनके भाई चुकाया करते थे। वे शमशेर जी की जेब से रोजाना भाँग के लिए दूसरे तीसरे दिन गिन कर 6 पैसे निकाल लेते। यह वह वक्‍त था जब साहित्यकार आपस में मिल जुल कर रहते थे और कभी किसी को आर्थिक अभाव महसूस न होने देते।
भुवनेश्वर को छद्म गंभीरता और झूठी शालीनता पसंद नहीं थी। वे सबसे तू तड़ाक से बात करते। काशीनाथ सिंह जी बताते हैं कि नामवर जी का आग्रह रहता कि जब भी भुवनेश्‍वर उनके पास पैसे मांगने आयें, उन्‍हें पैसे देने के बजाये खाना खिलाया जाये। भुवनेश्‍वर यही नहीं कर पाते थे। काशीनाथ जी उनसे अपनी मुलाकातें याद करते हुए बताते हैं कि भुवनेश्‍वर बहुत समझदार और अपने वक्‍त से बहुत आगे के रचनाकार थे।
1948 से उनका मानसिक असंतुलन शुरू हुआ पर विक्षिप्त नहीं कहे जा सकते थे। नवंबर 1957 तक वे लखनऊ, बनारस, शाहजहांपुर और इलाहाबाद में फटेहाल घूमते देखे गये। वे तब बोरे के कपड़े पहनने लगे थे। मित्र उन्‍हें घर ले आते थे लेकिन वे जहां तक जा चुके थे, वापसी संभव नहीं थी।
उनकी मृत्‍यु की तारीख और शहर के बारे में मतभेद है। इलाहाबाद वाले बताते हैं कि वे शायद 1957 दिसंबर में इलाहाबाद स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म पर लावारिस हालत में मरे हुए पाये गये थे जबकि बनारस वाले मानते हैं कि वे वाराणसी के दशाश्‍वमेध घाट के पास गरीबों के लिए बनाये गये डेरे पर गुजरे थे।
कितनी अजीब बात है कि इतने बड़े लेखक की यही एक तस्‍वीर मिलती है। डाक्‍टर दूधनाथ सिंह ने भुवनेश्वर की रचनाएं एक ही जगह प्रस्तुत करने की दिशा में भुवनेश्वर समग्र तैयार करके बड़ा काम किया है। 

इस्मत आपा -लड़ने के अंदाज़ अलग थे



इस्मत चुग़ताई (15 अगस्त 1915 - 24 अक्टूबर 1991) उर्दू साहित्य की सर्वाधिक विवादास्पद और सर्वप्रमुख लेखिका थीं। वे बदायूं में जन्‍मी थीं। इस्मत का ज्यादातर वक्त जोधपुर में गुजरा। पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने चोरी--छुपे कहानियां लिखनी शुरू कीं।  उनकी पहली कहानी- गेन्दा, 1949 में उस दौर की उर्दू साहित्य की सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिका ‘साक़ी’ में छपी।
उन्होंने महिलाओं के सवालों को अपने तरीके से उठाया। उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम तबक़े की दबी-कुचली सकुचाई और कुम्हलाई लेकिन जवान होती लड़कियों की मनोदशा को उर्दू कहानियों व उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है। इस्मत का कैनवास काफी व्यापक था और उसमें अनुभव के विविध रंग उकेरे गए हैं।
उन्होंने पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मुद्दों को स्त्रियों के नजरिए से कहीं चुटीले और कहीं संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम उठाया। वे अपने अफसानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है। आपा की सोच अपने समय से आगे थी। उनके पात्र जिंदगी के बेहद करीब नजर आते हैं।
स्‍त्रियों के सवालों के साथ ही उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उनके अफसानों में करारा व्यंग्य मौजूद है। उन्होंने ठेठ मुहावरेदार गंगा जमुनी भाषा का इस्तेमाल किया।
उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उर्दू अदब में इस्मत के बाद सिर्फ मंटो ही ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने औरतों के मुद्दों पर बेबाकी से लिखा है।
टेढ़ी लकीरें उनका आत्‍म कथात्‍मक उपन्‍यास माना जाता है जिसमें उन्होंने अपने ही जीवन को मुख्य प्लाट बनाकर एक स्त्री के जीवन में आने वाली समस्याओं और स्त्री के नजरिए से समाज को पेश किया है। 'टेढ़ी लकीर' पर उन्हें 1974 में गालिब अवार्ड मिला था।
वे अपनी 'लिहाफ' कहानी के कारण खासी मशहूर हुई। 1941 में लिखी गई इस कहानी में उन्होंने महिलाओं के बीच समलैंगिकता के मुद्दे को उठाया था। उस दौर में किसी महिला के लिए यह कहानी लिखना एक दुस्साहस का काम था। इस्मत को इस दुस्साहस की कीमत अश्लीलता को लेकर लगाए गए इलजाम और मुक़दमे के रूप में चुकानी पड़ी। लिहाफ को हिंदुस्तानी साहित्य में लेस्बियन प्यार की पहली कहानी माना जाता है।
उन्होंने कई फिल्‍मों की पटकथा लिखी और जुगनू में अभिनय भी किया। उनकी पहली फिल्म "छेड़-छाड़" 1943 में आई थी। वे कुल 13 फिल्मों से जुड़ी रहीं। एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म ‘गर्म हवा’ (1973) इस्मत आपा की कहानी पर बनी थी।  उन्हें इस फिल्म के लिये सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड मिला।
इस्मत चुग़ताई के पति शाहिद लतीफ़ फिल्म लेखक और निर्देशक थे।
इस्मत कैमरा वर्क की बहुत अच्छी जानकार थीं। तबला भी बहुत अच्छा बजाती थीं। वे फिल्मों के लिए भी कॉस्ट्यूम तैयार करती थीं।
उन्होंने अपनी बेटियों को विभिन्न धर्मों का सम्‍मान करना सिखाया। बाइबिल से लेकर कुरान तक, हर मज़हब की किताबें उनके पास थीं।
इस्मत को उर्दू के भविष्य को लेकर चिंता रहती थी। वे कहती थीं कि वक़्त के साथ उर्दू दम तोड़ देगी अगर इसके साहित्य को देवनागरी में नहीं लिखा गया।
इस्मत के अनेक कथा संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें कलियां, छुई-मुई, एक बात और दो हाथ शामिल हैं। साथ ही उन्होंने टेढ़ी लकीर, जिद्दी, एक कतरा-ए-खून, दिल की दुनिया, मासूमा और बहरूपनगर शीर्षक से उपन्यास भी लिखे। उनकी आत्मकथा कागजी हैं पैरहन बेहद पठनीय किताब है।
इस्मत चुगताई हिन्दी पाठकों के लिए बेहद आत्मीय रही हैं।
अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने इस्मत चुगताई की कुछ कहानियों को थियेटर के माध्यम अमर करने का काम किया है।
एक मुल्ले ने अलीगढ के पहले गर्ल्स कॉलेज को वेश्यावृत्ति का अड्डा करार दिया था। चुगताई ने कहा कि मुस्लिम लड़कियां पिछड़ी हुई हैं, लेकिन ये मुल्ला उनसे भी पिछड़ा हुआ है। इतना ही नहीं वे मुल्ला के खिलाफ कोर्ट चली गईं। मुल्ला कानूनी लड़ाई हार गए।
जब उर्दू के प्रतिष्ठित शायर जांनिसार अख्तर का देहावसान हुआ तो एक महिला ने बढ़कर उनकी पत्नी  खदीजा की चूडिया तोडनी शुरू कर दीं। इस पर  इस्मत आपा ने डांट लगाई - जब मर्द रंडुआ होता है तो उसकी ऐनक और घडी क्यों नहीं तोड़ते?
उनकी वसीयत के अनुसार मुंबई के चन्दनबाड़ी में उन्हें अग्नि को समर्पित किया गया।

वहां से लौटना नहीं -होता - रमेश बक्षी (1936-1992}



   पढ़ते हुए रमेश बक्षी ने बहुत पापड़ बेले। सड़कों पर हाथ से छपे रूमाल बेचकर, सिनेमा के टिकट ब्लैक करके और पकड़े जाने पर पिटते हुए उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई की। कॉलेज में इंजीनियरिंग पढ़ना चाहते थे लेकिन गणित न आने के कारण बुरी तरह फेल हुए। वैसे वे बेहद अच्छे विद्यार्थी और होनहार लेखक रहे। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में वे एमए तक अव्वल आते रहे और कॉलेज में होते हुए ही उन्होंने मजदूर संघ के अखबार जागरण का साहित्य संपादन किया।
   रेडियो में काम किया। पहले भोपाल और गुना में कॉलेज की अध्यापकी की और बाद में कलकत्ता में ज्ञानोदय की संपादकी संभाली। अंतिम नौकरी उनकी नेशनल बुक ट्रस्‍ट की रही जो उन्होंने छोड़ दी थी।
   वे हमेशा प्रेम और फंतासी में जीते रहे। प्रेमिकाओं के झूठे-सच्चे किस्से तो वे जरूर सुनाते ही थे और उन पर कहानी भी लिखते थे लेकिन उनकी असली प्रेमिकाएं इतनी रहीं कि उनमें रमेश बक्षी के घर की चाबी के लिए रिले रेस होती थी।
    रमेश बक्षी शायद हिंदी के पहले बड़े लेखक रहे जो विवाहित होने के बावजूद आगे पीछे कई प्रेमिकाओं के साथ सह जीवन यानी लिविंग टूगेदर में रहते रहे। नेशनल बुक ट्रस्ट के दिनों में वे अपने से आधी उम्र की एक लड़की के साथ रह रहे थे।
    इससे पहले रमेश ने अपने विवाह की निमंत्रण पत्रिका खुद बनवायी और छपवाई थी और उनमें छपे कालिदास के श्लोक खुद ही ढूंढ कर निकाले थे। शादी भी पारंपरिक ठाठ-बाठ से ही की थी। ये शादी नहीं बच पायी थी। उनके पहले बेटे का नाम सीमांत था। उसी से थोड़ा बहुत नाता था।
      रमेश बक्षी में जबरदस्‍त प्रतिभा थी। सन्‌ साठ के आने तक भाषा और शिल्प के गजब के प्रयोग उन्होंने किए, ज्ञानोदय को अव्वल दर्जे की साहित्यिक पत्रिका बनाया। छोटी अव्यावसायिक पत्रिकाओं का आंदोलन चलाया, खूब लिखा। नाम कमाया और बदनाम हुए।
     रमेश बक्षी जीवन में जैसे थे, अपने लेखन में भी खुद को वही दिखाते थे। अपनी सोच में वे बहुत स्पष्ट थे। रमेश बक्षी ने कोलकाता के दिनों की पहली प्रेमिका के साथ अपने संबंधों को केंद्र बनाकर एक उपन्यास वसुधा लिखा था।
     कहानियों के साथ रमेश ने एक अनोखा प्रयोग किया था। उन्होंने अपनी कहानियों के पात्रों के लेकर नए सिरे से कहानियां लिखी हैं जिनमें उन्होंने उस पहली कहानी के बाद के उनके जीवन के बारे में लिखा। इन कहानियों का संग्रह 'किस्सा ऊपर किस्सा' नाम से प्रकाशित हुआ।
    रमेश बक्षी के उपन्यास 'अठारह सूरज के पौधे' पर एवार्ड विनिंग फिल्‍म  27 डाउन बनी थी।
    रमेश की कहानियों में एकाध अपवाद को छोड़कर भावनात्मकता कहीं नहीं मिलती।
    उन्‍होंने हर कहीं और हर वक्त शराब पीने, कई प्रेम करने, नौकरियाँ छोड़ने, कैरियर को बार बार तबाह करने, जीने के अपने मौलिक तरीके अपनाने और अपने को ध्वस्त करने के रिकार्ड बनाये।
     रमेश बक्षी के दिन की शुरुआत शराब से होती थी और रात तक चलती थी। दफ्तर में भी उनकी मेज पर एक ब्राउन गिलास पड़ा रहता था जिसमें शराब होती थी।
     रमेश एक घर की तलाश में भटकते रहे, वह घर चाहते थे लेकिन उन्हें घर को बनाए रखने की कला नहीं आती थी।
    वे बहुत बुरी मौत मरे। यह अंत स्वयं उनका चुना हुआ था। उनकी चिता को अग्‍नि उनके बचपन के मित्र प्रभाष जोशी ने दी थी। उनके अंतिम संस्‍कार के समय एक अप्रिय विवाद हो गया था।

माइकल मधुसूदन दत्‍त – गलत जगह पैदा हुआ था मैं



माइकल मधुसूदन दत्‍त (1824 – 1873) उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के बेहद लोकप्रिय बांग्‍ला नाटककार और कवि थे।
वे आधुनिक बांग्‍ला नाटक और साथ ही बांग्‍ला कविता में सॉनेट के जनक माने जाते हैं। मेघनाद बध काव्‍य उनका अवसादपूर्ण महाकाव्‍य है जिसकी टक्‍कर की शैली और कथ्‍य की दूसरी रचना बांग्‍ला में नहीं मिलती। रवीन्‍द्र नाथ ठाकुर से पहले वे ही बांग्‍ला साहित्‍य के आकाश में अकेले चमकते रहे। मधुसूदन दत्‍त ने सबसे पहले अंग्रेजी शैली में  बांग्‍ला नाटक लिखे जिसमें अंक और दृश्‍य होते थे। वे बहुत अच्‍छे विद्यार्थी रहे। वे बांग्‍ला के अलावा संस्‍कृत, तमिल, ग्रीक, लेटिन, फ्रेंच और अंग्रेजी जानते थे।
जब उनके पिता ने उनकी विद्रोही आदतों पर नकेल डालने के लिए उनका विवाह करना चाहा तो वे बिदक गये। उनके विद्रोह का एक कारण उनका धर्म परिवर्तन भी था। वे इसाई बन गये थे। जब गुस्‍से में पिता ने उन्‍हें घर ने निकाला तो दत्‍त ने कहा था - कभी आप मेरे ही कारण जाने और पहचाने जायेंगे। इसाई बनना उन्‍हें बहुत महंगा पड़ा। घर छूटा। कॉलेज छूटा। बिरादरी बाहर हुए।  पढ़ाई पूरी करने के लिए मद्रास गये। वहां छोटे मोटे धंधे किये। पत्रकारिता की।
मधुसूदन दत्‍त अंग्रेजी कवि होना और प्रसिद्ध होने के लिए इंगलैंड की यात्रा करना चाहते थे।  बाद में वे इसके लिए पछताये भी। उनकी शुरुआती रचनाएं अंग्रेजी में हैं जिनमें वे कुछ खास कर नहीं पाये। परदेस में जा कर ही उन्‍हें अहसास हुआ कि वे एक गुलाम देश की मामूली भाषा के बाशिंदे हैं। वहीं जा कर उन्‍हें अपनी औकात का  पता चला था।
वे बेहतरीन साहित्‍यकार थे लेकिन युवावस्‍था से ही नशे की लत ने उन्‍हें कहीं का न छोड़ा। नशे की लत ने उन्‍हें  आजीवन कई आर्थिक और मानसिक तकलीफें दीं। ऐसे में उनके सखा ईश्‍वर चंद्र विद्यासागर उनकी मदद के लिए हमेशा आगे  आते। एक बार किसी ने विद्यासागर से किसी ने कहा भी था कि आप क्‍यों इस नशेड़ी और फालतू आदमी की इतनी मदद करते हैं तो उन्‍होंने जवाब दिया था कि आप मेघनाद जैसी रचना करके दिखा दीजिये, आपकी भी मदद कर दूंगा।
इंगलैंड में वे सिर से पैर तक कर्ज में डूबे रहे। कई बार जेल जाने की नौबत आ जाती। वे विद्यासागर की मदद से ही देश वापिस आ सके थे। घर माता पिता और संगी साथी उन्‍हें पहले ही त्‍याग चुके थे। विद्यासागर दत्‍त को उनके इंगलैंड प्रवास के दौरान नियमित राशि इस शर्त पर भेजते थे कि वे बांग्‍ला साहित्‍य के लिए ही अपना पूरा मन लगायेंगे।
कई भाषाओं में धाराप्रवाह बोल सकते थे और एक ही वक्‍त में कई भाषाओं में डिक्टेशन दे सकते थे। अपनी मेधा और कुछ और जानने की ललक ने उन्‍हें ये विश्‍वास दिला दिया कि वे गलत जगह पैदा हो गये हैं। अपना बंगाली दकियानूसी समाज उन्‍हें पिछड़ा हुआ लगता जहां उन्‍हें अपनी बौद्धिक क्षमता के प्रदर्शन की संभावना नजर न आती ।
टैनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस उनकी पड़पोती के बेटे हैं।
दत्‍त ने दो विवाह किये। दोनों ही अंग्रेजी परिवारों में। पहली पत्‍नी थी रेबेका नाम की अंग्रेज यतीम। उससे चार बच्‍चे  हुए। दूसरी पत्‍नी हेनरिटा से दो बच्‍चे हुए। दत्‍त बेहद जटिल व्‍यक्‍ति थे। दत्‍त नशे से कभी बाहर नहीं आ पाये। नशा ही उनकी मृत्‍यु का कारण बना। अपनी पत्‍नी हेनरिटा की मृत्‍यु के तीन दिन बाद दत्‍त अड़तालिस बरस की उम्र में कलकत्‍ता के एक अस्‍पताल में गुजरे।
उनकी मृत्यु के पंद्रह बरस बाद तक उन्‍हें ढंग से श्रद्धाजंलि तक  नहीं दी गयी थी। एक मामूली सी समाधि इस महान साहित्‍यकार की याद दिलाती रही।
आज भी बंग समाज में कोई व्‍यक्‍ति असंभव काम करना चाहता है तो उससे कहा जाता है कि क्‍या माइकल मधुसूदन दत्‍त बनने का इरादा है।

प्रेमचंद -दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते

 
प्रेमचन्द (धनपतराय) (नवाब राय) (1880 - 1936) से पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की।
वे बेहद गरीबी में पले। पहनने के लिए कपड़े नहीं, भरपेट खाना नहीं, ऊपर से सौतेली माँ का क्रूर व्यवहार। प्रेमचंद खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। एक बार पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट और गणित की किताब बेचनी पड़ीं। बुकसेलर की दुकान पर ही एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने प्रेमचंद को अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरू में कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। प्रेमचंद का विवाह 15 बरस की उम्र में अपने से बड़ी और बदसूरत लड़की से करा दिया गया। बाद में शिवरानी नाम की बाल विधवा से विवाह किया। प्रेमचंद संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। वे स्वभाव से सरल और आदर्शवादी व्यक्ति थे।
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे-धीरे वे अनीश्वरवादी बन गए थे।
प्रेम चंद एमए करके वकील बनना चाहते थे लेकिन मजबूरी में पाँच रुपये महीना की पहली नौकरी वकील के बच्‍चों को पढ़ाने की करनी पड़ी थी। दो रुपये अपने लिये रखते और तीन रुपये सौतेली मां को भेजते। अक्‍सर उधार लेने की जरूरत पड़ जाती।
1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। प्रेम चंद ने मुंबई में मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी-लेखक की नौकरी भी की और 1934 में प्रदर्शित मजदूर नामक फिल्म की कथा लिखी।
कुल करीब तीन सौ तेरह कहानियां, लगभग एक दर्जन उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और बहुत अनुवाद कार्य किया। उनकी अधिकांश रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।
प्रेमचंद सब के हैं। किसी भी तरह की राजनैतिक राय रखने वाले प्रेमचंद का विरोध नहीं कर पाते। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा।
सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में शतरंज के खिलाड़ी और सद्गति बनायीं।
लेखन के अलावा प्रेमचंद को अपने जीवन का अधिकांश समय और ध्‍यान गरीबी से लड़ने, पेचिश से जूझने, हैडमास्‍टरियां बदलने और अपनी प्रेस लगाने में खपाना पड़ा।
 प्रेमचंद के मुंशी बनने की कहानी भी बहुत रोचक है। 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था। साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था - संपादक मुंशी, प्रेमचंद। कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए।
हम अक्‍सर पहली मुलाकात में किसी भी नये लेखक से, शोध विद्यार्थी से या अपने आपको साहित्‍य प्रेमी बताने वाले से जब यह पूछते हैं कि आज कल क्‍या पढ़ रहे हैं तो वह अगर कुछ नहीं पढ़ रहा होता है तो बिना एक पल भी गंवाये प्रेमचंद की गोदान या किसी न किसी किताब का नाम ले लेता है। और कुछ न पढ़ रखा हो, प्रेमचंद तो पढ़ ही रखा होता है।
मुंबई के मुजिब खान दुनिया के अकेले ऐसे नाटककार हैं जिन्‍होंने प्रेमचंद की 285 कहानियों का मंचन किया है। 31 जुलाई 2015 को प्रेमचंद की 135वीं जयंती पर वे 135 कहानियों का मंचन करेंगे।

फक्कड़, घुमक्‍कड़ और मस्‍त मौला लेखक – चंद्रकात खोत (1940-2014)


चंद्रकांत खोत को मराठी साहित्य जगत में एक बोल्ड लेखक के रूप में जाना जाता है। उभयान्‍वयी अव्यय, बिनधास्त, विषयांतर आदि मराठी बोल्ड उपन्यास लिखकर खोत ने साहित्य जगत में खलबली मचा दी थी। खोत लिखने से पहले बहुत रिसर्च करते थे और अपनी शैली को ले कर बहुत सतर्क रहते थे।
पुरुष वेश्‍या पर उनकी किताब उभयान्‍वयी अव्यय ने अच्‍छा खासा हंगामा मचाया था लेकिन खोत का कहना था कि वे इस विषय को मनोवैज्ञानिक तरीके से डील करना चाहते थे और इस विषय में जागरुकता लाना चाहते थे। 1995 के बाद वे 15 बरसों तक अज्ञातवास में थे और हिमालय में भटकते रहे। वहां भी यही देखा कि लूटने में पंडे भी किसी से कम नहीं। वापिस आ गये।
इस काल में उनका झुकाव अध्यात्म की ओर हुआ। खोत ने एक तरफ जहां मराठी साहित्य में बोल्ड उपन्यास लिखकर खलबली मचा दी  थी वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक क्षेत्र को लेकर भी काफी कुछ लिखा। स्वामी विवेकानंद, साईंबाबा का चरित्र और स्वामी समर्थ के जीवन पर आधारित 11 उपन्यास लिखे। अबकड़ई का 21 वर्ष तक संपादन किया। उनके उपन्‍यास बिंब प्रतिबिंब का हिंदी अनुवाद रमेश यादव ने किया था जो भारतीय ज्ञानपीठ से छपा। मूल मराठी कृति को भारतीय भाषा परिषद ने पुरस्‍कृत किया था और यह पुरस्‍कार उन्‍हें तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉक्‍टर शंकर दयाल शर्मा के हाथों दिया गया था। खोत ने फिल्‍मों के गीत भी लिखे।
खोत देखने में बहुत सुंदर थे। मराठी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री पद्मा चव्हाण उन्‍हें चाहती रहीं। वे बेशक लिविंग टूगेदर में नहीं थे लेकिन पद्मा के लिए उन्‍होंने अपनी पूरी जवानी कुर्बान कर दी। बाद में संबंध बिगड़ने पर चंद्रकांत खोत ने उन पर मुकदमा कर दिया। इस बात को लेकर वे बरसों तक केस लड़ते रहे कि इस औरत ने मेरा ब्रह्मचर्य छीना है। वे मुकदमा जीत गये थे और पद्मा पर दो चार हजार का जुर्माना लगाया गया था। खोत झल्‍लाये थे - मेरा लाखों का सावन गया और ....। वे उस मुकदमे को ले कर हाई कोर्ट भी गये थे।
वे लंबे अरसे तक  सात रस्‍ता के पास एक चॉल में रहे। जब वहां भी रहना संभव न रहा तो उन्होंने अपने जीवन के आखिरी कुछ साल मुंबई के चिंचपोकली के एक साई मंदिर में बिताये।
उन्‍हें कलाकार कोटे की 1450 रुपये की मामूली पेंशन मिलती थी जिसमें उन्‍होंने कई बरस बिताये। इसे पाने के लिए भी उन्‍हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। हमेशा बढ़ी हुई दाढ़ी में रहने वाले चंद्रकांत को लोग साधु समझते थे।
कलाकार/साहित्‍यकार कोटा के अंतर्गत उन्‍हें मकान दिये जाने वाली फाइल आखिर तक क्‍लीयर नहीं की गयी। दरअसल महाराष्‍ट्र सरकार कलाकारों को तो मकान देती है लेकिन साहित्यकारों के स्‍थान पर कवि कव्‍वाल शब्‍द लिखा हुआ है। कव्‍वाल को तो घर मिल भी जाये, साहित्‍यकार को नहीं मिलता।
वे मराठी साहित्‍य में लघु पत्रिका आंदोलन के सूत्रधार थे।
अपने पिचहत्‍तरवें जन्‍म दिन पर उन्‍होंने मित्रों से आग्रह किया कि वे सिर्फ किताबें ही उपहार के रूप में लायें। उस दिन उन्‍होंने उपहार में मिली और अपने वज़न के बराबर लगभग 40000 रुपये की किताबें एक पुस्‍तकालय को भेंट कीं।