बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

जयनंदन - लोहा छीलने से कलम थामने तक का सफ़र

हम भारतीय अपने बारे में, खासकर अपनी तकलीफों के बारे में बताने के मामले में बेहद संकोची होते हैं। लेखक तो और भी ज्‍यादा। भारतीय लेखक लिखते समय किन तकलीफों से गुज़रता है और उनसे कैसे पार पाता है, हम बहुत कम जानते हैं। आज की कड़ी में हम रू बरू हो रहे हैं समकालीन कथाकार जयनंदन की लिखने से जुड़ी तकलीफ़ों से।

बचपन से ही मुझे अपने भीतर बहुत सारी शिकायतें दिखायी पड़ती थीं। अपने जीवन से, अपने समाज से, अपने परिवार से, व्यवस्था से, परंपरा से। हर पल ऐसा लगता था कि मुझे बहुत कुछ कहना है.....विरोध करना है.....धिक्कार पिलाना है। और इन सबके लिए मुझे लगा कि लेखन ही एक सुलभ और अचूक हथियार हो सकता है लेकिन हालात ने मुझे अनुभव के अनेक जमीनी धरातलों पर घसीटा। बहुत कम ही उम्र में मैंने खेती के तमाम श्रमसाध्य पचड़े झेल लिये, फिर कारखाने में 20 बरस तक मज़दूर के तौर पर तेल, ग्रीज़ और कालिख से लिथड़कर विभिन्न मशीनों पर लोहा छीला।
मैं साहित्य में उन जंगली पौधों की तरह उगा, जिसका न कोई माली होता है, न संरक्षक, न शुभचिंतक। खुली प्राकृतिक आंधी, पानी, धूप और दुनियाबी निष्ठुरताओं के घूरे से ही कुकुरमुत्ते की तरह मैंने गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध अपना सिर उठाया।
जब कारखाने में था तो वहां चप्पे-चप्पे पर संघर्ष और मुश्किलें बिछी थीं। वहां लिखने पर सख्त पाबंदी थी। मैं मज़दूर था, मुझे श्रम करने की अनुमति थी, कलम चलाने की नहीं। जिन अफसरों को पता चल गया कि मैं काम छोड़कर यदा-कदा लिखने में डूब जाता हूं, वे मुझ पर खास नज़र रखने लगे थे। लिखते हुए मैं कई बार पकड़ा गया और मुझे अनुशासनात्मक कार्रवाई से भी गुज़रना पड़ा। मेरे लेखन को मेरी सिंसियर ड्यूटी के खिलाफ मेरा एक नकारात्मक पक्ष समझ कर सुपरवाइजर मुझ पर ज्यादा नज़र रखता था और मुझे कोसकर हतोत्साहित करना अपना फर्ज़ समझता था।
मगर मेरी धुन इतनी पक्की थी कि इन प्रतिकूलताओं के बावजूद मैंने अपने कामगार जीवन में भी लगातार कहानियां लिखीं और प्रकाशित हुआ।
भावनाओं और विचारों का अजीब गणित है...जहां बंदिशें, रुकावटें और मुश्‍किलें होती हैं, वहां भावनाओं का ज्वार ज्यादा उठता है। तो उन दिनों खूब और तेज रेला उठता रहता था मेरे अंदर जिन्हें कागज़ पर उतारने के लिए एक-एक शब्द लिखने के लिए जैसे मुझे जूझना पड़ता था। लिखने की मेज़ तो मेरे नसीब में कभी रही ही नहीं। बारह मीटर लंबी बेड वे ग्राइंडिंग मशीन आगे-पीछे चल रही है। जॉब से स्पार्क निकल रहा है और कुलेंट निर्झर की तरह बह रहा है। मैं कागज-कलम लेकर स्विच पैनल पर बैठा हूं। आधा ध्यान लिखने पर है और आधा ध्यान इस बात पर कि कोई साहब आकर टोक न दे। ड्रिलिंग सेक्शन के बगल में रशियन स्लॉटिंग मशीन ऊपर-नीचे रेसिप्रोकेट कर रही है। किसी जॉब में कट लगा हुआ है। मैं बेड पर चढ़कर इंडेक्सिंग हेड पर बैठा हूं...कुछ सोचता हुआ....कुछ मनन करता हुआ। टूल रूम में मैं सिंलिड्रिकल ग्राइंडिंग मशीन में भिड़ा हूं। आठ घंटे का कोटा जल्दी-जल्दी पूरा करके आलमारियों के पीछे छिपकर बैठना है और जो भाव उमड़ रहा है, उसे लिखना है, जब्त नहीं हो रहा है। अगर शॉप के अंदर कहीं छिपने की जगह नहीं मिली तो शेड के बाहर पीछे की झाड़ी में बैठकर कहीं लिखना है। आज सोचकर ताज्जुब होता है कि कैसे कारखाने के कान फाड़ू शोर की स्थिति में भी मैंने लिखा।
इन दिनों मैं ऑफिस में स्थानांतरित होकर आ गया हूं। लोहे छीलने, काटने और तराशने वाले हाथ को अब कलम पकड़ने की ऑफिशियल मान्यता मिल गयी है। मतलब अब मुझे तनख्वाह कलम की बदौलत मिल रही है। आठ घंटे खड़े-खड़े पसीने से सराबोर होकर किसी रोबोट की तरह काम करने की घुटन का अंत हो गया है और अब वातानुकूलित हॉल में भव्य कुर्सी और मेज पर बैठने के दिन आ गये हैं। एमए पास करना और साहित्य में होना काम आ गया। इस तरह लेखन जो पहले अल्पकालीन जुनून था, अब पूर्णकालिक लक्ष्य बन गया और आजीविका का स्रोत भी।
लिखने का मेरा कोई मुकर्रर वक्त नहीं है और न ही मुझे कोई विशेष मूड और माहौल की ज़रूरत होती है। जब कोई मुद्दा या प्रसंग या वारदात नींदें उड़ा देती है तो उसके पूरा लिखे जाने तक गहरी नींद नहीं आती। अन्य लेखकों की तरह लिखने को लेकर अपनी न कोई खास आदतें हैं, न चोंचले हैं और न टोटके हैं। दरअसल अर्से तक मज़दूर रहा हुआ मैं खुद को साहित्य का साहब न समझकर साहित्य का मजदूर ही समझता हूं।
मोबाइल : 09431328758

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