रविवार, 6 दिसंबर 2015

दिविक रमेश – शहतूत के पेड़़ पर बैठ कर लिखता था कविताएं



मुझे याद आ रहे हैं वे शुरुआत के दिन जब मुझे छिप छिप कर लिखना होता था और अपने लिखे को भी छिपा कर रखना होता था। स्पष्ट है तब मुझे एकांत में ही लिखना होता था। उस समय रात का समय सबसे अनुकूल प्रतीत होता था। बाद में दिन में नौकरी करने और रात में बी.ए.-एम.ए. करने की विवशता ने रात में लिखना मेरी आदत बना दी। मेरी कितनी ही रचनाएं, रात में, और वह भी अंधेरे में लिखी गई हैं। बहुत बार खुले आसमान के नीचे। शायद तारों का भी हाथ रहा होगा। आसपास जब सब सो रहे होते तो मैं कोरे कागज पर अंदाजे से मोटे-मोटे अक्षरों में लिख लेता। फिर दिन के एकांत में उसे अंतिम रूप दे लेता। एक और बात याद आयी। शुरू के दिनों की। घर के सामने एक शहतूत का पेड़ था। कितनी ही रचनाएं उसकी भी देन हैं। उस पर
चढ़ कर शाखाओं के बीच गद्दी बिछाकर बैठ जाता, स्कूली पढ़ाई के बहाने। और लिखी जाती कविताएं आदि। मेरे रचनात्मक साहित्य का वह अच्छा प्रेरणा स्थल रहा है। दिन में वहां बैठकर इत्मीनान से सोचा जा सकता था और लिखा भी।
विवाह हुआ। काफी बड़ा होने तक, मुझे शांत एकांत ही जरूरी लगता रहा। बहुत बार खिड़की से पेड़ों को देर तक ताकते रहने ने भी मुझे रचनात्मक बनाया है। जाने कब पेड़ो की टहनियों और पत्तों से रचना मस्तिष्क में और फिर कागज पर उतरने लगती। एक समयावधि में, खास कर कविता के लिए, बीड़ी जरूरी सी लगने लगी थी लेकिन वह जरूरत बहुत जल्दी छूट भी गई। महसूस किया कि काफी देर तक बीड़ियां पीने और माथे को देर तक दोनों हाथों से दबाए रखने के बावजूद कुछ नहीं लिखा गया। बाद में.लिखने का कोई खास समय नहीं रहा।
विशेष रूप से कविता-रचना के लिए जो मेरी विशेष विधा है। कोई भी पंक्ति कौंधती तो लिख लेता हूं-जितनी भी कौंधती हैं लिख लेता हूं। बाद में, थोड़े एकान्त में लिख लेता हूं। अब जरूरी नहीं अपनी स्टडी में ही बैठ कर लिखूं। स्थान गेस्ट हाऊस या होटल का कमरा हो सकता है, रेल का डिब्बा हो सकता है, किसी मित्र या परिजन का घर भी हो सकता है।
मेरे काव्य नाटक ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ की रचना का प्रारम्भ रेल के सफर में ही हुआ था। पर रचना पूरी घर पर आकर ही हो पाती है। अब घर में किसी अन्य की मौजूदगी अधिक दखल पैदा नहीं करती जैसे पहले पैदा करती थी लेकिन उस मौजूदगी बोलना व्यवधान का काम जरूर करता है और रचना बनने से चूक जाती है। कुल मिलाकर बात एकान्त में ही बनती है। पहले तो मैं अपनी स्टडी के दरवाजे भी बंद करके बैठता था। किसी का खटखटाना भी व्यवधान लगता था। यूं जब भी पहाड़ों या समुद्र के किनारों से लौटा हूं अधिक रचनामय हुआ हूं। मुझे तो हवाई जहाज से बादलों के समुन्द्र ने भी रचना के लिए प्रेरित किया है। शुरू शुरू में जब कहानियां लिखता था तो याद आ रहा है कि मुझे इतना समय और ऐसा स्थान चाहिए होता था जहां मैं एक ही बार में पूरी कहानी लिख लूं। लिखते समय मुझे चाय आदि के लिए पूछा जाना भी रास नहीं आता। एक और बात। बहुत बार न लिखने के अंतराल आए हैं और लगने लगा है कि बस अब नहीं लिखा जाएगा। लेकिन रचनात्मक पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते न जाने कब फिर रचना लौट आई है। पुस्तक के पन्ने एक तरफ रह गए हैं और मैं रचना की प्रक्रिया का अंग बन गया हूं। बड़ी विचित्र और हाथ में पूरी तरह न आने वाली चीज़ है यह रचना प्रक्रिया। इतना तो कह ही सकता हूं कि भले ही मेरी रचनाओं में सामाजिक सरोकार बुनियादी तौर पर रहते हों लेकिन प्रकृति और प्राकृतिक सम्पदा की निकटता ने मुझे रचना के लिए प्रेरित किया है।

मोबाइल – 099101 77099

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