शरत चंद्र चट्टोपाध्याय (15 सितंबर 1876 – 16 जनवरी 1938) बीसवीं सदी के शुरु के बरसों के बेहतरीन बांग्ला उपन्यासकार और कथाकार थे।
शरत चंद्र बेशक बेहद गरीबी में पले लेकिन मनोवैज्ञानिक तौर पर वे बहुत अमीर थे। उन्हें और उनके परिवार को घर चलाने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था। वे अपने मामा के पास भागलपुर में रहने को मजबूर हुए। इस चक्कर में बार बार स्कूल बदलने पड़े। पढ़ाई छूटती रही। घर में इतनी गरीबी थी कि पिता को अपना घर 225 रुपये में बेचना पड़ा था।
उनकी रचनाएं ने केवल बांग्ला भाषा की बल्कि भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनकी गिनती बीसवीं सदी के महानतम कथाकारों में होती है। उनकी रचनात्मक पृष्ठभूमि, उनकी रचनाओं की विषय वस्तु, कथा कहने का ढंग और चरित्र चित्रण सब अनूठे हैं। वे हमेशा कुछ नया, कुछ अलग और कुछ बेहतर रचने के लिए लालायित रहते। शरत चंद्र की रचनाओं की नकल नहीं की जा सकती। उनकी रचनाएं खुद बोलती हैं।
शरत चंद्र मानते हैं कि अपने पिता से उन्हें गरीबी के अलावा उनकी अधूरी और अप्रकाशित रचनाओं की संपदा और कुछ रचने का हद दर्जे का जुनून भी मिले जिससे उन्हें अपनी रचनाओं के लिए जमीन तैयार करने में बहुत मदद मिली।
शरत चंद्र की अपने पिता से नहीं बनती थी। वे घर छोड़ कर भटकते रहे और नागा भिक्षुओं के दल में शामिल हो गये। पिता के मरने के बाद कलकत्ता में 30 रुपये की मामूली नौकरी की करने पर मजबूर हुए। बाद में बेहतर नौकरी की तलाश में वे रंगून गये। वहीं पर अपने चाचा सुरेन्द्र नाथ के अनुरोध पर एक प्रतियोगिता के लिए अपनी एक कहानी भेजी। कहानी को पहला पुरस्कार मिला। बाद में यही कहानी उन चाचा के नाम से छपी।
शरत चंद्र दूसरों के नाम से कई कहानियां लिखते रहे। ये एक गरीब लेखक के लेखन की बेहतरीन शुरुआत थी। इस बीच उन्हें कलकत्ता में नियमित नौकरी मिल गयी थी और लेखन की गाड़ी चल पड़ी थी।
विराज बहू से उन्हें अपार सफलता मिली। इस पर नाटक खेले गये। उपन्यासों के अन्य भाषाओं में अनुवाद हुए। रातों रात प्रसिद्धि मिली। ढाका विश्वविद्यालय ने डी लिट्ट की मानद उपाधि दी। वे मानते हैं कि लेखन में उन्हें संघर्ष नहीं करना पड़ा।
लेखन और चित्रकला के अलावा शरत चंद्र ने देश की आजा़दी के आंदोलन में भी हिस्सा लिया। वे हावड़ा जिला कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। पहला विवाह शांतिदेवी से 1906 में हुआ। उनसे एक पुत्र हुआ।
दोनों ही 1908 में प्लेग से गुजर गये थे। बाद में 1910 में एक बाल विधवा से विवाह किया। उनकी कृतियों पर भारतीय भाषाओं में पचास से भी अधिक फिल्में बनी हैं। अकेले देवदास पर ही 16 फिल्में बनी हैं।
शरत चंद्र अनन्य लेखक थे और उन पर टैगोर की छाया कहीं दिखायी नहीं देती। हां वे बंकिंम चंद्र के लेखन के नजदीक माने जाते हैं। बेशक समाज का कुलीन तबका शरत चंद्र के लेखन को पसंद नहीं करता था। यहां तक कि पाथेरदाबी उपन्यास और उसके नाट्य रूपांतरण को 1927 से 1939 तक बैन करके रखा गया। उन्होंने हस्तलिखित पत्रिका शिशु भी निकाली थी और उनकी शुरुआती कहानियां उसमें छपी थीं।
शरत चंद्र बेहतरीन गायक, वादक और मंच कलाकार भी थे। अक्सर महिलाओं के किरदार निभाते। खिलाड़ी तो वे थे ही। उन्होंने होम्योपैथी की दवाएं बांटी, स्कूल खोला और कीर्तन पार्टी भी बनायी।
विख्यात हिंदी लेखक विष्णु प्रभाकर ने 14 बरस की कठिन यात्राएं करके शरत चंद्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखी थी।
शरत चंद्र के गांव में उनकी याद में हर बरस जनवरी में सात दिन का शरत मेला लगता है। मेला पूरी तरह से शरत चंद्र को समर्पित होता है। अब इसका स्वरूप हस्तशिल्प मेले का होने लगा है।
शरत चंद्र बेशक बेहद गरीबी में पले लेकिन मनोवैज्ञानिक तौर पर वे बहुत अमीर थे। उन्हें और उनके परिवार को घर चलाने के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था। वे अपने मामा के पास भागलपुर में रहने को मजबूर हुए। इस चक्कर में बार बार स्कूल बदलने पड़े। पढ़ाई छूटती रही। घर में इतनी गरीबी थी कि पिता को अपना घर 225 रुपये में बेचना पड़ा था।
उनकी रचनाएं ने केवल बांग्ला भाषा की बल्कि भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनकी गिनती बीसवीं सदी के महानतम कथाकारों में होती है। उनकी रचनात्मक पृष्ठभूमि, उनकी रचनाओं की विषय वस्तु, कथा कहने का ढंग और चरित्र चित्रण सब अनूठे हैं। वे हमेशा कुछ नया, कुछ अलग और कुछ बेहतर रचने के लिए लालायित रहते। शरत चंद्र की रचनाओं की नकल नहीं की जा सकती। उनकी रचनाएं खुद बोलती हैं।
शरत चंद्र मानते हैं कि अपने पिता से उन्हें गरीबी के अलावा उनकी अधूरी और अप्रकाशित रचनाओं की संपदा और कुछ रचने का हद दर्जे का जुनून भी मिले जिससे उन्हें अपनी रचनाओं के लिए जमीन तैयार करने में बहुत मदद मिली।
शरत चंद्र की अपने पिता से नहीं बनती थी। वे घर छोड़ कर भटकते रहे और नागा भिक्षुओं के दल में शामिल हो गये। पिता के मरने के बाद कलकत्ता में 30 रुपये की मामूली नौकरी की करने पर मजबूर हुए। बाद में बेहतर नौकरी की तलाश में वे रंगून गये। वहीं पर अपने चाचा सुरेन्द्र नाथ के अनुरोध पर एक प्रतियोगिता के लिए अपनी एक कहानी भेजी। कहानी को पहला पुरस्कार मिला। बाद में यही कहानी उन चाचा के नाम से छपी।
शरत चंद्र दूसरों के नाम से कई कहानियां लिखते रहे। ये एक गरीब लेखक के लेखन की बेहतरीन शुरुआत थी। इस बीच उन्हें कलकत्ता में नियमित नौकरी मिल गयी थी और लेखन की गाड़ी चल पड़ी थी।
विराज बहू से उन्हें अपार सफलता मिली। इस पर नाटक खेले गये। उपन्यासों के अन्य भाषाओं में अनुवाद हुए। रातों रात प्रसिद्धि मिली। ढाका विश्वविद्यालय ने डी लिट्ट की मानद उपाधि दी। वे मानते हैं कि लेखन में उन्हें संघर्ष नहीं करना पड़ा।
लेखन और चित्रकला के अलावा शरत चंद्र ने देश की आजा़दी के आंदोलन में भी हिस्सा लिया। वे हावड़ा जिला कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। पहला विवाह शांतिदेवी से 1906 में हुआ। उनसे एक पुत्र हुआ।
दोनों ही 1908 में प्लेग से गुजर गये थे। बाद में 1910 में एक बाल विधवा से विवाह किया। उनकी कृतियों पर भारतीय भाषाओं में पचास से भी अधिक फिल्में बनी हैं। अकेले देवदास पर ही 16 फिल्में बनी हैं।
शरत चंद्र अनन्य लेखक थे और उन पर टैगोर की छाया कहीं दिखायी नहीं देती। हां वे बंकिंम चंद्र के लेखन के नजदीक माने जाते हैं। बेशक समाज का कुलीन तबका शरत चंद्र के लेखन को पसंद नहीं करता था। यहां तक कि पाथेरदाबी उपन्यास और उसके नाट्य रूपांतरण को 1927 से 1939 तक बैन करके रखा गया। उन्होंने हस्तलिखित पत्रिका शिशु भी निकाली थी और उनकी शुरुआती कहानियां उसमें छपी थीं।
शरत चंद्र बेहतरीन गायक, वादक और मंच कलाकार भी थे। अक्सर महिलाओं के किरदार निभाते। खिलाड़ी तो वे थे ही। उन्होंने होम्योपैथी की दवाएं बांटी, स्कूल खोला और कीर्तन पार्टी भी बनायी।
विख्यात हिंदी लेखक विष्णु प्रभाकर ने 14 बरस की कठिन यात्राएं करके शरत चंद्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखी थी।
शरत चंद्र के गांव में उनकी याद में हर बरस जनवरी में सात दिन का शरत मेला लगता है। मेला पूरी तरह से शरत चंद्र को समर्पित होता है। अब इसका स्वरूप हस्तशिल्प मेले का होने लगा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें