मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

मनीषा कुलश्रेष्‍ठ

आज हमारे साथ अपने लेखन की पेचीदगियां शेयर कर रही हैं कथाकार मनीषा कुलश्रेष्‍ठ

यायावरी का बायप्रोडक्ट
लिखने की मेरी तकलीफ़ बाहरी कोई नहीं हैं,  भीतरी हैं। आलस्य, हर बार नए सिरे से आत्मविश्वासहीनता। लिखने की बेचैनी बनी रहती है, पर लिखने बैठने का मन नहीं होता। हर रोज़ मैं जाग कर आईपैड ऑन करती हूँ, लिखना शुरू करने के लिए, शब्द स्क्रीन पर उतर आने को बेताब हैं मगर मेरी उंगलियों की जड़ता है कि टूटती ही नहीं। ऐसे में मैं एडिक्शन की हद तक ‘स्पाइडर सॉलिटियर’ खेलती हूँ। शब्द अड़ जाते हैं,  निकलते नहीं। हर बार लगता है, अब नहीं लिख सकूंगी, लेकिन हफ्तों में सही जड़ता टूटती तो है, शब्द निकलते हैं.....तब मेरे पात्र अपना अतीत, अपना दर्शन, अपना – अपना तुर्श व्यक्तित्व लिए चुपचाप आकर मेरी गुमी हुई नींद से खेलते हुए, मेरे सिरहाने खड़े रहते हैं। बग़ावत करते हुए। सिफारिशें - शिकायतें करते हैं।
कहानियाँ परेशान कम करती हैं लेकिन उपन्यास तो बहुत परेशान करते हैं। आजकल मैं एक स्किज़ोफ्रेनिक पात्र पर उपन्यास लिख रही हूँ, यकीन मानिए भ्रम होने लगा कि मैं भी अवास्तविक आवाजों, वहम और वहशतों के घेरे में हूँ। उपन्यास अपने फाइनल ड्राफ़्ट में था और समय कम। मैंने सब छोड़ा और दो दिन का ब्रेक लिया।
यायावरी बाय डिफ़ॉल्ट मेरे हिस्से में आई ही है। यायावरी का बायप्रोडक्ट है, बार - बार जड़ से उखड़ने का अवसाद, जो कि अब आदत में बदल गया है। ‘दाग़ अच्छे हैं’ की तर्ज पर कुछ लोग कहते हैं, यायावरी अच्छी है लेखन के लिए। अपना ही आलस और न लिख पाने की जड़ - अवस्था अवसाद जगाती है, एक भय भी। यह सोच कर कि ‘मन्नो, अब नहीं तो कब? यही वक्त है, जिसके गर्भ में असीम संभावनाएं हैं। मेज पर बैठते ही तो नींद आती है।
मेरा असली लेखन कभी भी मेज़ पर बैठ कर नहीं होता। मेज़ पर तो आखिरी दिनों में संयोजन के लिए बैठती हूँ। तरतीबी तो पूरे ही व्यक्तित्व में नहीं है, सो लेखन में भी बेतरतीबी रहती है। मसलन किसी सोची हुई कहानी के टुकड़े मेरे आई पैड में, डायरी में, कागज़ के टुकड़ों, पेपर नेपकिन्स और स्मृति में बिखरे रहते हैं। जिनको मैं अंतत: जिग सॉ पज़ल की तरह जोड़ती हूं और यही क़वायद सच में मेरे लिए मुश्किल साबित होती है। असली मेहनत जिग- सॉ पज़ल जो आपने लिख के पटक दी है, उसे जोड़ने में होती है।
सब के विपरीत मुझे हमेशा क्यों यह लगता है कि किसी भी रचनात्मक लेखन की पहली शर्त यही हो कि लेखक को उस विषय या प्लॉट का कोई अनुभव ना हो। बस कानों सुना हो या कल्पनाओं में जिया हो, या दिवास्वप्नों में उतरा हो। स्वानुभूत चीज़ लिखने में शब्द अकसर साथ नहीं देते और कलम व्यर्थ के विवरणों – वर्णनों में उलझ जाती है, और आप खुद को अपनी कहानी या उपन्यास के प्लॉट में से मिटाने या स्मज करने में कहानी को बिगाड़ देते हो। यही वजह है कि मैं ने अपनी स्मृतियों से कहीं ज़्यादा अपनी फंतासियों पर यक़ीन किया है क्योंकि फंतासियाँ मैं कहीं बारीक तफ़सीलों में जीती हूँ।
राइटर्स ब्लॉक अकसर संक्रमित करता है। दो - चार महीने उंगलियाँ जड़ रहती हैं, कलम उदास। हाल ही में  डेढ़ साल कुछ नहीं लिखा। लंबा वनवास रहा.. वैसे राइटर्स ब्लॉक में नकारात्मक कुछ नहीं है। यह अपने लिए खींची अगली चुनौती के लिए पर तौलना है, जिसे पार करने में कई बार लंबा समय लग जाता है।
हाँ लिखते हुए मैंने भी अपनी कुछ सनकें पाल रखी हैं। चाय - कॉफी मुझे अतिरिक्त उद्विग्नता देते हैं। संयमित जाग्रति के लिए मुझे कुछ चबाते हुए लिखना हमेशा प्रिय है, इससे दिमाग़ कमाल की उर्वरता में रहता है। भुनी सौंफ़ या मुरमुरे और नमकीन। मैं रात के सन्नाटों में ही लिख सकती हूँ क्योंकि बहुत महीन है मेरी एकाग्रता का कांच।
मेरा लिखना रात ग्यारह बजे से सुबह चार तक चलता है, नॉवल लिखते हुए मेरी बॉडी क्लॉक उलट जाती है। मुझे खाली काग़ज और काले रंग की स्याही वाला फाउंटेन पेन आज भी बहुत प्रिय है, लेकिन दाहिने अंगूठे का टैंडन और कुछ नर्व्ज़ कट जाने के बाद पेन से तो मैं आधा पन्ना भी नहीं लिख पाती, मैं आई पैड पर लिखती हूँ। मुझे रेल यात्राओं में लिखना बहुत प्रिय है। मैं एडिटिंग की कायल हूँ, सधाव और संक्षिप्तता की। लिखकर कैंची लेकर बैठना बहुत ज़रूरी लगता है।
 मनीषा कुलश्रेष्ठ
09911252907

कोई टिप्पणी नहीं: