इस्मत चुग़ताई (15 अगस्त 1915 - 24 अक्टूबर 1991) उर्दू साहित्य की सर्वाधिक विवादास्पद और सर्वप्रमुख लेखिका थीं। वे बदायूं में जन्मी थीं। इस्मत का ज्यादातर वक्त जोधपुर में गुजरा। पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने चोरी--छुपे कहानियां लिखनी शुरू कीं। उनकी पहली कहानी- गेन्दा, 1949 में उस दौर की उर्दू साहित्य की सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिका ‘साक़ी’ में छपी।
उन्होंने महिलाओं के सवालों को अपने तरीके से उठाया। उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम तबक़े की दबी-कुचली सकुचाई और कुम्हलाई लेकिन जवान होती लड़कियों की मनोदशा को उर्दू कहानियों व उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है। इस्मत का कैनवास काफी व्यापक था और उसमें अनुभव के विविध रंग उकेरे गए हैं।
उन्होंने पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मुद्दों को स्त्रियों के नजरिए से कहीं चुटीले और कहीं संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम उठाया। वे अपने अफसानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है। आपा की सोच अपने समय से आगे थी। उनके पात्र जिंदगी के बेहद करीब नजर आते हैं।
स्त्रियों के सवालों के साथ ही उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उनके अफसानों में करारा व्यंग्य मौजूद है। उन्होंने ठेठ मुहावरेदार गंगा जमुनी भाषा का इस्तेमाल किया।
उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। उर्दू अदब में इस्मत के बाद सिर्फ मंटो ही ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने औरतों के मुद्दों पर बेबाकी से लिखा है।
टेढ़ी लकीरें उनका आत्म कथात्मक उपन्यास माना जाता है जिसमें उन्होंने अपने ही जीवन को मुख्य प्लाट बनाकर एक स्त्री के जीवन में आने वाली समस्याओं और स्त्री के नजरिए से समाज को पेश किया है। 'टेढ़ी लकीर' पर उन्हें 1974 में गालिब अवार्ड मिला था।
वे अपनी 'लिहाफ' कहानी के कारण खासी मशहूर हुई। 1941 में लिखी गई इस कहानी में उन्होंने महिलाओं के बीच समलैंगिकता के मुद्दे को उठाया था। उस दौर में किसी महिला के लिए यह कहानी लिखना एक दुस्साहस का काम था। इस्मत को इस दुस्साहस की कीमत अश्लीलता को लेकर लगाए गए इलजाम और मुक़दमे के रूप में चुकानी पड़ी। लिहाफ को हिंदुस्तानी साहित्य में लेस्बियन प्यार की पहली कहानी माना जाता है।
उन्होंने कई फिल्मों की पटकथा लिखी और जुगनू में अभिनय भी किया। उनकी पहली फिल्म "छेड़-छाड़" 1943 में आई थी। वे कुल 13 फिल्मों से जुड़ी रहीं। एमएस सथ्यू की मशहूर फिल्म ‘गर्म हवा’ (1973) इस्मत आपा की कहानी पर बनी थी। उन्हें इस फिल्म के लिये सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड मिला।
इस्मत चुग़ताई के पति शाहिद लतीफ़ फिल्म लेखक और निर्देशक थे।
इस्मत कैमरा वर्क की बहुत अच्छी जानकार थीं। तबला भी बहुत अच्छा बजाती थीं। वे फिल्मों के लिए भी कॉस्ट्यूम तैयार करती थीं।
उन्होंने अपनी बेटियों को विभिन्न धर्मों का सम्मान करना सिखाया। बाइबिल से लेकर कुरान तक, हर मज़हब की किताबें उनके पास थीं।
इस्मत को उर्दू के भविष्य को लेकर चिंता रहती थी। वे कहती थीं कि वक़्त के साथ उर्दू दम तोड़ देगी अगर इसके साहित्य को देवनागरी में नहीं लिखा गया।
इस्मत के अनेक कथा संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें कलियां, छुई-मुई, एक बात और दो हाथ शामिल हैं। साथ ही उन्होंने टेढ़ी लकीर, जिद्दी, एक कतरा-ए-खून, दिल की दुनिया, मासूमा और बहरूपनगर शीर्षक से उपन्यास भी लिखे। उनकी आत्मकथा कागजी हैं पैरहन बेहद पठनीय किताब है।
इस्मत चुगताई हिन्दी पाठकों के लिए बेहद आत्मीय रही हैं।
अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने इस्मत चुगताई की कुछ कहानियों को थियेटर के माध्यम अमर करने का काम किया है।
एक मुल्ले ने अलीगढ के पहले गर्ल्स कॉलेज को वेश्यावृत्ति का अड्डा करार दिया था। चुगताई ने कहा कि मुस्लिम लड़कियां पिछड़ी हुई हैं, लेकिन ये मुल्ला उनसे भी पिछड़ा हुआ है। इतना ही नहीं वे मुल्ला के खिलाफ कोर्ट चली गईं। मुल्ला कानूनी लड़ाई हार गए।
जब उर्दू के प्रतिष्ठित शायर जांनिसार अख्तर का देहावसान हुआ तो एक महिला ने बढ़कर उनकी पत्नी खदीजा की चूडिया तोडनी शुरू कर दीं। इस पर इस्मत आपा ने डांट लगाई - जब मर्द रंडुआ होता है तो उसकी ऐनक और घडी क्यों नहीं तोड़ते?
उनकी वसीयत के अनुसार मुंबई के चन्दनबाड़ी में उन्हें अग्नि को समर्पित किया गया।
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