शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

भारतेंदु हरिश्चन्द्र हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार

भारतेंदु हरिश्चन्द्र (9 सितम्बर 1850 - 6 जनवरी 1885) हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। वे आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं।
जिस समय भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने लिखना शुरू किया, देश ग़ुलाम था और ब्रिटिश आधिपत्य में लोग अंग्रेज़ी पढ़ना और समझना गौरव की बात समझते थे। ऐसे वातावरण में हरिश्चन्द्र ने  हिंदी के प्रति अलख जगायी। वे काशी नगरी के प्रसिद्ध 'सेठ अमीचंद' के वंश में जन्‍मे थे। इनके पिता 'बाबू गोपाल चन्द्र' भी एक कवि थे। वे 5 वर्ष के थे तो मां और जब दस वर्ष के थे तो पिता चल बसे। भारतेंदु जी मित्र मण्डली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे। आपस में खूब बातें होतीं। भारतेन्दु जी उदार थे इसलिए साहित्यकारों की हमेशा  मदद करते। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर ही विद्वतजनों ने इन्हें 'भारतेंदु की उपाधि प्रदान की।
वे बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार थे।
भारतेंदु जी विविध भाषाओं में रचनाएं करते थे, किन्तु ब्रजभाषा पर इनका असाधारण अधिकार था। इनका साहित्य प्रेममय था, इसलिए प्रेम को लेकर ही इन्होंने अपने 'सप्त संग्रह' प्रकाशित किए हैं। प्रेम माधुरी इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। 'सुलोचना' इनका प्रमुख आख्यान है। 'बादशाह दर्पण' भारतेंदु जी का इतिहास की जानकारी देने वाला ग्रन्थ है।
हरिश्चन्द्र बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। वे बहुत कम उम्र में ही रचनाएँ करने लगे थे। हिन्दी गद्य साहित्य को इन्होंने विशेष समृद्धि प्रदान की है। इन्होंने दोहा, चौपाई, छन्द, बरवै, हरि गीतिका, कवित्त एवं सवैया आदि पर काम किया। इन्होंने न केवल कहानी और कविता के क्षेत्र में कार्य किया अपितु नाटक के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। एक रोचक बात है कि नाटक में पात्रों का चयन और भूमिका आदि के विषय में इन्होंने पूरा लेखन स्वयं खुद के जीवन के अनुभव से किया है।
भारतेंदु जी मात्र पैंतीस बरस जीये लेकिन उन्‍होंने  20 काव्‍य संग्रह, 10 नाटक और 7 सप्‍त संग्रह रचे।
भारतेंदु जी ने भक्ति रस से पगी रचनाएँ की हैं। ये रचनाएं घनानंद एवं रसखान की रचनाओं के स्‍तर की हैं। भारतेंदु जी अपने देश के प्रति बहुत निष्ठा रखते थे। वे सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन के हिमायती थे। उन्होंने संयोग की अपेक्षा वियोग पर विशेष बल दिया है। वे स्वतंत्रता प्रेमी एवं प्रगतिशील विचारक एवं लेखक थे। उन्होंने मां सरस्वती की साधना में अपना धन पानी की तरह बहाया और साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
उनके जीवन का अन्तिम दौर आर्थिक तंगी से गुजरा, क्योंकि धन का उन्होंने बहुत बड़ा भाग साहित्य समाज सेवा के लिए लगाया। ये भाषा की शुद्धता के पक्ष में थे। इनकी भाषा बड़ी परिष्कृत एवं प्रवाह से भरी है। भारतेंदु जी की रचनाओं में इनकी रचनात्मक प्रतिभा को भली प्रकार देखा जा सकता है।
उन्होंने समाज और साहित्य का प्रत्येक कोना झाँका है और सभी विषयों पर अपनी कलम चलायी है। उन्‍होंने अपने जीवन काल में लेखन के अलावा कोई दूसरा कार्य नहीं किया।
वाराणसी के ठठेरा बाजार की तंग गलियों में बने उनके तिमंजिला घर में उनकी वह पालकी आज भी रखी हुई है जिस पर बैठ कर वे घर से बाहर जाते थे। अपने वाराणसी प्रवास के दौरान मुझे उनका घर भीतर बाहर से देखने का अवसर मिला था।

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।

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