सोमवार, 31 अगस्त 2015

वहां से लौटना नहीं -होता - रमेश बक्षी (1936-1992}



   पढ़ते हुए रमेश बक्षी ने बहुत पापड़ बेले। सड़कों पर हाथ से छपे रूमाल बेचकर, सिनेमा के टिकट ब्लैक करके और पकड़े जाने पर पिटते हुए उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई की। कॉलेज में इंजीनियरिंग पढ़ना चाहते थे लेकिन गणित न आने के कारण बुरी तरह फेल हुए। वैसे वे बेहद अच्छे विद्यार्थी और होनहार लेखक रहे। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में वे एमए तक अव्वल आते रहे और कॉलेज में होते हुए ही उन्होंने मजदूर संघ के अखबार जागरण का साहित्य संपादन किया।
   रेडियो में काम किया। पहले भोपाल और गुना में कॉलेज की अध्यापकी की और बाद में कलकत्ता में ज्ञानोदय की संपादकी संभाली। अंतिम नौकरी उनकी नेशनल बुक ट्रस्‍ट की रही जो उन्होंने छोड़ दी थी।
   वे हमेशा प्रेम और फंतासी में जीते रहे। प्रेमिकाओं के झूठे-सच्चे किस्से तो वे जरूर सुनाते ही थे और उन पर कहानी भी लिखते थे लेकिन उनकी असली प्रेमिकाएं इतनी रहीं कि उनमें रमेश बक्षी के घर की चाबी के लिए रिले रेस होती थी।
    रमेश बक्षी शायद हिंदी के पहले बड़े लेखक रहे जो विवाहित होने के बावजूद आगे पीछे कई प्रेमिकाओं के साथ सह जीवन यानी लिविंग टूगेदर में रहते रहे। नेशनल बुक ट्रस्ट के दिनों में वे अपने से आधी उम्र की एक लड़की के साथ रह रहे थे।
    इससे पहले रमेश ने अपने विवाह की निमंत्रण पत्रिका खुद बनवायी और छपवाई थी और उनमें छपे कालिदास के श्लोक खुद ही ढूंढ कर निकाले थे। शादी भी पारंपरिक ठाठ-बाठ से ही की थी। ये शादी नहीं बच पायी थी। उनके पहले बेटे का नाम सीमांत था। उसी से थोड़ा बहुत नाता था।
      रमेश बक्षी में जबरदस्‍त प्रतिभा थी। सन्‌ साठ के आने तक भाषा और शिल्प के गजब के प्रयोग उन्होंने किए, ज्ञानोदय को अव्वल दर्जे की साहित्यिक पत्रिका बनाया। छोटी अव्यावसायिक पत्रिकाओं का आंदोलन चलाया, खूब लिखा। नाम कमाया और बदनाम हुए।
     रमेश बक्षी जीवन में जैसे थे, अपने लेखन में भी खुद को वही दिखाते थे। अपनी सोच में वे बहुत स्पष्ट थे। रमेश बक्षी ने कोलकाता के दिनों की पहली प्रेमिका के साथ अपने संबंधों को केंद्र बनाकर एक उपन्यास वसुधा लिखा था।
     कहानियों के साथ रमेश ने एक अनोखा प्रयोग किया था। उन्होंने अपनी कहानियों के पात्रों के लेकर नए सिरे से कहानियां लिखी हैं जिनमें उन्होंने उस पहली कहानी के बाद के उनके जीवन के बारे में लिखा। इन कहानियों का संग्रह 'किस्सा ऊपर किस्सा' नाम से प्रकाशित हुआ।
    रमेश बक्षी के उपन्यास 'अठारह सूरज के पौधे' पर एवार्ड विनिंग फिल्‍म  27 डाउन बनी थी।
    रमेश की कहानियों में एकाध अपवाद को छोड़कर भावनात्मकता कहीं नहीं मिलती।
    उन्‍होंने हर कहीं और हर वक्त शराब पीने, कई प्रेम करने, नौकरियाँ छोड़ने, कैरियर को बार बार तबाह करने, जीने के अपने मौलिक तरीके अपनाने और अपने को ध्वस्त करने के रिकार्ड बनाये।
     रमेश बक्षी के दिन की शुरुआत शराब से होती थी और रात तक चलती थी। दफ्तर में भी उनकी मेज पर एक ब्राउन गिलास पड़ा रहता था जिसमें शराब होती थी।
     रमेश एक घर की तलाश में भटकते रहे, वह घर चाहते थे लेकिन उन्हें घर को बनाए रखने की कला नहीं आती थी।
    वे बहुत बुरी मौत मरे। यह अंत स्वयं उनका चुना हुआ था। उनकी चिता को अग्‍नि उनके बचपन के मित्र प्रभाष जोशी ने दी थी। उनके अंतिम संस्‍कार के समय एक अप्रिय विवाद हो गया था।

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