शनिवार, 5 दिसंबर 2015

जयश्री रॉय - मेरे लेखन का सफर



2010 में ब्रेस्ट कैंसर हुआ तो लगा, इतना कुछ अपने भीतर ले कर
चली गई तो मर कर भी मुक्ति नहीं मिलेगी। उन दिनों हाथ में मेडिकल
रिपोर्ट्स की फाइल ले कर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक अपनी
ज़िंदगी कि मीयाद पूछती फिर रही थी। केमो के दौरान अस्पताल के
बिस्तर पर 26 साल के अंतराल के बाद एक कहानी लिखी जो हंस में
छपी। इसके बाद लिखने-छपने का सिलसिला चल पड़ा। मेरे शब्द हाथ
पकडकर मुझे मृत्यु की काली सुरंग से खींच जिंदगी की ओर ले चला।
दूसरों के लिए लेखन क्या है मैं नहीं जानती, मेरे लिए यह जीने की एक
कोशिश है!
लिखने के लिए मुझे कोई सहूलियत नहीं मिलती। बस काम और
जिम्मेदारियों के बीच जहां थोड़ा समय मिल जाये। खाना बनाते, घर
सम्हालते... डायनिंग टेबल पर डायरी-पेन पड़े रहते हैं। कूकर की दो
सीटी के बीच, दाल में छौंक लगाते... दो बज गए बच्चे आ जाएँगे स्कूल
से, महरी नहीं आई, जूठे बर्तनों की ढेर पड़ी है... मेरी कहानियों से जली
दाल की महक आए तो अचरज नहीं!
रात को मैं बेहतर लिखती हूँ। अक्सर बारह बजे के बाद। सारी-सारी रात!
डॉक्टर की सख़्त मनाही के बावजूद। पहले हाथ से, अब कम्प्यूटर पर।
कहानियाँ प्रायः एक सीटिंग में। शायद ही कभी कोई एडिटिंग। बेहद
इंपल्सिव। धैर्य का भी अभाव। जब लिखने का मूड बन जाता है, किसी
काम में मन नहीं लगता जब तक कि लिख ना लूँ। अपना लिखा मैं
छपने से पहले किसी को दिखाती नहीं। सिरजने में ही सारा सुख।
छपना, ना छपना महत्वपूर्ण नहीं। टोटका आदि में यकीन नहीं। तीन
महीने पहले स्ट्रोक में जिस्म का बायाँ हिस्सा प्रभावित हुआ है। बाएँ
हाथ से लिखती/टाइप करती थी। स्ट्रोक के एक महीने के अंदर एक
कहानी लिख कर पूरा किया! जैसा कि पहले भी कहा, लिखना मेरे लिए
जीने की एक कोशिश है!
मुझे शब्दों से प्यार रहा है, किस हद तक कह कर समझाना मुश्किल!
मुझे लगता है, अब तक के जीवन में मैंने अपने हिस्से का आधा समय
सपने देखने और कल्पना लोक में विचरण करते हुये बिताया है। बचपन
में जाड़े के दिनों रज़ाई ओढ़ कर दिन चढ़े तक, गर्मियों में खुली छत पर
चाँद को तकते हुए... चाँद को तकते रहने की मेरी इस ‘अजीब-सी’
आदत की वजह से घर में कोई मुझे ‘मून गर्ल’ तो कोई ‘चकोरी’ कह
कर चिढ़ाया करता था। सेंसेटिव और संकोची स्वभाव की होने के कारण
कागज़ में खुद को व्यक्त करना ज़्यादा सहज प्रतीत होता था। तो छिप-
छिप कर लिखती थी और बिस्तर के नीचे रख देती थी। वर्षों यही
किया। एस एस सी के बाद गर्मियों की लंबी दोपहरें काटने के लिए पत्र-
पत्रिकाओं में पत्र आदि लिखने लगी और पुरस्कृत भी होने लगी। साथ
ही रेडियो सिलॉन में मेरे लिखे कई लंबे कार्यक्रम प्रसारित हुए। यह सब
बहुत उत्साहवर्धक था। धर्मयुग, अवकाश जैसी पत्रिकाओं में मेरी रचनाएँ
छपीं। संपादकों, पाठकों के गट्ठर बांध कर पत्र आते। मैं अचानक बैठे-
बिठाये लेखिका बन गई थी! वह एक अलग ही तरह का समय था! मगर
कॉलेज जॉइन करते ही लिखना छूट गया। पूरे 26 सालों के लिए!
जिम्मेदारियाँ मेरे हिस्से कुछ ज़्यादा ही आईं। ना जाने किस-किस का
जीवन मैंने जिया और मेरा जीवन कोई और। यदि जीवन में निरंतर
आने वाली दुश्वारियां कोई दुर्भाग्य या नियति ना हो कर महज संयोग
थीं तो यह संयोग कुछ ज़्यादा ही घटा मेरे साथ। जो किया, जितना
किया सबके लिए वह मेरा अपना कंसर्न था मगर इससे बंधी तो रह ही
गई। सालों मन का कुछ कर ना सकी। लेखन भी। इसके लिए जिस
मनःस्थिति की ज़रूरत होती है उसका नितांत अभाव रहा। मन में
संवेदनाएं उमड़ती-गुमड़तीं, एक क्रिएटिव एंज़ाइटी में रात-दिन परेशान
मगर कभी कुछ लिख ना सकी। ‘राइटर्स ब्लॉक’ जैसी स्थिति! कई बार
भीतर की बेचैनी से निजात पाने के लिए कागज-कलम ले कर घंटों बैठी
कागज पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती रही मगर एक शब्द लिख ना
सकी। सोचती थी जिस शब्द से मैंने इस शिद्दत से प्यार किया, जब
भी बुलाऊंगी, वह मुझ तक दौड़ा चला आयेगा। मगर मैं गलत थी, मेरे
शब्द मुझसे रूठ गए थे! निराशा का वह अजब दौर था। जैसे कोई अर्से
से प्रसव पीड़ा में हो मगर अपने बच्चे को जन्म ना दे सके। कई बार
बैठ कर रोती थी...
बीमार माँ-बाप, परिवार और बच्चों की देख-भाल के लिए लेक्चरार की
नौकरी छोड़नी पड़ी। बेटे के 15 साल के होने तक एक पत्रिका पलट कर
देख ना सकी। एम ए करने के बाद हिन्दी साहित्य से कोई संपर्क नहीं
रहा। 2010 में जीवन में पहली बार ‘हंस’ पत्रिका देखी जिस में ‘मुबारक
पहला कदम’ में मेरी पहली कहानी छपी थी।

कोई टिप्पणी नहीं: