हम भारतीय अपने बारे में, खासकर अपनी तकलीफों के बारे में बताने के मामले में बेहद संकोची होते हैं। लेखक तो और भी ज्यादा। भारतीय लेखक लिखते समय किन तकलीफों से गुज़रता है और उनसे कैसे पार पाता है, हम बहुत कम जानते हैं। आज की कड़ी से हम यही कोशिश करेंगे कि अपने वरिष्ठ और समकालीन लेखकों की लिखने से जुड़ी तकलीफ़ों से रू ब रू हों। शुरुआत कर रहे हैं वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत से।
मैं लिखने की मेज़ पर कैसे आया, जबकि मेरे पास लिखने के लिए कोई मेज़ ही नहीं थी। मैंने कभी लेखक नहीं होना चाहा था। लेखक मुझे विशिष्ट मानव प्रजाति के महान लोग लगते थे। मैं गरीबी रेखा से नीचे का लड़का था, हालांकि तब गरीबी रेखा खींची नहीं जाती थी।
1972 में मैं अहमदाबाद जा रहा था। किसी स्टेशन पर मैंने रेलगाड़ी की खिड़की से अपने बचे खाने का पैकेट बाहर फेंका, जो अब खाने योग्य नहीं रहा था। उस जूठन पर एक औरत और उसके दो बच्चे ऐसे झपटे मानो वे अशर्फी लूट रहे हों। सहसा मेरे भीतर पता नहीं क्या हुआ। कुछ ऐसी बेचैनी जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। मेरी फेंकी जूठन पर किसी को लपकते देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। बची यात्रा के दौरान मुझे ऐसा लगता रहा जैसे वे तीन जोड़ी आँखें निरन्तर मेरा पीछा कर रही हैं...। वे चालीस साल से अब तक मेरा पीछा कर रही है। शायद हमेशा करती रहेंगी...।
उन आँखों ने ही मुझे विवश करके लिखने की मेज़ पर बैठाया, जबकि मेरे पास लिखने की मेज़ थी ही नहीं। मैंने बिस्तर पर घुटने के बल बैठ कर पहली कहानी ’गाय का दूध’ लिखी। गाय का दूध कहानी धारा के विरुद्ध यथार्थवादी कहानी थी। कमलेश्वर जी ने इसे सारिका के विशेषांक फरवरी 73 में मेरे पोट्रेट के साथ प्रकाशित किया। कहानी देश की सभी भाषाओं में अनूदित हुई और उस अंक की सर्वश्रेष्ठ कहानी मानी गयी। मैं न चाहते हुए लेखको की पांत में शामिल हो गया।
तीन जोड़ी आँखों ने मुझे लिखना सिखाया और यह भी बताया कि मुझे क्या और किनके लिए लिखना है। मैं बिना किसी तैयारी के लेखन में आ गया। मेरे पास लेखक का मिजाज़, शख्सियत, नफ़ासत और लटके-झटके कभी नहीं रहे। मुझे लिखने के लिए भी कोई नाटक करने की ज़रूरत कभी नहीं करनी पड़ी। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि लिखने के लिए पहाड़ पर जाने की ज़रूरत पड़ती है।
2000 में कम्प्यूटर पर आने से पहले का मेरा तमाम लेखन घुटनों के बल बिस्तर पर बैठ कर ही हुआ। लिखने के लिए मुझे एकांत की ज़रूरत नहीं होती। मैं किसी भी माहौल में लिख लेता हूँ। शोर शराबे में भी। गपशप मारते हुए भी। टीवी देखते हुए भी। जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब फाउन्टेंट पैन से लिखता था। मेरी हस्तलिपि बहुत खूबसूरत थी। इसलिए मुझे ऐसे कागज़ की ज़रूरत होती थी, जिस पर स्याही न फैले और ऐसा पैन चाहिए होता था, जिसकी निब ठीक हो। फाउन्टेन के प्रति मुझमें इतना मोह था कि मैं उनकी चोरी भी कर सकता था। खराब निब के पैन से मैं कभी कुछ नहीं लिख पाया।
पांडुलिपि में कोई काट-छाँट भी मुझे कभी बर्दाश्त नहीं हुई। किसी पृष्ठ पर एक भी गलती हो जाती तो उसे काटकर सुधारने की जगह मैं पूरा पृष्ठ ही फिर से लिखना पसंद करता था। एक बैठक मे पाँच-सात लाइनों से ज्यादा मैंने कभी नहीं लिखा। चाहे लिखने का कितना ही भीतरी दबाव रहा हो। इतना लिखने के बाद मैं टहल लेता हूँ या गपशप मार लेता हूँ। कहानियों के ज्यादातर आइडिया शाम को टहलते समय आते हैं।
मैं किसी रचना को लिखने में बहुत वक्त देता हूँ, ताकि उसके साथ मेरा रिश्ता बहुत समय तक बना रहे। यह एक खास किस्म की रचनात्मक काहिली भी हो सकती है। लेकिन मुझे अपनी इस काहिली से प्यार है...।
मैं 1974 के आसपास हिंदी में एमए कर रहा था। भाषा विज्ञान का पेपर था। आता जाता कुछ था नहीं। समय बिताने के लिए मैंने उन तीन घंटों में वहां एक पूरी कहानी ही लिख मारी। घर आकर उसे फिर से लिखा। ये कहानी सारिका में छपी थी।
कथानक के चयन में मैं काफी सावधान रहता हूँ। कहानी में अगर उसकी कोई सामाजिक प्रासंगिता न हो, तो उसे मैं अपनी रचना में जगह नहीं देता। लेखन मेरे लिए सामाजिक दायित्व है। यह एक गैर लेखकीय मनोवृति हो सकती है, लेकिन मैं मजबूर हूँ।
किसी रचना के पात्र के नाम को लेकर मेरे भीतर कोई लेखकीय सनक ज़रूर है। पात्र का कोई ठीक नाम नहीं सूझता तो रचना शुरू नहीं होती। ’पहल’ के आग्रह पर मुझे कहानी लिखनी थी। मैंने मिसेज बरनाबास नाम की पात्रा से ’सिंगिंग बेल’ कहानी लिखनी आरम्भ की। नहीं लिख सका। कई बार कोशिश की। कहानी आगे नहीं बढ़ी। फिर अनायास मिसेज डिसूजा के नाम से इसे लिखना शुरू किया तो कहानी लिखी गई। इसी तरह जब रतिनाथ योगेश्वर देहरादून में थे तो उनके नाम ने मुझे बहुत अपील किया। रतीनाथ के नाम वाली कहानी लिखी गयी और कमलेश्वर जी ने छापी।
बस पात्र के नाम के चयन वाला ही मेरा लेखकीय टोटका है। वरना तो मैं एक खुली किताब हूँ....।
मोबाइल : 09897254818
मैं लिखने की मेज़ पर कैसे आया, जबकि मेरे पास लिखने के लिए कोई मेज़ ही नहीं थी। मैंने कभी लेखक नहीं होना चाहा था। लेखक मुझे विशिष्ट मानव प्रजाति के महान लोग लगते थे। मैं गरीबी रेखा से नीचे का लड़का था, हालांकि तब गरीबी रेखा खींची नहीं जाती थी।
1972 में मैं अहमदाबाद जा रहा था। किसी स्टेशन पर मैंने रेलगाड़ी की खिड़की से अपने बचे खाने का पैकेट बाहर फेंका, जो अब खाने योग्य नहीं रहा था। उस जूठन पर एक औरत और उसके दो बच्चे ऐसे झपटे मानो वे अशर्फी लूट रहे हों। सहसा मेरे भीतर पता नहीं क्या हुआ। कुछ ऐसी बेचैनी जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता। मेरी फेंकी जूठन पर किसी को लपकते देखने का यह मेरा पहला अनुभव था। बची यात्रा के दौरान मुझे ऐसा लगता रहा जैसे वे तीन जोड़ी आँखें निरन्तर मेरा पीछा कर रही हैं...। वे चालीस साल से अब तक मेरा पीछा कर रही है। शायद हमेशा करती रहेंगी...।
उन आँखों ने ही मुझे विवश करके लिखने की मेज़ पर बैठाया, जबकि मेरे पास लिखने की मेज़ थी ही नहीं। मैंने बिस्तर पर घुटने के बल बैठ कर पहली कहानी ’गाय का दूध’ लिखी। गाय का दूध कहानी धारा के विरुद्ध यथार्थवादी कहानी थी। कमलेश्वर जी ने इसे सारिका के विशेषांक फरवरी 73 में मेरे पोट्रेट के साथ प्रकाशित किया। कहानी देश की सभी भाषाओं में अनूदित हुई और उस अंक की सर्वश्रेष्ठ कहानी मानी गयी। मैं न चाहते हुए लेखको की पांत में शामिल हो गया।
तीन जोड़ी आँखों ने मुझे लिखना सिखाया और यह भी बताया कि मुझे क्या और किनके लिए लिखना है। मैं बिना किसी तैयारी के लेखन में आ गया। मेरे पास लेखक का मिजाज़, शख्सियत, नफ़ासत और लटके-झटके कभी नहीं रहे। मुझे लिखने के लिए भी कोई नाटक करने की ज़रूरत कभी नहीं करनी पड़ी। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि लिखने के लिए पहाड़ पर जाने की ज़रूरत पड़ती है।
2000 में कम्प्यूटर पर आने से पहले का मेरा तमाम लेखन घुटनों के बल बिस्तर पर बैठ कर ही हुआ। लिखने के लिए मुझे एकांत की ज़रूरत नहीं होती। मैं किसी भी माहौल में लिख लेता हूँ। शोर शराबे में भी। गपशप मारते हुए भी। टीवी देखते हुए भी। जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब फाउन्टेंट पैन से लिखता था। मेरी हस्तलिपि बहुत खूबसूरत थी। इसलिए मुझे ऐसे कागज़ की ज़रूरत होती थी, जिस पर स्याही न फैले और ऐसा पैन चाहिए होता था, जिसकी निब ठीक हो। फाउन्टेन के प्रति मुझमें इतना मोह था कि मैं उनकी चोरी भी कर सकता था। खराब निब के पैन से मैं कभी कुछ नहीं लिख पाया।
पांडुलिपि में कोई काट-छाँट भी मुझे कभी बर्दाश्त नहीं हुई। किसी पृष्ठ पर एक भी गलती हो जाती तो उसे काटकर सुधारने की जगह मैं पूरा पृष्ठ ही फिर से लिखना पसंद करता था। एक बैठक मे पाँच-सात लाइनों से ज्यादा मैंने कभी नहीं लिखा। चाहे लिखने का कितना ही भीतरी दबाव रहा हो। इतना लिखने के बाद मैं टहल लेता हूँ या गपशप मार लेता हूँ। कहानियों के ज्यादातर आइडिया शाम को टहलते समय आते हैं।
मैं किसी रचना को लिखने में बहुत वक्त देता हूँ, ताकि उसके साथ मेरा रिश्ता बहुत समय तक बना रहे। यह एक खास किस्म की रचनात्मक काहिली भी हो सकती है। लेकिन मुझे अपनी इस काहिली से प्यार है...।
मैं 1974 के आसपास हिंदी में एमए कर रहा था। भाषा विज्ञान का पेपर था। आता जाता कुछ था नहीं। समय बिताने के लिए मैंने उन तीन घंटों में वहां एक पूरी कहानी ही लिख मारी। घर आकर उसे फिर से लिखा। ये कहानी सारिका में छपी थी।
कथानक के चयन में मैं काफी सावधान रहता हूँ। कहानी में अगर उसकी कोई सामाजिक प्रासंगिता न हो, तो उसे मैं अपनी रचना में जगह नहीं देता। लेखन मेरे लिए सामाजिक दायित्व है। यह एक गैर लेखकीय मनोवृति हो सकती है, लेकिन मैं मजबूर हूँ।
किसी रचना के पात्र के नाम को लेकर मेरे भीतर कोई लेखकीय सनक ज़रूर है। पात्र का कोई ठीक नाम नहीं सूझता तो रचना शुरू नहीं होती। ’पहल’ के आग्रह पर मुझे कहानी लिखनी थी। मैंने मिसेज बरनाबास नाम की पात्रा से ’सिंगिंग बेल’ कहानी लिखनी आरम्भ की। नहीं लिख सका। कई बार कोशिश की। कहानी आगे नहीं बढ़ी। फिर अनायास मिसेज डिसूजा के नाम से इसे लिखना शुरू किया तो कहानी लिखी गई। इसी तरह जब रतिनाथ योगेश्वर देहरादून में थे तो उनके नाम ने मुझे बहुत अपील किया। रतीनाथ के नाम वाली कहानी लिखी गयी और कमलेश्वर जी ने छापी।
बस पात्र के नाम के चयन वाला ही मेरा लेखकीय टोटका है। वरना तो मैं एक खुली किताब हूँ....।
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