किस्सा अट्ठावन - एक बड़े लेखक का बीहड़ जीवन और अंत - भुवनेश्वर (1910- )
पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव। बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाये। वे कद में नाटे और देखने में सांवले थे।
वरिष्ठ लेखक श्री दूधनाथ सिंह भुवनेश्वर को प्रेमचंद की खोज मानते हैं। प्रेमचंद कहते थे कि यदि भुवनेश्वर में कटुता और जैनेन्द्र में दुरूहता कम हो तो दोनों का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। भुवनेश्वर की एक मात्र प्रकाशित किताब कारवां की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी थी। उनकी अब तक प्राप्त 12 कहानियों में से 9 और अब तक प्राप्त 17 नाटकों में से 9 प्रेमचंद के हंस में ही प्रकाशित हुए। उनकी कहानी भेड़िये की तुलना में तब की और बाद की भी कोई कहानी नहीं ठहरती। वे बहुत उर्वर, कल्पनाशील, प्रखर और सहज लेखक थे। उनकी पहली रचना सूरदास की पद शैली में लिखी गयी कविता है।
भुवनेश्वर के नाटकों में से किसी का भी मंचन उनके जीवन काल में नहीं हुआ। इतने बड़े नाटककार की कृतियों को मंच पर उतारने के बारे में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने कभी नहीं सोचा।
बाइबिल भुवनेश्वर की प्रिय किताब थी। वे गांधी जी को बहुत मानते थे।
भुवनेश्वर ने कई बार हाडा, वीपी, आरडी आदि छद्म नामों से भी लिखा। भुवनेश्वर को हिंदी एकांकी का जनक माना जाता है। भुवनेश्वर के कद का लेखक, चिंतक और सूझबूझ से भरा व्यक्ति हर युग में पैदा नहीं होता। भुवनेश्वर ने छिटपुट रेडियो की नौकरियां कीं लेकिन वहां उनका दम घुटता था। कई बार तो रेडियो से मिली किताब की समीक्षा करने के बजाये किताब बेच कर दारू पी लेते। हालांकि खुद फटेहाल होते हुए भी वे दूसरों की मदद कर दिया करते थे।
भुवनेश्वर बेहद सूझबूझ वाले और ब्रिलिएंट आदमी थे। वे अच्छी अंग्रेजी बोलना और लिखना पसंद करते थे। अंग्रेजी में लिखी गयी उनकी 10 कविताएं साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। शास्त्रीय संगीत में उनकी रुचि थे। जब मस्ती में होते तो कबीर, सूर, तुलसी मीरा के पद गाते। वे किसी से ज्यादा बात करना पसंद नहीं करते थे। वे उर्दू शायरों को पसंद करते थे।
भुवनेश्वर कई मित्रों के यहां महीनों निःसंकोच रह लिया करते थे और किसी से भी पैसे मांगने में शर्म नहीं करते थे। उनके कपड़े तक इस्तेमाल करते। वे कई बार कवि शमशेर बहादुर सिंह के घर रहे और शमशेर जी ने अपने बनिये से कह रखा था कि भुवनेश्वर को जो भी जरूरत हो, दे दिया करें और पैसे वे चुकायेंगे। मजे की बात ये कि खुद शमशेर जी का बनिये का उधार खाता उनके भाई चुकाया करते थे। वे शमशेर जी की जेब से रोजाना भाँग के लिए दूसरे तीसरे दिन गिन कर 6 पैसे निकाल लेते। यह वह वक्त था जब साहित्यकार आपस में मिल जुल कर रहते थे और कभी किसी को आर्थिक अभाव महसूस न होने देते।
भुवनेश्वर को छद्म गंभीरता और झूठी शालीनता पसंद नहीं थी। वे सबसे तू तड़ाक से बात करते। काशीनाथ सिंह जी बताते हैं कि नामवर जी का आग्रह रहता कि जब भी भुवनेश्वर उनके पास पैसे मांगने आयें, उन्हें पैसे देने के बजाये खाना खिलाया जाये। भुवनेश्वर यही नहीं कर पाते थे। काशीनाथ जी उनसे अपनी मुलाकातें याद करते हुए बताते हैं कि भुवनेश्वर बहुत समझदार और अपने वक्त से बहुत आगे के रचनाकार थे।
1948 से उनका मानसिक असंतुलन शुरू हुआ पर विक्षिप्त नहीं कहे जा सकते थे। नवंबर 1957 तक वे लखनऊ, बनारस, शाहजहांपुर और इलाहाबाद में फटेहाल घूमते देखे गये। वे तब बोरे के कपड़े पहनने लगे थे। मित्र उन्हें घर ले आते थे लेकिन वे जहां तक जा चुके थे, वापसी संभव नहीं थी।
उनकी मृत्यु की तारीख और शहर के बारे में मतभेद है। इलाहाबाद वाले बताते हैं कि वे शायद 1957 दिसंबर में इलाहाबाद स्टेशन के प्लेटफार्म पर लावारिस हालत में मरे हुए पाये गये थे जबकि बनारस वाले मानते हैं कि वे वाराणसी के दशाश्वमेध घाट के पास गरीबों के लिए बनाये गये डेरे पर गुजरे थे।
कितनी अजीब बात है कि इतने बड़े लेखक की यही एक तस्वीर मिलती है। डाक्टर दूधनाथ सिंह ने भुवनेश्वर की रचनाएं एक ही जगह प्रस्तुत करने की दिशा में भुवनेश्वर समग्र तैयार करके बड़ा काम किया है।
पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव। बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाये। वे कद में नाटे और देखने में सांवले थे।
वरिष्ठ लेखक श्री दूधनाथ सिंह भुवनेश्वर को प्रेमचंद की खोज मानते हैं। प्रेमचंद कहते थे कि यदि भुवनेश्वर में कटुता और जैनेन्द्र में दुरूहता कम हो तो दोनों का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। भुवनेश्वर की एक मात्र प्रकाशित किताब कारवां की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी थी। उनकी अब तक प्राप्त 12 कहानियों में से 9 और अब तक प्राप्त 17 नाटकों में से 9 प्रेमचंद के हंस में ही प्रकाशित हुए। उनकी कहानी भेड़िये की तुलना में तब की और बाद की भी कोई कहानी नहीं ठहरती। वे बहुत उर्वर, कल्पनाशील, प्रखर और सहज लेखक थे। उनकी पहली रचना सूरदास की पद शैली में लिखी गयी कविता है।
भुवनेश्वर के नाटकों में से किसी का भी मंचन उनके जीवन काल में नहीं हुआ। इतने बड़े नाटककार की कृतियों को मंच पर उतारने के बारे में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने कभी नहीं सोचा।
बाइबिल भुवनेश्वर की प्रिय किताब थी। वे गांधी जी को बहुत मानते थे।
भुवनेश्वर ने कई बार हाडा, वीपी, आरडी आदि छद्म नामों से भी लिखा। भुवनेश्वर को हिंदी एकांकी का जनक माना जाता है। भुवनेश्वर के कद का लेखक, चिंतक और सूझबूझ से भरा व्यक्ति हर युग में पैदा नहीं होता। भुवनेश्वर ने छिटपुट रेडियो की नौकरियां कीं लेकिन वहां उनका दम घुटता था। कई बार तो रेडियो से मिली किताब की समीक्षा करने के बजाये किताब बेच कर दारू पी लेते। हालांकि खुद फटेहाल होते हुए भी वे दूसरों की मदद कर दिया करते थे।
भुवनेश्वर बेहद सूझबूझ वाले और ब्रिलिएंट आदमी थे। वे अच्छी अंग्रेजी बोलना और लिखना पसंद करते थे। अंग्रेजी में लिखी गयी उनकी 10 कविताएं साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। शास्त्रीय संगीत में उनकी रुचि थे। जब मस्ती में होते तो कबीर, सूर, तुलसी मीरा के पद गाते। वे किसी से ज्यादा बात करना पसंद नहीं करते थे। वे उर्दू शायरों को पसंद करते थे।
भुवनेश्वर कई मित्रों के यहां महीनों निःसंकोच रह लिया करते थे और किसी से भी पैसे मांगने में शर्म नहीं करते थे। उनके कपड़े तक इस्तेमाल करते। वे कई बार कवि शमशेर बहादुर सिंह के घर रहे और शमशेर जी ने अपने बनिये से कह रखा था कि भुवनेश्वर को जो भी जरूरत हो, दे दिया करें और पैसे वे चुकायेंगे। मजे की बात ये कि खुद शमशेर जी का बनिये का उधार खाता उनके भाई चुकाया करते थे। वे शमशेर जी की जेब से रोजाना भाँग के लिए दूसरे तीसरे दिन गिन कर 6 पैसे निकाल लेते। यह वह वक्त था जब साहित्यकार आपस में मिल जुल कर रहते थे और कभी किसी को आर्थिक अभाव महसूस न होने देते।
भुवनेश्वर को छद्म गंभीरता और झूठी शालीनता पसंद नहीं थी। वे सबसे तू तड़ाक से बात करते। काशीनाथ सिंह जी बताते हैं कि नामवर जी का आग्रह रहता कि जब भी भुवनेश्वर उनके पास पैसे मांगने आयें, उन्हें पैसे देने के बजाये खाना खिलाया जाये। भुवनेश्वर यही नहीं कर पाते थे। काशीनाथ जी उनसे अपनी मुलाकातें याद करते हुए बताते हैं कि भुवनेश्वर बहुत समझदार और अपने वक्त से बहुत आगे के रचनाकार थे।
1948 से उनका मानसिक असंतुलन शुरू हुआ पर विक्षिप्त नहीं कहे जा सकते थे। नवंबर 1957 तक वे लखनऊ, बनारस, शाहजहांपुर और इलाहाबाद में फटेहाल घूमते देखे गये। वे तब बोरे के कपड़े पहनने लगे थे। मित्र उन्हें घर ले आते थे लेकिन वे जहां तक जा चुके थे, वापसी संभव नहीं थी।
उनकी मृत्यु की तारीख और शहर के बारे में मतभेद है। इलाहाबाद वाले बताते हैं कि वे शायद 1957 दिसंबर में इलाहाबाद स्टेशन के प्लेटफार्म पर लावारिस हालत में मरे हुए पाये गये थे जबकि बनारस वाले मानते हैं कि वे वाराणसी के दशाश्वमेध घाट के पास गरीबों के लिए बनाये गये डेरे पर गुजरे थे।
कितनी अजीब बात है कि इतने बड़े लेखक की यही एक तस्वीर मिलती है। डाक्टर दूधनाथ सिंह ने भुवनेश्वर की रचनाएं एक ही जगह प्रस्तुत करने की दिशा में भुवनेश्वर समग्र तैयार करके बड़ा काम किया है।
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