चंद्रकांत खोत को मराठी साहित्य जगत में एक बोल्ड लेखक के रूप में जाना जाता है। उभयान्वयी अव्यय, बिनधास्त, विषयांतर आदि मराठी बोल्ड उपन्यास लिखकर खोत ने साहित्य जगत में खलबली मचा दी थी। खोत लिखने से पहले बहुत रिसर्च करते थे और अपनी शैली को ले कर बहुत सतर्क रहते थे।
पुरुष वेश्या पर उनकी किताब उभयान्वयी अव्यय ने अच्छा खासा हंगामा मचाया था लेकिन खोत का कहना था कि वे इस विषय को मनोवैज्ञानिक तरीके से डील करना चाहते थे और इस विषय में जागरुकता लाना चाहते थे। 1995 के बाद वे 15 बरसों तक अज्ञातवास में थे और हिमालय में भटकते रहे। वहां भी यही देखा कि लूटने में पंडे भी किसी से कम नहीं। वापिस आ गये।
इस काल में उनका झुकाव अध्यात्म की ओर हुआ। खोत ने एक तरफ जहां मराठी साहित्य में बोल्ड उपन्यास लिखकर खलबली मचा दी थी वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक क्षेत्र को लेकर भी काफी कुछ लिखा। स्वामी विवेकानंद, साईंबाबा का चरित्र और स्वामी समर्थ के जीवन पर आधारित 11 उपन्यास लिखे। अबकड़ई का 21 वर्ष तक संपादन किया। उनके उपन्यास बिंब प्रतिबिंब का हिंदी अनुवाद रमेश यादव ने किया था जो भारतीय ज्ञानपीठ से छपा। मूल मराठी कृति को भारतीय भाषा परिषद ने पुरस्कृत किया था और यह पुरस्कार उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा के हाथों दिया गया था। खोत ने फिल्मों के गीत भी लिखे।
खोत देखने में बहुत सुंदर थे। मराठी फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री पद्मा चव्हाण उन्हें चाहती रहीं। वे बेशक लिविंग टूगेदर में नहीं थे लेकिन पद्मा के लिए उन्होंने अपनी पूरी जवानी कुर्बान कर दी। बाद में संबंध बिगड़ने पर चंद्रकांत खोत ने उन पर मुकदमा कर दिया। इस बात को लेकर वे बरसों तक केस लड़ते रहे कि इस औरत ने मेरा ब्रह्मचर्य छीना है। वे मुकदमा जीत गये थे और पद्मा पर दो चार हजार का जुर्माना लगाया गया था। खोत झल्लाये थे - मेरा लाखों का सावन गया और ....। वे उस मुकदमे को ले कर हाई कोर्ट भी गये थे।
वे लंबे अरसे तक सात रस्ता के पास एक चॉल में रहे। जब वहां भी रहना संभव न रहा तो उन्होंने अपने जीवन के आखिरी कुछ साल मुंबई के चिंचपोकली के एक साई मंदिर में बिताये।
उन्हें कलाकार कोटे की 1450 रुपये की मामूली पेंशन मिलती थी जिसमें उन्होंने कई बरस बिताये। इसे पाने के लिए भी उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। हमेशा बढ़ी हुई दाढ़ी में रहने वाले चंद्रकांत को लोग साधु समझते थे।
कलाकार/साहित्यकार कोटा के अंतर्गत उन्हें मकान दिये जाने वाली फाइल आखिर तक क्लीयर नहीं की गयी। दरअसल महाराष्ट्र सरकार कलाकारों को तो मकान देती है लेकिन साहित्यकारों के स्थान पर कवि कव्वाल शब्द लिखा हुआ है। कव्वाल को तो घर मिल भी जाये, साहित्यकार को नहीं मिलता।
वे मराठी साहित्य में लघु पत्रिका आंदोलन के सूत्रधार थे।
अपने पिचहत्तरवें जन्म दिन पर उन्होंने मित्रों से आग्रह किया कि वे सिर्फ किताबें ही उपहार के रूप में लायें। उस दिन उन्होंने उपहार में मिली और अपने वज़न के बराबर लगभग 40000 रुपये की किताबें एक पुस्तकालय को भेंट कीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें