मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

असगर वजाहत

वरिष्‍ठ कथाकार, नाटककार, लघुकथा विशेषज्ञ, यायावर, फोटोग्राफर और यारबाश असगर वजाहत अपने लिखने की तकलीफों के बारे में कुछ रोचक बातें हमसे शेयर कर रहे हैं।

लिखने के बारे में अपने आप को तैयार करना? दो तीन बातें हैं। दरअसल लिखने के बारे में मुझे परिस्थितियां या विचार बहुत प्रेरित करते हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई विचार मन में तेजी से घुसता  है और फिर वह मुझे  चैन नहीं लेने देता जब तक कि आप अपनी बात को कागज पर न उतार लें। उतारने को एक कप चाय या जब पीता था तब सिगरेट मदद करती है। कुछ लोग शराब पीकर लिखते हैं लेकिन मुझसे यह नहीं होता। अपने आपको लेखन के लिए तैयार उस समय अधिक पाता हूं जब शारीरिक और और मानसिक रूप से कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती। शरीर का कोई हिस्सा दुःख रहा है, कहीं जाने की जल्दी है, कोई ज़रूरी काम करना है... ऐसे हालत में काम नहीं हो पाता। हाँ,  कभी-कभी अपने साथ ज्यादती भी करनी पड़ जाती है। लेकिन उसका नतीजा जल्दी सामने आ जाता है और यह पता चलता है कि लिखना कुछ और था लिख कुछ और गया। इसलिए लिखने का काम छोड़ कर अपने आप को बुरा भला कहने का काम शुरू हो जाता है।
अनुभव ने सिखाया है कि अपने ऊपर ज़ोर डालना बेकार है। जब जिस  बात को बाहर आना है वह बाहर निकलेगी उसका कोई दिन कोई तारीख, कोई समय नहीं है।  आफिस में बैठ कर भी कुछ कहानियां मैंने लिखी हैं।
एक बार ये हुआ कि सोचा किसी होटल में किराये का कमरा ले लिया जाए और वहां रह कर लिखा जाये। गए साहब। कमरा ले लिया। कमरे में आये तो बिलकुल अलग लगा। मैं कमरे में रखी हर चीज़ से अपना परिचय कराने लगा। इस काम में बहुत समय निकल गया। और कमरे से दोस्ती किये बिना मैं यहाँ बैठ कर लिख नहीं पाऊंगा। मन उकता गया...दो घंटे बाद कमरा छोड़ दिया। होटल वाले हैरान ..और मैं परेशान...।
मैं कुछ भी लिखने से पहले यह पसंद करता हूं कि अपने दोस्तों के साथ उसे शेयर कर सकूं। ऐसा करने से मेरे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार होता है। कभी-कभी तो बातचीत के दौरान  बंद  गाठें  खुल  जाती हैं जिनको अकेले में  नहीं सुलझा पाया था। जब मैं बात करता हूँ तो दूसरे आदमी या दोस्त की मौजूदगी एक तरह की चुनौती देती है।  इस चुनौती की वजह से दिमाग़ जल्दी जल्दी काम करना शुरू कर देता है। विशेष रूप से नाटक लिखने के लिए यह तैयारी बहुत काम आती है। नाटक के विषय को जितने लोग के साथ शेयर करता  हूं उतना ही अच्छा होता है। बहुत से सुझाव काम के भी हो सकते है और कुछ सुझाव बेकार भी हो सकते हैं।
टोटके तो ऐसा कुछ नहीं है जिन पर विश्वास करता हूं। हां यह जरूर है कि सफेद कागज पर काली रौशनाई से लिखना पसंद करता हूं।  सफेद को काला  करने का जुनून-सा उठता रहता है। सफेद काग़ज़ मुझे बेचैन कर देता है। यदि कागज पर लाइनें खींची हो तो मुझे  लिखने में असुविधा होती है। कलम  ठीक ढंग से नहीं चल रहा हो तो मैं उठाकर फेंक देता हूं। इसी वजह से  अच्छे कलम लिखने के लिए रखे हैं। अच्छे का मतलब महंगे नहीं बल्कि लगातार काम करने वाले। अगर लिखना बहुत जरूरी हो जाए तो कलम कागज की बंदिश भी टूट जाती है।
बुढ़ापे में भी मै बच्चों की तरह स्टेशनरी के लिए पागल रहता हूँ। बहुत साल पहले की बात है..न्यूयॉर्क में एक बहुत धनी महिला से दोस्ती हो गयी थी। उसने एक बार मुझसे पूछा था कि मै न्यूयॉर्क में क्या देखना या करना चाहता हूँ...मतलब उसके पास इतना धन था और मेरे ऊपर इतनी मेहरबान थी कि मैं कुछ भी कर या मांग सकता था... वह कितना ही पैसा खर्च कर सकती थी। मैंने उससे कहा था कि मुझे न्यूयॉर्क का सबसे बड़ा स्टेशनरी स्टोर दिखा दो। वह मुझे ले गयी थी। क्या स्टोर था। मैं तो पागल हो गया था..।
मैं यह नहीं चाहता कि मेरा आधा लिखा कोई पढ़े। कोई कोशिश करता है तो मुझे बड़ी परेशानी होती है। मैं चाहता हूं कि मैं अपनी जो भी चीज, अपनी रचना किसी के सामने पढ़ने के लिए रखूं तब ही वह पढ़ी जाये, उससे पहले नहीं।
शांति हो अच्छा है...न हो तो न हो...। कंप्यूटर पर  लिखना दो मित्रों ने सिखाया है...मेरे गुरू हैं... एक तो मौलाना सूरज प्रकाश.... जिनकी दाढ़ी  के कारण आजकल के हालात में चिंतित रहता हूँ...। दूसरे मित्र हैं भरत तिवारी जो हिन्दी वेब पर बहुत एक्टिव हैं... इन दोनों की मेहरबानी से छुट-पुट खट-पट कर लेता हूँ ...पर लंबा काम हाथ से ही होता है।

असगर वजाहत
 मोबाइल 9818149015

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