मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

मैंने पढ़ी किताबें - 2008 में

मैंने पढ़ी किताबें और देखीं फिल्में
यहां मैं 2008 के दौरान पढ़ी गयी उन किताबों की फेहरिस्त दे रहा हूं जो मैंने खरीदीं या किसी न किसी बहाने मुझ तक पहुंचीं। कुछ किताबें पुस्तकालय से ले कर भी पढ़ी होंगी लेकिन उनके नाम अभी याद नहीं आ रहे। ऐसी किताबें भी 25 तो रही ही होंगी। मेरे दोस्ती पूछ सकते हैं कि 366 दिन में इतनी ज्यादा किताबें कैसे पढ़ी जा सकती हैं भला। इसकी दो वजहें रहीं। एक्सीडेंट के कारण चार महीने तक बिस्तर पर रहा और ठीक हो जाने के बाद भी ऑफिस और घर की 4 किमी की दूरी नापने के अलावा कहीं ज्यादा दूर तक नहीं गया। सिर्फ पढ़ता रहा और बेहतरीन फिल्में देखता रहा। कुछ किताबों के नाम याद नहीं आ रहे। ये किताबें दिल्ली में अस्पताल में पढीं थीं। पहले सोचा था कि फिल्मों की तरह इन किताबों को भी अपनी पसंद के हिसाब से एक से पांच तक स्टार दूंगा लेकिन उसमें सारे दोस्तों के नाराज हो जाने का खतरा था, इसलिए सिर्फ नाम दे रहा हूं। मेरे पास अभी भी 50 किताबें तो होंगी जो अभी पढ़ी जानी हैं। उनका जिक्र अगली बार।
देखी गयी कुछ यादगार फिल्मों के नाम भी दे रहा हूं। ज्यादातर‍ फिल्में घर पर देखीं हैं।
1. मोहब्बत का पेड़ प्रिया आनंद कहानी संग्रह
2. अंधेरा समुद्र परितोष चक्रवर्ती कहानी संग्रह
3. अन्या से अनन्या प्रभा खेतान आत्म कथा
4. अपवित्र आख्यान अब्दुल बिस्मिल्लाह उपन्यास
5. आइने सपने और वसंत सेना रवि बुले कहानी संग्रह
6. आखिरी अढाई दिन मीना कुमारी की जीवनी जीवनी
7. इच्छायें कुमार अम्बुंज कहानी संग्रह
8. इस जंगल में दामोदर खडसे कहानी संग्रह
9. उड़ान जितेन ठाकुर उपन्यास
10. उधर के लोग अजय नावरिया उपन्यास
11. उषा वर्मा की कहानियां कारावास कहानी संग्रह
12. उषा राजे सक्सेना की कहानियां कहानी संग्रह
13. ओ इजा शंभु नाथ सती उपन्यास
14. कठपुतलियां मनीषा कुलश्रेष्ठ कहानी संग्रह
15. कागजी़ बुर्ज मीरा कांत कहानी संग्रह
16. कागजी है पैरहन इस्मत चुगताई आत्म कथा
17. काशी का अस्सी काशी नाथ सिंह
18. किस्सा कोहेनूर पंखुरी सिन्हा कहानी संग्रह
19. कुइंया जान नासिरा शर्मा उपन्यास
20. कोई मेरा अपना सुषमा जगमोहन कहानी संग्रह
21. कोहरे में कैद रंग गोविंद मिश्र उपन्यास
22. कौन कुटिल हम जानी प्रेम जनमेजय व्यंग्‍य
23. खारा पानी पाकिस्तानी लेखक उपन्यास
24. गुडि़या भीतर गुडि़या मैत्रेयी पुष्पा आत्म कथा
25. गुलमेंहदी की झाडि़यां तरुण भटनागर कहानी संग्रह
26. गेशे जम्पा नीरजा माधव उपन्यास
27. घर बेघर कमल कुमार कहानी संग्रह
28. चिडि़या फिर नहीं चहकी आलोक मेहता कहानी संग्रह
29. छावनी में बेघर अल्पना मिश्र कहानी संग्रह
30. जंगल का जादू तिल तिल प्रत्यक्षा कहानी संग्रह
31. कहानी संग्रह जया जादवानी कहानी संग्रह
32. जानकी पुल प्रभात रंजन कहानी संग्रह
33. तिनका तिनके पास अनामिका उपन्यास
34. तूती की आवाज ह्रषिकेश सुलभ कहानी संग्रह
35. दस द्वारे का पींजरा अनामिका उपन्यास
36. दावानल नवीन जोशी उपन्यास
37. देवी नगारानी की किताब कविता
38. धुनों की यात्रा पंकज राग अध्ययन
39. धूल पौधों पर गोविंद मिश्र उपन्यास
40. नाम में क्या रखा है हरि भटनागर कहानी संग्रह
41. उपन्यास नीलाक्षी सिंह उपन्यास
42. नूर जहीर बड़ उरैये उपन्यास
43. पंकज मित्र हुडुकलुल्लुा कहानी संग्रह
44. फालतू के लोग राजेन्द्र राजन कहानी संग्रह
45. फूलों का बाड़ा मो आरिफ कहानी संग्रह
46. फ्रिज में औरत मुशर्रफ़ आलम जौकी कहानी संग्रह
47. बहत्त र मील अशोक बटकर (मराठी) उपन्यास
48. बूढ़ा चांद शर्मिला बोहरा जालान कहानी संग्रह
49. बॉस की पार्टी संजय कुंदन कहानी संग्रह
50. ब्रजेश शुक्ला मंडी उपन्यास
51. भया कबीर उदास उषा प्रियंवदा उपन्यास
52. भारतीय कहानियां ज्ञानपीठ कहानी संग्रह
53. भूलना चंदन पांडेय कहानी संग्रह
54. मधु कांकरियां सेज पर संस्कृाति उपन्यास
55. मीना कुमारी की शायरी शायरी
56. मेरे हिस्से का शहर सुधीर विद्यार्थी संस्मरण
57. यत्र तत्र सर्वत्र शरद जोशी
58. ये मेरी गज़लें अहमद फ़राज़ शायरी
59. रघू रेहन पर काशी नाथ सिंह उपन्यास
60. राग विराग संतोष चौबे उपन्यास
61. रेत भगवान दास मोरवाल उपन्यास
62. वह आदमी फ़ज़ल ताबिश उपन्यास
63. वहीं रुक जाते नरेन्द्र नागदेव
64. शराबी की सूक्तियां कृष्ण कल्पित कविता
65. संगम अंजना संधीर
66. सीढि़यां, मां और उसका देवता भगवान दास मोरवाल कहानी संग्रह
67. सूरज नंगा है प्रेम जनमेजय व्यंग्य
68. सोफिया तोलस्तोया की डायरी रचना समय अंक डायरी
69. प्रियदर्शन कहानी संग्रह
70. गोरीनाथ कहानी संग्रह
71. अशोक अग्रवाल यात्रा संस्मरण
72. रूप सिंह चंदेल उपन्यास
73. मनोज रूपड़ा उपन्यास
74. The Devil wears Prada Laure weisberger Novel
75. Istanbul Orhan pamuk Novel
76. Mayada Jean sasson Memoirs
77. Complete works Ruskin Bond Stories and Novels
78. Kite Runner Khalid Hossaine Novel
79. Bertrand Russel’s autobiography Bertrand Russel autobiography
80. Love In The Time Of Cholera Gabriel Garcia Marquez Novel
81. Snow Orhan Pamuk Novel Still reading
82. I Too Had Dream Verghese Kurien autobiography Still reading
83. The Motorcycle Diaries Ernesto “Che” Guevara Still reading
84. Living to tell the tale Gabriel Garcia Marquez reading
85. Long way to freedom Nelson Mandela autobiography Still reading
86. Shanta ram Gregory David Novel

फिल्में जो देखीं – अधिकतर घर पर
1. After the rehearsal Ingmar Bergman
2. Benhur
3. Black diamond
4. Carry on spying
5. Casino royale
6. Come September
7. Confidentially yours
8. डोर
9. GiGi
10. La double vie
11. Le eclisse
12. Lolita
13. North by north west Alfred Hitchcock
14. Old man and the sea
15. On golden pond
16. Persona Ingmar Bergman
17. Phantom of liberty
18. Piano teacher
19. Private ryan
20. Promised land
21. Sweet November
22. The men of honour
23. The outsider
24. To kill a mocking bird
25. Virdiana
26. War and peace
27. Wild strawberries Ingmar Bergman
28. अनाड़ी राजकपूर
29. आग राजकपूर
30. आह राजकपूर
31. खुदा के लिए पाकिस्तानी
32. गॉड तुस्सी ग्रेट हो हिन्दी‍
33. चार्ली चैप्लिन की कई फिल्में
34. चीनी कम हिन्दी
35. चोरी चोरी राजकपूर
36. जागते रहो राजकपूर
37. जिस देश में गंगा बहती है राजकपूर
38. जॉनी गद्दार हिन्दी
39. टिंग्या् मराठी
40. तीसरी कसम राजकपूर
41. द नेमसेक
42. द लास्टै लायर हिन्दी
43. धरम हिन्दी
44. फैशन हिन्दी
45. बरसात राजकपूर
46. बाजी देव आनंद
47. ब्लैआक एंड व्हा्इट हिन्दी
48. भागम भाग
49. भेजा फ्राई
50. मनोरमा 6 फुट नीचे
51. मेरे बाप पहले आप
52. राम चंद पा‍किस्तानी
53. रॉक ऑन
54. वेडनेसडे
55. शराबी देव आनंद
56. प्रतिमा बांग्ला
57. वारिस शाह पंजाबी
58. खामोशी हिन्दी

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

अंग्रेजी फिल्में देखने के लिए अंग्रेजी जानना जरूरी नहीं है मनोज रूपड़ा के लिए





बात शायद १९९९ के मुंबई फि़ल्म फेस्टिवल की है। तब तक उसका मुंबई से स्थायी रूप से मोहभंग नही हुआ था और वह अपनी रोजी रोटी मुंबई में ही कमा खा रहा था। उन दिनों मेरा ऑफिस मुंबई में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुआ करता था और फि़ल्म फेस्टिवल के सीज़न टिकट मेरे ऑफिस के रास्ते में ही यशवंत राव चौहान हॉल में मिलने वाले थे। हमने तय किया कि किसी शनिवार को वहां जाकर लेते आएंगे। काउंटर पर जो अंग्रेजीदां लड़की बैठी थी, उसने फार्म उसकी तरफ बढ़ाया और अंग्रेजी में ही कहा कि इसे भर दीजिए और साथ में दो फोटोग्राफ दे दीजिए। उसने अपनी सदाबहार स्टाइल में कहा कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती। ये सुनते ही वह लड़की झटके से अपनी कुर्सी से खड़ी हो गई। उसका मुंह खुला का खुला रह गया। उसे कुछ सूझा ही नहीं कि क्या कहे। उसके सामने फैशनेबल कपड़े पहने एक खूबसूरत नौजवान खड़ा है जो फि़ल्म फेस्टिवल देखने की चाह रखता है और जब उसे इसके लिए फार्म भरने के लिए कहा जाता है तो बताता है कि उसे अंग्रेजी नहीं आती। उसने बट, हाउ जैसे कुछ शब्दों के सहारे जानना चाहा कि फिर आप ये फि़ल्में! तब हमारे नौजवान दोस्त ने उस लड़की से कहा था कि अंग्रेजी क्या, किसी भी भाषा की फि़ल्‍में देखने के लिए अंग्रेजी जानने की ज़रूरत नहीं होती।
यह खूबसूरत नौजवान था मनोज रूपड़ा। उसे सचमुच अंग्रेजी बोलना, पढ़ना या लिखना आज भी नहीं आता, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उसने जितनी संख्या में अंग्रेजी की और दुनिया भर की दूसरी भाषाओं की फि़ल्में देखी होंगी, शायद ही किसी हिंदी कहानीकार ने देखी होंगी। और मैं यह शर्त भी बद सकता हूं कि जिस अधिकार और आत्‍मविश्वास के साथ वह दुनिया की किसी भी भाषा की फि़ल्म के क्राफ्ट, शिल्प, कैमरावर्क, स्क्रिप्ट और दूसरे तकनीकी पक्षों पर बात कर सकता है, शायद ही कोई और समकालीन कहानीकार कर सकता है। उसने पहली संगमन गोष्‍ठी में आज से पंद्रह बरस पहले समांतर फि़ल्मों पर कोई तीस पेज का गंभीर लेख पढ़कर सुनाया था।
अब जब फि़ल्मों की बात चल रही है तो पहले यही बात पूरी कर ली जाए। अभी पिछले दिनों पुणे में इंटरनेशनल फि़ल्म फेस्टिवल सम्पन्‍न हुआ। मैंने मनोज को इसके बारे में बताया तो उसने तुरंत अपने फोटो भेज दिए कि उसके लिए भी सीज़न टिकट बुक करवा रखूं। वह पूरे हफ्ते के लिए आएगा। इसी फेस्टिवल के लिए दिल्ली से मेरे बहुत पुराने दोस्त और कथाकार सुरेश उनियाल भी आ रहे थे। पुणे में ही स्थायी रूप से बस चुके विश्व सिनेमा पर अथॅारिटी समझे जाने वाले हमारे दोस्त मनमोहन चड्ढा तो थे ही। हमने एक साथ खूब फि़ल्में देखीं, खूब धमाल किया और देखी गई और न देखी गई फि़ल्मों पर खूब बहस भी की। इसी फेस्टिवल में हमने एक ऐसी फि़ल्म देखी, जिसके बारे में मैंने मनोज से ही सुना था और इसके बारे में इंटरनेट से और जानकारी खंगाली थी। (मनोज यह फि़ल्म पहले देख चुका था और उसका आगामी उपन्‍यास भी इसी फि़ल्म से गहरा ताल्लुक रखता है।) यह फि़ल्म थी १९२७ में प्रदर्शित हुई फिट्ज़ लैंग की मेट्रोपॉलिस।। ढाई घंटे की यह मूक फि़ल्म कई मायनों में अद्भुत थी और अपने वक्त से बहुत आगे की बात कहती थी। पूंजी और श्रम के बीच के टकराव, आदमी को पूरी तरह से निचोड़कर रख देने वाली दैत्या कार मशीनें, आदमी और मशीन की लड़ाई, डबल रोल, रोबो की कल्पना और उसके ज़रिए हमशक्‍ल नेगेटिव पात्र का सृजन, कल्पनातीत स्‍पेशल इफेक्‍टृस वग़ैरह फि़ल्म निर्देशक आज से अस्सी साल पहले परदे पर साकार कर चुका था। इस फेस्टिवल में हमने जितनी फि़ल्में देखीं, उनमें मादाम बावेरी और मैट्रोपोलिस सबसे अच्छी रहीं।
फि़ल्मों का चस्का मनोज को दुर्ग के दिनों से है। उन दिनों वह दुर्ग में प्रगतिशील लेखक संघ का अध्यक्ष हुआ करता था। मध्‍य प्रदेश में उन दिनों तक एक सिलसिला चला करता था महत्व फलां फलां। इसके अंतर्गत रचनाकारों पर केन्द्रित कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। भीष्म साहनी आदि पर हो चुके थे और दुर्ग में ‘महत्‍व नामवर सिंह’ के आयोजन की रूपरेखा बनायी गई थी। इस काम के लिए एक लाख का बजट था। बताया गया कि कोई व्यापारी धन देगा। स्थानीय इकाई के अध्‍यक्ष होने के नाते मनोज ने इसका विरोध किया और कहा कि मजदूर विरोधी पूंजीपति के पैसे से इस कार्यक्रम को वे नहीं होने देंगे। इसके बजाए कम खर्चे पर कोई फि़ल्‍म आधारित कार्यक्रम रखा जाए। संस्था में दो गुट बन गए। ज़्रयादातर सदस्य ‘महत्व नामवर सिंह’ के पक्ष में। मनोज ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और अकेले अपने बलबूते पर फि़ल्म आधारित कार्यक्रम की तैयारियां की। फि़ल्मों पर बात करने और कुछ चुनींदा फि़ल्में दिखाने के लिए प्रख्यात फि़ल्म हस्ती सतीश बहादुर को आमंत्रित किया गया। संयोग ऐसा बना कि आयोजन में भाग लेने के लिए कोई भी नहीं आया। बेशक सतीशजी अपने तामझाम के साथ वहां पहुंच गए थे।
निराश कर देने वाले ऐसे मुश्किल पलों में भी कुछ सुंदर, कुछ शिव छुपा हुआ था। मनोज अकेले ही पूरे अरसे तक सतीश बहादुर से फि़ल्मों की बारीकियों का गंभीर अध्ययन करता रहा। उनके द्वारा लाई गईं दुर्लभ फि़ल्मों का इकलौता दर्शक बना रहा और उन पर बात करता रहा। बेशक बीच-बीच में दो चार लोग आते जाते रहे होंगे, लेकिन कुल मिलाकर ये पूरा सिलसिला वन टू वन ही रहा। शायद सतीशजी को भी न पहले न बाद में इस जैसा समर्पित विद्यार्थी कभी मिला होगा। उन्हीं की सिफारिश पर बाद में मनोज ने पटना में प्रकाश झा की पंद्रह दिवसीय कार्यशाला में सक्रिय भागीदारी की और फि़ल्म की भाषा को और गहराई से पढ़ा। बाद में ‘महत्व नामवर सिंह’ भी हुआ जिसमें मनोज नहीं गया, बेशक नामवरजी उसके बारे में पूछताछ करते रहे।
मनोज पर यह बात सिर्फ़ फि़ल्मों के बारे में ही लागू नहीं होती। वह मध्य प्रदेश की लोक कलाओं और लोक कलाकारों से भी नज़दीकी से जुड़ा रहा है और उन पर भी पूरे अधि‍कार के साथ बात कर सकता है। वह नाचा के महान कलाकार मदन निषाद का मुरीद है और उन्हें दुनिया के किसी भी कलाकार की तुलना में श्रेष्ठ मानता है। उसे इस बात का भी बेहद अफसोस है कि मदन निषाद की कला उनके साथ ही ख़त्म हो गई है। न केवल लोक कलाओं से बल्कि नाटक से भी उसका नाता रहा है और उसने देवेन्द्र् राज अंकुर के निर्देशन में नाटकों में काम भी किया है।
मनोज के यही स्कूल रहे हैं जहां बेशक अंग्रेजी नहीं पढ़ाई जाती थी, लेकिन जीवन के सारे असली पाठ मनोज ने इन्हीं पाठशालाओं से सीखे हैं। वाचिक परंपरा कह लें या चीज़ों को देखने परखने की गहरी दृष्टि और लगन, मनोज ने स्कूली पढ़ाई की कमी इसी तरह पूरी की है। मनोज ने पढ़ा भी ख़ूब है। जो कुछ हिन्दीं के ज़रिए उस तक पहुंचा, उसने उसे आत्मसात किया है। अब ये बात अलग है कि एक्ट्रा ट्यूटोरियल के नाम पर मनोज ने कुछ बदमाशियां, कुछ हरमज़दगियां और कुछ आउट ऑफ़ कोर्स की चीज़ें भी सीखीं और इफरात में सीखीं। ये बातें भी मनोज के सम्पूंर्ण व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा हैं। बेशक सामने वाले को हवा भी नहीं लगती कि ये सामने गैलिस वाली पैंट और अजीब सी कमीज़ पहने या परदे के कपड़े की पैंट और उस पर सुर्ख लाल कमीज पहने भोला सा लड़का खड़ा है, जो किसी भी परिचित या अपरिचित व्यक्ति से बात तक करने में संकोच करता है, और मुश्किल से ही सामने वाले से संवाद स्थापित कर पाता है, दरअसल खेला खाया है और जीवन के हर तरह के अनुभव ले चुका असली इंसान है।
लेकिन एक बात है। जब अनुभव लेने की बात आती है या जीवन के किन्हीं दुर्लभ पलों का आनंद लेने की बात आती है तो मनोज के सामने बस वही पल होते हैं। उसमें लेखक के रूप में उस अनुभव से गुज़रने की ललक कहीं नहीं मिलती कि घर जाकर इस अनुभव को एक धांसू कहानी में ढालना है। मनोज की इसी बात पर मैं जी जान से फि़दा हूं। उसका कहना है कि जो लोग हर वक्त लेखक बने रहते हैं, न तो जीवन का आनंद ले पाते हैं और न ही स्थायी किस्म का लेखन ही कर पाते हैं। भोगा हुआ सबकुछ कहानी का कच्चा माल नहीं होना चाहिए। कुछ ऐसा भी हो जिसमें आपने भरपूर आनंद लिया हो। उसे लिखने का कोई मतलब नहीं होता। लेखक को बहुत कुछ पाठक पर भी छोड़ देना चाहिए और सबकुछ जस का तस उसके सामने नहीं परोस देना चाहिए कि अख़बार की ख़बर और कहानी में फ़र्क किया ही न जा सके। यही वजह है कि उसकी कोई भी कहानी-पता है कल क्या हुआ मार्का नहीं है। मनोज यह भी मानता है कि कभी भी पाठक को कम करके मत आंको। वह भी लेखक के समाज का ही बाशिंदा है और हो सकता है लेखक से ज्यादा संवेदनशील हो और च़ीजों को बेहतर तरीके से जानता हो।
एक बार मनोज देर रात मुंबई में वीटी स्टेशन के पास मटरगश्ती कर रहा था। उसका सामना वहीं चौराहे पर बैठे कुछ आवारा छोकरों के साथ हो गया। वे लड़के दीन दुनिया से ठुकराये गए थे और उन्होंने अपने आप को नशे की दुनिया के हवाले कर रखा था। मनोज भी रोमांच के चक्कर में उनमें जा बैठा और जल्द ही उनके साथ घुल मिल गया। अब मनोज एक दूसरी ही दुनिया में था। वह कई घंटे उनके साथ रहा और उनके बीच में से ही एक बनकर रहा। वहीं पर उन बच्चों के बारे में रोंगटे खड़े कर देने वाले कई सच उसके सामने आए लेकिन मुझे नहीं लगता कि उसने मेरे या अपने अभिन्न मित्र आनंद हर्षुल के अलावा किसी और से ये अनुभव बांटे हों या इस पर कुछ लिखा हो।
लेखन और आनंद या जि़न्दगी को भरपूर जीना उसके लिए अलग अलग चीज़ें हैं और उनमें कोई घालमेल नहीं। मैं कितने ही ऐसे रचनाकारों को जानता हूं जिन्हों ने रात को घटी घटना पर सुबह सुबह ही कहानी लिखकर पहली ही डाक से किसी प्रिय संपादक के पास रवाना भी कर दी। यह बात दीगर है कि इस तरह की रचना कितनी देर के लिए और किस तरह प्रभाव छोड़ती है।
मनोज ने कार्ल मार्क्स और दूसरा विश्व साहित्य भट्ठी के आगे बैठे हुए कढ़ाई में दूध औंटाते हुए पढ़ा है। मुझे नहीं पता कि किन वजहों से उसकी स्कूली पढ़ाई छूटी होगी, लेकिन एक बात तय है कि मनोज ने गोर्की की तरह जो कुछ जीवन की पाठशालाओं में सीखा है, हमारे देश के किसी स्कूल की न हैसियत थी और न है कि उसे वह सबकुछ सिखा सकता जो उसने स्कूल से बाहर रहकर सीखा है। यही उसके जीवन की असली पाठशालाएं है।
मनोज जब छठी कक्षा में ही था तो उसे जुए की लत लग गयी। दोस्तों के साथ चितपट नाम का जुआ खेलना मनोज को बहुत भाता था। एक दिन इसी चक्कर में शहर के गांधी चोराहे पर मनोज चार दोस्तों के साथ जुआ खेल रहा था तभी एक लड़के के पिता वहां आ पहुंचे। तब मनोज की जो पिटाई हुई, उसकी टीस वह आज भी याद करता है। जुआ तो हमेशा के लिए छूटा ही, स्कूल भी तभी छूट गया था।
एक और बार मनोज बुरी तरह से पिटते-पिटते बचा। दुर्ग में एक व्यापारी हैं जिनका शराब बनाने का कारखाना है। उनका सचिव था रमा शंकर तिवारी जो जनवादी लेखक संघ का पदाधिकारी था और मनोज का दोस्त। था। एक बार व्यापारी के यहां कोई पारिवारिक आयोजन था जिसमें सभी २५०० मज़दूरों को खाना खिलाना था। दारू का इंतज़ाम तो उनकी तरफ से था ही। तिवारीजी ने यारी-दोस्ती में खाना खिलाने का ठेका मनोज को दिलवा दिया। मनोज ने मज़दूरों की खान-पान की आदतों और उससे पहले पिलाई जाने वाली मुफ्त की शराब को देखते हुए २५०० की बजाये ३५०० लोगों के खाने का इंतज़ाम किया। ५०० मज़दूरों की पहली पंगत खाना खाने बैठी और जितना भी खाना तैयार था, सारा का सारा खा गयी। अब अगली पंगत बैठने के लिए तैयार लेकिन खाना भी नहीं और खाना तैयार करने के लिए सामान भी नहीं। हंगामा मच गया। मज़दूर शराब तो वैसे ही पिये हुए थे, तोड़-फोड़ पर उतर आये। मज़दूरों ने रसोई वाले हिस्सेी में हल्ला बोल दिया। सारे कारीगर प्राण बचाते भागे। पहले तो मनोज भी भागा लेकिन उसे लगा कि उसके भागने से कहीं हालत और न बिगड़ जायें, उसने सबको शांत करते हुए उन पांच छ: सौ मज़दूरों के जमावड़े के सामने माइक के जरिये भाषण देना शुरू कर दिया। मनोज साफ झूठ बोल गया और कहा कि ग़लती खाना बनाने वाले ठेकेदार की नहीं है। ठेकेदार को तो सामान दिया गया था और सिर्फ़ खाना तैयार करके खिलाने का काम सौंपा गया था। अब मज़दूरों का गुस्सा उस व्यापारी पर। उनके खिलाफ नारेबाज़ी होने लगी, नेता लोग आये और कारखाने में हड़ताल की घोषणा हो गयी। जब उस व्यापारी को पता चला कि एक तो मनोज ने सबको खाना नहीं खिलाया और ऊपर से झूठ बोलकर मज़दूरों को उनके खिलाफ भड़का कर हड़ताल भी करवा दी है तो रात को मनोज की पेशी हुई। मनोज ने साफ-साफ कह दिया कि जितने के लिए कहा गया था उससे ज्‍यादा खाना अगर सदियों से भूखे आपके ५०० मज़दूर खा गये तो मैं क्या करूं। अब मज़दूरों के हाथों पिटने से बचने के लिए कुछ तो करना ही था। जो भी सूझा मैंने बोल दिया।
मनोज से मेरी पहली मुलाक़ात १९९२ में कानपुर में पहले संगमन के मौके पर हुई थी। बेशक वह मौका मेरे लिए एक हादसे की तरह था। कुछ ही दिनों पहले मैं ‘वर्तमान साहित्‍य’ में अपनी विवादास्‍पद कहानी ‘उर्फ़ चंदरकला’ की वजह से सारे ज़माने की दुश्‍मनी मोल ले चुका था। कहानी सबसे ज़ेहन में ताजा थी। अब हुआ यह कि पहले संगमन के पहले सत्र का संचालन राजेन्द्र राव कर रहे थे। अध्यक्षता राजेन्द्र यादव कर रहे थे और मेरी यही वाली कहानी वे लौटा चुके थे। राजेन्द्र राव ने आव देखा न ताव, सत्र की शुरुआत में ही इस कहानी पर पिल पड़े। मुझे ही सबसे पहले बोलने के लिए आमंत्रित भी कर लिया। वे मुझे सबसे पहले बोलने के लिए आमंत्रित करने वाले हैं, यह मुझे पता नहीं था। किसी भी आयोजन में जाने का ये मेरा पहला ही मौका था। इस हिसाब से मैं सबसे पहली बार ही मिल रहा था। कुल जमा चार-पांच कहानियों की ही पूंजी थी मेरी। नर्वस मैं पहले से था, बाक़ी रही सही कसर रावजी ने पूरी कर दी। इस तरह की धज्जियां उखाड़ने वाली ओपनिंग से मैं गड़बड़ा गया और पता नहीं क्या-क्या बोलने लगा। दो चार मिनट तक बक-बक करने के बाद मैं बैठ गया। ये संगमन की शुरुआत थी जो मैंने बहुत ही बोदे ढंग से की थी। वहीं पर मैं अपनी कथाकार मित्र सुमति अय्यर से पहली और आखि़री बार मिला था। उनसे बरसों से पत्राचार था। कथाकार मित्र अमरीक सिंह दीप से भी लम्बी दोस्ती की शुरुआत वहीं से हुई थी। और वहीं पर मेरी पहली मुलाक़ात मनोज रूपड़ा से हुई।
शाम बहुत ही नाटकीय थी। रात किसी होटल में दैनिक जागरण की तरफ से डिनर का इंतज़ाम था और उससे पहले कहीं तरल गरल का आयोजन था, जिसके लिए चार बजते न बजते गुपचुप रूप से ख़ास दरबारियों को न्योते दिए जाने लगे थे।
जहां हमें ठहराया गया था, वहीं पर शाम के वक्त जयनंदन और मनोज से मेरा विधिवत परिचय हुआ और हम उसी पल दोस्त बन गए। मनोज ने मेरी कहानी पढ़ रखी थी और उसने कहा था कि राजेन्‍द्र राव तुम्हारी इस कहानी की इस तरह से बखिया उधेड़ने से पहले अपनी ‘कीर्तन’ कहानी का जिक्र करना क्यों भूल गए। उसमें वे कौन से मूल्यों की स्थापना की बात कर रहे थे। उसकी बातों से मेरा दिन भर का बिगड़ा मूड संभला था। तो हुआ यह कि कमरे में कई साहित्यरकार मित्र थे जो शाम वाले जमावड़े में न्योते नहीं गए थे और अलग अलग समूहों में बैठे शाम गुज़ारने का जुगाड़ बिठा रहे थे। तभी मनोज ने बताया कि उसके पास हाफ के करीब रम है, अगर कोई उसके साथ शेयर करना चाहे तो स्वागत है। अब मुझे ठीक से याद नहीं कि उस हाफ में से जयनंदन, मनोज और मेरे अलावा किस किस के गिलास भरे गए थे, लेकिन इतना याद है कि यह बैठक मनोज और जयनंदन के साथ एक लम्बीब दोस्ती की शुरुआत थी। बाद में जब मनोज अपने काम धंधे के सिलसिले में मुंबई आया तो हम अक्सर मिलते रहे। फोन पर बातें होती रहतीं। कभी कभार बैठकी भी जम जाती। अब मनोज के नागपुर चले जाने के बाद मैं जब भी वहां जाता हूं, वह मेरे लिए भरपूर समय निकालता है। फोन पर अक्सर बात होती ही रहती हैं।
जब पांचवां इन्दु शर्मा कथा सम्मान देने की बात चल रही थी, तब तक इस सम्मान के कर्ता धर्ता और मेरे मित्र तेजेन्द्र शर्मा पारिवारिक कारणों से लंदन जा चुके थे और उनकी हार्दिक इच्छा थी कि कैसे भी हो यह सम्मान चलते रहना चाहिए। वे इसकी सारी जि़म्मेवारी मुझे सौंप गए थे। संस्था की पहली पुस्तक बंबई-एक का सम्पादन भी मैं ही कर रहा था। तेजेन्द्र के लंदन होने के कारण इतना बड़ा आयोजन करने में मेरे सामने दिक्कतें तो आ ही रही थीं।
उन्हीं दिनों मनोज ने बताया कि उसे लंदन में ही अपनी मन पसंद का बहुत बढि़या काम मिल रहा है और वह कैसे भी करके लंदन जाना चाहता है। पासपोर्ट बनवाने के लिए उसने मेरी मदद मांगी थी। शायद घर के पते के प्रमाण को लेकर कुछ तकलीफ आ रही थी।
एक दूसरा संयोग यह हुआ कि तेजेन्द्र ने मुझसे पूछा कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इस बार यह सम्मान लंदन में ही दिया जाए। टिकट का इंतजाम वह कर देगा। मेहमान को अपने घर पर ठहरा भी देगा और थोड़ा बहुत लंदन घुमा भी देगा। लेकिन इसमें भी दिक्कतें थीं। बेशक तेजेन्द्र ने अपने पल्ले से बैंक में इतनी राशि जमा कर रखी थी कि कम से कम दो आयोजन आराम से किए जा सकें, लेकिन एहतियात के तौर पर आयोजन का सारा खर्च स्मारिका छाप कर पूरा किया जाता था। आयोजन लंदन में करने के अपने संकट थे, पूरी व्यवस्था यहीं से करनी होती। सिर्फ़ आयोजन वहां होता। स्मारिका छपवाने से भिजवाने तक। दूसरी बात, उन दिनों कथा सम्मान की शील्डा एक्रेलिका के एक बहुत बड़े बॉक्स में हुआ करती थी। उसे बनवा कर लंदन भिजवाना। और भी कई दिक्कतें थी़।
तेजेन्द्र ने इसका भी समाधान खोजा कि क्यों न ये सारी चीज़ें सम्मान पाने वाला लेखक अपने साथ लंदन लेता आए। पता नहीं क्यों मुझे यह बात हज़म नहीं हुई कि किसी रचनाकार से पूछें कि भई हम तुम्हें लंदन ले जाकर सम्मानित करना चाहते हैं, लेकिन तुम्हें सारा ताम झाम अपने साथ ख़ुद ही लंदन ले जाना होगा।
जब यह तय हो चुका था कि यह सम्मान मनोज रूपड़ा को उसके कहानी संग्रह ‘दफ़न और अन्य कहानियां’ पर दिया जा रहा है और वह ख़ुद लंदन जाने की जुगाड़ में है तो तेजेन्द्र ने कई बार मुझसे कहा कि मैं मनोज से बात करके देखूं। अगर वो राजी है तो हम उसे लंदन में सम्मानित करने की सोच सकते हैं। लेकिन मैं ही संकोच कर गया। मेरे अपने डर थे। मनोज अपना यार-दोस्त है। ख़ुद का सम्मान करवाने के लिए लंदन तक शील्ड ले जाने का बुरा नहीं मानेगा, लेकिन आने वाले वर्षों में सम्मानित होने वाले रचनाकार मुंबई के नहीं होंगे और हो सकता है, परिचित भी न हों। किसी से भी ये कहना कि अपने सम्मान का सामान लंदन लेकर जाओ, मुझे ठीक नहीं लग रहा था। मुझे यह भी डर था कि हिन्दीन साहित्य जगत इस प्रस्ताव का ख़ूब माखौल उड़ाएगा। फिर भी आज लगता है कि अगर मैंने मनोज से पूछ ही लिया होता तो शायद वह लंदन जाकर कथा सम्मान लेने वाला पहला लेखक बनता। क्या पता शील्ड वग़ैरह भिजवाने का कोई और इंतजाम हो गया होता और ये भी तो हो सकता था कि एक बार पासपोर्ट बन जाने और लंदन पहुंच जाने के बाद वहां उसे मनपसंद काम मिल गया होता और इस समय वह नागपुर के बजाय लंदन के किसी बाज़ार में जलेबियां छान रहा होता। लेकिन अब ये सब ख़्याली पुलाव पकाने का कोई मतलब नहीं। मनोज रूपड़ा ने मुंबई में ही पांचवां इन्दु शर्मा कथा सम्मान प्राप्त किया था और उसके बाद संयोग ऐसा बना कि अगले ही वर्ष से ये सम्मान कथा यूके के तत्वावधान में लंदन में ही दिया जा रहा है और मज़े की बात कि किसी भी सम्मा्नित लेखक को कुछ भी नहीं ले जाना होता। सारी व्यवस्था आपने आप हो जाती है।
वरिष्ठ कथाकार गोविन्द मिश्र जी के हाथों से सम्मान लेते समय मनोज ने बहुत ही कम शब्दों में अपनी बात कही थी लेकिन जो कुछ कहा था, वह मायने रखता है। उसने कहा था कि आमतौर पर सम्मानों के साथ कोई न कोई विवाद जुड़ा रहता है लेकिन यह सम्मान लेने में उसे कोई संकोच नहीं हो रहा है क्योंकि ये सम्मान एक लेखक द्वारा अपनी स्वर्गीय लेखिका पत्नी की याद में तीसरे लेखक को दिया जा रहा है और ये एक ईमानदार कोशिश है। मनोज ने अपने इस जुमले पर ख़ूब तालियां बटोरी थीं।
श्रीगंगानगर में २००४ में आयोजित संगमन में एक मज़ेदार किस्सा हुआ। आयोजन की दूसरी शाम की बात है। तरल गरल का इंतजाम किया गया था और कई रचनाकार जुट आए थे। कुछ बुलाए, कुछ बिन बुलाए। दस बारह लोग तो रहे ही होंगे। से रा यात्री, विभांशु दिव्याल, प्रियंवद, कमलेश भट्ट कमल, अमरीक सिंह दीप, ओमा शर्मा, मनोज रूपड़ा आनंद हर्षुल, मोहनदास नैमिशराय, हरि नारायण, देवेन्द्र और मैं वहां थे। शायद संजीव भी थे। दो एक और रहे होंगे। पीने वाले पी रहे थे और सूफी लोग बातें कर रहे थे। जिस तरह की बातें इस तरह के जमावड़े में पीते पिलाते वक्त होती हैं, वही हो रही थीं। तभी मनोज ने बताना शुरू किया कि किस तरह वह पुणे में एक देवदासी के सम्पर्क में आया था और देवदासियों के जीवन को नज़दीक से जानने के मकसद से वह उसके साथ कर्नाटक में कहीं दूर उसके गांव गया था। उसके परिवार से मिला था और उसके घर के सदस्य की तरह वहां दो तीन महीने रहा था। मनोज अपनी रौ में बात किए जा रहा था। तभी नैमिशरायजी ने टोककर उससे देवदासी के बारे में सवाल पूछे कि वह कैसी थी। उसका घरबार कैसा था। क्या उसके पति को और घरवालों को एतराज़ नहीं हुआ, वहां उसके जाने से। उसके बच्चों मां बाप वग़ैरह के बारे में उन्होंने कुछ सवाल पूछे। शायद एकाध सवाल सेक्स को लेकर भी पूछा। यहां मैं एक बात बता दूं कि देवदासियों पर नैमिशरायजी का एक उपन्यास ‘आज बाज़ार बंद है’ कुछ ही दिनों पहले आया था। उस वक्त तो मनोज ने गोलमाल उत्तार दे दिए थे उनके सवालों के, लेकिन बाद में मुझसे अफसोस के साथ कहा कि देवदासियों के जीवन पर पूरा उपन्यास लिखने के बाद वे पूछ रहे हैं कि देवदासी होती क्या है! आखि़र इस तरह के लेखन के क्या मायने होते हैं।
मनोज बेहतरीन कारीगर हैं। शब्द शिल्पी तो वो है ही। कई तरह की मिठाइयां और नमकीन बनाने के प्रयोग करता रहता है। वह दोनों जगह सफल हैं। लेखन में भी और धंधे में भी। हाल में ही उसने नागपुर में अपनी देखरेख में अपना ख़ूबसूरत घर भी बनवाया है। उसमें उसने लेखकों के लिए अलग से दो कमरे बनावाए हैं, जहां कोई भी लेखक (लेखिका भी) आराम से दो चार दिन गुज़ार सकता है।
लेकिन एक बात है। मनोज थोड़ा सा शेख चिल्ली भी है। जिस काम की उसे कोई समझ नहीं होती, उसमें भी हाथ डालकर दो चार लाख रुपये गंवाना उसे बहुत अच्छा लगता है। उसने कई धंधे शुरू किए और तगड़ा घाटा उठाने के बाद बंद भी किए। एक बार उसने मंबई से १६० किलोमीटर दूर रसगुल्ले बनाने का कारखाना लगवाया था। पता नहीं कितने बने और कितने बिके, लेकिन हमेशा की तरह उसने ख़ूब घाटा उठाकर धंधा बंद कर दिया। सीधा वह इतना है कि उसे आसानी से बुद्धू बनाकर उससे पैसे झटके जा सकते हैं। मुंबई के पांच सात बरस के प्रवास में कम से कम उसे १५ लाख रुपये का चूना तो लोगों ने लगाया ही होगा। लोगबाग उससे माल सप्लाई करने के बहाने पैसे ले जाते हैं और दोबारा कम से कम इस जनम में वे अपना चेहरा नहीं ही दिखाते। एक नहीं कई हैं जिन्होने बाकायदा मनोज रूपड़ा को दुहा है और कई बार दुहा है।
वह नुकसान उठाने के लिए हमेशा तैयार रहता है और नुकसान उठाने के लिए नये नये तरीके ढूंढता रहता है। ये मनोज के साथ ही हो सकता है कि उसे दस लाख की कीमत पर एक ऐसा मकान बेच दिया गया हो, जो पहले ही दो आदमियों को बेचा जा चुका था। मनोज के हाथ में आश्वासन तक नहीं आया कि इसके बदले तुम्हे दूसरा मकान दे देते हैं।
एक और मज़ेदार किस्सा हुआ उसके साथ। घाटकोपर में उसके कारखाने मे पास ही दोपहर के वक्त कोई लड़का घबराया हुआ आया और लोगों से कहने लगा कि मुझे कहीं छुपा लो, गुंडे मेरे पीछे लगे हैं। जब उसे पानी वानी पिलाया गया तो उसने बताया कि उसकी पांच लाख की लाटरी लगी है और गुंडे टिकट छीनने की फिराक में हैं और वह जान बचाता फिर रहा है। बहुत डरते डरते उसने लाटरी की टिकट और अख़बार में छपा लाटरी का परिणाम दिखाया जिसमें पहला ईनाम उसी नम्ब र पर था। उस लड़के ने तब कहा कि वह कैसे भी करके इस टिकट से जान छुड़ाना चाहता है ताकि उसकी जान बची रहे। आखि़र सामूहिक रूप से सौदा पटा और शायद तीन लाख में कुछ लोगों ने मिलकर उससे वह टिकट ख़रीद लिया। अपने मनोज भाई भी उनमें से एक थे, बल्कि सबसे आगे थे।
जब ईनाम का दावा करने के लिए टिकट पेश किया गया तो पता चला कि ये स्कैन करके प्रिंट किया हुआ डुप्लीकेट टिकट था और इसी टिकट पर ईनाम के पांच दावेदार पहले ही आ चुके हैं।
तो ऐसे हैं अपने मनोज भाई। यारों के यार। खाने पीने और खिलाने पिलाने के शौकीन। घुमक्कड़ी का कोई मौका नहीं छोड़ते। उसकी घुम्मकड़ी का ये आलम था कि जब दुर्ग में दुकान पर बैठता था तो जब भी मन करे, गल्ले में से पैसे निकाले, शटर गिराए और घर में बिना बताए कहीं भी अकेले ही घूमने निकल जाया करते। बाद में जब स्वर्गीय कथाकार पूरन हार्डी का साथ मिला तो दूर दूर की यात्राएं कीं। उसके साथ घूमने की वजहें भी थीं। पूरन रेल्वे में था और मनोज के लिए डुप्लिकेट रेल्वे पास का इंतजाम कर दिया करता था। एक बार इसी तरह वह गोवा जा पहुंचा और मस्ती मारता रहा। पास में जितने पैसे थे, खत्म हो गए। उन्हीं दिनों गोवा में हबीब तनवीर साहब के नाटकों का उत्सव चल रहा था। मनोज साहब उसका लालच कैसे छोड़ें ! अटैची होटल के रिसेप्शन पर रखी थी। हफ्ते भर वहीं रखी रही। तो ढूंढते ढांढते मनोजजी को समुद्र तट पर एक मज़ार मिल गई। रात के डेरे की समस्या हल हुई। थोड़ा बहुत पेट में डालकर नाटक देखते। वापसी की यात्रा बिना टिकट के हुई। बस, पकड़े नहीं गए।
मनोज की एक बहुत अच्छी आदत है कि बस में ट्रेन में चीज़े भूल जाएंगे। मेरे घर रात गुजारी (मेरे घर का मतलब मेरा ही घर है, कहीं और नहीं) तो पर्स वहीं भूल जाएंगे। पता नहीं बस टिकट का इंतज़ाम कैसे करते होंगे। बसों में सामान भूलने में तो जनाब को महारत हासिल है। अपनी बनाई मिठाइयां और नमकीन तो हर बार बस में ही छोड़ आते हैं। एक बार राजकोट में ट्रेन में मनोज की अटैची चोरी चली गई। अब क्या हो! शायद पैसे भी उसी में थे। राजकोट से अहमदाबाद आए और वहां से भोपाल। देखते क्या हैं कि एक आदमी सामने ही उनकी अटैची लिए जा रहा है। मनोज को लगा कि यार ये अटैची तो जानी पहचानी लग रही है। फिर याद आया कि ये तो अपनी ही है जो परसों राजकोट में चोरी चली गई थी। उस भले आदमी को रोका, उससे झगड़ा हुआ, उसे अटैची के भीतर की सारी चीज़ों के बारे में बताया, तभी उसे वापिस ले सके।
लेकिन हर बार मनोज किस्मत के इतने धनी नहीं होते। जो खो गया उसे भुलाता चला गया। कभी मनोज से पूछूंगा कि जब गुमशुदा चीज़ों की गिनती सौ तक पहुंच जाए तो बताना। गुमशुदा शतक मनाएंगे।
मनोज ख़ूब पढ़ते हैं और किताबें ख़रीदकर पढ़ते हैं। जब से नागपुर गए हैं, संगीत के कार्यक्रमों में ज़्यादा जाने लगे हैं। और अब तो अपनी प्यारी और बहुत हंसमुख पत्नी मीता और उससे भी ज़्यादा प्या़री और नटखट बच्चियों आर्मी और प्रीतू को भी साथ ले जाने लगे हैं। वे नागपुर में पढ़ रहे मेरे बेटे के लोकल गार्जियन हैं और यदा कदा अपना फ़र्ज़ निभाते रहते हैं। हिन्दी के सभी छोटे बड़े लेखक मनोज के दोस्त हैं, लेकिन सगे दोस्तर आनंद हर्षुल और जयशंकर ही हैं।
उसकी एक बहुत अच्छी बात है कि वह जिस दोस्त के घर भी जाता है, वहां घर परिवार के सदस्य की तरह रह लेता है। कम से कम चीज़ों में गुज़ारा कर लेता है। खाने-पीने के कोई नखरे नहीं करता। ऐसे में मेज़बान दोस्त की पत्नी की तारीफ उसका काम और आसान कर देती है।
मनोज की प्रेमिकाओं के बारे में मुझे पता नहीं है। वैसे वह बीच बीच में न्यूज़ीलैंड का जिक्र करता रहता है कि कभी वहां जाना है। इस बार जब वह फि़ल्में देखने पुणे आया तो नागपुर स्टेशन पर उसने रास्ते में पढ़ने के लिए जानते हैं क्या ख़रीदा? दुनिया का नक्शा। सत्रह घंटे की यात्रा में वह उसमें न्यूज़ीलैंड ही खोजता रहा। वह सवेरे चार बजे मेरे घर पहुंचा था। उसने पहला काम ये किया कि मुझे नक्शा देते हुए न्यूज़ीलैंड खोजकर दिखाने को कहा। जब उसने देखा कि न्यू्ज़ीलैंड तो भारत से बहुत दूर है तो थोड़ा निराश हो गया था।
मनोज ने बहुत कम लिखा है। शायद पंद्रह बरस में पंद्रह कहानियां और पिछले दिनों पहला उपन्यास। लेकिन जो भी लिखा है, उसे यूं ही दरकिनार नहीं किया जा सकता। अभी उसे एक बहुत लम्बी पारी खेलनी है। लेखन की, यारबाशी की और अपनी तरह से अपनी शर्तों पर जीवन जीने की भी। उसकी इच्छा है कि अगले जन्म में वह भी मेरी तरह रिज़र्व बैंक की नौकरी करे, जहां खूब यात्राएं होती हैं और बकौल मनोज सारी सुविधाओं के बावजूद काम धेले का नहीं करना पड़ता। कहावत है कि अपने बच्चे और दूसरे की बीवी सबको अच्छी लगती है। मनोज ने इस सूची में मेरी नौकरी को भी शामिल कर लिया है।
ज़हे नसीब !
सूरज प्रकाश
अप्रैल 2005

रविवार, 16 नवंबर 2008

मेरा उपन्‍यास सुनो . . ..

कुछ दिन पहले मैंने आपको बताया था कि मेरे मित्र और विख्‍यात ब्‍लागर रवि रतनामी जी ने अपने सदाबाहर ब्‍लाग http://rachanakar.blogspot.com/ पर मेरे उपन्‍यास देस बिराना को ई बुक के रूप में डाला है। वे मेरे द्वारा अनूदित चार्ली चैप्‍लिन की आत्‍म कथा और चार्ल्‍स डार्विन की आत्‍म कथा को पहले ही ई बुक्‍स के रूप में अपने पाठकों को भेंट कर चुके थे।

अब वे मेरे इसी उपन्‍यास देस बिराना की आडियो रिकार्डिंग पेश कर रहे हैं। रिकार्डिंग लगभग 10 घंटे की है। बाकी जानकारी आपको इस लिंक http://rachanakar.blogspot.com/2008/11/3.html पर मिल जायेगी।
सूरज प्रकाश

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

आप बोलेंगे हिन्‍दी में और कम्‍प्‍यूटर टाइप करेगा

आप बोलेंगे हिन्‍दी में और कम्‍प्‍यूटर टाइप करेगा
जी हां, अब बाजार में एक ऐसा औजार आ गया है कि आप बोलेंगे हिन्दी में और कम्‍प्‍यूटर टाइप करेगा. आपसे बोलने में गलती होगी तो उसे दोबारा बोलने पर ठीक भी कर देगा. इतना ही नहीं, आपके प्री रिकार्डेड संदेश, भाषण या बोले गये टैक्‍स्‍ट को भी उसी बहादुरी के साथ टाइप करके आपको थमा देगा. ये पैकेज आपके लिए एडिटिंग करेगा, अलाइनमेंट करेगा, आउटपुट में मूल डॉक्यूमेंट का फार्मेट बनाये रखेगा शब्‍द जोड़ने, हटाने देगा, अपडेट करने देगा, और आपको शब्देकोश की सुविधा के अलावा पर्यायवाची शब्द भी देगा.
है ना मजेदार ख्याल कि आप चांदनी रात में अपनी बाल्‍कनी में अकेले बैठे बीयर के घूंट ले रहे हैं और हैड फोन लगाये अपनी कहानी, ग़ज़ल, उपन्यास या कुछ भी अपने पीसी को डिक्टेशन दे रहे हैं. एक नज़ारा और भी हो सकता है कि जो कुछ कहना है हमें हैड फोन लगा कर पीसी के सामने कह दें. एडि‍टिंग बाद में होती रहेगी.
और भी कई नज़ारे हो सकते हैं, सारे प्रेम वार्तालाप, मंत्री जी के भाषण, संतों की वाणी, बीवी या हस्‍बैंड के गुस्से भरे अलफाज़ जस के तस बोलते हुए टाइप होते चलें. न मुकरने की आशंका न भूलने का डर. कितना अच्छा कि हिन्दी टाइप करने के लिए लिखना पढ़़ना आना जरूरी नहीं. कोई भी अपने पीसी से ये काम ले सकता है. सेक्रेटरी नहीं आयी तो परवाह नहीं, वाचांतर पैकेज है ना....
ये वाचांतर पैकेज आपके लिए कई बरस की रिसर्च के बाद ले कर आये हैं पुणे की सीडैक के वैज्ञानिक. कीमत पूरे सेट की सिर्फ 5900 रुपये. मंगाने या ज्यादा जानकारी के लिए देखें www.cdac.in या सम्पर्क करें अजय जी से ajai@cdac.in पर या उनसे फोन 9371034560 पर बात करें
सूरज प्रकाश

शनिवार, 25 अक्टूबर 2008

उदंती.कॉम का स्‍वागत

हमारी एक मित्र हैं रत्‍ना वर्मा। रायपुर में रहती हैं और बरसों तक वहां इतवारी पत्रिका संभालती रही हैं। इधर वे एक बहुत ही शानदार पत्रिका ले कर हाजिर हुई हैं। नाम है उदंती.com।
आप निश्चित ही उदंती का मतलब भी पूछना चाहेंगे। मैंने भी पूछा था। उदंती दरअसल रायपुर के पास बहने वाली एक नदी का नाम है और इस नदी के तट पर इसी नाम का एक पक्षी विहार है।
36 पन्‍ने की इस पत्रिका की कई खासियतें हैं। पहली तो यही ही ये वेब पर udanti.com पर उपलब्‍ध होने के अलावा सचमुच की पत्रिका के रूप में प्रकाशित भी होती है। अब तक इसके तीन अंक आ चुके हैं। पत्रिका की दूसरी खूबी है इसका उत्‍तम कला पक्ष। शानदार आर्ट पेपर पर छपी पत्रिका का एक एक पन्‍ना जिन मेहनत और कलात्‍मक अभिरुचि से संजोया गया है, उसका बयान नहीं किया जा सकता।
तीसरा उल्‍लेखीय पक्ष इस पत्रिका का ये है कि इसमें लोककलाओं, कलाओं, लोक जीवन और संस्‍कृति को, चाहे वह छत्‍तीसगढ़ की हो या कहीं और की, खास तौर पर कलात्‍मक ढंग से सामने लाने की कोशिश की गयी है। रत्‍ना जी जल्‍द ही पत्रिका के सेंट्रल स्‍प्रेड पर ग़ज़लें, कविताएं, गीत और लघुकथाएं शुरू करने वाली हैं।
पत्रिका का ग्राहक बनने और रचनाएं भेजने के लिए पता है- udanti.com@gmail.com। आप रत्‍ना जी से इस पते पर भी सम्‍पर्क कर सकते हैं-
संपादक उदंती.com
माती'ज गैलरी जीवन बीमा मार्ग पंढरी, रायपुर
छत्‍तीसगझ़ 492004

सोमवार, 20 अक्टूबर 2008

इंदु शर्मा कथा सम्मान 2009 के लिए नामांकन

20 अक्तूबर 2008

इंदु शर्मा कथा सम्मान 2009 के लिए नामांकन

प्रिय मित्र
आप जानते ही हैं कि पिछले चौदह बरस के दौरान इंदु शर्मा कथा सम्मान ने अपनी चयन प्रव्रिᆬया, पारदर्शिता तथा समकालीन श्रेष्ठ साहित्य के प्रति अपनी आस्था और सम्मान भावना के कारण न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति आर्जत की है। 1995 से 1999 तक मुंबई में इंदु शर्मा कथा सम्मान क्रमशः गीतांजलिश्री, धीरेन्द्र अस्थाना, अखिलेश, देवेन्द्र और मनोज रूपड़ा को दिये जाने के बाद से सम्मान कथा यूके के बैनर तले लंदन में सुश्री चित्रा मुद्गल, सर्वश्री संजीव, ज्ञान चतुर्वेदी, एस आर हरनोट, वी एन राय, प्रमोद कुमार तिवारी, असग़र वजाहत, महुआ माजी और नासिरा शर्मा को दिये गये।
पुरस्कार की चयन प्रक्रिया में औेर अधिक पारदर्शिता लाने की दृष्टि से हम हर वर्ष देश भर में हिन्दी के सभी वरिष्ठ और सम्मानित कथाकारों, संपादकों और प्रकाशकों आदि से अनुरोध करते आ रहे हैं कि वे पिछले तीन बरस में प्रकाशित अपनी पसंद की तीन पुस्तकों की अनुशंसा करें। इन्हीं अनुशंसाओं के आधार पर ही पिछले आठ बरस से ये सम्मान दिये जा रहे हैं।
आप जानते ही हैं कि इस सम्मान के अंतर्गत चयन किये गये रचनाकार को लंदन आने जाने का हवाई जहाज का टिकट, एयरपोर्ट टैक्स, वीजा शुल्क आदि दिये जाते हैं और लंदन में एक सप्ताह तक उनके घूमने और रहने की व्यवस्था की जाती है तथा एक भव्य समारोह में मुख्य अतिथि के हाथों शील्ड, सम्मान पत्र और श्रीफल आदि दिये जाते हैं। सम्मान कार्यक्रम आम तौर पर जून के आस पास होता है। यह मौसम लंदन के हिसाब से सबसे बढ़िया रहता है।
हम चाहते हैं कि इस पुरस्कार के लिए समकालीन श्रेष्ठ साहित्य की चयन प्रक्रिया में आप बराबर के सहभागी बनें। इधर के तीन बरसों (2006 से 2008) के दौरान प्रकाशित, चर्चित, प्रशंसित और आलोचकों और पाठकों द्वारा सराही गयी कहानी अथवा उपन्यास विधा की किन्हीं तीन ऐसी पुस्तकों के नाम सुझायें जो आपकी निगाह में पुरस्कार के योग्य ठहरती हों।
आपकी राय हमें पहली जनवरी 2009 तक मिल जाये तो हम आपके बहुत आभारी होंगे। वैसे तो हम आपके द्वारा सुझायी पुस्तकों के अलावा अपने स्वयं के अध्ययन के जरिये पुस्तकें खुद खरीदते हैं। कई बार कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें भी हमारी निगाह में आ नहीं पातीं या हमें मिल नहीं पातीं। यदि आपको लगे कि कोई खास किताब हम तक जरूर पहुंचे तो आप ऐसी पुस्तक के बारे में हमें बता सकते हैं या उसकी एक प्रति भिजवा सकते हैं। जरूरत की अन्य प्रतियां हम मूल्य दे कर मंगवा लेंगे।
त्यौेहारों की शुभकामनाओं सहित,
आपका ही

सूरज प्रकाश
कथा यूके के भारतीय प्रतिनिधि
09860094402

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

कबाड़खाना.ब्‍लागस्‍पाट.कॉम पर किताबों की दुनिया पर मेरी पोस्‍ट

अच्‍छी किताबें पाठकों की मोहताज नहीं होतीं - मेरी ये पोस्‍ट पढि़ये kabaadkhaana.blogspot.com पर. आपकी राय का इंत‍ज़ार रहेगा

सूरज प्रकाश

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

17वीं पुण्‍य तिथि पर शरद जोशी को याद करते हुए


बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा लेखक होना बेहतर है.

आदमी के पास अगर दो विकल्‍प हों कि वह या तो बड़ा अफसर बन जाये और खूब मज़े करे या फिर छोटा मोटा लेखक बन कर अपने मन की बात कहने की आज़ादी अपने पास रखे तो भई, बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्‍यादा मायने रखता है. हो सकता है आपकी अफसरी आपको बहुत सारे फायदे देने की स्थिति में हो तो भी एक बात याद रखनी चाहिये कि एक न एक दिन अफसर को रिटायर होना होता है. इसका मतलब यही हुआ न कि अफसरी से मिलने वाले सारे फायदे एक झटके में बंद हो जायेंगे, जबकि लेखक कभी रिटायर नहीं होता. एक बार आप लेखक हो गये तो आप हमेशा लेखक ही होते हैं. अपने मन के राजा. आपको लिखने से कोई रिटायर नहीं कर सकता.
लेखक के पक्ष में एक और बात जाती है कि उसके नाम के आगे कभी स्‍वर्गीय नहीं लिखा जाता. हम कभी नहीं कहते कि हम स्‍वर्गीय कबीर के दोहे पढ़ रहे हैं या स्‍वर्गीय प्रेमचंद बहुत बड़े लेखक थे. लेखक सदा जीवित रहता है, भावी पीढियों की स्‍मृति में, मौखिक और लिखित विरासत में और वो लेखक ही होता है जो आने वाली पीढियों को अपने वक्‍त की सच्‍चाइयों के बारे में बताता है.
तो भाई मेरे, जब लेखक के हक के लिए, लेखक की अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के लिए और लेखक के सम्‍मान के लिए आपको पक्ष लेना हो तो आपको ऐसी अफसरी पर लात मार देनी चाहिये जो आपको ऐसा करने से रोके. आखिरकार लेखक ही तो है जो अपने वक्‍त को सबसे ज्‍यादा ईमानदारी के साथ महसूस करके कलमबद्ध करता है और कम से कम अपनी अपनी अभिव्‍यक्ति के मामले में झूठ नहीं बोलता.
ये और ऐसी कई बातें थीं तो शरद जोशी ने मुझसे उस वक्‍त कही थीं जब सचमुच मेरे सामने एक बहुत बड़ा संकट आ गया था कि मुझे तय करना था कि मुझे एक ईमानदार लेखक की अभिव्‍यक्ति की स्‍वंतत्रता के पक्ष में खड़ा होना है या अपनी अफसरी बचाने के लिए अपने आकाओं के सामने घुटने टेकने हैं.
एक बहुत बड़ा हादसा हो गया था. शरद जी का भरी सभा में अपमान हो गया था. बेशक सारे एपिसोड में सीधे सीधे मुझे दोषी करार दिया जा सकता था और दोष दिया भी गया था लेकिन एक के बाद एक सारी घटनाएं इस तरह होती चली गयीं मानों सब घटनाओं का सूत्र संचालक कोई और हो और सब कुछ सुनियोजित तरीके से कर रहा हो. मैं हतप्रभ था और समझ नहीं पा रहा था कि ऐसा कैसे हो गया और क्‍यों हो गया. बेशक शरद जी का अपमान हुआ था लेकिन मेरी भी नौकरी पर बन आयी थी.
हादसे के अगले दिन सुबह सुबह शरद जी के गोरेगांव स्थित घर जा कर जब मैं इस पूरे प्रकरण के लिए उनसे माफी मांगने आया था तो मैंने उनके सामने अपनी स्थिति स्‍पष्‍ट की थी और सिलसिलेवार पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया था तो बेहद व्‍यथित होने के बावजूद शरद जी ने मेरी पूरी बात सुनी थी, मेरे कंधे पर हाथ रखा था और पूरे हादसे को रफा दफा करते हुए नेहा से चाय लाने के लिए कहा था..
तब उन्‍होंने वे सारी बातें मुझसे कहीं थीं जो मैंने इस आलेख के शुरू में कही हैं.
ये शरद जी की प्‍यार भरी हौसला अफजाई का ही नतीजा था कि मैंने भी तय कर लिया था कि जो होता है होने दो, मैं अपने दफ्तर में वही बयान दूंगा जो शरद जी के पक्ष में हो, बेशक मेरी नौकरी पर आंच आती है तो आये..
जिस वक्‍त की ये घटना है उस वक्‍त तक मैंने लिखना शुरू भी नहीं किया था और लगभग 34 बरस का होने के बावजूद मेरी दो चार लघुकथाओं के अलावा मेरी कोई भी रचना कहीं भी प्रकाशित नहीं हुई थी. छटपटाहट थी लेकिन लिखना शुरू नहीं हो पाया था.. शरद जी से मैं इससे पहले भी एक दो बार मिल चुका था जब वे एक्‍सप्रेस समूह की हिन्‍दी पत्रिका के संपादक के रूप में काम कर रहे थे. तब भी उन्‍होंने मुझे कुछ न कुछ लिखते रहने के लिए प्रेरित किया था लेकिन मैं नहीं लिख पाया तो नहीं ही लिख पाया.
जिस घटना का मैं जिक्र कर रहा हूं, उस वक्‍त की है जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और वे देश भर में घूम घूम कर आम जनता की समस्‍याओं का परिचय पा रहे थे. इसी बात को ले कर शरद जी ने अपनी अत्‍यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना पानी की समस्‍या को ले कर लिखी थी कि किस तरह से राजीव गांधी आम जनता से पानी को ले कर संवाद करते हैं.. मैंने मुंबई में चकल्‍लस के कार्यक्रम में ये रचना सुनी थी और बहुत प्रभावित हुआ था. उस दिन के चकल्‍लस में जितनी भी रचनाएं सुनायी गयी थीं, सबसे ज्‍यादा वाहवाही शरद जी ने अपनी इस रचना के कारण लूटी थी.
चकल्‍लस के शायद दस दिन बाद की बात होगी. हमारे संस्‍थान में एक राष्‍ट्रीय स्‍तर का कार्यक्रम होना था जिसके आयोजन की सारी जिम्‍मेवारी मेरी थी. कार्यक्रम बहुत बड़ा था और इससे जुड़े बीसियों काम थे जो मुझे ही करने थे. तभी मुझसे कहा गया कि इसी आयोजन में एक कवि सम्‍मेलन का भी आयोजन किया जाये और कुछ कवियों का रचना पाठ कराया जाये. मैंने अपनी समझ और अपने सम्‍पर्कों का सहारा लेते हुए शरद जी, शैल चतुर्वेदी, सुभाष काबरा, आस करण अटल और एक और कवि को रचना पाठ के लिए आमंत्रित किया था. शरद जी और शैल चतुर्वेदी जी को आमंत्रित करने मैं खुद उनके घर गया था. सब कुछ तय हो गया था.
मैं अपने आयोजन की तैयारियों में बुरी तरह से व्‍यस्‍त था. कार्यक्रम में मंच पर रिज़र्व बैंक के गवर्नर, उप गवर्नर, अन्‍य वरिष्‍ठ अधिकारी गण उपस्थित रहने वाले थे और सभागार में कई बैंकों के अध्‍यक्ष और दूसरे वरिष्‍ठ अधिकारी मौजूद होते.
कार्यक्रम के‍ दिन सुबह सुबह ही मुझे विभागाध्‍यक्ष ने बुलाया और पूछा कि कार्यक्रम में कौन कौन से कवि आ रहे हैं. मैं इस बारे में उन्‍हें पहले ही बता चुका था, एक बार फिर सूची दोहरा दी. तभी उन्‍होंने जो कुछ कहा, मेरे तो होश ही उड़ गये.
विभागाध्‍यक्ष महोदय ने बताया कि पिछली शाम ऑफिस बंद होने के बाद कार्यपालक निदेशक महोदय ने उन्‍हें बुलाया था और बुलाये जाने वाले कवियों के बारे में पूछा था. जब उन्‍हें बताया गया कि शरद जी भी आ रहे हैं तो कार्यपालक निदेशक ने स्‍पष्‍ट शब्‍दों में ये आदेश दिया कि देखें कहीं शरद जी अपनी पानी वाली रचना न सुना दें. सरकारी मंच का मामला है और कार्यक्रम में रिज़र्व बैंक सहित पूरा बैंकिंग क्षेत्र मौजूद होगा, इसलिए वे किसी भी किस्‍म का रिस्‍क‍ नहीं लेना चाहेंगे.
विभागाध्‍यक्ष महोदय अब चाहते थे कि मैं शरद जी को फोन करके कहूं कि वे बेशक आयें लेकिन पानी वाली रचना न पढ़ें. मेरे सामने एक बहुत बड़ा संकट आ खड़ा हुआ था. मैं जानता था कि जो काम मुझसे करने के लिए कहा जा रहा है. वह मैं कर ही नहीं सकता. शरद जी जैसे स्‍वाभिमानी व्‍यंग्‍यकार से ये कहना कि वे हमारे मंच से अलां रचना न पढ़ कर फलां रचना पढ़ें, मेरे लिए संभव ही नहीं था. मैं घंटे भर तक ऊभ चूभ होता रहा कि करूं तो क्‍या करूं. मुझे फिर केबिन में बुलवाया गया और पूछा गया कि क्‍या मैंने शरद जी तक संदेश पहुंचा दिया है. मैं टाल गया कि अभी मेरी बात नहीं हो पायी है. उनका नम्‍बर नहीं मिल रहा है.
उन दिनों हमारे विभाग में डाइरेक्‍ट टैलिफोन नहीं था और आपरेटर के जरिये नम्‍बर मांग कर किसी से बात करना बहुत धैर्य की मांग करता था. मैंने उस वक्‍त तो किसी वक्‍त टाला लेकिन कुछ न कुछ करना ही था मुझे.
मेरी डेस्‍क पर आयोजन की व्‍यवस्‍था से जुड़े कई काम अधूरे पड़े थे जो अगले दो तीन घंटे में पूरे करने थे. अब ऊपर से ये नयी जिम्‍मेवारी कि शरद जी से कहा जाये कि वे हमारे कार्यक्रम में पानी वाली रचना न सुनायें. सच तो ये था कि शरद जी से बिना बात किये भी मैं जानता था कि वे हमारे कार्यक्रम में पानी वाली रचना ही सुनायेंगे.
चूंकि उन्‍हें आमंत्रित मैंने ही किया था, ये काम भी मुझे ही करना था. उनसे साफ साफ कहना तो मेरे लिए असंभव ही था लेकिन बिना असली बात बताये उन्‍हें आने से मना तो किया ही जा सकता था. तभी मैंने तय कर लिया कि क्‍या करना है. मैंने शरद जी के घर का फोन नम्‍बर मांगा ताकि उनसे कह सकूं कि बेशक कवि सम्‍मेलन तो हो रहा है‍ लेकिन हम आपको चाह कर भी नहीं सुन पायेंगे.
यहां मेरे लिए हादसे की पहली किस्‍त इंतज़ार कर रही थी. बताया गया कि शरद जी दिल्‍ली गये हुए हैं और कि उनकी फ्लाइट लगभग डेढ़ बजे आयेगी और कि वे एयरपोर्ट से सीधे ही रिज़र्व बैंक के कार्यक्रम में जायेंगे. हो गयी मुसीबत. इसका मतलब मेरे पास शरद जी को कार्यक्रम में आने से रोकने का कोई रास्‍ता नहीं. वे सीधे कार्यक्रम के समय पर आयेंगे और सीधे आयोजन स्‍थल पर पहुंचेंगे तो उनसे क्‍या कहा जायेगा और कैसे कहा जायेगा, ये मेरी समझ से परे था.
मैंने अपने विभागाध्‍यक्ष को पूरी स्थिति से अवगत करा दिया और ये भी बता दिया कि मैं जो करना चाहता था, अब नहीं कर पाऊंगा. कर ही नहीं पाऊंगा.
मैं अभी कार्यक्रम की तैयारियों में फंसा ही हुआ था कि कई बार पूछा गया कि शरद जी का क्‍या हुआ. मैं क्‍या जवाब देता. मुख्‍य कार्यक्रम साढ़े तीन बजे शुरू होना था और मुझे दो बजे बताया गया कि कैसे भी करके किसी बाहरी एजेंसी के माध्‍यम से कवि सम्‍मेलन की आडियो रिकार्डिंग करायी जाये.
हमारे संस्‍थान की एक बहुत अच्‍छी परम्‍परा थी कि आपका पोर्टफो‍लियो है तो सारे काम आपको खुद ही करने होंगे. कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आयेगा और न ही किसी को आपकी मदद के लिए कहा ही जायेगा. मरता क्‍या न करता, मैं एक दुकान से दूसरी दुकान में रिकार्डिंग की व्‍यवस्‍था कराने के लिए भागा भागा फिरा. अब तो इतने बरस बाद याद भी नहीं‍ कि इंतज़ाम हो भी पाया था या नहीं.
मुख्‍य कार्यक्रम शुरू हुआ. आधा निपट भी गया और बुलाये गये पांचों कवियों में से एक भी कवि का पता नहीं. कहीं सब के सब तो दिल्‍ली से नहीं आ रहे.. मैं परेशान हाल कभी लिफ्ट के पास तो कभी सभागृह के दरवाजे पर. कुल 5 लिफ्टें और कम्‍बख्‍त कोई भी ऊपर नहीं आ रही. मेरी हालत खराब. कार्यक्रम किसी भी पल खत्‍म हो सकता था और कवि सम्‍मेलन शुरू करना ही होता. एक भी कवि नहीं हमारे पास.
तभी एक लिफ्ट का दरवाजा खुला और एक कवि नज़र आये. मैं उन्‍हें फटाफट भीतर ले गया और उनसे फुसफुसाकर कहा कि अभी कोई भी नहीं आया है. बाकियों के आने तक आप मंच संभालिये. संचालन हमारे विभागाध्‍यक्ष महोदय कर रहे थे. उन्‍होंने ज्‍यों ही इकलौते कवि को देखा, उनके नाम की घोषणा की दी और कवि सम्‍मेलन शुरू. अब मैं फिर लिफ्टों के दरवाजों के पास खड़ा बेचैनी से हाथ मलते सोच रहा था कि अब मैं किसी भी अनहोनी को नहीं रोक सकता. किसी भी तरह से नहीं.
एक लिफ्ट का दरवाजा खुला. चार मूर्तियां नज़र आयीं. शैल जी, शरद जी, सुभाष काबरा जी और एक अन्‍य कवि. मेरी सांस में सांस तो आयी लेकिन अब मैं शरद जी से क्‍या कहूं और कैसे कहूं. किसी तरह उन्‍हें भीतर तक लिवा ले गया. अब जो होना है, हो कर रहेगा. शरद जी ने कुर्सी पर बैठते ही कहा, सूरज भाई एक गिलास पानी तो पिलवाओ. मैं लपका एक गिलास पानी के लिए. आसपास कोई चपरासी या टी बाय नज़र नहीं आया. मैं लाउंज तक भागा ताकि खुद ही पानी ला सकूं. जब तक मैं एक गिलास पानी ले कर आया, शरद जी के नाम की घोषणा हो चुकी थी. पानी पीया उन्‍होंने और मंच की तरफ चले.
तय था वे पानी वाली रचना सुनायेंगे. मेरी हालत खराब. इतनी सरस रचना सुनायी जा रही है और सभागृह में एकदम सन्‍नाटा. सिर्फ शरद जी की ओजपूर्ण आवाज़ सुनायी दे रही है.
गवर्नर महोदय ने उप गवर्नर महोदय की तरफ कनखियों से देखा. उप गवर्नर महोदय ने इसी निगाह से कार्यपालक निदेशक महोदय को देखा और कार्यपालक निदेशक महोदय ने अपनी तरफ से इस निगाह में योगदान देते हुए हमारे विभागाध्‍यक्ष को घूरा और आंखों ही आंखों में इशारा किया कि ये रचना पाठ बंद कराया जाये. हमारे विभागाध्‍यक्ष महोदय की निगाह निश्चित ही मुझ पर टिकनी थी और मेरे आगे कोई नहीं था. मैंने कंधे उचकाये – मैं कुछ नहीं कर सकता. मंच पर तो आप ही खड़े हैं..
एक बार फिर तेज़ निगाहों का आदान प्रदान हुआ और एक तरह से विभागाध्‍यक्ष को डांटा गया कि वे ये रचना पाठ बंद करायें. नहीं तो.. नहीं तो.. मैं आगे कल्‍पना नहीं कर पाया कि इस नहीं तो के कितने आयाम हैं. विभागाध्‍यक्ष डरते डरते शरद जी के पास जा कर खड़े हो गये लेकिन कुछ कह‍ने की हिम्‍मत नहीं कर पाये. यहां ये बताना प्रासंगिक होगा कि विभागाध्‍यक्ष खुद व्‍यंग्‍य कवि थे और दिल्‍ली में बरसों से कवि सम्‍मेलनों का सफल संचालन करते रहे थे. एक और कड़ी निगाह विभागाध्‍यक्ष की तरफ और उन्‍होंने धीरे से शरद जी से कहा कि आप कोई और रचना पढ़ लें, इसे न पढ़ें.
यही होना था. शरद जी हक्‍के बक्‍के. समझा नहीं पाये, क्‍या कहा जा रहा है उनसे.. फिर उन्‍होंने काग़ज़ समेटे और माइक पर ही कहा - ये तो आपको पहले बताना चाहिये था कि मुझे कौन सी रचना पढ़नी है और कौन सी नहीं, मैं पहले तय करता कि मुझे आना है या नहीं. मैं यही रचना पढूंगा या फिर कुछ नहीं पढूंगा.. बोलिये क्‍या कहते हैं...
एक लम्‍बा सन्‍नाटा. . . किसी के पास कोई शब्‍द नहीं.. कोई उपाय नहीं.. बिना शब्‍दों के ही सारा कारोबार हो रहा था.. अब शरद जी मंच से नीचे उतरे और सीधे सभागृह के बाहर..
अनहोनी हो चुकी थी.. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था.. हमारे एक वरिष्‍ठ अधिकारी जो कभी टाइम्‍स में पत्रकार रह चुके थे और कभी बंबई में शरद जी के साथ धोबी तलाव इलाके में एक लॉज में रह चुके थे, शरद जी को मनाने उनके पीछे लपके.
शरद जी बुरी तरह से आहत हो गये थे.. ये बताने का वक्‍त नहीं था कि ये सब क्‍यूंकर हुआ और इस स्थिति को कैसे भी करके टाला ही नहीं जा सका.
अगले दिन अखबारों में ये खबर थी. ऑफिस में मुझसे स्‍पष्‍टीकरण मांगा गया और मेरे लिए आने वाले दिन बहुत मुश्किल भरे रहे.. लेकिन शरद जी से‍ मिलने के बाद मेरी हिम्‍मत बढ़ी थी और मैं किसी भी अनचाही स्थिति के लिए अपने आपको तैयार कर चुका था.. शरद जी से उस मुलाकात के बाद ही मुझमें लिखने की हिम्‍मत आयी थी. अब मुझे लिखते हुए बीस बरस होने को आये.. शरद जी के वे शब्‍द आज भी हर बार कलम थामते हुए मेरे सामने सबसे पहले होते हैं‍ कि बहुत बड़े अफसर की तुलना में छोटा सा लेखक होना ज्‍यादा मायने रखता है.
मैं बेशक अपने संस्‍थान में मझोले कद का अफसर हूं लेकिन अपना परिचय छोटे मोटे लेखक के रूप में देना ही पसंद करता हूं. मुझे पता है,. जब तक चाहूं सक्रिय रह सकता हूं.. लेखन से रिटायरमेंट नहीं होता ना.... सूरज प्रकाश

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

कुछ अनछुए पल कमलेश्वर जी के साथ - प्रिया आनंद

ये रचना और साथ में चित्र मेरी टेलिफोन मित्र प्रिया आनंद ने हिमाचल प्रदेश से भेजे हैं. कमलेश्‍वर जी से जो भी मिला, उनका मुरीद हो गया. प्रिया मैडम ये दुर्लभ तस्‍वीरें मेरे ब्‍लाग के माध्‍यम से आप सब के साथ शे‍यर कर रही हैं. उनका स्‍वागत है.

सूरज प्रकाश

हिमाचल का एक प्यारा सा शहर मंडी

शिखर समारोह 2006 के एक दिन पहले वाली शाम मैं मंडी के ब्यूरो आफिस में थी। रात के दस बजे तक मैं और अजय (ब्यूरो) जागते ही रहे थे। संकन गार्डन के पुरातन घंटाघर से गजर की आवाज सुनाई दी, तो उस समय मेरे दिमाग में यही चल रहा था कि कल बहुत सारे ऐसे लोगों को देखूंगी, जिन्हें अब तक मैंने सिर्फ पढ़ा था। शाम भी देर तक मैं और अजय इंदिरा मार्केट में घूमते रहे थे। इस मार्केट को देखकर अचानक ही लखनऊ के गड़बड़झाला बाजार की याद आ गई। कुछ-कुछ वैसा ही माहौल था। हम सीढियों से उतर कर संकन गार्डन में गए। मंडी के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों की यहां सबसे ज्यादा बैठकें होती हैं। वहां बात यही चल रही थी कि कल कमलेश्वर जी आने वाले हैं।
- कमलेश्वर नहीं... पहाड़ों में आग आ रही है। किसी ने कहा था।
रात उनसे मेरी फोन पर बात हई। मैंने कहा आपका मंडी में स्वागत है।
``मंडी आ तो गया हूं, पर यह पता नहीं लग रहा है कि पूर्व में हूं या पश्चिम में´´ हंसकर उन्होंने कहा था।
अगले दिन विपाशा सदन में लेखकों का यह महाकुंभ आरंभ हुआ।


चित्रा मुद्गल, प्रभाकर श्रोत्रिय, लीलाधर जगूड़ी, राजेंद्र प्रसाद पांडेय, राजी सेठ, जया जादवानी और भारतीय दूरदर्शन के प्रथम स्क्रिप्ट राइटर कमलेश्वर। उनके अलावा और भी साहित्यकार थे।
सत्र का विषय था - मैं क्यों लिखता हूं।


``मैं यह नहीं कहूंगा कि किसी लड़की ने मेरा दिल तोड़ा है, इसलिए लिखता हूं कमलेश्वर जी ने मंच पर घोषित किया... लोग हंस दिए। इसके बाद उन्होंने अपनी बात शुरू की। शब्द... शब्द जैसे मोतियों की लडियां पिरोई जा रही हों।
उन्होंने कहा - यह सिल्क रूट की तरह साहित्य संस्कृति का चौराहा है, इसलिए मंडी है।´´ बात चली तो यशपाल, गुलेरी से होकर ओरवेल पामुक तक आ गई।
एक के बाद एक साहित्यकार बोलते गए। सत्र समाप्त हुआ।
ब्रेकफास्ट के दौरान मुझे शरारत सूझी, मैंने अपनी दोस्त से कहा... चल कमलेश्वर जी को छकाते हैं। साथ-साथ चलते हमने उन्हें एक क्षण के लिए रोका और उनके अगल-बगल हो लिए... काफी करीब।

तस्वीर बीरबल शर्मा ने खींची और एक उम्दा शरारत उसने भी की। कैमरे का फोकस सिर्फ मुझ पर और कमलेश्वर जी पर ही रखा। यह उसी शरारत की तस्वीर है। यह तस्वीर शाम धुलकर आई तो लोगों ने कहा, ऐसा नूर तुम्हारे चेहरे पर कभी नहीं आया। कैसे कहती कि जिस सूरज की तपिश मेरे साथ थी यह रौनक उसी से आई थी।
कमलेश्वर जी ने गायत्री जी से मेरा परिचय करवाया।
डाइनिंग हाल तक हम फिर साथ-साथ ही रहे।
सामने मुख्यमंत्री और कमलेश्वर जी, इधर मैं, गायत्री जी तथा कुछ अन्य लोग। इसी बीच मेरे मित्र अशेष ने मेरे पास आकर कहा... सारे पत्रकार उधर खड़े होकर खा रहे हैं, तुम यहां क्यों बैठी हो...?
``आपके राज्य अतिथि मेरे आत्मीय हैं, इसलिए उन्होंने मुझे यहां बिठा रखा है´´, मैंने जवाब दिया था।
खाना खत्म हुआ, लोग धीरे-धीरे धूप में आ गए।
हम धूप में ही कुर्सियों पर बैठे... कमलेश्वर जी, गायत्री जी और मैं।
मैंने कमलेश्वर जी से कहा- आप आज के दिन के लिए मेरी डायरी पर कुछ लिख दें। मैंने डायरी उन्हें थमा कर कैमरा फोकस कर लिया। मेरी डायरी हाथ में थामे उन्होंने ब्यास दरिया के बहते पानी पर एक नजर डाली और फिर ऊंचे हरे पहाड़ों को देखा। उसी वक्त वह पल मैंने कैमरे में कैद कर लिया।
कमलेश्वर जी और गायत्री जी की यह उसी समय की तस्वीर है। मेरी डायरी पर उन्होंने लिखा-
प्रिया के लिए....।
अपने समय के यथार्थ को समझना और सहेजना ही लेखक का धर्म है। कमलेश्वर 8-12-2006...
तब मुझे जरा भी नहीं पता था कि यह उन्हें मैं आखिरी बार देख रही हूं।


यह रोचक ही रहा कि जितने दिन कमलेश्वर जी मंडी में रहे, सूरज चमकता रहा और सारा शहर धूप में नहाया रहा। पर उनके जाते ही धूप गायब... बर्फ, बारिश... ठंडा घना कोहरा।
क्या सचमुच यह धूप कमलेश्वर जी की आग की थी...?
प्रिया आनंद, दिव्‍य हिमाचल,

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

लंदन में मुलाकात नवाज़ शरीफ़ से . . .






कथा यूके के सम्‍मान समारोह में शिरकत करने के लिए जब मैं जुलाई 2007 में लंदन की यात्रा पर गया तो मेरी बहुत पुरानी मित्र पाकिस्‍तान की कथा लेखिका नीलम बशीर से एक बार फिर मुलाकात हो गयी. वे हमेशा की तरह अमेरिका से पाकिस्‍तान या शायद पाकिस्‍तान से अमेरिका जा रही थीं और कथा यूके के आमंत्रण पर कथा सम्‍मान 2007 में शिरकत करने के लिए कुछ दिन के लिए लंदन में रुक गयीं थीं. कई बरस पहले उन्‍होंने लंदन में ही कथा यूके के एक सम्‍मान आयोजन में मेरे उपन्‍यास देस बिराना का लोकार्पण किया था. तब उन्‍होंने मंच से ये बात कही थी कि काश, मैं ये खूबसूरत किताब पढ़ पाती. इस बार ये सुखद संयोग हुआ कि मैं उन्‍हें अपने उपन्‍यास की ऑडियो सीडी भेंट कर पाया. ये दूसरा सुखद संयोग है कि इस ऑडियो को भी लंदन की एक संस्‍था एशियन कम्‍यूनिटी आर्ट्स के साथ मिल कर कथा यूके ने ही तैयार करवाया है.
कथा सम्‍मान आयोजन से एक दिन पहले लंदन की घुमक्‍कड़ी का कार्यक्रम बना. घूमने जाने वालों में थे मैं, नीलम, 2007 की हमारी कथा सम्‍मान प्राप्‍त लेखिका महुआ माजी और अमेरिका से लौटते हुए खास तौर पर इस आयोजन के लिए लंदन रुके प‍त्रकार मित्र अजित राय. जब हम कथ यूके के कर्ता धर्ता तेजेन्‍द्र के घर से निकलने लगे तो नीलम ने बताया कि कराची से उसकी पत्रकार, कहानीकार मित्र ज़ाहिदा हिना भी लंदन आयी हुई हैं और बेकर स्‍ट्रीट के पास उनसे मुलाकात करनी है. ज़ाहिदा हिना हमारे लिए सुपरिचित नाम है और उन्‍हें हम हिन्‍दी में छपने वाले उनके कॉलमों और कहानियों की वज़ह से जानते ही हैं.
तय हुआ, सबसे पहले उनसे ही मिल लिया जाये. नीलम जी के पास जो पता था, उसे खोजने में कोई तकलीफ़ नहीं हुई लेकिन जब हमने उस भव्‍य इमारत की दूसरी मंजिल तक नीचे से संदेश पहुंचाया तो पता चला कि ज़ाहिदा अभी मीटिंग में हैं और हमें कुछ देर इंतज़ार करना पड़ सकता है. उनके इंतज़ार में ऊपर जाने के बज़ाये हमने यही बेहतर समझा कि यहीं भीड़ भरे बाज़ार की रौनक में ही थोड़ी देर लुत्‍फ़ उठाते रहें. ये सोच कर हम मुड़े ही थे कि दूसरी मंजिल से उतर कर एक बेहद खूबसूरत शख्‍स़ लपकते हुए हमारे पीछे आये और कहने लगे कि आपको ज़ाहिदा ऊपर ही बुला रही हैं.
हम चारों चले उनके पीछे पीछे. हम जिस जगह ले जाये गये, दफ़तरनुमा कुछ लग रहा था. चहल पहल. लेकिन सब कुछ एक अनुशासित तरीके से. एक बड़े से कमरे में कुछ सोफे और कुछ कुर्सियां वगैरह रखे थे. वहीं हमें ले जाया गया. सामने मेज़ पर पीतल के एक खूबसूरत स्‍टैंड पर एक झंडा टिका हुआ था. नये और अपरिचित माहौल में होने के कारण हम तय नहीं कर पाये कि हम किस किस्‍म के दफ्तर में हैं और ये झंडा किस पार्टी का है. ज़ाहिदा हमें वहीं मिलीं. कुछ और लोग थे वहां बैठे हुए. उनसे दुआ सलाम हो ही रही थी कि सबके लिए कॉफ़ी आ गयी. हमने कॉफ़ी के पहले ही घूंट भरे होंगे कि कमरे में एक निहायत शरीफ़ और खूबसूरत से लगने वाले शख्‍स़ ने प्रवेश किया. इस गोरे चिट्टे शख्‍स़ को देखते ही लगा कि कहीं देखा हुआ है इसे.
उस शख्‍स़ ने ज्‍यों ही हाथ जोड़ कर नमस्‍कार किया, याद आया, अरे ये तो नवाज़ शरीफ़ हैं. पाकिस्‍तान के अपदस्‍थ प्रधान मंत्री, जो अरसे से अपने मुल्‍क से दूर यहां निर्वासित जीवन जी रहे हैं.
सबसे आगे मैं ही बैठा था. पहले मुझसे हाथ मिलाया उन्‍होंने और आगे बढ़ते हुए सबसे दुआ सलाम करते हुए एक खाली कुर्सी पर आ विराजे. ज़ाहिदा ने सबसे पहले नीलम से उनका परिचय कराया. नवाज के लहज़े से लगा कि वे नीलम को तो नहीं, बेशक उनके अब्‍बा हुज़ूर को ज़रूर जानते रहे होंगे. बशीर सीनियर पाकिस्‍तान के साहित्‍य और पत्रकारिता जगत में खासा नाम रखते थे. उसके बाद अजित, महुआ और मेरा परिचय खुद नीलम ने दिया. जब नवाज़ साहब को पता चला कि हम लेखक और पत्रकार लोग हैं और भारत से आये हैं तो उनका लहज़ा एकदम मीठा हो गया और वे भारत पाकिस्‍तान के बीच मधुर संबंधों की, बेहतर रिश्‍तों की और हर तरह की दूरियां कम करने की बात करने लगे. अपनी बात में वज़न लाने के लिए उन्‍होंने पंजाबी में बुल्‍ले शा और दूसरे लोक कवियों को कोट करना शुरू कर दिया. हम वहां पर मेहमान थे और उनके नहीं, बल्कि उनकी मेहमान ज़ाहिदा के मेहमान थे. इसलिए जो कुछ भी कहा जा रहा था, उसे सुनने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे फिर भी मैंने कह ही दिया कि नवाज़ साहब, रिश्‍ते तो इधर बेहतर हुए ही हैं और ये कि ये तो दोनों तरु से लगातार चलने वाली प्रोसेस है और आप एक दिन में बेहतर रिज़ल्‍ट की उम्‍मीद नहीं कर सकते. नवाज़ साहब ने मेरी तरफ देखा, कुछ बुदबुदाये, इस बीच अजित ने भी इसी आशय की टिप्‍पणी की कि रिश्‍ते बेहतर बनाने के लिए तो आपस में विश्‍वास जीतना होता है और अवाम के बीच ज़मीनी काम करना पड़ता है.
तभी नवाज़ साहब ने जानना चाहा कि हम लंदन किस सिलसिले में आये हैं. उन्‍हें बताया गया कि लंदन की एक संस्‍था कथा यूके का साहित्‍य सम्‍मान लेने के लिए महुआ भारत से आयी हैं और कि अगले ही दिन हाउस आफ लार्ड्स में ये सम्‍मान दिया जाना है. वे ये जानकर बहुत खुश हुए और कहने लगे कि ये तो वाकई बहुत शानदार बात है कि लिटलेचर इस तरह से मुल्‍कों की सरहदें पार कर अपनी जगह बना रहा है. मज़े की बात, महुआ मैडम को अब तक पता नहीं था कि ये शख्‍स कौन हैं. कॉफ़ी पी जा चुकी थी और सबसे पहले नवाज़ ही उठे, हम सब का शुक्रिया अदा किया और हमसे इजाज़त चाही. अब जा कर महुआ जी ने अजित से पूछा कि कौन हैं ये शख्‍स तो अजित ने उनकी जिज्ञासा शांत करते हुए बताया कि ये पाकिस्‍तान के अपदस्‍थ प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ हैं. अब महुआ की हैरानी देखने लायक थी. तब तक नवाज़ कमरे से जा चुके थे.
हम भी निकलने के लिए उठे. ज़ाहिदा भी हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो गयीं. तभी शायद महुआ की तरफ से ये प्रस्‍ताव आया कि नवाज़ के साथ एक ग्रुप फोटो हो जाये. ज़ाहिदा से कहा गया और ज़ाहिदा ने अपने सम्‍पर्क खटखटाये. बात बन गयी और दो तीन मिनट के इंतज़ार के बाद नवाज़ फिर हाजिर थे. हम चाहते थे कि मेज़ पर रखे उनकी पार्टी के झंडे के पास खड़े हो कर फोटो खिंचवायें लेकिन वे कमरे के दरवाजे के पास परदे के आगे खड़े हो गये. फोटो सेशन हुआ. नवाज़ अब बेतकल्‍लुफ़ी से बात कर रहे थे. हम सब ने अपने अपने कैमरे से ग्रुप फोटो लिये. मैंने देखा कि हमने अपने कैमरों से तो तस्‍वीरें ली हीं, उनके बेटे और दामाद ने भी हम सब की तस्‍वीरें लीं.
नवाज़ ने हम सबसे पूछा कि हम हिन्‍दुस्‍तान के किन किन शहरों से आते हैं. जब मैंने बताया कि मेरे माता पिता तो पाकिस्‍तान से ही उजड़ कर भारत गये थे तो वे मुझसे ठेठ पंजाबी में ही बात करने लगे. महुआ ने अपने शहर रांची के बारे में बताते हुए अब चांस लिया और उन्‍हें बताया कि उनके जिस उपन्‍यास पर कथा यूके का ये सम्‍मान दिया जा रहा है, वह बांग्‍ला देश के मुक्ति संग्राम पर आधारित है. नवाज़ साहब ने खुशी जाहिर की तो लगे हाथों महुआ ने उन्‍हें अगले दिन के सम्‍मान समारोह के लिए न्‍यौता दे डाला. नवाज़ भाई ने भी देर न की और अपने पालिटिकल सेक्रेटरी से कह दिया कि वह मुझे अपना ईमेल आइडी दे दें ताकि उस पर दावतनामा भेजा जा सके. बेशक मुझे उनके सेक्रेटरी ने अपने कमरे में ले जा कर अपना कार्ड दिया और कहा कि मैं ज़रूर से ज़रूर न्‍यौता भेज दूं. कुछ और भी लोगों ने अपने कार्ड दिये. ज़ाहिदा ने बाद में बताया कि कॉंफी सेशन में हमारे साथ नवाज़ साहब के भाई, बेटे और दामाद का भी बैठे थे.
नीचे उतरते समय मोहतरमा महुआ माजी बेहद खुश थीं कि पहले ही दिन एक मशहूर शख्‍स से मुलाकात हो गयी. उन्‍होंने तुरंत एक छोटा सा सपना देखा कि क्‍या ही शानदार होगा वो पल जब पाकिस्तान के भूतपूर्व प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ़ लंदन के हाउस आफ लार्ड्स में भारत से आयी एक हिन्‍दी लेखिका महुआ माजी द्वारा बांग्‍ला देश के मु‍क्ति संग्राम पर लिखे गये हिन्‍दी उपन्‍यास को कथा यूके सम्‍मान से पुरस्‍कृत होते देखेंगे. उन्‍होंने मुझसे आग्रह किया कि उन्‍हें निमंत्रण पत्र ज़रूर ईमेल करूं.
अब मैं महुआ मैडम को कैसे बताता कि किसी एक राष्‍ट्र के प्रमुख के लिए दूसरे देश में, जिसमें उसने आश्रय ले रखा है, अपनाये जाने वाले प्रोटोकाल के कुछ नियम होते हैं और बेशक नवाज़ ने आपको खुश करने के लिए दावतनामा मांग लिया हो, वे एक आम आदमी की तरह हाथ में दावतनामा लिये लंदन के हाउस आफ लार्डस में सुरक्षा की औपचारिकताएं निभाते हुए आपके आयोजन में जाने से रहे. अलबत्ता, महुआ मैडम के चेहरे की रौनक दिन भर बनी रही और उनकी बातचीत में नवाज़ शरीफ़ लगातार बने रहे. शायद अगले दिन उन्‍होंने इंतज़ार भी किया हो और उनके आने की दुआ भी की हो. उनके ईमेल आइडी पर दावतनामा भेजने का तो सवाल ही नहीं था. अगर भेजा भी जाता तो नवाज़ साहब ने तो खैर क्‍या ही आना था इस कार्यक्रम में.

बुधवार, 13 अगस्त 2008

बायें हाथ से काम करने वालों का दिन

आज अखबार ने बताया कि आज लैफ्ट हैंडर्स डे है. जब भी इस तरह के डे की बात पढ़ता हूं तो यही अफसोस होता है‍ कि बरस भर के बाकी दिन तो दूसरों के लिए लेकिन एक दिन आपका. अब चाहे मदर्स डे हो या फादर्स डे. साल में एक दिन आपका. भले ही अपने देश का करवा चौथ का व्रत ही क्‍यों न हो. बेचारे पति के हिस्‍से में पूरे बरस में एक ही दिन आता है. जवाब में आप ये भी कह सकते हैं कि बेचारी महिलाओं के हिस्‍से में भी तो बरस भर में एक ही वीमेंस डे आता है. बाकी दिन तो उन्‍हें कोई याद नहीं करता.
तो बात चल रही थी लैफ्ट हैंडर्स डे की. मेरे पिता बेशक खब्‍बू थे लेकिन बचपन में हुई पिटाई के कारण दायें हाथ से लिखने के अलावा जीवन भर अपने सारे काम बायें हाथ से करते रहे. चाहे टेबिल टेनिस खेलना हो, कैरम खेलना हो या खाना खाना हो.
यही हाल मेरे बड़े भाई का रहा. वे खब्‍बू होने के बावजूद लिखने सहित अपने सारे काम दायें हाथ से करने को मजबूर हुए और नतीजा ये हुआ कि वे जिंदगी में जितनी तरक्‍की कर सकते थे. नहीं कर पाये. औसत से कम वाली जिंदगी उनके हिस्‍से में आयी.
मेरा छोटा बेटा भी खब्‍बू है. लेकिन उसे अपने सारे काम बायें हा‍थ से करने की पूरी छूट है. बेशक वह गिटार दायें हाथ से बजा लेता है और पीसी पर माउस भी दायें हाथ से ही चलाता है. पीसी की वजह समझ में आती है कि पीसी पूरे घर का सांझा है और वह इस बात को ठीक नहीं समझता कि बार बार सेटिंग करके माउस को अपने लिए लैफ्ट हैंडर बनाये. बाकी काम वह बायें हाथ से ही करता है.
मुझे याद पड़ता है कि हमारे बचपन में खब्‍बुओं को मार मार कर सज्‍जू कर दिया जाता था. (पंजाबी में बायें हाथ को खब्‍बा और दायें हाथ को सज्‍जा हाथ कहते हैं). मजाल है आप कोई काम खब्‍बे हाथ से कर के दिखा दें. घर पर तो पिटाई होती ही थी. मास्‍टर लोग भी अपनी खुजली उन्‍हें मार मार कर मिटाते थे. दुनिया में पूरी जनसंख्‍या के तीस से पैंतीस प्रतिशत लोग खब्‍बू तो होते ही होंगे लेकिन ये भारत में ही और वो भी उत्‍तर भारत में ज्‍यादा होता है‍ कि बायें हाथ से काम करने वाले को पीट पीट कर दायें हाथ से काम करने पर मजबूर किया जाता है. उसका मानसिक विकास तो रुकेगा ही जब आप प्रकृति के खिलाफ उस पर अपनी चलायेंगे.
मैंने सिर्फ गुजरात में ही देखा कि क्‍लास में और ट्रेनिंग सेंटर्स में भी इनबिल्‍ट मेज वाली कुर्सियां लैफ्ट हैंडर्स के लिए भी होती हैं बेशक तीस में से पांच ही क्‍यों न हों. ये भी मैंने गुजरात में ही देखा कि कई पति पत्‍नी दोनों ही खब्‍बू हैं. कई कई तो डाक्‍टर भी.
कहा जाता है कि पहले के ज़माने में युद्धों में बायें हाथ से लड़ने वालों को तकलीफ होती थी. वे मरते भी ज्‍यादा थे क्‍यों‍कि सामने वाले के बायें हाथ में ढाल है और दायें में तलवार. वह अपने सीने की रक्षा करते हुए सामने वाले के सीने पर वार कर सकता था लेकिन खब्‍बू महाशय के बायें हाथ में तलवार और दायें हाथ में ढाल है. बेचारा दिल तो उनका भी बायीं तरफ ही रहता था. नतीजा यही हुआ कि लड़ाइयों की वजह से खब्‍बू ज्‍यादा शहीद होते रहे और दुनिया की जनसंख्‍या में उनका प्रतिशत भी कम हुआ. ये एक कारण हो सकता है.
मैं विदेशों की नहीं जानता कि वहां पर लैफ्ट हैंडर्स के साथ क्‍या व्‍यवहार होता है. लेकिन ये मानने में कोई हर्ज नहीं कि उन्‍हें सम्‍मान तो मिलता ही होगा उन्‍हें भी तभी तो वे लैफ्ट हैंडर्स डे मनाने की सोच सकते हैं. पिटाई तो उनकी वैसे भी नहीं होती. आइये जानें दुनिया के कुछ खास खास खब्‍बुओं के बारे में. जरा सोचिये, अगर इन सबको भी पीट पीट कर सज्‍जू बना दिया जाता तो क्‍या होता. ये है सूची – महात्‍मा गांधी, सिंकदर महान, हैंस क्रिश्चियन एंडरसन, बिस्‍मार्क, नेपोलियन बोनापार्ट, जॉर्ज बुश सीनियर, जूलियस सीजर, लुइस कैरोल, चार्ली चैप्लिन, विंस्‍टन चर्चिल, बिल क्लिंटन, लियोनार्डो द विंची, अल्‍बर्ट आइंस्‍टीन, बेंजामिन फ्रेंकलिन, ग्रेटा गार्बो, इलियास होव, निकोल किडमैन, गैरी सोबर्स, ब्रायन लारा, सौरव गांगुली, वसीम अकरम, माइकल एंजेलो, मर्लिन मनरो, पेले, प्रिंस चार्ल्‍स, क्‍वीन विक्‍टोरिया, क्रिस्‍टोफर रीव, जिमी कोनर्स, टाम क्रूज, सिल्‍वेस्‍टर स्‍टेलोन, बीथोवन, एच जी वेल्‍स और अपने देश के बाप बेटा बच्‍चन जी.
है ना मजेदार लिस्‍ट.
आज के दिन सभी लैफ्ट हैंडर्स को सलाम.

सूरज प्रकाश

शुक्रवार, 20 जून 2008

जयपुर में कहानी पाठ- कुछ नोट्स




पिछले दिनों जयपुर जाना हुआ. पहले तो मी‍टिंग की तारीख तय न हो पाने की वज़ह से जाना टलता रहा फिर बम धमाकों की वज़‍ह से जाना टला. मीटिंग तो अपनी जगह थी लेकिन मेरे ध्‍यान में जयपुर के वे सभी साहित्‍यकार और पत्रकार मित्र थे जो मेरे आने की खबर पा कर लगभग रोज़ाना ही पूछ लेते थे कि कब पहुंच रहा हूं. व्‍यक्तिगत मुलाकात सिर्फ तीन ही रचनाकारों से थी. प्रेम चंद गांधी से सात आठ बरस पहले मुंबई में आधे दिन के लिए मिला था और वे तभी से मेरे मित्र बन गये थे. फारुख आफरीदी और कृष्‍ण कल्पित से बाबरी मस्जिद हादसे से एक दिन पहले बाड़मेर में मुलाकात हुई थी और रंगकर्मी सत्‍य नारायण पुरोहित तो मुंबई में हमारे ही संस्‍थान में थे और मुंबई प्रवास के अपने अंतिम बरसों में कई खूबसूरत शामें हमने एक साथ गुज़ारी थीं. मेजर रतन जांगिड़ से कई बार फोन पर ही बात हुई थी. वे सबसे ज्‍यादा उत्‍साहित लग रहे थे.
मैं खुद इस विजि़ट को ले कर बेहद उत्‍साहित था कि इन सबसे तो मुलाकात तो होगी ही, कई नये दूसरे रचनाकारों से भी मुलाकात हो जायेगी. लवलीन से मिलना हमेशा सुख देता है बेशक स्‍वास्‍थ्‍य के चलते वे ही बातचीत में पूरी तरह शामिल नहीं हो पातीं और बाद में अफसोस करती रहती हैं कि कुछ अनकहा रह गया. मैं हैरान था कि जिस दिन मुझे जयपुर पहुंचना था, मेरे कहानी पाठ की खबर कई अखबारों में छपी हुई थी. और तो और युवा पत्रकार और ग़ज़लकार डॉ. दुष्‍यंत ने तो मेरे पहुंचने से पहले मेरी रचनाएं छाप कर शहर को मेरा परिचय दे दिया था. जनवादी पत्रकार संघ के कार्यालय में उस समय लाइट नहीं थी लेकिन सभी साहित्‍यकार और साहित्‍य प्रेमी इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार नज़र आ रहे थे कि आंगन में ही कुर्सियां डाल कर संवाद कर लेंगे. संयोग से बत्‍ती आ गयी और कायर्क्रम शुरू हुआ.
मेरे लिए पिछले कई बरसों में शायद ये पहला मौका था ज‍ब मैं श्रोताओं के सामने कहानी पाठ कर रहा था. मुंबई में हमने मराठी कथा कथन से कुछ नहीं सीखा और वहां हिन्‍दी कहानी पाठ आम तौर पर नहीं ही होते. कवि गोष्ठियां बेशक महीने मे साढ़े सात हो जाती हैं. मुंबई में अपने सत्‍ताइस बरस के प्रवास में मैंने शायद दो ही बार कहानी सुनायी है. पुणे में भी रहते हुए तीन बरस हो गये हैं, वहां भी इस तरह की कोई परम्‍परा नहीं है. बेशक मैंने अपने बैंकिंग महाविद्यालय में इस परम्‍परा की शुरुआत की है और हमारे यहां शेखर जोशी, गोविंद मिश्र, जगदम्‍बा प्रसाद दीक्षित, मनहर चौहान, ओमा शर्मा, सूर्य बाला, सुधा अरोड़ा, अल्‍पना मिश्र, वंदना राग आदि कहानी पाठ कर चुके हैं. शायद हमारा संस्‍थान ही अकेला ऐसा संस्‍थान है जहां कहानी पाठ के लिए सम्‍मानजनक राशि दी जाती है.
विषयांतर हो गया.

जयपुर के इस कहानी पाठ में तीस के करीब मित्र थे. वरिष्‍ठ रचनाकार नंद भारद्वाज की अध्‍यक्षता में हुई इस गोष्‍ठी में तय तो ये हुआ था कि मैं महानगर पर कुछ लघु कथाएं और एक कहानी सुनाऊंगा लेकिन कार्यक्रम देर से शुरू होने के बावजूद सबके अनुरोध मैंने अपनी विवादास्‍पद कहानी उर्फ़ चंदरकला भी सुनायी. मैं हैरान था कि मित्रों ने रचनापाठ का सुख तो उठाया ही, बाद में रवनाओं पर विस्‍तार से बात भी की. मैं इस बात से भी हैरान था कि बेशक में कई रचनाकारों से पहली बार मिल रहा था, ज्‍यादातर मित्रों ने मेरी कहानियां और अनूदित रचनाएं पढ़ रखी थीं. राजा राम भादू, रमेश खत्री, रंगकर्मी अशोक राही, और दूसरे सभी मित्र बहुत प्‍यार से‍ मिले.
ये कहानी पाठ मेरे लिए कई सुखद अनुभव ले कर आया. इतने सारे रचनाकारों से एक साथ मिलना, बात करना और स्‍थायी संबंध बनना किसी भी रचनाकार के लिए आजीवन न भूलने वाले अनुभव होते हैं. मैं जिस बैंक में बैठक के‍ सिलसिले में गया था, वहां के मेरे अधिकारी मित्र इस बात को ले कर हैरान थे कि पहली बार मिलने पर भी मुझे इतना प्‍यार और सम्‍मान मिल रहा है. मैंने उन्‍हें बताया कि रचनाकार के लिए कोई भी शहर पराया नहीं होता अगर वहां उसका एक भी रचनाकार दोस्‍त या पाठक रहता हो. तब सारा शहर उसका अपना हो जाता है. रमेश खत्री जी को लगा कि अभी मेरा कुछ और दोहन किया जा सकता है. अगले दिन उन्‍होंने न केवल रेडियो स्‍टेशन पर किताबों का सिकुड़ता संसार पर हमारी परिचर्चा आयोजित करा डाली, अपनी स्‍टेशन डाइरेक्‍टर मिसेज माथुर से और अन्‍य सहकर्मियों से सार्थक बातचीत का मौका भी दिया.
भाई फारुख अफरीदी के बारे में क्‍या कहूं. जब तक मेरे साथ रहे, और सबसे ज्‍यादा देर तक रहे, उनका डिजिटल कैमरा, उनका टेप रिकार्डर और उनके इंटरव्‍यू के सवाल लगातार चलते रहे.


मैं अक्‍सर कहा करता हूं कि बहुत बड़ा अफसर बनने की तुलना में छोटा सा लेखक होना हमेशा बेहतर होता है. एक तो लेखक कभी रिटायर नहीं होता और दूसरे, उसके नाम के आगे कभी स्‍वर्गीय नहीं लगता. जयपुर जैसी विजिट के बाद इस बा‍त को आगे बढ़ाते हुए ये भी कहा जा सकता है कि वह कभी भी किसी भी शहर में अकेला नहीं होता. एक दोस्‍त काफी होता है पूरे शहर से उसका परिचय कराने के लिए.

गुरुवार, 29 मई 2008

हमें आपकी आवाज़ चाहि‍ये.

हमारे एक प्रिय दोस्‍त विदेश से एक इंटरनेट हिन्‍दी रेडियो चलाते हैं. इस रेडियो पर आप शायरों की आवाज़ में उनकी ग़ज़लें, कवियों की आवाज़ में उनकी कविताएं और गीत सुन सकते हैं. कुछ प्रोफेशन गायकों ने भी अपनी आवाज़ में दूसरे रचनाकारों की रचनाओं के लिए दी है.

हमें आपकी आवाज़ चाहिये.

गीतों के लिए, कहानियों के लिए, लघु कथाओं के लिए और रेडियो पर प्रस्‍तुत की जा सकने वाली किसी भी रचना के लिए.

बेशक इसमें फिलहाल नहीं जुड़ा हुआ है लेकिन आपको ये सुख तो मिलेगा कि आपने एक अच्‍छी रचना को अपनी आवाज़ दी है और उसे दुनिया भर में कभी भी कहीं भी सुना जा सकता है. आपका नाम तो आपकी आवाज़ के साथ रहेगा ही.

आपकी ओर से सहमति मिलने पर वे आपको ईमेल से रचना भेजेंगे और आप अपने कम्‍प्‍यूर पर ऑडियो सिस्‍टम में उसे रिकार्ड करके वापिस भेजेंगे.

तो आप तैयार हैं अपनी आवाज़ को दुनिया भर तक पहुंचाने के लिए
मुझे ईमेल करें.
kathaakar@gmail.com
soorajprakaash@gmail.com

सोमवार, 19 मई 2008

महानगर की कथाएं - एक रास्‍ता यह भी

"सुन री, अगले हफ्ते से बजाज सेंटर में चाइनीज और ओरिएंटल कुकरी की क्लासेस शुरू हो रही है। बहुत मन कर रहा हैं मेरा ओरिएंटल खाना बनाना सीखने का लेकिन जाऊं कैसे?
"क्यों, क्या परेशानी है?"
"परेशानी सिर्फ इतनी सी है मेरी बिल्लो रानी कि ये क्लासेस पूरे चालीस दिन की हैं और सवेरे दस से तीन बजे तक चलने वाली हैं। अब इस शौक को पूरा करने के लिए डेढ़ महीने की छुट्टी लेना कोई बहुत बड़ी समझदारी की बात तो नहीं होगी ना।"
"हम तेरी मुफ्त की छुट्टी का इंतजाम कर दें तो बता क्या ईनाम देगी।"
" सच . . . तू जो कहे . . . जहाँ तू कहे शानदार पार्टी मेरी तरफ से। बता कैसे मिलेगी मुझे छुट्टी?"
"मिलेगी बाबा . . . . जरा धैर्य से। पहले मेरे दो तीन सवालों के जवाब दे। कितने बच्चे हैं तेरे?"
"एक ही तो है केतन . . . . क्यों?"
"कोई सवाल नहीं। अच्छा ये बता ओर बच्चा तो नहीं पैदा करना है तुझे?"
"अभी तक तो सोचा नहीं। हां भी और नहीं भी।"
"कोई बात नहीं। ऐसा कर, कल ही तू जा कर अपना एडमिशन करवा लेना।"
" दैट्स ग्रेट। लेकिन छुट्टी।"
"छुट्टी मिलेगी आपको एमटीपी का एक लैटर दे कर। पूरे पैंतालीस दिन की। दो बार ली जा सकती है। मिसकैरिज के लिए कोई सबूत थोड़े ही चाहिये।"
"अरे वाह, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था। मैं कल ही अपनी गायनॉक से बात करती हूँ।"
"सिर्फ अपने लिए नहीं, मेरे लिए भी बात करना। मैं भी . . . ।"
"यू टू ब्रूटस।"

बुधवार, 7 मई 2008

महानगर की कथाएं - एक विकल्‍प यह भी




-हाय, करूणा, आज कित्ते दिन बाद दिख रही है तू? मुझे लगा या तो नौकरी बदल ली तूने या ट्रेन?
- कुछ नहीं बदला शुभदा, सब कुछ वही है, बस जरा होम फ्रंट पर जूझ रही थी, इसलिए रोज ही ये ट्रेन मिस हो जाती थी।
- क्यों क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?
- वही सास ससुर का पुराना लफड़ा। होम टाउन में अच्छा खासा घर है। पूरी जिंदगी वहीं गुजारने के बाद वहाँ अब मन नहीं लगता सो चले आते हैं यहाँ। हम दोनों की मामूली सी नौकरी, छोटा सा फ्लैट और तीन बच्चे। मैं तो कंटाल जाती हूँ उनके आने से। समझ में नहीं आता क्या करूँ।
- एक बात बता, तेरे ससुर क्या करते थे रिटायरमेंट से पहले?
-सरकारी दफ्तर में स्टोरकीपर थे।
-उनकी सेहत कैसी है?
-ठीक ही है।
-उन दोनों में से कोई बिस्तर पर तो नहीं है?
-नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। बस, बुढ़ापे की परेशानियाँ है, बाकी तो . . . . ।
-और तेरा सरकारी मकान है। तेरे ही नाम है ना . . . . तेरे हस्बैंड की तो प्राइवेट नौकरी है . . . ?
- हाँ है तो . . . . ।
-और तेरे ससुर की पेंशन तो 1500 से ज्यादा ही होगी?
-हाँ होगी कोई 2300 के करीब।
- बिलकुल ठीक। और तू रोज रोज के यहाँ टिकने से बचना चाहती है?
- चाहती तो हूँ, लेकिन मेरी चलती ही कहाँ है। घर में उनकी तरफदारी करने के लिए बैठा है ना श्रवण कुमार।
-अब तेरी ही चलेगी। एक काम कर। अपने ऑफिस में एक गुमनाम शिकायत डलवा दे कि तेरे नॉन डिपेंडेंट सास ससुर बिना ऑफिस की परमिशन के तेरे घर में रह रहे हैं। तेरे ऑफिस वाले तुझे एक मेमो इश्यू कर देंगे, बस। सास ससुर के सामने रोने धोने का नाटक कर देना . . . .कि किसी पड़ोसी ने शिकायत कर दी है। मैं क्या करूँ? ऐसी हालत में वे जायेंगे ही।
-सच, क्या कोई ऐसा रूल है?
-रूल है भी और नहीं भी। लेकिन इस मेमो से डर तो पैदा किया ही जा सकता है।
- लेकिन शिकायत डालेगा कौन?
-अरे, टाइप करके खुद ही डाल दे। कहे तो मैं ही डाल दूँ। मैंने भी अपने सास–ससुर से ऐसे ही छुटकारा पाया है।

मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

महानगर की कथाएं - एक और विकल्‍पहीन



उस स्कूल की हैडमिस्ट्रेस रोज ही देखती है कि मिसेज मनचन्दा स्कूल का समय खत्म हो जाने के बाद भी स्कूल में ही बैठी रहती हैं और लाइब्रेरी वगैरह में समय गुजारती हैं। वे आती भी सबसे पहले हैं। बाकि अध्यापिकाएं तो जितनी देर से आती हैं उतनी ही जल्दी जाने की हड़बड़ी में होती हैं। अगर मैनेजमेन्ट ने हर अध्यापिका के लिये कम से कम पांच घण्टे स्कूल में रहने की शर्त न लगा रखी होती तो कई अध्यापिकाएं तो अपने दो तीन पीरियड पढ़ा कर ही फूट लेतीं।
मिसेज मनचन्दा ने हाल ही में यह स्कूल ज्‍वाइन किया है। वे सुन्दर हैं, जवान हैं और सबसे बड़ी बात, बाकि अध्यापिकाओं की तुलना में उनके पास डिग्री भी बड़ी है, बेशक वेतन उनका इतना मामूली है कि महीने भर आने जाने का ऑटोरिक्शा का भाड़ा भी न निकले।
आखिर पूछ ही लिया प्रधानाध्यापिका ने उनसे।
मिसेज मनचन्दा ने ठण्डी सांस भर कर जवाब दिया है - आपका पूछना सही है। दरअसल मेरा घर बहुत छोटा है, एक ही कमरे का मकान। उसी में हमारे साथ रिश्ते का हमारा जवान देवर रहता है। रात पाली में काम करता है. मेरे पति शाम सात बजे तक ही आ पाते हैं लेकिन देवर सारा दिन घर पर रहता है। अब मैं कैसे बताऊं कि सारा दिन घर से बाहर रहने के लिये ही ये नौकरी कर रही हूं। बेशक इस नौकरी से मेरे हाथ में एक भी पैसा नहीं आता, फिर भी किसी तरह के दैहिक शोषण की आशंका से बची रहती हूं। न सही दैहिक शोषण का डर, सारा दिन उस निठल्ले की चाकरी तो नहीं बजानी पड़ती। घर पर उनकी मौजूदगी में तो मैं घड़ी भर लेट कर कमर तक सीधी करने की कल्पना नहीं कर पाती।

सोमवार, 21 अप्रैल 2008

महानगर की कथाएं- एक – विकल्‍पहीन

वे बहुत सारे हैं। अलग अलग उम्र के लेकिन लगभग सभी रिटायर्ड या अपना सब कुछ बच्चों को सौंप कर दीन दुनिया से, सांसारिक दायित्वों से मुक्त। सवेरे दस बजते न बजते वे धीरे–धीरे आ जुटते हैं यहाँ और सारा दिन यहीं गुजारते हैं। मुंबई के एक बहुत ही सम्पन्न उपनगर भयंदर में स्टेशन के बाहर, वेस्ट की तरफ। रेलवे ट्रैक के किनारे गिट्टी पत्थरों के ढेर पर उनकी महफिल जमती है और दिन भर जमी ही रहती है। यहाँ अखबार पढ़े जाते हैं, समाचारों पर बहस होती है, सुख दुख सुने सुनाये जाते हैं और मिल जुल कर जितनी भी जुट पाये, दो चार बार चाय पी जाती है, पत्ते खेले जाते हैं और शेयरों के दामों में उतार चढ़ावों पर, अकेले दुकेले बूढ़ों की हत्या पर, बलात्कार के मामलों और राजनैतिक उठापटक पर चिंता व्यक्त की जाती है। सिर्फ बरसात के दिनों में या तेज गर्मी के दिनों में व्यवधान होता है उन लोगों के बैठने में।
कंकरीट के इस जंगल में कोई पार्क, हरा भरा पेड़ या कुंए की कोई जगत नहीं हैं, नहीं तो यह चौपाल वहीं जमती। वे दिन भर आती जाती ट्रेनों को देखते रहते हैं और इस तरह से अपना वक्त गुजारते हैं। शाम ढलने पर वे एक–एक करके जाने लगते हैं। एक बार फिर यहाँ पर लौट कर आने के लिए।
उनके दिन इसी तरह से गुजर रहे हैं। आगे भी उन्हें यहीं बैठकर इसी तरह से पत्ते खेलते हुए बातें करते हुए और मिल जुल कर कटिंग चाय पीते हुए दिन गुजारने हैं।
ये बूढ़े, सब के सब बूढ़े अच्छे घरों से आते हैं और सबके अपने घर–बार हैं। बरसों बरस आपने सारे के सारे दिन यहाँ स्टेशन के बाहर, रेलवे की रोड़ी की ढेरी पर आम तौर पर धूप बरसात या खराब मौसम की परवाह न करते हुए बिताने के पीछे एक नहीं कई वजहें हैं।
किसी का घर इतना छोटा है कि अगर वे दिन भर घर पर ही जमे रहें तो बहू बेटियों को नहाने तक ही तकलीफ हो जाये। मजबूरन उन्हें बाहर आना ही पड़ता है ताकि बहू बेटियों की परदेदारी बनी रहे। किसी का बेशक घर बड़ा है लेकिन उसमें रहने वालों के दिल बहुत छोटे हैं और उनमें इतनी सी भी जगह नहीं बची है कि घर के ये बुजुर्ग, जिन्होंने अपना सारा जीवन उनके लिए होम कर दिया और आज उनके बच्चे किसी न किसी इज्जतदार काम धंधे से लगे हुए हैं, उनके लिए अब इतनी भी जगह नहीं बची है कि वे आराम से अपने घर पर ही रह कर, पोतों के साथ खेलते हुए, सुख दुख के दिन आराम से गुजार सके। गुंजाइश ही नहीं बची है, इसलिए रोज रोज की किच किच से बचने के लिए यहाँ चले आते हैं। यहाँ तो सब उन जैसे ही तो हैं। किसी से भी कुछ भी छुपा हुआ नहीं है।
बेशक वे आपस में नहीं जानते कि कौन कहाँ रहता है, कइयों के तो पूरे नाम भी नहीं मालूम होते उन्हें, लेकिन फिर भी सब ठीक ठाक चलता रहता है।
बस, संकट एक ही है। अगर उनमें से कोई अचानक आना बंद कर दे तो बाकी लोगों को सच्चाई का पता भी नहीं चल पाता।
बेशक थोड़े दिन बाद कोई नया बूढ़ा आ कर उस ग्रुप में शामिल हो जाता है।
भयंदर में ही रहने वाले मेरे मार्क्सवादी दोस्त हृदयेश मयंक इसे पूंजीवादी व्यवस्था की देन मानते हैं जहाँ किसी भी अनुत्पादक व्यक्ति या वस्तु का यही हश्र होता है – कूड़े का ढेर। दोस्त की दोस्त जानें लेकिन सच यही है कि इस देश के हर घर में एक अदद बूढ़ा है जो समाज से, जीवन से, परिवार से और अपने आसपास की दुनिया से पूरी तरह रिटायर कर दिया गया है और वह अपने आखिरी दिन अपने शहर में सड़क या रेल की पटरी के किनारे पत्थर–गिट्टियों पर बैठ कर बिताने को मजबूर है।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

मेरा उपन्‍यास देस बिराना विकिसोर्स पर

मित्रो
विकीसोर्स पर बहुत कम हिन्‍दी साहित्‍य उपलब्‍ध है. बेशक बहुत से हिन्‍दी रचनाकारों की स्‍तरीय रचनाएं ब्‍लागों में या इधर उधर बिखरी हुई हैं. हम सब को मिल कर इस बात की कोशिश करनी चाहिये कि हमारा साहित्‍य किसी कॉमन प्‍लेटफार्म पर भी उपलब्‍ध हो. इसी दिशा में एक प्रयास करते हुए आज मैंने अपना उपन्‍यास देस बिराना इस पते पर डाला है -
http://wikisource.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B8_%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE
बेहद पठनीय और सहज भाषा शैली में रचा गया यह मार्मिक उपन्यास एक ऐसे अकेले लड़के की कथा लेकर चलता है जिसे किन्हीं कारणों के चलते सिर्फ चौदह साल की मासूम उम्र में घर छोड़ना पड़ता है, लेकिन आगे पढ़ने की ललक, कुछ कर दिखाने की तमन्ना और उसके मन में बसा हुआ घर का आतंक उसे बहुत भटकाते हैं।
यह अपने तरह का पहला उपन्यास है जो एक साथ ज़िंदगी के कई प्रश्नों से बारीकी से जूझता है। अकेलापन क्या होता है, और घर से बाहर रहने वाले के लिए घर क्या मायने रखता है, बाहर की ज़िंदगी और घर की ज़िंदगी और आगे बढ़ने की ललक आदमी को सफल तो बना देती है लेकिन उसे किन किन मोर्चों पर क्या क्या खोना पड़ता है, इन सब सवालों की यह उपन्यास बहुत ही बारीकी से पड़ताल करता है। इसी उपन्यास से हमें पता चलता है कि भारत से बाहर की चमकीली दुनिया दरअसल कितनी फीकी और बदरंग है तथा लंदन में भारतीय समुदाय की असलियत क्या है। यह उपन्‍यास एमपी3 में ऑडियो में भी उपलब्‍ध है)
सूरज प्रकाश

सोमवार, 31 मार्च 2008

मेरे बचपन का शहर देहरादून

लिखो यहां वहां http://www.likhoyahanvahan.blogspot.com/ में आज पढ़ें मेरे बचपन का शहर देहरादून जो आज भी मेरी सांस सांस में बसता है.
बचपन तो सबका सांझा ही होता है और जब हमें दूसरों के बचपन के जरिये अपने बचपन में झांकने का मौका मिलता है तो हम कह उठते हैं- स्‍साला . . ये ही हम भी करते रहे हैं. . तो लीजिये एक झलक मेरे बचपन की..
सूरज प्रकाश

गुरुवार, 27 मार्च 2008

कैसे मिलती थी शराब अहमदाबाद में

http://kabaadkhaana.blogspot.com/ में आज पढ़ें मेरी एक सरस पोस्‍ट - कैसे मिलती थी शराब अहमदाबाद में.
आपको जरूर नशा आयेगा

सूरज प्रकाश

सोमवार, 24 मार्च 2008

लौट कर आना ही होगा

आज मैं तीन महीने और पन्‍द्रह दिन के बाद पुणे में अपनी नौकरी पर वापिस आ गया हूं. 10 दिसम्‍बर 2007 को दिल्‍ली में हुए सड़क हादसे की वजह से मैं बिस्‍तर पर था और कभी कभार पोस्‍ट पर आ पाता था.
इस पूरे अरसे के दौरान सभी ब्‍लागी मित्रों ने मेरे शीघ्र स्‍वस्‍थ होने के लिए अपनी शुभकामनाएं भेजीं और लगातार मेरा हाल पूछते रहे. मैं आप सब के प्रति आभारी हूं.
ये बेशक एक नया परिवार है लेकिन जिस तरह से बिल्‍कुल अनजान और अ‍परिचित मित्रों और पाठकों ने अपनी शुभकामनाएं भेजीं. उससे बहुत अच्‍छा लगा और ये विश्‍वास जगा कि प्रिंट मीडिया में हमने जो अपने पाठक खो दिये थे, ब्‍लागों की दुनिया उससे सौ गुना ज्‍यादा पाठक ले कर हमारे सामने है. सभी अपने और सभी आपसे संवाद करने के लिए तैयार
एक बार पुनः नमन.
हर सोमवार एक कहानी के साथ मेरे दूसरे ब्‍लाग soorajprakash.blogspot.com पर भी आपका स्‍वागत है.
सूरज प्रकाश

रविवार, 16 मार्च 2008

लघु कथा- कमीशन

उस दफ्तर में ज्‍वाइन करते ही मुझे वहां के सब तौर तरीके समझा दिये गये थे. मसलन छोटे मामलों में कितना लेना है और बड़े मामलों में कितनी मलाई काटनी है. यह रकम किस किस के बीच और किस अनुपात में बांटी जानी है, ये सारी बातें समझा दी गयी थीं. किस पार्टी से सावधान रहना है और किन पार्टियों की फाइलें दाब के बैठ जाना है, ये सारे सूत्र मुझे रटा दिये गये थे.
मैं डर रहा था, ये सब कैसे कर पाऊंगा, अगर कहीं पकड़ा गया या परिचितों, यार दोस्‍तों ने यह बात कहीं सरेआम की दी तो, लेकिन भीतर कहीं खुश भी था कि ऊपर की आमदनी वाली नौकरी है. खूब गुलछर्रे उड़ायेंगे. उधर पिताजी अलग खुश थे कि लड़का सेल्‍स टैक्‍स में लग गया है. हर साल इस महकमे को जो चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है, उससे तो बचेंगे.
सब कुछ ठीक चलने लगा था. मैं वहां के सारे दांव पेंच सीख गया था. बेशर्मी से मैं भी उस तालाब में नंगा हो गया था औरी पूरी मुस्‍तैदी से अपना और अपने से ऊपर वालों का घर भरने लगा था.
तभी पिताजी ने अपनी दुकान की सेल्‍स टैक्‍स की फाइल मुझे दी ताकि केस क्‍लीयर कराया जा सके. हालांकि एरिया के हिसाब से केस मुझे ही डील करना था. लेकिन मेरे साथी और अफसर कहीं गलत अर्थ न ले लें, मैंने वह फाइल अपने साथी को थमा दी ओर सारी बात बता दी.
जब उसने केस अंदर भेजा तो उसे बुलावा आया. वह जब केबिन से निकला तो उसका चेहरा तमतमाया हुआ था. बहुत पूछने पर उसने इतना ही बताया कि बॉस ने केस क्‍लीयर तो कर दिया है, पर यह पूछ रहे थे कि क्‍या ये केस सचमुच तुम्‍हारे पिताजी का है या यूं ही पूरा कमीशन अकेले खाने के लिए उसे बाप बना लिया है.
सूरज प्रकाश

बुधवार, 12 मार्च 2008

न्‍यू यार्क का विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन - माया मिली न राम

विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन जुलाई 07 के तीसरे सप्‍ताह में न्‍यूयार्क में आयोजित किया गया था और जिन लोगों ने उसमें हिस्‍सेदारी की थी, उनके कटु अनुभव अरसे त‍क मीडिया में छाये रहे थे. ये अनुभव हर तरह के थे. अव्‍यवस्‍था से ले कर सम्‍मेलन में भाव न दिये जाने तक, लेकिन जो लोग किन्‍हीं कारणों से वहां नहीं जा पाये थे उनमें से कुछ का अलग ही दुखड़ा है. सम्‍मेलन में हिस्‍सेदारी के लिए मई 07 में विदेश मंत्रालय के हिन्‍दी विभाग में जमा कराये गये चार हजार रुपये मंत्रालय ने अब तक वापिस नहीं किये हैं हालांकि इस संबंध में उन्‍हें समय रहते जून 2008 में ही सूचित किया गया था. पत्र या ईमेल का कोई जवाब नहीं दिया जाता और फोन करने पर यही उत्‍तर मिलता है कि अभी और समय लगेगा और इस समय लगने के पीछे इतनी लम्‍बी कहानी सुनायी जाती है कि आप एसटीडी का बिल बढ़ने के डर से खुद ही फोन काट दें.
कैसा है ये विभाग जिसे पैसे लौटाने जैसे मामूली काम के लिए नौ महीने का समय कम पड़ रहा है.

सूरज प्रकाश, लेखक, अनुवादक और पत्रकार,
एच1/101 रिद्धी गार्डन, फिल्‍म सिटी रोड, मालाड पूर्व मुंबई 97

गुरुवार, 31 जनवरी 2008

बुधवार, 30 जनवरी 2008

प्रत्‍यक्षा जी को कहानी संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई

3 फरवरी 2008 को सवेरे 10 बजे नेशनल म्‍यूजियम, नई दिल्‍ली में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित एक भव्‍य आयोजन में समर्थ युवा लेखिका प्रत्‍यक्षा के कहानी संग्रह जंगल का जादू तिल तिल का लोकार्पण है.

हम सब ब्‍लागी प्रत्‍यक्षा को इस अनूठे सम्‍मान के लिए हार्दिक बधाई देते हैं ओर कामना करते हैं कि इसी तरह से उनकी कहानी की कई किताबें हमें पढ़ने को मिलती रहें.

कार्यक्रम के बाद भोजन का भी प्रबंध है ( आयोजकों की तरफ से)

सोमवार, 28 जनवरी 2008

मोबाइल ने बचाई हमारी जान

10 दिसम्‍बर 2007 की सर्द सुबह थी वह. सवेरे साढ़े पांच बजे का वक्‍त. मुझे फरीदाबाद से नोयडा जाना था राष्‍ट्रीय स्‍तर के एक सेमिनार के सिलसिले में. सेमिनार के आयोजन का सारा काम मेरे ही जिम्‍मे था. पिछली रात मैं मेजबान संस्‍थान के जिस साथी के साथ नोयडा से फरीदाबाद अपने माता पिता से मिलने आया था, अचानक उसका फोन आया कि वह बाथरूम में गिर गया है और उसकी हालत खराब है. बताया उसने कि डॉक्‍टर ने उसे कुछ देर आराम करने के लिए कहा है. जब आधे घंटे त‍क उसका दोबारा फोन नहीं आया तो मैंने ही उससे पूछा कि अब तबीयत कैसी है. उसने बताया कि वह नोयडा तक कार चलाने की हालत में नहीं है. हां, जाना तो जरूर है. मैंने प्रस्‍ताव रखा कि वह घबराये नहीं, मैं ही कार चला लूंगा. उसका घर मेरे पिता जी के घर से 12 किमी दूर था. पहले तय कार्यक्रम के अनुसार वही मुझे लेने आने वाला था लेकिन अब नये हालात में मुझे ही उसके घर या उसके आस पास तक जाना था. हमने मिलने की जगह तय की और मैं अपने पिताजी के साथ उनके स्‍कूटर पर चल पड़ा ताकि कोई ऑटो लिया जा सके. मेरे 82 वर्षीय पिता बहुत जीवट वाले व्‍यक्ति हैं और इस उम्र में भी अपने सारे काम अपने स्‍कूटर पर ही यात्रा करते हुए करते हैं. पता नहीं जिंदगी में पहली बार ऐसा क्‍यों हुआ कि जब मैं उनके पीछे स्‍कूटर पर बैठा तो मुझे लगा कि आज कुछ न कुछ होने वाला है. हमें मथुरा रोड हाइवे तक कम से कम तीन किलोमीटर जाना था. अब तक कोई आटो नहीं मिला था. रास्‍ते पर कोहरा और अंधेरा थे जिसकी वजह से वे बहुत धीमे धीमे स्‍कूटर चला रहे थे. मथुरा रोड हाइवे अभी सौ गज दूर ही रहा होगा कि सड़क पर चलते तेज यातायात को देखते ही कुछ देर पहले अनिष्‍ट का आया ख्‍याल एक बार दोबारा मेरे दिमाग में कौंधा. लगा वह घड़ी अब आ गयी है. मैंने पिताजी को सावधान करने की नीयत से कुछ कहना चाहा और उनके कंधे दबाये.
उसके बाद न तो मुझे होश रहा न उन्‍हें. हम शायद पन्‍द्रह मिनट तक वहीं चौराहे पर बेहोश पड़े रहे होंगे. अचानक पसलियों में तेज, जान लेवा दर्द उठा और मुझे होश आया. मैं सड़क पर औंधा पड़ा हुआ था और दर्द से छटपटा रहा था. मैं समझ गया वो कुघड़ी आ कर अपना काम कर गयी है. मुझे तुरंत पिताजी का ख्‍याल आया लेकिन कोहरे. अंधेरे और अपनी हालत के कारण उनके बारे में पता करना मेरे लिए मुमकिन नहीं था. जब मेरी आंखें खुलीं तो मैंने कई चेहरे अपने ऊपर झुके देखे. मैं कराह रहा था. दर्द असहनीय था इसके बावजूद मैंने अपनी जैकेट की जेब से अपना मोबाइल निकाल कर लोगों के सामने गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया कि कोई मेरे पिताजी के घर पर फोन कर दे. मैं जोर जोर से उनके घर का नम्‍बर बोले जा रहा था. लेकिन शायद वे रात की या सुबह की पाली वाले मजदूर थे. मोबाइल उनके लिए अभी भी अनजानी चीज रही होगी. अंधेरा और कोहरा भी शायद अपनी भूमिका अदा कर रहे थे. कोई भी तो आगे नहीं आ रहा था.
मेरा दर्द असहनीय हो चला था. तभी मेरे फोन की घंटी बजी. और देवदूत की तरह कोई युवक वहां आया. उसने मेरे हाथ से फोन ले कर अटैंड किया. दूसरी तरफ वही साथी थे जो मेरा इंतजार कर रहे थे और देरी होने के कारण चिंता में पड़ गये थे. उसी युवक ने उन्‍हें बताया कि आप जिनका इंतजार कर रहे हैं. वे तो सड़क पर जख्‍मी पड़े हैं. तब उसी युवक ने उनके और मेरे अनुरोध पर पिताजी के घर पर फोन किया. मेरे साथी ने एक अच्‍छा काम और किया कि तुरंत मेरे बड़े भाई के घर पर जा कर इस हादसे की खबर दी और उन्‍हें साथ ले कर घटना स्‍थल तक आया. वह खुद बुरी तरह से घबरा गया था. शायद दस मिनट लगे होंगे कि दोनों तरफ से भाई आ पहुंचे. जब तक हम एस्‍कार्ट अस्‍पताल तक ले जाये जाते. वे आस पास रह रहे सभी नातेदारों को खबर कर चुके थे.
हमें अब तक नहीं पता कि किस वाहन ने हमें किस कोण से टक्‍कर मारी थी. स्‍कूटर हमसे कई गज दूर तीन हिस्‍सों में टूटा पड़ा था. तमाशबीनों ने हमारे ओढ़े हुए
शाल ही हमारे बदन पर डाल दिये थे और शायद हमें सड़क पर किनारे भी कर दिया था. मेजबान संस्‍थान के साथी की तबीयत ज्‍यादा खराब हो गयी थी लेकिन खुद अस्‍पताल भरती होने से पहले नोयडा में अपने संस्‍थान में हादसे की खबर कर दी थी. मुझे तीसरे दिन होश आया, पांच दिन आइसीयू में रहा और पन्‍द्रह दिन अस्‍पताल में. दायें पैर में मल्‍टीपल फ्रैक्‍चर. कुचली हुई पांच पसलियां और दायें कंधे पर भी फ्रैक्‍चर. पिता जी की दोनों टांगों में फ्रैक्‍चर ओर ब्‍लड क्‍लाटिंग. वे हाल ही की सारी बातें भूल चुके हैं. हादसे के बारे में उन्‍हें कुछ पता नहीं. अभी मुझे खुद दो महीने और बिस्‍तर पर रहना है लेकिन वक्‍त बीतने के साथ साथ हम दोनों ठीक हो जायेंगे. जोर का झटका बेशक जोर से ही लगा है लेकिन हम दोनों बच गये हैं.
इस पोस्‍ट के जरिये मैं उन सभी मित्रों, शुभचिंतकों, ब्‍लाग मित्रों के प्रति आभार शब्‍द प्रयोग कर उनके और अपने बीच संबंधों की गरिमा को कम नहीं करना चाहता. सभी ब्‍लागों पर मेरे परिचित और अपरिचित मित्रों की ओर से मेरे शीघ्र स्‍वस्‍थ होने की कामना की खबर मुझे मिलती रही. हिंदयुग्‍म ब्‍लाग के मित्रों ने तो जरूरत पड़ने पर रक्‍त दान के लिए इच्छुक रक्‍त दाताओं की सूची भी तैयार कर ली थी. मैं जानता हूं कि आप सब की प्रार्थनाओं. दुआओं और शुभेच्‍छाओं से हम दोनों जल्‍द ही चंगे हो जायेंगे लेकिन आप सब का प्‍यार मेरे पास आपकी अमानत रहेगा. हमेशा. हमेशा.
मुझे अभी दो महीने और बिस्‍तर पर गुजारने हैं. ज्‍यादा देर तक पीसी पर बैठना मना है. एक हाथ से ये पोस्‍ट टाइप की है. पिता जी भी स्‍वस्‍थ हो रहे हैं. बस, इस बात का मलाल रहेगा कि हम उस अनजान युवक को धन्‍यवाद नहीं कह पा रहे जिसने मेरे हाथ से फोन ले कर हमारे घर तक हादसे की खबर पहुचायी थी और हम बच पाये. प्रसंगवश, उस वक्‍त पिताजी के पास मोबाइल नहीं था और मेरे पुणे के मोबाइल में दर्ज नम्‍बरों से उस अंधेरे और कोहरे में फरीदाबाद का काम का नम्‍बर खोजना इतना आसान नहीं होता.
सूरज प्रकाश 022 28492796