विश्व हिन्दी सम्मेलन जुलाई 07 के तीसरे सप्ताह में न्यूयार्क में आयोजित किया गया था और जिन लोगों ने उसमें हिस्सेदारी की थी, उनके कटु अनुभव अरसे तक मीडिया में छाये रहे थे. ये अनुभव हर तरह के थे. अव्यवस्था से ले कर सम्मेलन में भाव न दिये जाने तक, लेकिन जो लोग किन्हीं कारणों से वहां नहीं जा पाये थे उनमें से कुछ का अलग ही दुखड़ा है. सम्मेलन में हिस्सेदारी के लिए मई 07 में विदेश मंत्रालय के हिन्दी विभाग में जमा कराये गये चार हजार रुपये मंत्रालय ने अब तक वापिस नहीं किये हैं हालांकि इस संबंध में उन्हें समय रहते जून 2008 में ही सूचित किया गया था. पत्र या ईमेल का कोई जवाब नहीं दिया जाता और फोन करने पर यही उत्तर मिलता है कि अभी और समय लगेगा और इस समय लगने के पीछे इतनी लम्बी कहानी सुनायी जाती है कि आप एसटीडी का बिल बढ़ने के डर से खुद ही फोन काट दें.
कैसा है ये विभाग जिसे पैसे लौटाने जैसे मामूली काम के लिए नौ महीने का समय कम पड़ रहा है.
सूरज प्रकाश, लेखक, अनुवादक और पत्रकार,
एच1/101 रिद्धी गार्डन, फिल्म सिटी रोड, मालाड पूर्व मुंबई 97
2 टिप्पणियां:
जय हो हिंदी और हिंदी के ठेकेदारों की
जो लोग काम करने के सरकारी तरीके से वाक़िफ हैं, उन्हें तो इस बात से कोई ताज़्ज़ुब नहीं होना चाहिए. कभी कभी मुझे लगता है कि इस सरकारी लद्धडपन ने ही हमारे देश में निजीकरण का पथ प्रशस्त किया है.
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