रविवार, 16 मार्च 2008

लघु कथा- कमीशन

उस दफ्तर में ज्‍वाइन करते ही मुझे वहां के सब तौर तरीके समझा दिये गये थे. मसलन छोटे मामलों में कितना लेना है और बड़े मामलों में कितनी मलाई काटनी है. यह रकम किस किस के बीच और किस अनुपात में बांटी जानी है, ये सारी बातें समझा दी गयी थीं. किस पार्टी से सावधान रहना है और किन पार्टियों की फाइलें दाब के बैठ जाना है, ये सारे सूत्र मुझे रटा दिये गये थे.
मैं डर रहा था, ये सब कैसे कर पाऊंगा, अगर कहीं पकड़ा गया या परिचितों, यार दोस्‍तों ने यह बात कहीं सरेआम की दी तो, लेकिन भीतर कहीं खुश भी था कि ऊपर की आमदनी वाली नौकरी है. खूब गुलछर्रे उड़ायेंगे. उधर पिताजी अलग खुश थे कि लड़का सेल्‍स टैक्‍स में लग गया है. हर साल इस महकमे को जो चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है, उससे तो बचेंगे.
सब कुछ ठीक चलने लगा था. मैं वहां के सारे दांव पेंच सीख गया था. बेशर्मी से मैं भी उस तालाब में नंगा हो गया था औरी पूरी मुस्‍तैदी से अपना और अपने से ऊपर वालों का घर भरने लगा था.
तभी पिताजी ने अपनी दुकान की सेल्‍स टैक्‍स की फाइल मुझे दी ताकि केस क्‍लीयर कराया जा सके. हालांकि एरिया के हिसाब से केस मुझे ही डील करना था. लेकिन मेरे साथी और अफसर कहीं गलत अर्थ न ले लें, मैंने वह फाइल अपने साथी को थमा दी ओर सारी बात बता दी.
जब उसने केस अंदर भेजा तो उसे बुलावा आया. वह जब केबिन से निकला तो उसका चेहरा तमतमाया हुआ था. बहुत पूछने पर उसने इतना ही बताया कि बॉस ने केस क्‍लीयर तो कर दिया है, पर यह पूछ रहे थे कि क्‍या ये केस सचमुच तुम्‍हारे पिताजी का है या यूं ही पूरा कमीशन अकेले खाने के लिए उसे बाप बना लिया है.
सूरज प्रकाश

6 टिप्‍पणियां:

नितिन | Nitin Vyas ने कहा…

बढिया!

Vibha Rani ने कहा…

achchha lag aapko yahaa dekha kar. aap bhale chnge ho gae, malaaii kaatane ke lie, good!

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

अपनी बात को कहने का आपका सलीका लाजवाब है। मैं आपके इस हुनर को सलाम करता हूँ।

आनंद ने कहा…

बहुत बढ़ि‍या, क्‍या तिरछा काटा है!

विजय गौड़ ने कहा…

kahan tak chupo ke bhai, khoj hi liya.
beech me suna tha ki accident hua, ab kese ho. mssg jarur dena. kambakhat wah samay jisne hamre dehraduniye ko ham se milne se roka

बलराम अग्रवाल ने कहा…

'एक विकल्प यह भी' की तुलना में 'कमीशन' अधिक प्रभावशाली कथ्य और निर्वाह के साथ प्रस्तुत हुई है।